
परमात्मा के वांग्मय-स्वरूप वेद
ARCHANA AGARWAL
18 JUN 2016
‘असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्माऽमृतं गमय।’ (बृहदारण्यक १।३।२८)
हे प्रभो! आप मुझे असत् से सत् की ओर ले चलें। अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलें, मृत्यु से अमरता की ओर ले चलें।
वेद सृष्टिक्रम की प्रथम वाणी व साक्षात् अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक भगवान के वांग्मय-स्वरूप हैं। वेद शब्दमय ईश्वरीय आदेश हैं। वेद शुद्ध ज्ञान का नाम है, जो परमात्मा से प्रकट हुआ है। जैसे माता-पिता अपनी संतान को शिक्षा देते हैं, वैसे ही जगत् के माता-पिता परमात्मा सृष्टि के आदि में मनुष्यों को वैदिक शिक्षा प्रदान करते हैं, जिससे वे भली-भांति अपनी जीवन-यात्रा पूर्ण कर सकें। सृष्टि के आदि में कोई भाषा नहीं थी। इसलिए परमात्मा ने अपनी वाणी में शिक्षा दी, जो परमात्मा की भाषा देववाणी कहलाती है।
वेद स्वयं भगवान की निज वाणी हैं। तुलसीदासजी ने (राचमा ६।१५।४) में वेद के लिए कहा है–’निगम निज बानी’ और ‘जाकी सहज स्वास श्रुति चारी’ (राचमा १।२०४।५)। अत: वेद भगवान के स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एवं स्वयंप्रकाश ज्ञान हैं। जिस प्रकार साधारण प्राणों को भी श्वास-प्रश्वास क्रिया में किसी विशेष प्रकार का प्रयत्न नहीं करना पड़ता, निद्रा के समय में भी यह क्रिया सहज सम्पन्न होती है; वैसे ही ‘ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद–ये चारों उस महान परमेश्वर के श्वास से ही प्रकट हुए हैं।’ (बृहदारण्यक श्रुति )
ब्रह्मस्वरूप वेद–ब्रह्म सत्, चित् व आनन्दरूप होता है। ‘सत्’ का अर्थ है–ब्रह्म सदा वर्तमान रहता है, इसका कभी विनाश नहीं होता। ‘आनन्द’ का अर्थ है–जो प्राकृतिक सुख-दुख से ऊपर उठा हो, व ‘चित्’ का अर्थ है ज्ञान। इस तरह ब्रह्म जैसे नित्य सत्तास्वरूप व आनन्दस्वरूप है वैसे ही उसका ज्ञान (वेद) भी नित्य हैं।
वेद व अन्य ग्रन्थों में अन्तर
अन्य ग्रन्थों की भांति वेद भी अपने विषय का प्रतिपादन करने वाले वाक्य-समूह हैं। परन्तु वेद और अन्य ग्रन्थों में वही अंतर है जो साधारण मनुष्यों और श्रीराम व श्रीकृष्ण में होता है। जब ब्रह्म श्रीराम व श्रीकृष्ण के रूप में अवतार धारण करते हैं, तब साधारण मनुष्यों की भांति उन्हें हाड़-मांस व चर्म का बना समझा जाता है पर उनका शरीर सत्-चित्-आनन्दस्वरूप होता है। जैसे श्रीराम व श्रीकृष्ण मनुष्य दीखते हुए भी मनुष्यों से भिन्न ब्रह्मस्वरूप होते हैं, वैसे ही स्वयं वेद ने अपने को ‘ब्रह्मस्वरूप’ व ‘स्वयंभू’ कहा है। व्यासजी ने कहा है–’वेदो नारायण: साक्षात्।’ (बृ.नारदपुराण)
सृष्टि-निर्माण के लिए सर्वज्ञ ईश्वर को भी ज्ञान (विचार), इच्छा एवं कर्म का अवलम्बन करना पड़ता है। जिस भाषा में ईश्वर सृष्टि के अनुकूल ज्ञान या विचार करता है, वही भाषा वैदिक भाषा है। ईश्वर एवं उसका ज्ञान अनादि होता है, अत: उसके ज्ञान के साथ होने वाली भाषा और शब्द भी अनादि ही होते हैं। वे ही अनादि वाक्य-समूह ‘वेद’ कहलाते हैं। अनादिकाल से जीव एवं जगत पर शासन करने वाले शासक-परमेश्वर का शासन-संविधान ही ‘वेद’ है।
ऋग्वेद (१।१६४।४५) के अनुसार–’वेद’ परमेश्वर के मुख से निकला हुआ ‘परावाक्’ है, वह ‘अनादि’ एवं ‘नित्य’ व ‘अपौरुषेय’ है। वेद के महापंडित सायणाचार्य ने भी अपने ‘वेदभाष्य’ में वेद को परमेश्वर का नि:श्वास बताया है।
बृहदारण्यकोपनिषद् (२।४।१०) में उल्लेख है–’उन महान परमेश्वर के द्वारा (सृष्टि-प्राकट्य होने के साथ ही) ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद नि:श्वास की तरह सहज ही बाहर प्रकट हुए। अत: वेद परमेश्वर के नि:श्वास रूप में सहज ही प्रकट हुए हैं, ये मानव द्वारा रचे गए नहीं हैं।’

वेदों का प्रादुर्भाव
वेदों के प्रादुर्भाव के सम्बन्ध में कहा गया है–वेदवाणी अनादि, अनन्त और सनातन है। महाप्रलय के बाद ईश्वर की इच्छा जब सृष्टि रचने की होती है, तब वे अपनी बहिरंगा शक्ति प्रकृति पर एक दृष्टि डाल देते हैं। जिससे प्रकृति में गति आ जाती है और वह चौबीस तत्त्वों के रूप में परिणत होने लगती है। इसमें ईश्वर का उद्देश्य होता है कि इन तत्वों से विश्व का सबसे प्रथम प्राणी बन जाए। इस प्रकार ईश्वर ने सृष्टि कर सबसे पहले हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) को बनाया। फिर उनसे तपस्या कराई, इसके बाद योग्यता आने पर उनके पास वेदों को भेजा। वे वेद पहले ब्रह्मा के हृदय में आविर्भूत हो गए। हृदय में फलित होने पर ब्रह्माजी के मुखों से उच्चरित करा दिया। ये वेद उनके चारों मुखों में सर्वदा विद्यमान रहते हैं। इस तरह ईश्वर ने ब्रह्माजी को वेद प्रदान किए। वेदों की प्राप्ति के पश्चात् इन्हीं की सहायता से ब्रह्माजी भौतिक सृष्टि-रचना में समर्थ हुए।
मत्स्यपुराण (३।२, ४) में भी इसी तथ्य को इस प्रकार कहा गया है–’ब्रह्माजी ने सबसे पहले तप किया। तब ईश्वर के द्वारा भेजे गए वेदों का उनमें आविर्भाव हो पाया। बाद में ब्रह्माजी के चारों मुखों से वेद निकले।’
युग के आरम्भ में विधाता (ब्रह्मा) जब नूतन सृष्टि-रचना की प्रक्रिया के विचार में उलझे रहते हैं, तब नारायण अपने वेदस्वरूप से ही उनकी समस्या का समाधान करते हैं और विधाता वेद के निर्देशानुसार पूर्वकल्प की तरह वस्तु-जगत के नाम, कर्म, स्वरूप आदि की रचना करते हैं। स्पष्ट है कि सृष्टिकर्ता ने सृष्टि के प्रारम्भ में सृष्टि की सुव्यवस्था के लिए धर्मबोध की आवश्यकता समझी और इसीलिए उन्होंने सबसे पहले ब्रह्मा को वेद धारण कराया।
श्रीमद्भागवत (३।९।४३) में भगवान ब्रह्माजी से कहते हैं–‘ब्रह्माजी! त्रिलोकी को तथा जो प्रजा इस समय मुझमें लीन है, उसे तुम पूर्वकल्प के समान मुझसे उत्पन्न हुए अपने सर्ववेदमय स्वरूप से स्वयं ही रचो।’
ब्रह्माजी ने वेदों को पाकर सृष्टि के क्रम को आगे बढ़ाया। ब्रह्माजी की ऋषिसंतानों (सनक, सनन्दन, वशिष्ठ आदि) ने आगे चलकर तपस्या द्वारा इसी शब्द-ज्ञानराशि का अपने हृदय में साक्षात्कार किया। वेद को ईश्वरीय ज्ञान के रूप में ऋषि-महर्षियों ने अपने अंत:चक्षुओं से प्रत्यक्ष दर्शन किए और फिर उसे प्रकट किया। वे ही ऋषि वेदमन्त्रों के द्रष्टा बने।
इन महर्षियों द्वारा मन्त्रों को प्रत्यक्ष देखे जाने के कारण इनमें कहीं भी असत्य या अविश्वास के लिए स्थान नही है। मन्त्रद्रष्टा ऋषि भी एक-दो नहीं, अपितु अनेक हुए हैं। जैसे–गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, वशिष्ठ तथा भारद्वाज आदि। कुछ ऋषिकाएं भी थीं; जैसे–ब्रह्मवादिनी घोषा, लोपामुद्रा, अपाला, विश्ववारा, सूर्या तथा जुहू आदि।
वेद अनन्त होने के साथ-साथ अनादि भी हैं। इसलिए कहा जाता है कि ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण किसी भी काल में वेद का नाश नहीं होता; क्योंकि नित्य-अनादि परमेश्वर का ज्ञान अनित्य (नाशवान) नहीं हो सकता। प्रलयकाल में भी वेद का लोप नहीं होता, वरन् वेदों की ज्ञानराशि परमात्मा में सूक्ष्मरूप से पहले भी विद्यमान थी, अब भी है और आगे भी रहेगी।
‘प्रलयकालेऽपि सूक्ष्मरूपेण परमात्मनि वेदराशि: स्थित:।’ (कुल्लूकभट्ट)
वेदों का एक-एक अक्षर, एक-एक मात्रा अपरिवर्तनीय है। सृष्टि के आरम्भ में इनका जो रूप था, वेद के जैसे उच्चारण थे, जैसे पद-क्रम थे, वे आज भी वैसे ही सुने जा सकते हैं। ऐसा इसलिए हुआ कि इनके संरक्षण के लिए महर्षियों ने पाठ-प्रकारों के आधार पर आठ उपाय किए गए हैं, जिन्हें ‘विकृति’ कहते हैं ताकि इसमें एक भी स्वर-वर्ण अथवा मात्रा की त्रुटि न हो। हजार वर्षों की गुलामी से गुरु-शिष्य परम्परा को हानि पहुंची, अत: वेदों की अधिकांश शाखाएं लुप्त हो गईं। किन्तु जो बची हैं, उन्हें इन आठ विकृतियों ने सुरक्षित रखा है। इन पाठों के कारण ही आज भी विश्व को ईश्वरीय धरोहर के रूप में वेद शुद्ध रूप से प्राप्त हो रहे हैं।
वेदों की अनन्तता
‘अनन्ता वै वेदा:’ के अनुसार वेदज्ञान अपरिमित व अनन्त हैं। भगवत्स्वरूप श्रीशंकराचार्यजी के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति अपने जीवनकाल में समस्त वेदों का अध्ययन पूर्णरूप से नहीं कर सका। इस सम्बन्ध में एक कथा है–महर्षि भरद्वाज ने समस्त वेदों का अध्ययन करना चाहा। उन्होंने वेदाध्ययन प्रारम्भ किया। दृढ़ इच्छाशक्ति और कठोर तपस्या से उन्होंने इन्द्र को प्रसन्न कर वेदाध्ययन के लिए सौ वर्ष की आयु मांगी। यद्यपि वे निरन्तर सौ वर्ष तक अध्ययन करते रहे, तथापि अध्ययन पूरा नहीं हुआ। उनके अध्ययन की लगन देखकर इन्द्र ने प्रसन्न होकर दुबारा वर मांगने को कहा। भरद्वाज ने अध्ययन के लिए सौ वर्ष और मांगे। इस प्रकार अध्ययन और वरदान का क्रम चलता रहा। भरद्वाज ने तीन सौ वर्षों तक अध्ययन किया। वृद्धावस्था के कारण बैठ न पाने पर वह लेटकर ही अध्ययन करने लगे। ऐसी स्थिति में एक दिन इन्द्र ने प्रकट होकर महर्षि से पूछा–’यदि तुमको सौ वर्ष और दे दूँ, तो तुम उनसे क्या करोगे? मुनि ने कहा–’तब मैं शेष वेदाध्ययन पूरा करूंगा।’ इन्द्र ने कहा–यह तुमसे पूर्ण हो सकने वाला कार्य नहीं है। जब मुनि ने पूछा–क्यों? तब इन्द्र ने उनके सामने बालू के तीन पहाड़ दिखाए, जिनका कहीं ओर-छोर नहीं था। इन्द्र ने कहा–’ये ही तीन वेद हैं, इनका अंत तुम कैसे प्राप्त कर सकते हो?’ इन्द्र ने तीनों में से एक-एक मुट्ठी भर मिट्टी उनके सामने रखी और कहा–’तीनों जन्मों में तुमने जो वेदाध्ययन किया है, वह इतनी-सी मिट्टी के बराबर है, अब शेष हैं इन तीन पहाड़ों के बराबर का अध्ययन। इन्द्र की बात सुनकर मुनि अवाक् रह गए। उन्होंने इन्द्र से कहा–’तब मैं क्या करूँ?’ इन्द्र ने तीनों में से एक-एक मुट्ठी बालू भरद्वाज को देकर कहा–’मानव समाज के लिए इतना ही पर्याप्त है, वेद तो अनन्त हैं। इन्द्र के द्वारा प्रदत्त यह तीन मुट्ठी बालू ही वेदत्रयी (ऋक्, यजु:, साम) के रूप में प्रकट हुई।
इन्द्र ने भरद्वाज ऋषि से कहा–सम्पूर्ण ज्ञानप्राप्ति के लिए तुम्हें सवितृदेव की आराधना करनी चाहिए। वे ही वेदमूर्ति हैं। मुनि दूने उत्साह से सविता की आराधना में लग गए।
‘ऊँ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद् भद्रं तन्न आ सुव।।’
‘हे सवितादेव! आप हमारे सम्पूर्ण दुरितों का विनाश करके हमारे लिए मंगल का विस्तार करें।’
सवितादेव प्रसन्न होकर प्रकट हो गए और उन्होंने ऋषि को वर देते हुए कहा–’मेरे अनुग्रह से तुम्हें समग्र वेदज्ञान प्राप्त होगा। सप्तर्षि-मण्डल में तुम्हें स्थान प्राप्त होगा। तुम यशस्वी बनोगे।’ उन्होंने ऋषियों में सबसे अधिक आयु प्राप्त की थी।
वेद-मन्त्रों की महिमा
‘वेद: शिव: शिवो वेद: वेदाध्यायी सदाशिव:।’
वेद-मन्त्रों का दिव्य प्रभाव होता है। कहा जाता है कि जो वेदज्ञ ब्राह्मण हैं उनमें देवता निवास करते हैं। इस सम्बन्ध में एक कथा है–एक राजकुमार ने शिकार खेलते समय भूलवश एक ऋषि के आश्रम के समीप मृगचर्म ओढ़े हुए एक ब्राह्मण को विषैला बाण मार दिया। ‘हा हा’ की आवाज सुनकर उसने समझा ब्रह्महत्या हो गई है। शाप के भय से वह भयभीत होकर राजमहल में पहुंचा। राजा को जब सब बात मालूम हुई तो उन्होंने राजकुमार से कहा–’तुमने ठीक नहीं किया, हमें चलकर मुनि से क्षमा मांगनी चाहिए।’ राजा सपरिवार मुनि के आश्रम पहुंचे और मुनि से क्षमा मांगकर प्रायश्चित का विधान जानना चाहा। मुनि ने कहा–’प्रायश्चित की आवश्यकता नहीं है, यहां कोई ब्रह्महत्या नहीं हुई है।’ यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतने विषैले बाण से कोई जीवित कैसे बच गया? तब मुनि ने कहा–’यदि मैं आश्रम में रहने वाले सभी ब्रह्मचारियों को बुलाऊँ तो क्या राजकुमार उस ब्रह्मचारी को पहचान लेंगे?’ राजकुमार के हां कहने पर आश्रम के सारे ब्रह्मचारी बुलाए गए। जिस ब्रह्मचारी को बाण लगा था उसे राजकुमार ने पहचान लिया। किन्तु आश्चर्य कि उसके शरीर पर घाव का चिह्न तक नहीं था। तब मुनि ने राजा से कहा–’हम लोग पूर्णत: वैदिक धर्म के मार्ग पर चलने वाले हैं। वेद द्वारा बताए गए धर्मानुष्ठानों का पालन करते हैं। अत: मृत्युदेवता यहां से कोसों दूर रहते हैं।’ यह है वैदिक मन्त्रों की महिमा।
वेद और वेदव्यास
कहा जाता है कि वेद पहले एक ही था, भगवान वेदव्यास ने वेद को चार भागों में विभक्त कर दिया था, जिसके कारण उनका नाम ‘वेदव्यास’ पड़ा और वेद ने ऋक्, यजु:, साम एवं अथर्व के रूप में चार स्वरूप धारण किया। महाभारत में इसे इस प्रकार बताया गया है–’जिन्होंने निज तप के बल से वेद का चार भागों में विस्तार कर लोक में ‘व्यास’ की संज्ञा पायी और शरीर के कृष्ण वर्ण होने के कारण कृष्ण कहलाए।’ उन्होंने वेद को चार भाग में विभक्त कर अपने चार प्रमुख शिष्यों को वैदिक संहिताओं का अध्ययन कराया। वेदव्यासजी ने पैल को ऋग्वेद, वैशम्पायन को यजुर्वेद, जैमिनि को सामवेद और सुमन्तु को अथर्ववेद का सर्वप्रथम अध्ययन कराया था। महाभारत-युद्ध के पश्चात् वेदव्यासजी ने तीन वर्ष के परिश्रम के बाद पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना की जिसे उन्होंने अपने पांचवे शिष्य लोमहर्षण को पढ़ाया था। उन ऋषियों ने भी अपने-अपने शिष्यों को वेद पढ़ाकर गुरु-शिष्य परम्परा से वेदज्ञान को फैलाया है। इस तरह वेदों के पठन-पाठन की परम्परा चल पड़ी, जो आज भी चलती आ रही है।
भगवान वेदव्यास ने वेद को चार भागों में विभक्त क्यों किया? इसका उत्तर श्रीमद्भागवत में इस प्रकार दिया गया है–महर्षि पाराशर व सत्यवती से उत्पन्न वेदव्यासजी ने कलियुग में मानव की अल्पबुद्धि, कम आयु व शक्तिहीनता देखकर (अर्थ की सुगमता के लिए) वेद-रूपी वृक्ष की चार शाखाएं कर दीं जिससे दुर्बल स्मरणशक्ति वाले भी वेदों को धारण कर सकें। स्त्री, शूद्र तथा पतित वेद-श्रवण के अनाधिकारी हैं; अत: उनके हित की दृष्टि से ‘महाभारत’ की रचना की।
चार वेद
ऋग्वेद में स्तुति, यजुर्वेद में यज्ञ, सामवेद में संगीत तथा अथर्ववेद में आयुर्वेद, अर्थशास्त्र, राष्ट्रीय संगठन तथा देशप्रेम का चिन्तन मिलता है। जिसमें नियताक्षर वाले मन्त्रों की ऋचाएं हैं, वह ‘ऋग्वेद’ कहलाता है। जिसमें स्वरों सहित गाने में आने वाले मन्त्र हैं, वह ‘सामवेद’ कहलाता है। जिसमें अनियताक्षर वाले मन्त्र हैं, वह ‘यजुर्वेद’ कहलाता है। जिसमें अस्त्र-शस्त्र, भवन-निर्माण आदि लौकिक विद्याओं का वर्णन करने वाले मन्त्र हैं, वह ‘अथर्ववेद’ कहलाता है।
इन वेदों के चार उपवेद हैं–ऋग्वेद का उपवेद स्थापत्यवेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गान्धर्ववेद और अथर्ववेद का उपवेद आयुर्वेद है। आयुर्वेद के कर्ता धन्वन्तरि, धनुर्वेद के कर्ता विश्वामित्र, गान्धर्ववेद के कर्ता नारदमुनि और स्थापत्यवेद के कर्ता विश्वकर्मा हैं।
वेद गद्य, पद्य और गीति के रूप में विद्यमान हैं। ऋग्वेद पद्य में, यजुर्वेद गद्य में और सामवेद गीति (गान) रूप में है। वेदों में कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड विशेष रूप से होने के कारण इनको ‘वेदत्रयी’ या ‘त्रयीविद्या’ के नाम से भी जाना जाता है।
वेद में एक लाख मन्त्र हैं। अस्सी हजार मन्त्र केवल कर्मकाण्ड का व सोलह हजार मन्त्र ज्ञान का निरुपण करते हैं। केवल चार हजार मन्त्र उपासनाकाण्ड के हैं। गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यन्त सोलह प्रकार के संस्कारों का भी वेद निरुपण करता है। आरम्भ में शिष्यगण गुरुमुख से सुन-सुनकर वेदों का पाठ किया करते थे, इसलिए वेदों का एक नाम ‘श्रुति’ भी है। ‘श्रुति’ माने ‘सुना हुआ ज्ञान’। बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने समाधि में जो महाज्ञान प्राप्त किया और जिसे जगत के कल्याण के लिए प्रकट किया, उस महाज्ञान को श्रुति कहते हैं। आज भी गुरुमुख से श्रवण किए बिना केवल पुस्तक के आधार पर ही मन्त्राभ्यास करना निष्फल माना जाता है।
वेदों की शाखाएं
कूर्मपुराण में बताया गया है कि ऋग्वेद की इक्कीस (21) शाखाएं, यजुर्वेद की एक सौ एक (101) शाखाएं, सामवेद की एक हजार एक (1001) शाखाएं और अथर्ववेद की नौ (9) शाखाएं हैं। इस प्रकार इन 1131 शाखाओं में से केवल 12 शाखाएं ही मूलग्रन्थ में उपलब्ध हैं। इन शाखाओं का अधिकांश भाग लुप्त है।
इन शाखाओं की वैदिक शब्दराशि चार भागों में प्राप्त है–(१) ‘संहिता’–इसमें वेद के मन्त्र हैं, (२) ‘ब्राह्मण’–इसमें यज्ञ-अनुष्ठान की पद्धति और उनके फलप्राप्ति का वर्णन है, (३) ‘आरण्यक’–वानप्रस्थ आश्रम में अरण्य (जंगल) में इसका अध्ययन कर मनुष्य को सांसारिक बंधनों से ऊपर उठाकर आध्यात्मिक बोध कराने की विधि का निरुपण है इसलिए इसे ‘आरण्यक’ कहते हैं। वास्तव में इनका आरण्यक नाम इसीलिए पड़ा कि ये ग्रन्थ अरण्य (वन) में ही पढ़ने योग्य हैं; गांवों और नगरों के कोलाहलयुक्त स्थान में नहीं। गहन वन में ब्रह्मचर्य-व्रत धारणकर जिस ब्रह्मविद्या का ऋषिगण पाठन करते थे, वही ग्रन्थ आरण्यक के नाम से प्रसिद्ध हुए। (४) ‘उपनिषद्’–इसमें अध्यात्म चिन्तन की प्रधानता है।
वेद के प्राचीन विभाग मुख्य रूप से दो ही हैं–मन्त्र और ब्राह्मण। आरण्यक और उपनिषद् ब्राह्मण के अन्तर्गत आ जाते हैं।
वेदों की अति विशालता, गहनता को ध्यान में रखकर मनु, गौतम, याज्ञवल्क्य और पाराशर आदि ऋषि-मुनियों ने धर्म की व्याख्या करने वाले जिन ग्रन्थों की रचना की उन्हें ‘स्मृति’ कहते हैं।
वैदिक देवता
वेदों में अनेक देवताओं का वर्णन किया गया है। उन देवताओं को तीन वर्गों में विभक्त किया गया है–(१) द्यु-स्थानीय (आकाशवासी) देवता–वरुण, मित्र, सूर्य, (२) अन्तरिक्ष (मध्य)-स्थानीय देवता–इन्द्र, रुद्र, वायु तथा (३) पृथ्वी-स्थानीय देवता–अग्नि, सोम, पृथ्वी। इन देवताओं में ऋग्वेद के सूक्तों में ‘इन्द्र’ सर्वाधिक चर्चित देवता है। ‘अग्नि’ दूसरे व ‘सोम’ तीसरे स्थान पर आते हैं। वेदों ने ‘वरुण’ को शान्तिप्रिय देवता माना है वह प्राकृतिक व नैतिक नियमों का संरक्षक है। इन्द्र ऋग्वेद का योद्धा देवता है। वह बलिष्ठ व पराक्रमी देवता है। इसके भय से पृथ्वी व आकाश कांपते दिखाई देते है। बिना इन्द्र की सहायता के कोई भी शक्ति युद्ध नहीं जीत सकती। ऋग्वेद में ‘अग्नि’ को यज्ञ का पुरोहित कहा गया है। वह देवताओं को यज्ञ में समर्पित हवि सुलभ कराता है। यजुर्वेद में सर्वाधिक प्रतिष्ठित देवता है ‘रुद्र’ जिसे अत्यन्त उग्र स्वभाव का माना गया है। यजुर्वेद में रुद्र की महत्ता इसी बात से सिद्ध होती है कि इस वेद का सोलहवां काण्ड इन्हीं पर केन्द्रित है। वेदों में आयुर्वेद के अधिष्ठाता अश्विनीकुमार की स्तुति भी कई जगह की गई है। श्रीगणेश भी वैदिक देवता हैं। प्रणवरूप ‘ऊँ’ में गणेशजी की मूर्ति सदा स्थित रहती है। इसलिए ‘ऊँ’ को गणेश की साक्षात् मूर्ति मानकर वेदों के पढ़ने वाले सर्वप्रथम ‘ऊँ’ का उच्चारण करके ही वेद का स्वाध्याय करते हैं। ऋग्वेद (२।२३।१) के ‘गणानां त्वा गणपतिं हवामहे’ आदि मन्त्र गणेशजी की वैदिकता व महत्ता सिद्ध करते हैं। भगवान वासुदेव से ब्रह्मा और ब्रह्मा से रूद्र की अभिव्यक्ति होने के कारण देवों में सर्पोपरि महत्व भगवान वासुदेव का है। तत्वज्ञानी वेदान्त रीति से उन्हें ब्रह्म, स्मृतियों में परमात्मा, पुराणों में भगवान व सर्वव्यापकता के कारण ‘विष्णु, ब्रह्म, नारायण, वासुदेव’ आदि नामों से जाने जाते हैं।
वेदों के विषय
मनुष्य को जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त प्रति क्षण कब क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, साथ ही प्रात:काल जागरण से रात्रिशयन तक सम्पूर्ण क्रिया-कलाप ही वेदों के विषय हैं। मनीषियों ने वेद को अक्षय ज्ञान का खजाना कहा है। सृष्टि-रचना जैसा गूढ़ रहस्य भी हमें वेद के नासदीयसूक्त में देखने को मिलता है। इसके अलावा धर्म के साथ-साथ मनुष्य जाति के प्राचीनतम इतिहास, अध्यात्म, मर्यादा, ज्ञान-विज्ञान, सामाजिक नियम, राष्ट्रधर्म, सदाचार, त्याग, सत्य, कला-कौशल, शिल्प-उद्योग आदि ऐसा कौन-सा विषय है जिसका प्रतिपादन वेदों में न किया गया हो? कर्मफल की प्राप्ति के लिए पुनर्जन्म का प्रतिपादन, आत्मोन्नति के लिए संस्कारों की व्यवस्था, समुचित जीवनयापन के लिए वर्णाश्रम की व्यवस्था व जीवन की पवित्रता के लिए क्या खाएं क्या न खाएं आदि–सभी का वेदों में वर्णन किया गया है। वेदों में भोजन की स्तुति की गई है तथा बैठकर भोजन करने का निर्देश दिया गया है। भोजन में अन्न को देवता मानकर अन्न की ब्रह्मरूप से उपासना करनी चाहिए।
मनु ने कहा है–’वेद से ही चारों वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र), तीनों लोक (भूलोक, भुवर्लोक तथा स्वर्लोक), चारों आश्रम (ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम) की व्यवस्था की गयी है। केवल यही नहीं अपितु भूत, भविष्य तथा वर्तमान के धर्म-कर्मों की व्यवस्था भी वेद के अनुसार की गई है। किन्तु वेद का अंतिम लक्ष्य मोक्षप्राप्ति ही है।
वेदों का सार-सर्वस्व गायत्रीमन्त्र
ऊँ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।।
सच्चिदानन्द परमात्मन्! आपके प्रेरणादायी विशुद्ध तेज:स्वरूप दिव्यरूप (सूर्यदेव) का हम अपने हृदय में नित्य ध्यान करते हैं, उससे हमारी बुद्धि निरन्तर प्रेरित होती रहे। आप हमारी बुद्धि को अपमार्ग से रोककर तेजोमय शुभ मार्ग की ओर प्रेरित करें। उस प्रकाशमय पथ का अनुसरण कर हम आपकी ही उपासना करें और आपको ही प्राप्त करें।
यह मन्त्र यजुर्वेद (३।३५) में व सामवेद में आया है और सभी वेदों में किसी-न-किसी संदर्भ में इसका बार-बार संकेत मिलता है। अत: गायत्रीमन्त्र को वेद का सार-सर्वस्व कहा गया है। यह सम्पूर्ण मन्त्रों में सर्वोपरि मन्त्र है। इसमें परब्रह्म परमात्मा से सद्बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थना की गई है। गायत्री का शाब्दिक अर्थ है–गाने वाले का त्राण करने वाली। गायत्री के देवता सविता हैं। गायत्रीमन्त्र से पहले ‘ऊँ’ लगाने का विधान है जिसे ‘प्रणव’ कहा जाता है। प्रणव परब्रह्म का नाम है। ‘भू: भुव: स्व:–ये गायत्रीमन्त्र के बीजमन्त्र हैं। इन्हें लगाकर ही गायत्रीमन्त्र का जप करना चाहिए। धर्मसम्राट श्रीकरपात्रीजी महाराज ने माना है कि जो गायत्री का अभिप्राय है, वही सम्पूर्ण वेदों का अर्थ है।
श्रीमद्भगवद्गीता और वेद
वेद भगवद् रूप है और भगवान वेदरूप हैं। उन वेदों का सार उपनिषद् हैं और उपनिषदों का सार श्रीमद्भगवद्गीता है। वेद भगवान के नि:श्वास हैं, पर गीता भगवान की वाणी है। वेद और उपनिषद् तो केवल अधिकारी (योग्य) मनुष्यों के लिए हैं पर गीता सभी मनुष्यों के लिए सुलभ है। गीता में भगवान ने वेदों का बहुत आदर किया है और सामवेद को अपना स्वरूप बतलाया है–’वेदानां सामवेदोऽस्मि’ (गीता १०।२२)।
सृष्टि में सबसे पहले प्रणव (ऊँ) प्रकट हुआ है। उस प्रणव की तीन मात्राएं हैं–’अ’, ‘उ’ और ‘म’। इन तीनों मात्राओं से त्रिपदा गायत्री प्रकट हुई है। त्रिपदा गायत्री से वेद प्रकट हुए और वेदों से शास्त्र, पुराण आदि प्रकट हुए। इस दृष्टि से ‘प्रणव’ सबका मूल है। जितनी भी वैदिक क्रियाएं की जाती हैं, वे सब ‘ऊँ’ का उच्चारण करके ही की जाती हैं। जैसे गायें साँड़ के बिना फलवती नहीं होतीं, ऐसे ही वेद की जितनी ऋचाएं व श्रुतियां हैं, वे सब ‘ऊँ’ का उच्चारण किए बिना अभीष्ट फल देने वाली नहीं होतीं। गीता में भगवान ने ‘प्रणव’ (७।८), ‘गायत्री’ (१०।३५) और ‘वेदों’ को अपना स्वरूप बतलाया है। भगवान ने गीता में अपने को ही संसारवृक्ष का मूल ‘पुरुषोत्तम’ बताया है–
‘मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिए लोक में और वेद में पुरुषोत्तमनाम से प्रसिद्ध हूँ।’ (गीता १५।१८)
वेद में ‘पुरुषसूक्त’ में पुरुषोत्तम का वर्णन हुआ है। गीता (९।२९) में भगवान कहते हैं कि वेदों में इन्द्ररूप से जिस परमेश्वर का वर्णन हुआ है, वह मैं ही हूँ, इसलिए स्वर्ग चाहने वाले मनुष्य यज्ञों द्वारा मेरा ही पूजन करें।
श्रीमद्भागवत और वेद
समस्त शास्त्र, पुराण, रामायण, गीता, महाभारत जो भी हमारे धर्मग्रन्थ हैं, उनके मूल आधार वेद ही हैं और वे सभी शास्त्र वेद का ही अनुसरण करते हैं। श्रीमद्भागवत ने (१।१।३ में) अपने को निगम-कल्पवृक्ष (वेदरूपी कल्पवृक्ष) का पका हुआ मधुरतम फल माना है–’निगमकल्पतरोर्गलितं फलम्।’ श्रीमद्भागवत के अंत (१२।१३।१५) में वह अपने को ‘सब वेदों का सार-सर्वस्व’–’सर्ववेदान्तसारम्’ बतलाता है।
श्रीमद्भागवत (६।१।४०) में कहा गया है–वेदों ने जिन कर्मों का विधान किया है, वे धर्म हैं और जिनका निषेध किया है, वे अधर्म हैं। वेद नारायणरूप में स्वयं प्रकट हुआ है।
श्रीमद्भागवत (१०।४।४१) में वेदज्ञ, ब्राह्मण, दुधारु गाय, वेद, तप, सत्य, दम, शम, श्रद्धा, दया, सहनशीलता और यज्ञ–ये श्रीहरि (परमेश्वर) के स्वरूप बतलाए गए हैं। इससे सिद्ध होता है कि श्रीमद्भागवत में विशेषरूप से वेदों के सिद्धान्तों व अर्थ का ही विस्तार व पोषण किया गया है।
वाल्मीकि रामायण और वेद
वेद भगवान की इच्छा और प्रेरणा से रामायण के रूप में वाल्मीकिजी के मुख से प्रकट हुए। भगवदावतार के साथ वेदावतार भी कैसे हुआ, यह अगस्त्य-संहिता में इस प्रकार बताया गया है–भगवान जब दशरथनन्दन के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए तो वेदों ने भी भगवान वाल्मीकिजी के मुख से स्वयं रामायण के रूप में अवतार लिया। भगवान शंकर पार्वतीजी से कहते हैं–’देवि! इस प्रकार से रामायण स्वयं वेद है, इसमें संशय नहीं है।’ शिवसंहिता में बताया गया है–’वेदों की क्रिया कैकेयी, उपासना सुमित्रा तथा ज्ञानशक्ति कौसल्या हैं एवं महाराज दशरथ साक्षात् वेद हैं। क्रियारूप महारानी कैकेयी ही श्रीरामावतार के सारे प्रयोजन को सिद्ध कराने के लिए दशरथजी से हठपूर्वक राम को वनवास दिलाती हैं। सुमित्रा उपासना एवं प्रेम हैं। कौसल्या ज्ञानशक्ति हैं। समस्त परिस्थितियों के बिगड़ जाने पर भी वे किसी पर भी दोषारोपण नहीं करतीं। परम शान्त व गंभीर मुद्रा में रहकर अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचान अपने-आप में (स्वात्माराम) स्थित रहती हैं।
स्कन्दपुराण में कहा गया है–’स्वयं ब्रह्मा ही वाल्मीकि हुए, सरस्वती ही उनकी वाणी बनीं, जिससे वेदरूप श्रीरामायण की रचना सम्पन्न हुई। शिवसंहिता में भगवान शंकर पार्वतीजी से कहते हैं–’देवि! वाल्मीकिजी ने वेदरूप जो रामायण लिखी, वह संस्कृत में होने के कारण भविष्य में सभी लोग लाभान्वित नहीं हो पाएंगे। इसलिए स्वयं वाल्मीकिजी ने कलियुगी प्राणियों के लिए श्रीरामचरितमानस के रूप में तुलसीदास बनकर वेदरूप रामायण की रचना ‘भाषा’ में की–कलि कुटिल जीव निस्तार हित बाल्मीकि तुलसी भयो। (नाभादास)
श्रीरामचरितमानस में वेदस्तुति
गोस्वामी तुलसीदासजी का साहित्य भी वेदों पर अवलम्बित हैं। श्रीरामचरितमानस में तुलसीदासजी ने वेद-वन्दना करते हुए कहा है–
बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु।। (राचमा १।१४ ड़)
चारों वेद संसार-समुद्र के लिए जहाज हैं और वेद श्रीरघुनाथजी के निर्मल यश का वर्णन करते स्वप्न में भी नहीं थकते। इसका यही अर्थ है कि जो लोग वेदों द्वारा बताए गए ज्ञान-कर्मोपासना का सहारा लेकर जीवन-यात्रा करते हैं वे जन्म-मरण रूपी संसार-सागर से अनायास ही पार हो जाते हैं। वेदों में भगवान के विराट् रूप का वर्णन है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में कहा गया है–‘सहस्त्रशीर्षा पुरुष: सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात्’ अर्थात् वह विराट् पुरुष सहस्त्र सिरों, सहस्त्र आंखों और सहस्त्र चरणों वाला है। इसी विराट् रूप का दर्शन मां कौसल्या को हुआ–
ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै।।
अर्थात् वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेक ब्रह्माण्डों के समूह हैं। वे ही तुम मेरे गर्भ में रहे। इस हंसी की बात को सुनकर विवेकी पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती।
श्रीरामचरितमानस (१।३२३) में वर्णित है कि वेदभगवान श्रीसीताराम के विवाह के अवसर पर विप्र (ब्राह्मण) के वेष में जनकपुर में आकर विवाह की विधियां बताते हैं–’बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देंहि।’
श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं कि जब श्रीरामचन्द्रजी का राज्याभिषेक सम्पन्न हो गया तो वेदों ने सोचा कि भगवान का दर्शन करना चाहिए। किन्तु दरबार में इतनी भीड़ है कि प्रभु तक पहुँच पाना कठिन कार्य है। अत: वे वन्दी (भाट) का वेष धारणकर आए।
भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम।
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम।।
प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान।
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान।। (राचमा ७।१२ ख-ग)
वन्दी का काम राजा का यशोगान करना है, उन्हें राजा के समीप जाने की छूट होती है। इसलिए वेदों को भगवान का भाट कहा गया है। भगवान श्रीराम के अतिरिक्त और कोई उन्हें पहचान नहीं पाया। चारों वेदों द्वारा की गई भगवान श्रीराम की स्तुति का एक अंश इस प्रकार है–
जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने।
दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने।।
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे।। (राचमा ७।१३ छं १)
वेदों ने भगवान श्रीराम को व्यापक ब्रह्म होने के कारण सगुण, निर्गुण एवं अपूर्व दिव्यरूप वाला कहा है। रावण आदि पापियों का वध कर पृथ्वी को भारमुक्त करने वाले दयालु परमात्मा को वेद संयुक्तरूप से नमस्कार कर रहे हैं।
अथर्ववेद के अन्तर्गत ‘श्रीदेव्यथर्वशीर्ष’ में वाग्देवी की स्तुति है व वेदों में ‘गणानां त्वा गणपतिँ हवामहे’ से गणपति की वन्दना है। उसी परम्परा का पालन तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में ‘वन्दे वाणीविनायकौ’ कहकर किया है। वेदों की अतुलित महिमा बताते हुए गोस्वामीजी ने दोहावली (४६४) में कहा है–अतुलित महिमा बेद की तुलसी किएँ बिचार।
वेद का आध्यात्मिक संदेश
भारत वेदों का देश है, महर्षियों का देश है। वेदों के कारण ही सनातन धर्म सारे विश्व का सिरमौर धर्म और भारतवर्ष जगद्गुरु माना जाता है। संसार में शायद ही कोई ऐसा देश हो जो यह कहता हो कि हमारी सभी विद्याओं का, सभी संस्कृतियों का, सभ्यताओं का, हमारे संगीत और कलाओं का मूल हमारे धार्मिक ग्रन्थ हैं। केवल भारत में सनातनधर्म के मूल वेद को ऐसा अद्वितीय गौरव प्राप्त है–’वेदोऽखिलो धर्ममूलम्।’ सम्पूर्ण मानव जाति की परम्परागत अमूल्य सम्पत्ति हैं ये वेद। भारतीय संस्कृति के प्राणतत्त्व वेद ही हैं। भारतीय धर्म, दर्शन, अध्यात्म, दर्शन, आचार-विचार, विज्ञान-कला, साहित्य–सभी के बीज वेद में ही हैं। मनु की दृष्टि में वेद सनातन चक्षु हैं। उसमें जो कुछ भी कहा गया है, वही धर्म है। उसके विपरीत आचरण करना अधर्म है। वेदों के आख्यान (कथाएं) हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। हमें कर्त्तव्य-कर्मों का बोध कराकर शाश्वत कल्याण का मार्ग दिखाती हैं। वेदों की भावना है कि हम ईश्वर की अनन्य भाव से उपासना करें और वे हमारे योग-क्षेम को वहन करें।
‘प्रभो! जो आपका आनन्दमय भक्तिरस है, आप हमें वही प्रदान करें। जैसे शुभकामनामयी माता अपनी संतान को संतुष्ट एवं पुष्ट करती है, वैसे ही आप मुझपर कृपा करें।’ (अथर्ववेद १।५।२)ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।। (यजुर्वेद ३।६०) अर्थात् हम लोग भगवान शिव की उपासना करते हैं, वे हमारे जीवन में सुगन्धि (यश, सदाशयता) एवं पुष्टि (शक्ति, समर्थता) का प्रत्यक्ष बोध कराने वाले हैं। जिस प्रकार पका हुआ फल ककड़ी, खरबूजा आदि स्वयं डंठल से अलग हो जाता है, उसी प्रकार हम मृत्यु-भय से सहज मुक्त हों, किन्तु अमृतत्व से दूर न हों।
वेद भगवान का संविधान है। इसमें अनेक ऐसे मन्त्र हैं जिनमें आध्यात्मिक साधना में बाधक अनेक निन्दित कर्मों से दूर रहने का निर्देश दिया गया है–
’जूआ मत खेलो।’ (ऋग्वेद १०।३४।१३)‘पराये धन का लालच मत करो।’ (यदुर्वेद ४०।१)‘मनुष्य और पशुओं को मन, कर्म एवं वाणी से कष्ट न दो।’ (अथर्ववेद ६।२)‘सत्य के मार्ग पर चलो।’ (यजुर्वेद ७।४५)‘हे परमेश्वर! आप हम सबको कल्याणकारक मन, कल्याणकारक बल और कल्याणकारक कर्म प्रदान करें।’ (ऋग्वेद १०।२५।१)धर्मात्मा को सत्य की नाव पार लगाती है। (ऋग्वेद ९।७३।१)हम कानों से सदा भद्र–मंगलकारी वचन ही सुनें। (यजुर्वेद २५।२१)हल खेत की जुताई में लगे रहने पर ही किसान को भोजन देता है, घर में रखे रहने पर नहीं। सच्चरित्रता से चलते रहने पर ही प्रगति होती है और अपने लक्ष्य–धन की प्राप्ति होती है, घर में बैठे रहने पर नहीं। शास्त्र का अभिप्राय न बताने वाले की अपेक्षा बताने वाला विद्वान श्रेष्ठ एवं प्रियकारी होता है। न देने वाला किसी का मित्र नहीं होता। दान करने वाला उससे आगे बढ़कर सबका मित्र हो जाता है। (ऋग्वेद १०।११७।७)
वेद और राष्ट्रप्रेम की भावना
वेदों में राष्ट्रीयता की भावना का भरपूर समावेश है। अथर्ववेद के भूमि-सूक्त में ईश्वर ने यह उपदेश दिया है कि मातृभूमि के प्रति मनुष्यों को किस प्रकार के भाव रखने चाहिए। राष्ट्र की रक्षा व उसकी महत्ता बताने वाली अनेक ऋचाएं वेदों में हैं। उदाहरण के लिए यहां कुछ का उल्लेख किया जा रहा है–
मातृभूमि की सेवा करो। (ऋग्वेद १०।१८।१०)मातृभूमि को नमस्कार है, मातृभूमि को नमस्कार है। (यजुर्वेद ९।२२)हे मातृभूमि! तेरी सेवा करने वाले हम नीरोग और आरोग्यपूर्ण हों। तुमसे उत्पन्न हुए समस्त भोग हमें प्राप्त हों, हम ज्ञानी बनकर दीर्घायु हों तथा तेरी सुरक्षा हेतु अपना आत्मोत्सर्ग करने के लिए भी सदा संनद्ध रहें। (अथर्ववेद १२।१।६२)हे जगदीश्वर! आप हमें ऐसी बुद्धि दें कि हम सब परस्पर हिलमिल कर एक साथ चलें; एक-समान मीठी वाणी बोलें और एक समान हृदय वाले होकर स्वराष्ट्र में उत्पन्न धन-धान्य और सम्पत्ति को परस्पर समान रूप से बाँटकर भोगें। हमारी हर प्रवृत्ति राग-द्वेष रहित परस्पर प्रीति बढ़ाने वाली हो। (ऋग्वेद १०।१९१।२)
वेद को सरल व संक्षिप्त शब्दों में इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं–‘जिसकी सदैव सत्ता हो, जो अपूर्व ज्ञानप्रद हो, जो उत्कृष्ट विचारों का कोश हो और जो लौकिक और पारलौकिक रूप से लाभप्रद हो, ऐसे ग्रन्थ को ‘वेद’ कहते हैं। वेद ज्ञान का अगाध समुद्र है, उसकी थाह पाना किसके लिए संभव है? वेद ज्ञान के अंतिम प्रमाण हैं; परन्तु चारों वेदों का यही मत है कि भगवान के चरणकमलों में अनुराग के बिना सारा ज्ञान-विज्ञान, जप-तप आदि सारे साधन अधूरे हैं।