Monday, 18 December 2017

सनातन धर्म के अठारह पुराण

सभी हिंदुओं को जानना चाहिए, सनातन धर्म के अठारह पुराणों के बारे  में,,,

पुराण शब्द का अर्थ है प्राचीन कथा। पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। उन में लिखित ज्ञान और नैतिकता की बातें आज भी प्रासंगिक, अमूल्य तथा मानव सभ्यता की आधारशिला हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है।

पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय हैं। विशेष तथ्य यह है कि पुराणों में देवा-देवताओं, राजाओ, और ऋषि-मुनियों के साथ साथ जन साधारण की कथायें भी उल्लेख किया गया हैं जिस से पौराणिक काल के सभी पहलूओं का चित्रण मिलता है।

महृर्षि वेदव्यास ने 18 पुराणों का संस्कृत भाषा में संकलन किया है। ब्रह्मा विष्णु तथा महेश्वर उन पुराणों के मुख्य देव हैं। त्रिमूर्ति के प्रत्येक भगवान स्वरूप को छः पुराण समर्पित किये गये हैं। इन 18 पुराणों के अतिरिक्त 16 उप-पुराण भी हैं किन्तु विषय को सीमित रखने के लिये केवल मुख्य पुराणों का संक्षिप्त परिचय ही दिया गया है। मुख्य पुराणों का वर्णन इस प्रकार हैः-

1. ब्रह्म पुराण – ब्रह्म पुराण सब से प्राचीन है। इस पुराण में 246 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा आवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ से सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर सिन्धु घाटी सभ्यता तक की कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

2. पद्म पुराण - पद्म पुराण में 55000 श्र्लोक हैं और यह गॅंथ पाँच खण्डों में विभाजित है जिन के नाम सृष्टिखण्ड, स्वर्गखण्ड, उत्तरखण्ड, भूमिखण्ड तथा पातालखण्ड हैं। इस ग्रंथ में पृथ्वी आकाश, तथा नक्षत्रों की उत्पति के बारे में उल्लेख किया गया है। चार प्रकार से जीवों की उत्पत्ति होती है जिन्हें उदिभज, स्वेदज, अणडज तथा जरायुज की श्रेणा में रखा गया है। यह वर्गीकरण पुर्णत्या वैज्ञायानिक है। भारत के सभी पर्वतों तथा नदियों के बारे में भी विस्तरित वर्णन है। इस पुराण में शकुन्तला दुष्यन्त से ले कर भगवान राम तक के कई पूर्वजों का इतिहास है। शकुन्तला दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का नाम जम्बूदीप से भरतखण्ड और पश्चात भारत पडा था।

3. विष्णु पुराण - विष्णु पुराण में 6 अँश तथा 23000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में भगवान विष्णु, बालक ध्रुव, तथा कृष्णावतार की कथायें संकलित हैं। इस के अतिरिक्त सम्राट पृथु की कथा भी शामिल है जिस के कारण हमारी धरती का नाम पृथ्वी पडा था। इस पुराण में सू्र्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास है। भारत की राष्ट्रीय पहचान सदियों पुरानी है जिस का प्रमाण विष्णु पुराण के निम्नलिखित शलोक में मिलता हैःउत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।(साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि वह भूगौलिक क्षेत्र जो उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में सागर से घिरा हुआ है भारत देश है तथा उस में निवास करने वाले सभी जन भारत देश की ही संतान हैं।) भारत देश और भारत वासियों की इस से स्पष्ट पहचान और क्या हो सकती है? विष्णु पुराण वास्तव में ऐक ऐतिहासिक ग्रंथ है।

4. शिव पुराण – शिव पुराण में 24000 श्र्लोक हैं तथा यह सात संहिताओं में विभाजित है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की महानता तथा उन से सम्बन्धित घटनाओं को दर्शाया गया है। इस ग्रंथ को वायु पुराण भी कहते हैं। इस में कैलास पर्वत, शिवलिंग तथा रुद्राक्ष का वर्णन और महत्व, सप्ताह के दिनों के नामों की रचना, प्रजापतियों तथा काम पर विजय पाने के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। सप्ताह के दिनों के नाम हमारे सौर मण्डल के ग्रहों पर आधारित हैं और आज भी लगभग समस्त विश्व में प्रयोग किये जाते हैं।

5. भागवत पुराण – भागवत पुराण में 18000 श्र्लोक हैं तथा 12 स्कंध हैं। इस ग्रंथ में अध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप है। भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य की महानता को दर्शाया गया है। विष्णु और कृष्णावतार की कथाओं के अतिरिक्त महाभारत काल से पूर्व के कई राजाओं, ऋषि मुनियों तथा असुरों की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ में महाभारत युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण का देहत्याग, दूारिका नगरी के जलमग्न होने और यादव वँशियों के नाश तक का विवर्ण भी दिया गया है।

6. नारद पुराण - नारद पुराण में 25000 श्र्लोक हैं तथा इस के दो भाग हैं। इस ग्रंथ में सभी 18 पुराणों का सार दिया गया है। प्रथम भाग में मन्त्र तथा मृत्यु पश्चात के क्रम आदि के विधान हैं। गंगा अवतरण की कथा भी विस्तार पूर्वक दी गयी है। दूसरे भाग में संगीत के सातों स्वरों, सप्तक के मन्द्र, मध्य तथा तार स्थानों, मूर्छनाओं, शुद्ध ऐवम कूट तानो और स्वरमण्डल का ज्ञान लिखित है। संगीत पद्धति का यह ज्ञान आज भी भारतीय संगीत का आधार है। जो पाश्चात्य संगीत की चकाचौंध से चकित हो जाते हैं उन के लिये उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नारद पुराण के कई शताब्दी पश्चात तक भी पाश्चात्य संगीत में केवल पाँच स्वर होते थे तथा संगीत की थि्योरी का विकास शून्य के बराबर था। मूर्छनाओं के आधार पर ही पाश्चात्य संगीत के स्केल बने है।

7. मार्कण्डेय पुराण – अन्य पुराणों की अपेक्षा यह छोटा पुराण है। मार्कण्डेय पुराण में 9000 श्र्लोक तथा 137 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में सामाजिक न्याय और योग के विषय में ऋषि मार्कण्डेय तथा ऋषि जैमिनि के मध्य वार्तालाप है। इस के अतिरिक्त भगवती दुर्गा तथा श्रीक़ृष्ण से जुड़ी हुयी कथायें भी संकलित हैं।

8. अग्नि पुराण – अग्नि पुराण में 383 अध्याय तथा 15000 श्र्लोक हैं। इस पुराण को भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोष (इनसाईक्लोपीडिया) कह सकते है। इस ग्रंथ में मत्स्यावतार, रामायण तथा महाभारत की संक्षिप्त कथायें भी संकलित हैं। इस के अतिरिक्त कई विषयों पर वार्तालाप है जिन में धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद मुख्य हैं। धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद को उप-वेद भी कहा जाता है।

9. भविष्य पुराण – भविष्य पुराण में 129 अध्याय तथा 28000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में सूर्य का महत्व, वर्ष के 12 महीनों का निर्माण, भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षिक विधानों आदि कई विषयों पर वार्तालाप है। इस पुराण में साँपों की पहचान, विष तथा विषदंश सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गयी है। इस पुराण में पुराने राजवँशों के अतिरिक्त भविष्य में आने वाले नन्द वँश, मौर्य वँशों, मुग़ल वँश, छत्रपति शिवा जी तक का वृतान्त भी दिया गया है । सत्य नारायण की कथा भी इसी पुराण से ली गयी है। यह पुराण भी भारतीय इतिहास का महत्वशाली स्त्रोत्र है जिस पर शोध कार्य करना चाहिये।

10. ब्रह्मावैवर्ता पुराण – ब्रह्माविवर्ता पुराण में 18000 श्र्लोक तथा 218 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा, गणेश, तुल्सी, सावित्री, लक्ष्म सरस्वती तथा क़ृष्ण की महानता को दर्शाया गया है तथा उन से जुड़ी हुयी कथायें संकलित हैं। इस पुराण में आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान भी संकलित है।

11. लिंग पुराण – लिंग पुराण में 11000 श्र्लोक और 163 अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा खगौलिक काल में युग, कल्प आदि की तालिका का वर्णन है। राजा अम्बरीष की कथा भी इसी पुराण में लिखित है। इस ग्रंथ में अघोर मंत्रों तथा अघोर विद्या के सम्बन्ध में भी उल्लेख किया गया है।

12. वराह पुराण – वराह पुराण में 217 स्कन्ध तथा 10000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में वराह अवतार की कथा के अतिरिक्त भागवत गीता महामात्या का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस पुराण में सृष्टि के विकास, स्वर्ग, पाताल तथा अन्य लोकों का वर्णन भी दिया गया है। श्राद्ध पद्धति, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन विचरने, अमावस और पूर्णमासी के कारणों का वर्णन है। महत्व की बात यह है कि जो भूगौलिक और खगौलिक तथ्य इस पुराण में संकलित हैं वही तथ्य पाश्चात्य जगत के वैज्ञिानिकों को पंद्रहवी शताब्दी के बाद ही पता चले थे।

13. सकन्द पुराण – सकन्द पुराण सब से विशाल पुराण है तथा इस पुराण में 81000 श्र्लोक और छः खण्ड हैं। सकन्द पुराण में प्राचीन भारत का भूगौलिक वर्णन है जिस में 27 नक्षत्रों, 18 नदियों, अरुणाचल प्रदेश का सौंदर्य, भारत में स्थित 12 ज्योतिर्लिंगों, तथा गंगा अवतरण के आख्यान शामिल हैं। इसी पुराण में स्याहाद्री पर्वत श्रंखला तथा कन्या कुमारी मन्दिर का उल्लेख भी किया गया है। इसी पुराण में सोमदेव, तारा तथा उन के पुत्र बुद्ध ग्रह की उत्पत्ति की अलंकारमयी कथा भी है।

14. वामन पुराण - वामन पुराण में 95 अध्याय तथा 10000 श्र्लोक तथा दो खण्ड हैं। इस पुराण का केवल प्रथम खण्ड ही उप्लब्द्ध है। इस पुराण में वामन अवतार की कथा विस्तार से कही गयी हैं जो भरूचकच्छ (गुजरात) में हुआ था। इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में भी सृष्टि, जम्बूद तथा अन्य सात दूीपों की उत्पत्ति, पृथ्वी की भूगौलिक स्थिति, महत्वशाली पर्वतों, नदियों तथा भारत के खण्डों का जिक्र है।

15. कुर्मा पुराण – कुर्मा पुराण में 18000 श्र्लोक तथा चार खण्ड हैं। इस पुराण में चारों वेदों का सार संक्षिप्त रूप में दिया गया है। कुर्मा पुराण में कुर्मा अवतार से सम्बन्धित सागर मंथन की कथा विस्तार पूर्वक लिखी गयी है। इस में ब्रह्मा, शिव, विष्णु, पृथ्वी, गंगा की उत्पत्ति, चारों युगों, मानव जीवन के चार आश्रम धर्मों, तथा चन्द्रवँशी राजाओं के बारे में भी वर्णन है।

16. मतस्य पुराण – मतस्य पुराण में 290 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मतस्य अवतार की कथा का विस्तरित उल्लेख किया गया है। सृष्टि की उत्पत्ति हमारे सौर मण्डल के सभी ग्रहों, चारों युगों तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास वर्णित है। कच, देवयानी, शर्मिष्ठा तथा राजा ययाति की रोचक कथा भी इसी पुराण में है।

17. गरुड़ पुराण – गरुड़ पुराण में 279 अध्याय तथा 18000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा 84 लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस पुराण में कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का वर्णन भी है। साधारण लोग इस ग्रंथ को पढ़ने से हिचकिचाते हैं क्यों कि इस ग्रंथ को किसी सम्वन्धी या परिचित की मृत्यु होने के पश्चात ही पढ़वाया जाता है। वास्तव में इस पुराण में मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म होने पर गर्भ में स्थित भ्रूण की वैज्ञानिक अवस्था सांकेतिक रूप से बखान की गयी है जिसे वैतरणी नदी आदि की संज्ञा दी गयी है। समस्त योरुप में उस समय तक भ्रूण के विकास के बारे में कोई भी वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी। अंग्रेज़ी साहित्य में जान बनियन की कृति दि पिलग्रिम्स प्रौग्रेस कदाचित इस ग्रंथ से परेरित लगती है जिस में एक एवेंजलिस्ट मानव को क्रिस्चियन बनने के लिय त्साहित करते दिखाया है ताकि वह नरक से बच सके।

18. ब्रह्माण्ड पुराण - ब्रह्माण्ड पुराण में 12000 श्र्लोक तथा पू्र्व, मध्य और उत्तर तीन भाग हैं। मान्यता है कि अध्यात्म रामायण पहले ब्रह्माण्ड पुराण का ही एक अंश थी जो अभी एक प्रथक ग्रंथ है। इस पुराण में ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहों के बारे में वर्णन किया गया है। कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास भी संकलित है। सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ले कर अभी तक सात मनोवन्तर (काल) बीत चुके हैं जिन का विस्तरित वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। परशुराम की कथा भी इस पुराण में दी गयी है। इस ग्रँथ को विश्व का प्रथम खगोल शास्त्र कह सकते है। भारत के ऋषि इस पुराण के ज्ञान को इण्डोनेशिया भी ले कर गये थे जिस के प्रमाण इण्डोनेशिया की भाषा में मिलते है।

हिन्दू पौराणिक इतिहास की तरह अन्य देशों में भी महामानवों, दैत्यों, देवों, राजाओं तथा साधारण नागरिकों की कथायें प्रचिलित हैं। कईयों के नाम उच्चारण तथा भाषाओं की विभिन्नता के कारण बिगड़ भी चुके हैं जैसे कि हरिकुल ईश से हरकुलिस, कश्यप सागर से केस्पियन सी, तथा शम्भूसिहं से शिन बू सिन आदि बन गये। तक्षक के नाम से तक्षशिला और तक्षकखण्ड से ताशकन्द बन गये। यह विवरण अवश्य ही किसी ना किसी ऐतिहासिक घटना कई ओर संकेत करते हैं।

प्राचीन काल में इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। इतिहास लिखने का कोई रिवाज नहीं था और राजाओ नें कल्पना शक्तियों से भी अपनी वंशावलियों को सूर्य और चन्द्र वंशों से जोडा है। इस कारण पौराणिक कथायें इतिहास, साहित्य तथा दंत कथाओं का मिश्रण हैं।

रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं जिन को केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोधकरना होगा|

Saturday, 9 December 2017

ब्राह्मणों ने सगर्भमंत्र जप का आश्रय लिया

All World Gayatri Pariwar 🔍 PAGE TITLES March 1960 ब्राह्मण की कामधेनु गौ-गायत्री (पं .श्रीराम शर्मा आचार्य) यों तो गायत्री मन्त्र मानव मात्र के लिए उपास्य एवं कल्याण कारक है, उसकी शरण में जाने पर सभी का कल्याण होता है, पर जो लोग ब्रह्म परायण हैं, जिन्होंने अपनी सात्विक प्रवृत्तियों को जागृत करके ब्राह्मणत्व प्राप्त किया है, उनके लिए गायत्री परम कल्याण कारिणी है। एक उत्तम औषधि सभी को लाभदायक होती है पर जिनका पेट साफ होता है उन्हें वह तत्काल गुण दिखाती है। अपच के कारण जिनका पेट खराब है, उन्हें वही दवा कम लाभ पहुँचावेगी, देर में असर करेगी। गुणकारी इंजेक्शन भी जिनका खून खराब है, उन्हें इतना लाभ नहीं पहुँचाते जितना शुद्ध रक्त वालों को। इसमें दवा का कोई पक्षपात नहीं है और न इस बात का निषेध है कि जिन्हें अपच हो या खून खराब हो वे दवा या इंजेक्शन लें ही नहीं। ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है। पर स्पष्ट बात यह है कि जिनकी आत्मा में सतोगुण की मात्रा अधिक है, उन्हें गायत्री उन लोगों की अपेक्षा बहुत अधिक, बहुत शीघ्र लाभ पहुँचाती है जिनमें दुर्गुण और कुविचार भरे हुए हैं। सद्भावना युक्त व्यक्ति ब्राह्मण कहे जाते हैं, जिनमें ब्राह्मण मौजूद है उनके लिए गायत्री परम् जप है, परम साधन है, इस साधन का आश्रय लेकर वे अपना लोक परलोक बड़ी सरलता पूर्वक सुख शान्ति मय बना सकते हैं। उनके लिए यह गायत्री माता इतनी दयालु और दानी सिद्ध होती है जितनी शरीर को जन्म देने वाली परम करुणामयी माता भी नहीं हो सकती। कहा भी है -- सर्व वेदमयी विद्या गायत्री पर देवता। परस्य ब्रह्मणो माता सर्व वेदमयी सदा। महाभाव मयी नित्या सच्चिदानन्द रूपिणी। अर्थात्- गायत्री सर्व वेदमयी परा विद्या है। यही ब्राह्मण की माता है। यही नित्य सच्चिदानन्द स्वरूप तथा महा भावमयी भी है। गायत्री वेद जननी गायत्री ब्राह्मणः प्रसूः। गातारं त्रायते यस्माद् गायत्री तेन गीयते। स्कंध पुराण - 9/51 गायत्री वेदों की माता है, गायत्री ब्राह्मण की माता है। यह गायन करने वाले का त्राण - उद्धार करती है इसलिए गायत्री कहते हैं। किं ब्राह्म्णस्यपितरं किगु पृच्छसि मातरं। श्रुतं चेदस्मिन् वेद्यंस पिता स पितामहः। काठक संहिता 30।1 यह क्यों पूछते हो कि ब्राह्मण का बाप कौन है? माता कौन है? श्रुत (ब्रह्मज्ञान) ही उसका बाप और वही बाबा हैं। ओंकार पितृ रूपेण गायत्री मातरं तथा। पितरौ यो न जानाती स विप्रस्त्वन्यरेतसः। ॐ कार को पिता और गायत्री को माता रूप में जो नहीं जानता, वह ब्राह्मण वर्ण शंकर है। ब्राह्मण की माता गायत्री और पिता वेद है। कहा भी है : - मातात्वं च कुतः कस्य पिता कस्मात्समुद्भवः। कुलात्कस्य समुत्वन्नं इदं ब्रह्मीति ब्राह्मणः। गायत्री मन्तुमेवं तं पिता वेदोपि संभवः। ब्रह्म कुल समुत्पन्नं इदं ब्रह्मीति ब्राहम्णाः॥ अर्थात् - मेरी माता कौन? पिता कौन? कुल कौन है? इसे जो जानता है वह ब्राह्मण है। गायत्री ही माता है, वेद ही पिता है, ब्रह्म ही कुल है, जो इस तत्व को जानता है, वही ब्राह्मण है। ब्राह्मण के जीवन का लक्ष आत्मबल एवं ब्रह्मतेज को प्राप्त करना होता है। वह जानता है कि संसार में जो कुछ उत्तम है वह सभी आत्मबल और ब्रह्मतेज उपलब्ध करने पर प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए वह सम्पूर्ण आनन्दों के लिए वेद जननी गायत्री का ही आश्रय लेता है। तेजो वै ब्रह्मवर्चसं गायत्री, तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्वी भवति। - ऐतरेय ब्राह्मण अर्थात्-गायत्री में जो तेज है वही ब्रह्मवर्चस है। इससे उपासक तेजस्वी और ब्रह्म वर्चस्वी हो जाता है। जिसने ब्रह्म वर्चस प्राप्त किया उसके लिए गायत्री साक्षात् कामधेनु गौ के सामान है। उसे इसी महाशक्ति के द्वारा अपनी अभीष्ट कामना पूर्ण करने वाले वरदान मिल जाते हैं। इसलिए गायत्री को वरदात्री कहा गया है। उसे परमदेवी भी कहते है। यों सभी दैवी शक्तियाँ ‘देवी’ कहलाती हैं। पर अन्य दिव्य शक्तियों की सीमा थोड़ी-थोड़ी है। वे उपासना करने पर मनुष्य का सीमित कल्याण करती हैं। किन्तु गायत्री के लिए ऐसा कोई सीमा बन्ध नहीं है, उसके गर्भ में समस्त शक्तियाँ सन्निहित होने से परम देवी कही जाती है। सच्चे मन से उपासना करके यदि उसका थोड़ा सा भी अनुग्रह प्राप्त किया जा सके तो साधक उस परम गति को प्राप्त कर लेता है जिसके कारण लोक में सुख और परलोक में अभीष्ट शान्ति प्राप्त होती है। कहा भी है :-- वंदे ताँ पणाँम देवीं गायत्री वरदाँ शुभाम्। यत्कृपालेशतो यान्ति द्विजा वै परमाँ गतिम्। उस वरदात्री परम देवी गायत्री को नमस्कार है जिसकी लेश मात्र कृपा से द्विज परम गति को प्राप्त होते हैं। ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व बहुत कुछ गायत्री उपासना पर निर्भर रहता है क्योंकि जो सद्गुण सामान्य लौकिक प्रयत्न करने पर बहुत कठिनाई से प्राप्त होते हैं वे इस उपासना के माध्यम से स्वयमेव विकसित होने लगते हैं और उन अन्तः स्फुरणाओं के जागरण से उसका ब्रह्मणत्व दिन-दिन सुदृढ़ होता जाता है। आत्मा में पवित्रता का अंश दिन-दिन बढ़ता जाता है। जपनिष्ठो द्विज श्रेष्ठो ऽखिल यज्ञ फलं भवेत्। सर्वेषामेव यज्ञानाँ जायते ऽसौ महाफलः॥ जपेन देवता नित्यं स्तूयमाना प्रसीदति। प्रसन्ना विपुलान् कामान् दयान्मुक्तिंच शाश्वतीम। यक्षरक्षः पिशाचाश्च ग्रहाः सर्पाश्च भीषणाः। जपिनं नोयसर्पन्ति भयभीताः समन्ततः। यावन्तः कर्मयज्ञाः स्युः प्रदिष्ठानि तपाँसि च। सर्वे ते जप यज्ञस्य कलाँ नार्हति षोडशीम्। - तंत्र सार अर्थात्-जप निष्ठ द्विज सब यज्ञों के फल को प्राप्त करता है। उस पर देवता प्रसन्न होते हैं और उनकी प्रसन्नता से लोक में सुख तथा परलोक में मुक्ति प्राप्त होती है। आसुरी शक्तियाँ उसे भयभीत नहीं करतीं। अन्य सभी साधना कर्मों में जप यज्ञ अधिक फल दायक एवं श्रेष्ठ है। जिस प्रकार जड़ को सींचने से पत्र, पल्लव, पुष्प, फल आदि सभी की प्राप्ति हो जाती है। उन सबके लिए अलग-अलग प्रयत्न नहीं करना पड़ता, उसी प्रकार गायत्री साधना में अन्य सभी साधनाओं द्वारा हो सकने वाले लाभ प्राप्त हो जाते हैं। जप्यवेनैवतुसंसिद्धचेत् ब्राह्मणोनात्र संशयः। कुर्यादन्यन्नवा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते। मनु 2। 97 अर्थात्- ब्राह्मण चाहे कोई अन्य उपासना करे या न करे वह केवल गायत्री मन्त्र से ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है। गायत्री सामुपासीनो द्विजो भवति निर्भयः। -शिव तत्व विवेक गायत्री की भली प्रकार उपासना करने से द्विज निर्भय हो जाते हैं। यों दैनिक “पंच यज्ञो” को लौकिक नियम धर्मों में आवश्यक नित्यकर्म माना गया है और प्रतिदिन ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ, भूत यज्ञ, अतिथि यज्ञ, इन पाँच यज्ञों का करना सभी के लिए विधान है। पर आध्यात्मिक दृष्टि में अकेले गायत्री जप में पाँच यज्ञों का समावेश है। गायत्री के पाँच अंग भी पाँच ब्रह्म यज्ञ कहे गये हैं। नित्य इस उपासना के करने से पाँचों दैनिक यज्ञों का फल प्राप्त होता है। प्रणवो व्याहृतयः सावित्रि चेत्यैत पंच ब्रह्मयज्ञ। अहरह ब्राह्मिणं किल्विषात्मा वयन्ती। वोधायनस्मृति एक प्रणव, तीन व्याहृति और गायत्री मन्त्र यही पाँच ब्रह्म यज्ञ हैं। इनकी निरन्तर उपासना करने वाला ब्राह्मण पवित्र हो जाता है। प्राचीन काल में अनेक साधकों ने इसी उपासना के द्वारा मानव जीवन की सफलता का सर्वोच्च प्रतीक ‘ब्रह्मर्षि’ पद पाया। इतना ही नहीं देवताओं ने भी इसी महामन्त्र की शक्ति से असुरों को परास्त कर अपना देवत्व स्थिर रखा। वृद्धैः काश्यप गौतम प्रभृतिभि भृर्ग्वंगिरोत्र्यादिभिः शुक्रागस्त्य बृहस्पति प्रभृतिभिर्ब्रह्मर्षिभिः सेवितम्॥ भारद्वाजयतं ऋषीक तनयेः प्राप्तं वशिष्ठात पुनः। सावित्री मधि गम्य शक्र वसुभिः कृत्स्ना जिता दानवाः। अर्थात्- इस गायत्री की उपासना करके वृद्ध काश्यप्, गौतम, भृगु, अंगिरा, अत्रि भारद्वाज बृहस्पति, शुक्राचार्य, अगस्त, वशिष्ठ आदि ने ब्रह्मर्षि पद पाया और इन्द्र, वसु आदि देवताओं ने असुरों पर विजय प्राप्त की। इत्येवं संधिचार्याथ गायत्री प्रजपेत्सुधीः आदि देवीं च त्रिपदा ब्राह्मणत्वादिदामजाम्। शि. कै. 13-57 इन बातों पर विचार कर ब्राह्मण को चाहिए कि ब्राह्मणत्व प्रदान करने वाली गायत्री का जप किया करें। बहुनाकिम होक्तेन यथावत् साधु साधिता। द्विजन्मनामियं विद्या सिद्धि काम दुधा मता। - शारदायाँ अर्थात्- अधिक कहने की क्या आवश्यकता है। भली प्रकार साधना की हुई यह गायत्री विद्या द्विजों के लिए कामधेनु के समान सब सिद्धियों को देने वाली है। इस कामधेनु का दूध ही इस जगती तल का ‘परम् रस’ कहलाता है। इसी को ब्रह्मानन्द कहते हैं। इससे मधुर आनन्द दायक और उल्लास भरी मादक वस्तु और कोई इस संसार में नहीं है। जिसे इस कामधेनु का दूध पीने को मिल गया, उसके सभी अभाव दूर हो जाते हैं, कोई वस्तु ऐसी नहीं रहती जो उसके कर-तल-गत न हो। ऐसा ब्रह्म सिद्धि प्राप्त गायत्री उपासक अपने आपको सर्व संतुष्ट, सर्व सुखी अनुभव करता है। उसके आन्तरिक आनन्द एवं उल्लास का ठिकाना नहीं रहता। ब्रह्मानंद रसं पीत्वा ये उन्मत्त योगिनः। इन्द्रोऽपि रंक बद्भा का कथा नृप कीटकः। ब्रह्मानन्द रूपी परम रस को पीकर योगी जन आनंद मग्न उन्मत्त हो जाते हैं। उनके सामने इन्द्र रंक प्रतीत होता है फिर साधारण राजा अमीर जैसे कीड़े-मकोड़ों की तो बात ही क्या है। gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp Months  अखंड ज्योति कहानियाँ See More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. It's a modern adoption of the age old wisdom of Vedic Rishis, who practiced and propagated the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam. Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era. Contact Us Address: All World Gayatri Pariwar Shantikunj, Haridwar India Centres Contacts Abroad Contacts Phone: +91-1334-260602 Email:shantikunj@awgp.org Subscribe for Daily Messages

Thursday, 30 November 2017

एक क्षण भी ऐसा न जाने पाये

[30/11, 10:11 AM] ‪+91 99834 47956‬: 🙏💐🙏💐🙏💐🙏💐🙏💐

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एक क्षण भी ऐसा न जाने पाये की जिसमें भगवान की याद न हो,भगवान की प्राप्ति के लिए हर मुसीबत को सह लो तो वो हो गयी तपस्या।भगवान जब मिलेंगे तब जो आनंद होगा वो संसार के किसी धन,वस्तु या व्यक्ति से संभव नहीं है।अतः लग जाओ उस श्रेष्ठतम की ओर।

माँ के विरह में वेदना की अनुभूति अगर बच्चे को सहज ही होती है तो भगवान के विरह में वेदना की अनुभूति भक्त को भी उतनी ही सहज होती है।

अधम से अधम व्यक्ति भी भगवान को माने यह हो सकता है किन्तु भगवान की आज्ञा माननेवाले तो विरले ही होते हैं।

 सबके हृदय में ईश्वर का वास है अतः किसी के साथ भी वैरभाव न रखे l  दूसरों के साथ वैर भाव रखने वाले व्यक्ति अपने ही साथ वैर भाव  करता है l जैसी भावना आप दूसरों के लिए रखोगे वैसी ही भावना वे आप के लिए रखेंगे l किसी भी जीव के प्रति रखा गया कुभाव ईश्वर के प्रति रखा गया कुभाव है l मनुष्य जब तक निर्मत्सर ना बने तब तक उसका उद्धार नहीं होता l मन में मत्सर मत रखो l मत्सर करने वालों के इह लोक और परलोक दोनों बिगड़ते हैं l मन से मत्सर  निकाल दोगे तो मनमोहन का स्वरूप मन में सुदृढ़ होगा

       🌷🌹💐🌺🌷🌹💐🌺 

          🌹🌷 हरि ॐ 🌷🌹

         🙏🙏💐🌺🌹🙏🙏

             
[30/11, 10:16 AM] ‪+91 99834 47956‬: 🌷मानस में *भगवान शिव* कहते हैं कि --

*"उमा कहूं मैं अनुभव अपना ,सत हरि भजन जगत सब सपना"*
अर्थात् भगवान शिव कहते हैं की हरि का भजन ही सत्य है-- यानि वास्तविक ज्ञान भी यही है की हरि का भजन किया जाए--ओर जो लोग भजन नही करते उन्हें पुराणों में पशु समान कहा गया है--

*"ज्ञानशून्या नरा ये तु पशव: परिकीर्तिता:"*

अर्थात् जो मनुष्य वास्तविक ज्ञान यानि जो मनुष्य भजन नही करता वो पशु समान है।

*क्योंकि पशु भी भजन नही करते*

खाना-पीना,सोना-जागना,घर बनाना,बच्चे पैदा करना यह सब कार्य एक जानवर भी करता हैं।

*अगर मनुष्य देह पाकर भी मनुष्य सारा जीवन यही काम करता रहेगा तो मनुष्य और पशु मे कोई अंतर नही रहा*--

कहा भी गया हैं कि -

"आहार निद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्--
धर्मो हि तेषामधिको विशेष:
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः"

*अर्थात् धर्म से हीन मनुष्य पशु समान हैं*

इस मानव देह की बहुत महिमा है-- देवताओं ने यह नही कहा की प्रभु हमें पशु बना दो ।

देवता केवल यही प्रार्थना करते हैं की प्रभु हमे मनुष्य देह दे दीजिये।

नारद पुराण मे कहा गया --

*"दुर्लभ मानुषं जन्म ,प्राथ्यते त्रिदशैरपि"*

अर्थात् इस दुर्लभ मानव देह को देवता लोग भी चाहते हैं क्योंकि इस देह से हम वास्तविक आनंद प्राप्त कर सकते हैं।

इस मानव देह से ही हम भगवान के सन्मुख हो सकते हैं क्योंकि

*"विमुख राम सुख पाव न कोई"*

भगवान से विमुख होकर जीव को कभी सुख नही मिल सकता

इसलिए इस मानव देह में ही मनुष्य भगवान के सन्मुख होने का *ज्ञान/ विवेक* प्राप्त कर सकता है और अनंतकाल के लिए आनंद प्राप्त कर सकता है-- पशु इस विवेक को प्राप्त नही कर सकते-- केवल मानव देह से ही ये वास्तविक विवेक प्राप्त होता है।🌷

हरे कृष्ण 🙏
*श्री कृष्ण सदैव आपकी स्मृति में रहें!!*
[30/11, 10:16 AM] ‪+91 99834 47956‬: ‼🙌‼
*मनुष्य की चाल धन से भी बदलती*
*है और धर्म से भी बदलती है..*

*जब धन संपन्न होता है तब अकड़*
*कर चलता है, और जब धर्म संपन्न होता है,*
*तो विनम्र होकर चलता है..!!*
*जिंदगी भले छोटी देना मेरे भगवन्..*
*मगर देना ऐसी -*,
*कि सदियों तक लोगो के दिलों मे -*
*जिंदा रहूँ और हमेशा अच्छे कर्म कर सकूं..!!*
      *🌹😊🙏🏻सुप्रभात🙏🏻😊 🌹*
*🙏🏻🌹आपका दिन मंगलमय हो*🙏🏻🌹
[30/11, 10:20 AM] ‪+91 99834 47956‬: *" मृत्यु अटल है। "*

*" जीवन यज्ञ में मनुष्य की अंतिम आहुति उसका शरीर है जो कि चिता की यज्ञवेदी पर आहूत किया जाता है। हम प्रयत्न करें कि इस अंतिम आहुति के समय हमारे चरित्र पर कोई दाग न रहे, हमारे हाँथ किसी के रक्त से लाल न हुए हों, हमारे पैरों में लोभ और मोह की बेड़ियाँ न पड़ें, हमारे पेट में किसी दूसरे के हिस्से की रोटी न हो, हमारे कानों में हमारे किये गए क्रूर कर्मों की प्रतिध्वनियाँ न गूँजें, हमारी स्वांस में प्रभु का स्मरण रहे और हमारी आँखों में संसार के प्रति अथाह प्रेम और करुणा रहे।"*
*" कब जाना है? कहाँ जाना है? कैसे जाना है? यह आज तक कोई जान न पाया, क्योंकि मौत कभी रिश्वत नही लेती।"*
🚩
[30/11, 10:20 AM] ‪+91 99834 47956‬: अमर योगी महाराजा भर्तृहरि !

सत्यं जन वच्मि न पक्षपाता
ल्लोकेषु सर्वेषु च तथ्यमेतत्
नान्यन्मनोहरि नितम्बनीभ्यो
दुःखैकहेतुर्न च कश्चिदन्यः।।

सार है कि बिना भेदभाव के यह सच
है कि सारी लोकों में सारे सुखों की जड़
कामिनी स्त्री को छोड़कर कोई अन्य स्त्री
नहीं है।
किंतु यही स्त्री कई दुःखों की वजह भी
बनती है।

प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (नूतन संवत्सर)
पर हम राजा विक्रमादित्य और उनकी गौरव
गाथा याद करते हैं; पर उनके बड़े भाई
महाराजा भर्तृहरि की कथा भी अत्यन्त
प्रेरक है।

यदि भर्तृहरि वैरागी न बनते, तो न राजा
विक्रमादित्य होते और न उनकी गौरव
गाथाएं।

सूर्यवंशी भर्तृहरि का जन्म क्षिप्रा के तट
पर स्थित ऐतिहासिक नगर अवन्तिका
(उज्जैन) में हुआ था।

वे रघुकुलभूषण श्रीराम के छोटे
भाई लक्ष्मण के पुत्र मालव के
कुल में जन्मे थे,
जिनके नाम पर यह क्षेत्र मालवा
कहलाता है।

उनके पिता गंधर्वसेन या चंद्रसेन की
पहली पत्नी से भर्तृहरि तथा मैनावती
और दूसरी से विक्रमादित्य का जन्म
हुआ था।

नामकरण के समय कुल पुरोहित ने
कहा कि 17वें वर्ष में इसका विवाह
होगा; पर 18वें वर्ष में यह उत्तर दिशा
के जंगल में सफेद घोड़ी पर बैठकर
काले हिरण का शिकार करेगा।

इससे इसके मन में वैराग्य उत्पन्न होगा
और यह योगी बन जाएगा।

राजा भर्तृहरि न्याय,नीति,धर्मशास्त्र,
भाषा,व्याकरण के विद्वान होने के
साथ प्रजा और प्रकृति को भी
चाहने वाले थे।
वे धर्म विरोधियों को कड़ी सजा देने
से नही चूकते थे।

वे धर्मनिष्ठ, दार्शनिक व अमरयोगी भी
माने जाते हैं।

राजा-रानी की चिंताओं के बीच भर्तृहरि
ने गुरुकुल में शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा
पाई और 16वें वर्ष में घर वापस आकर
वे राजा बने।

शासन व्यवस्था अति उत्तम होने के कारण
उनका राज्य एक आदर्श राज्य बन गया।

राजा भर्तृहरी ज्ञानी और 2 पत्नियां होने
के बावजूद भी पिंगला नाम की अति सुंदर
राजकुमारी पर मोहित हुए। 

17 वें वर्ष में सिंहल देश की राजकुमारी
पिंगला से उनका विवाह हुआ।
राजा ने पिंगला को तीसरी पत्नी बनाया।
पिंगला के रूप-रंग पर आसक्त राजा
विलासी हो गए।

यहां तक कि वे पिंगला में मोह में उसकी
हर बात को मानते और उसके इशारों पर
काम करने लगे।

विवाह होते ही भर्तृहरि का मन राजकाज
से उचट गया और वे दिन-रात पत्नी के
साथ भोग में रम गये।किंतु इसका फायदा
उठाकर पिंगला भी व्यभिचारी हो गई और
घुड़साल के रखवाले से ही प्रेम करने लगी।

आसक्त राजा इस बात और पिंगला के
बनावटी प्रेम को जान ही नहीं पाए।

उनके भोग-विलास में लिप्त रहने से
राज्य का भार छोटे भाई विक्रमादित्य
पर आ गया।

उन्होंने कई बार बड़े भाई को समझाया;
पर भर्तृहरि काम के प्रभाव में थे।
दोनों पत्नियों के साथ भर्तृहरि राजकाज
को पूरी तरह भूल गये।

जब छोटे भाई विक्रमादित्य को यह बात
मालूम हुई और उन्होंने बड़े भाई के सामने
इसे जाहिर किया।

इतना ही नहीं,अनंगसेवा की झूठी शिकायत
पर उन्होंने विक्रमादित्य को राज्य से निकाल
दिया।

(इस बात पर मतभेद है कि विक्रमादित्य
को अनंगसेवा के कहने पर निकाला गया
या पिंगला के कहने पर)

ऐसा कहते हैं कि भर्तृहरि पूर्व जन्म में
योगी थे।

एक बार देवलोक में गोरखनाथ से उनके
गुरु मच्छेन्द्रनाथ ने कहा कि भर्तृहरि इस
जन्म में योग की बजाय भोग में लिप्त हो
गया है।

अतः उसे फिर से योगी बनाना है।
गुरु की आज्ञा मानकर गोरखनाथ वेष
बदलकर भर्तृहरि के राज्य में आये और
उनकी अश्वशाला(घुडसाल) के प्रमुख
बन गये।

एक बार एक संन्यासी ने राजा भर्तृहरि
को एक अमरफल देकर कहा कि इसे
खाने वाला सदा युवा बना रहेगा।

राजा उन दिनों अनंगसेवा के साथ
अधिक रहते थे।
उन्होंने सोचा कि यदि यह फल अनंगसेवा
खाएगी,तो वह चिरयुवा रहकर मुझे तृप्त
करती रहेगी।
अतः उन्होंने वह फल उसे दे दिया। 
पर रानी अनंगसेवा राजा से पूर्ण संतुष्ट
नहीं थी।
वह उनके सारथी चंद्रचूड़ से प्रेम
करती थी।

उसने फल चंद्रचूड़ को दे दिया।
चंद्रचूड़ एक वेश्या का प्रेमी था,
उसने फल वेश्या को दे दिया।
इधर भर्तृहरि भी यदाकदा उस
वेश्या के पास जाते थे।

अगले दिन जब वह वहां गये, तो
वेश्या ने फल भर्तृहरि के हाथ में
रख दिया।  
फल देखकर भर्तृहरि के होश उड़ गये।

उन्होंने तलवार निकाली तो वेश्या,
चंद्रचूड़ और अनंगसेवा की पूरी कथा
सामने आ गयी।
इससे अनंगसेवा को इतनी आत्मग्लानि
हुई कि उसने आत्मदाह कर लिया।

राजा इससे उदास रहने लगे।
एक बार मन बहलाने के लिए वह शिकार
को गये।
वहां उनके साथी ने एक हिरन को मारा;
पर उसी समय वह स्वयं भी सर्पदंश से
मर गया।

उसकी पत्नी अपने पति के साथ चिता
पर चढ़ गयी।
जब राजा ने यह घटना पिंगला को बताई,
तो उसने कहा कि साध्वी नारी पति की
मृत्यु की बात सुनते ही प्राण छोड़ देती है।

यह बात राजा के मन में बैठ गयी। 
फल वाली घटना और अनंगसेवा की
मृत्यु से भर्तृहरि का मन राजकाज से
उचट गया।

इससे राज्य की हालत बिगड़ने लगी।
ऐसे में उन्हें फिर अपने भाई की याद
आई।
उन्होंने प्रयासपूर्वक अपने भाई को ढूंढा
और उसे फिर राजकाज संभालने को
कहा।

इधर राजा अपना अधिकांश समय
पिंगला के महल में बिताने लगे।
उसके साथ रहकर राजा को अनुभव
हुआ कि वह कितनी सात्विक,उदार
और बड़े हृदय की नारी है।
इससे वे आत्मग्लानि में डूब गये। 

अंततः राजा के जीवन का 18 वां वर्ष
प्रारम्भ हो गया।
राजा उस दिन सुबह से ही शिकार की
तैयारी कर रहे थे।

रानी पिंगला को पुरोहित की भविष्यवाणी
मालूम थी।
अतः उसने यह प्रसंग टालना चाहा;
पर विधि का विधान कौन टाल
सकता है ?

अश्वशाला के प्रमुख ने सफेद घोड़ी
तैयार कर दी।
राजा मानो किसी डोर से बंधे उत्तर
दिशा में ही शिकार के लिए चल दिये। 

जंगल में राजा ने देखा कि बहुत से
हिरनियों के बीच एक काला नर हिरन
विद्यमान है।

राजा के धनुष चढ़ाते ही हिरनियों ने
उनसे झुंड के एकमात्र नर को न मारने
की प्रार्थना की;
पर राजा ने तीर चला दिया।
यह देखकर हिरनियों ने भी एक-एक
कर उसके पास आकर प्राण त्याग दिये। 
राजा यह देखकर भौचक रह गया।

मरते हुए हिरन ने राजा से कहा कि वे
उसकी खाल गोरखनाथ जी को तथा
सींग किसी जोगी को दे दें,जिससे बनी
सेली (सींगवाद्य) बजाकर वह सबको
राजा भर्तृहरि के पाप की कहानी सुनाएं।

राजा उस हिरन के वचन सुनकर तथा
हिरनियों का प्रेम देखकर दंग रह गया।
उसे लगा कि उसने पूर्वजन्म के किसी
बड़े धर्मात्मा की हत्या कर दी है।

तभी वहां योगी गोरखनाथ जी का
आगमन हुआ।
राजा की प्रार्थना पर उन्होंने भभूत
डालकर हिरन और हिरनियों को
जीवित कर दिया।

अब राजा ने भी उनसे दीक्षा लेनी चाही।
गोरखनाथ ने कहा कि दीक्षा तभी मिल
सकती है, जब इस जन्म के साथ ही
पूर्व जन्मों की आसक्ति भी मिट जाए।
इसके लिए तुम राजसी वस्त्र त्यागकर
अपने महल में जाओ और रानी पिंगला
को मां कहकर भिक्षा लाओ।  

गोरखनाथ जी की आज्ञानुसार भर्तृहरि
अपने महल में जाकर मां पिंगला से
भिक्षा मांगने लगा।
पिंगला ने उन्हें बहुत समझाया;
पर राजा तो वैराग्य की गंगा में नहा
रहा था।
इस अवसर पर भर्तृहरि और पिंगला
का संवाद बहुत मार्मिक है।

काफी देर बाद पिंगला ने उसे भिक्षा में
अपना सौभाग्य चिन्ह दे दिया।
उसका विचार था कि इससे राजा के मन
में जमी वासनाएं फिर से नहीं उभरेंगी। 

अब गोरखनाथ जी ने उसे अपनी बहिन
मैनावती के घर से भिक्षा लाने को कहा।

मैनावती ने उसे साधारण जोगी समझकर
दासी के हाथ से भिक्षा भेजी; पर भर्तृहरि
ने रानी मैनावती के हाथ से ही भिक्षा लेने
की जिद की।
इस पर उसने बाहर आकर अपने भाई को
भिक्षा दी।
यहां उन दोनों में जगत की निःसारता पर
रोचक एवं ज्ञानवर्धक संवाद हुआ।
बहिन के आग्रह पर भर्तृहरि ने वचन दिया
कि वह जब भी याद करेगी,
वह उससे मिलने आएंगे।  

अब गोरखनाथ जी ने भर्तृहरि को
अरावली की गुफाओं में तप करने
को कहा।

भर्तृहरि को पिंगला की वह बात याद
थी,जो उसने राजा के एक साथी की
सर्पदंश से मृत्यु पर कही थी कि साध्वी
स्त्री अपने पति की मृत्यु का समाचार
सुनते ही देह त्याग देती है।  

भर्तृहरि ने इसकी परीक्षा करने के लिए
सेवक को खून में सने अपने राजसी वस्त्र
देकर पिंगला के पास भेजा।

सेवक ने रानी को बताया कि उनकी बातों
पर विचार करने से भर्तृहरि का वैराग्य
छूट गया।
वे राजसी वस्त्र पहनकर वापस आ रहे थे
कि एक शेर ने हमलाकर उन्हें मार डाला।

यह सुनते ही रानी के दाहिने पैर के अंगूठे
से अग्नि प्रकट हुई,जिससे कुछ ही समय
में उन रक्तरंजित वस्त्रों के साथ उसकी देह
भस्म हो गयी। 

अब तो राजा के मन के सब बंधन कट गये।
उन्होंने गोरखनाथ जी को सब बात बताई।

गोरखनाथ जी ने भर्तृहरि के साथ महल में
जाकर श्रद्धाभाव से रानी की भस्म माथे पर
लगाई तथा नाथ संप्रदाय की दीक्षा देकर
भर्तृहरि के कान में कुंडल पहना दिये।

इस प्रकार गोरखनाथ ने अपने गुरु को
दिया वचन पूरा कर दिया।   

अब योगी भर्तृहरि ने देश भ्रमण करते
हुए कई स्थानों पर तपस्या की।
प्रयाग के कुंभ में उनकी भेंट अपने भानजे
गोपीचंद से हुई।
वह भी उस समय योगी हो चुका था।

कुंभ के बाद दोनों अलवर के पास
त्रिगर्तनगर (तिजारा) में लगातार
बारह वर्ष तक रहे।

यहां थानाभक्त नामक कुम्हार ने उनके
भोजनादि की व्यवस्था की; पर इससे
उसकी पत्नी बहुत रुष्ट हो गयी।
अतः कुम्हार की अनुपस्थिति में वे उसे
भरपूर धन देकर चले गये।
तिजारा में स्थित भर्तृहरि गुम्बज उनकी
स्मृति को चिरस्थायी बनाये है।
  
इसके बाद भर्तृहरि ने अरावली की
पहाडि़यों में ध्यान करते हुए अपनी
देह त्याग दी।

उनके शरीर पर मिट्टी की परत चढ़ती
गयी और क्रमशः वहां एक टीला बन
गया।

गुरु गोरखनाथ के प्रताप से वहां सिर
झुकाने वालों की मनोकामना पूर्ण होने
लगीं।

आज यहां एक भव्य मंदिर बना है,
जिसमें बाबा भर्तृहरि की अखंड
ज्योति जलती है।

उनकी पुण्य तिथि भादों शुक्ल अष्टमी 
को यहां विशाल लक्खी मेला होता है,
जिसमें देश भर से हिरण का सींगवाद्य
(सेली) साथ रखने वाले नाथ सम्प्रदाय
के योगी अवश्य आते हैं। 

कविहृदय भर्तृहरि ने अपने जीवन के
सम्पूर्ण अनुभव को शतकत्रयी (शृंगार
शतक, नीति शतक तथा वैराग्य शतक)
में प्रस्तुत किया है।
उन्होंने संस्कृत के प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ
‘वाक्यपदीय’ की रचना भी की है।
उनका जीवन भोग से योग तथा भुक्ति से
मुक्ति की गाथा है।

नाथ पंथ की मान्यता के अनुसार वे
अमर हैं।
उनकी अमरता की गाथा आज भी
लोकगीतों और लोककथाओं में
जीवित है।

आत्मज्ञान की स्थिति में राजा भर्तृहरि ने
भर्तृहरि शतक ग्रंथ में समाए "श्रृंगार शतक"
के जरिए सौंदर्य खासतौर पर स्त्री सौंदर्य से
जुड़ी वे पहलू उजागर किए,जिनको कोई
मनुष्य नकार नहीं सकता।

जानिए क्या हैं स्त्रियों के स्वभाव व
रूप-रंग से जुड़ी ये खास बातें –

स्मितेन भावेन च लज्जया भिया
परांमुखैरर्द्ध कटाक्ष वीक्षणैः।
वचोभिरीर्ष्या कलहेन लीलया।
समस्त भावैः खलु बन्धानं स्त्रियः।।

सरल शब्दों में मतलब है कि स्त्री की मोहित
करने वाली हल्की हंसी,शरमाना,शिकायत के
भाव से नजरें फेरना, मीठे बोल या फिर तानों
से भरी बात ही व तरह-तरह के हाव-भाव
किसी भी सांसारिक व्यक्ति को बंधन में बांध
देते हैं या मोह जाल में फंसा लेते हैं।

स्मितं किंचिद्वक्त्रे सरलतरलो दृष्टविभवः
परिस्पन्दो वाचामभिनवविलासोक्ति सरसः।
गतानामारम्भः किसलयितलीलापरिकरः
स्पृशन्त्यस्तारुण्यं किमिह न हि रम्यं मृगदृशः।।

यानी नवयुवतियों के हर अंग से ही सौंदर्य
झलकता है।
मसलन चांद से चेहरे पर मंद मुस्कान,सरल,
कुदरती और चंचल नजर,खुलकर,हाव-भाव
व इशारों के साथ बातचीत करना,सधी चाल-
ढाल आदि में सुंदरता समाई होती है।

वक्त्रं चंद्रविकासि पंड्कज परीहासक्षमे लोचने
वर्णः स्वर्णमपाकरिष्णुरलिनीजिष्णुः कचानांचयः
वक्षोजाविभकुंभसंभ्रम हरौ गुवी नितम्बस्थली
वाचां हारि च मार्दवं युवतिष स्वाभाविकं मण्डनम्।।

सार है कि पूर्णिमा के चांद जैसे चेहरे वाली,
कमल की सुंदरता फीकी करने वाली आंखें,
सोने जैसी देह,भौंरों से भी ज्यादा काले लहराते
बाल,मीठे बोल व निखरा रंग-रूप व मोहक कद-
काठी स्त्री के स्वाभाविक गहने हैं।
इसलिए वे सजधज न भी करें तो बेहद खूबसूरत
नजर आती है।

एताश्चलद्वलय सहतिमेलोत्थ
झंकारनूपुर पराजित राजहंस्यः।
कुर्वन्ति कस्य न मनो विवशं तरुण्यो
वित्रस्त मुग्धहरिणी सदृशैः कटाक्षैः।।

सार है कि स्त्री के कंगन की खनक,पायल
की आवाज व चलने की अदा राजहंसिनियों
की चाल को भी पीछे छोड़ देती हैं।
ऐसी सुंदर आंखों वाली स्त्रियां किसके मन
को वशीभूत नहीं करती।

धन्यास्त एव तरलायतलोचनानाम्।
तारुण्य रूप धन पीनपयोधराणाम्।
क्षामोदरीपरिलसत्यिवलीलतानाम्
दृष्टवाकृतिं विकृतिमेति मनो न येषाम्।।

सार है कि सुंदर व चंचल आंखों वाली,
जवान,पतली कमर वाली,खूबसूरत
रंग-रूप वाली सुंदरी को देखने पर
भी जिन पुरुषों का मन डांवाडोल
नहीं होता वे धन्य है।

मालती शिरसि जृम्भणोन्मुखी
चन्दनं वपुषि कुंकुमान्वितम्।
वक्षसि प्रियतमा मनोहरा
स्वर्ग एष परिशिष्ट आगतः।।

यानी जिसके गले में मालती के फूलों की
कलियों का सुंगधित हार हो।
केशर चंदन का लेप शरीर पर लगा हो या
फिर बाल सिर पर आगे की लटके हो,
ऐसी स्त्री का नजदीक होना और साथ
में वक्त गुजारने के आगे स्वर्ग के सुख
भी कमतर है।

आदर्शमे दर्शन मात्र कामा
दृष्टवा परिष्वंग सुखैक लोला।
आलिंगितायां पुनरायताक्ष्या
माश्यास्महे विग्रहयोरभेदम्।।

सार है कि जब व्यक्ति को अपनी पत्नी या
प्रेमिका नजर नहीं आती तो उसको देखने
को इच्छुक रहता है।
जब वह सामने आती है तो मिलने को आतुर
होता है और मिलने पर यह इच्छा होती है कि
वे कभी एक-दूसरे से अलग न हो।

तावदेव कृतिनामपि स्फुरत्येष निर्मूल विवेक
दीपकःयावदेव न कुरंग चक्षुषा ताड्यते
चपललोचनांचलैः।।

यानी हिरण के समान चंचल आंखों वाली
स्त्री के आंचल की हवा जब तक नहीं लगती,
तब तक ही बड़े विद्वानों का विवेक काम
करता है।

सत्यं जन वच्मि न पक्षपाता
ल्लोकेषु सर्वेषु च तथ्यमेतत्
नान्यन्मनोहरि नितम्बनीभ्यो
दुःखैकहेतुर्न च कश्चिदन्यः।।

सार है कि बिना भेदभाव के यह सच है कि
सारी लोकों में सारे सुखों की जड़ कामिनी
स्त्री को छोड़कर कोई अन्य स्त्री नहीं है।
किंतु यही स्त्री कई दुःखों की वजह भी
बनती है।

तावदेवामृतमयी यावल्लोचन गोचरा।
चक्षुः पथादपगता विषादप्यतिरिच्यते।।

यानी जब स्त्री पास होती है तो अमृत की
तरह सुख मिलता है।
किंतु दूर जाते ही जहर की तरह संताप
व दुःख होता है।

संसार तव निस्तार पदवी न दवीयसी।
अन्तरा दुस्तर न स्युर्यदि ते मदिरेक्षणा।।

सार है कि अगर कोई सुंदर स्त्री राह में न
आए तो संसार से पार पाना कोई मुश्किल
काम नहीं है।

उन्मत्तप्रेमसंरम्भादरभन्ते यदंगनाः।
तव पत्यूहमाधातुं ब्रह्मापि खलु कातरः।।

यानी प्रेम के वशीभूत स्त्री जिस काम को
करती है उसे ब्रह्मदेव भी नही रोक सकते।
यानी जब वे ही नहीं रोक पाते तो औरों की
बिसात क्या।

प्रणयमधुराः प्रेमोदगाढ़ा रसादलसास्तथा
भणितमधुराः मुग्धप्रायाः प्रकाशित सम्पदाः।
प्रकृति सुभगा विश्रसम्भार्हाः स्मरोदयायिनी।
रहसि किमपि स्वैरालापा हरन्ति मृगो दृशाम्।।

यानी अकेले में जब दो स्त्रियां बाते करती
हैं तो उनकी मीठी-मीठी प्रेम भरी बातें,
आवाज या गोपनीय बातें किसी के भी
मन को मोह लेती हैं।

नूनं हि ते कविवरा विपरीत बोधा
ये नित्यमाहुरबला इति कामिनीनाम्।
याभिर्विलोलतरतारक दृष्टिपातै
शक्रादयोपि विजितास्त्वबलाः कथं ताः।।

सार है कि जो भी कवि स्त्री को अबला
पुकारते हैं वे झूठ कहते हैं।
क्योंकि उनकी चंचल आंखों के आगे तो
ताकतवर वज्र रखने वाले इन्ददेव भी हार
मान लेते हैं।

तो फिर वे अबला किस तरह हुईं।
-#साभार_संकलित;;

नारी तू नारायणी,,,,,

जयति पुण्य सनातन संस्कृति,
जयति पुण्य भूमि भारत,

अमरयोगी भर्तृहरि की जय,,,

सदा सर्वदा सुमंगल,
जय बाबा गोरखनाथ
हर हर महादेव,
जय भवानी,
जय श्री राम,,