Monday, 4 September 2017
वेद पहले एक ही था
सम्यक् ज्ञान-चरित्र-दर्शन
४श्लोकों में है पूरी भागवतकथा, पुराणों के अनुसार, इस चतु:श्लोकी भागवत के पाठ करने या फिर सुनने से मनुष्य के अज्ञान जनित मोह और मदरूप अंधकार का नाश हो जाता है और वास्तविक ज्ञान रूपी सूर्य का उदय होता है।अगर आपके पास इतना समय नहीं है कि पूरी भागवत का पाठ कर सकें और आप करना चाहते हैं। परेशान मत होइये ये चार ऐसे श्लोक हैं जिनमें संपूर्ण भागवतत्व का उपदेश समाहित है। यही मूल चतु:श्लोकी भागवत है।पुराणों के अनुसार, ब्रह्माजी द्वारा भगवान नारायण की स्तुति किए जाने पर प्रभु ने उन्हें सम्पूर्ण भागवत-तत्त्व का उपदेश केवल चार श्लोकों में दिया था।वे चार श्लोक, जिनके पाठ से पूरी भागवत पाठ का फल मिलेगा।श्लोक- 1सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ नहीं था। सृष्टी न रहने पर (प्रलयकाल में) भी मैं ही रहता हूं। यह सब सृष्टीरूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टी, स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मैं ही हूं।2जो मुझ मूल तत्त्व को छोड़कर प्रतीत होता है और आत्मा में प्रतीत नहीं होता, उसे आत्मा की माया समझो। जैसे (वस्तु का) प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार (छाया) होता है ।3जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूं।4आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखनेवाले के लिए इतना ही जानने योग्य है की अन्वय (सृष्टी) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्व है। चतु:श्लोकी भागवत के पाठ करने या फिर सुनने से मनुष्य के अज्ञान जनित मोह और मदरूप अंधकार का नाश हो जाता है और वास्तविक ज्ञान रूपी सूर्य का उदय होता है।१॥श्री भगवान कहते हैं - सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत् या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था। सृष्टि न रहने पर (प्रलय काल में) भी मैं ही रहता हूँ। यह सब सृष्टि रूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मै ही हूँ॥२॥जो मुझ मूल तत्त्व के अतिरिक्त (सत्य सा) प्रतीत होता(दिखाई देता) है परन्तु आत्मा में प्रतीत नहीं होता (दिखाई नहीं देता), उस अज्ञान को आत्मा की माया समझो जो प्रतिबिम्ब या अंधकार की भांति मिथ्या है॥३॥जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी सबमें व्याप्त होने पर भी सबसे पृथक् हूँ।॥४॥आत्म-तत्त्व को जानने की इच्छा रखने वाले के लिए इतना ही जानने योग्य है कि अन्वय (सृष्टि) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा(स्थान और समय से परे) रहता है, वही आत्मतत्त्व है।शिवजी द्वारा श्रीरामजी को शिव गीता का उपदेश श्रीरामबोले - हे भगवन् ! आपने मोक्षमार्ग सम्पूर्ण वर्णन किया अब इसका अधिकारि कहिये । इसमें मुझको बड़ा संदेह है । आप विस्तारपूर्वक वर्णन किजिये ॥१॥श्रीभगवान बोले - हे राम! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री, ब्रह्मचारी, गृहस्थ तथा बिना यज्ञोपवीत हुआ ब्राह्मण ॥२॥वानप्रस्थ, जिसकी स्त्री मृतक होगई हो, संन्यासी, पाशुपत व्रत करनेहारे इसके अधिकारी है और बहुत कहने से क्या है जिसके अन्तःकरणमें शिवजीके पूजनकी प्रबल भक्ति हो ॥३॥वही इसमें अधिकारी है और जिसका चित्त दूसरी ओर लगा हुआ है वह इसमें अधिकारी नही तथा मुर्ख अंधे बहरे मूक शौचाचाररहित, स्नान संध्यादि विहित कर्मोंसे रहित ॥४॥अज्ञोंका उपहास करनेवाले, भक्तिहीन, विभूति रुद्राक्षधारी, पाशुपतव्रतवालोंसे द्वेष करनेवाले चिह्नधारी इनमेंसे किसीकाभी इस शास्त्रमें अधिकार नही है ॥५॥जो मुझसे ब्रह्मके उपदेश करनेवाले गुरुसे पाशुपतके व्रत धारण करनेवालोंसे वा विष्णुसे द्वेष करता है, उसका करोड जन्ममें भी उद्धार नही होता, आज कलके उन पुरुषोंको इस श्लोकके ऊपर विचार करना चाहिये, जो अज्ञानवश एक दुसरेसे द्रोह करते है । वह सब एकही रूप है । शिव तथा विष्णुमें कोइ भी भेद नही है, भेद माननेवालोंकी गति नही होती इसमें प्रमाण (स ब्रह्मा स शिवः स हरिः सेंद्रः सोअक्षरः परमः स्वराट्) अर्थात वही परमात्मा शिव हरि इन्द्र अक्षर परम स्वराट है (एक रूपं बहुधा यः करोति) वही एक अनेक रूपको धारण करता है और चाहे अनेक प्रकारके यज्ञादिककर्ममें तत्पर हो, और शिवज्ञानसे रहित हो तो शिवकी भक्ति न होनेका कारण वह संसारसे मुक्त नही होता ॥६॥७॥जो वेदबाह्य धर्मोमें केवल फलकी इच्छा करके आसक्त होते है, उन्हे केवल दृष्टमात्र फलकी प्राप्ति होती है वे मोक्ष शास्त्रके अधिकारी नही है ॥८॥काशी, द्वारका, श्रीशैल पर्वत, व्याघ्रपुर, इन क्षेत्रोंमे शरीर त्यागनेसे इस पुरुषको मेरी कृपासे तारक ब्रह्मकी प्राप्ति होती है ॥९॥जिसके हाथ पैर और सम्पूर्ण इन्द्रिय, तथा मन वशमें है विद्या तप और कीर्ति विद्यमान है, वही तीर्थका फल प्राप्त करते है विकारी मनवाले तीर्थका फल प्राप्त नही कर सकते ॥१०॥जिस ब्राह्मणका यज्ञोपवीत नही हुआ है उसे अधिकार है परन्तु वह वेदका उच्चारण नही कर सकता केवल माता पिताके श्राद्धकर्ममें उच्चारण कर सकता है ॥११॥जबतक ब्राह्मणका उपनयन नही होता, तबतक वह शूद्रकी ही समान है, नाम संकीर्तन और ध्यानमें तो सब ही अधिकारी है ॥१२॥शिवजीमीं तादात्म्य ध्यानसे अर्थात (शिवोऽहं इस प्रकार अन्तःकरनकी एक वृत्ति करनेसे यह प्राणी संसारके पार हो जाता है जिस प्रकार ध्यान तप वेदाध्ययन तथा दूसरे कर्म है यह ध्यान करनेके सहस्त्र भागकी भी तो समान नही हो सकते ॥१३॥जाति, आश्रम, अंग, देश, काल किंवा आसनादि साधन, यह कोईभी ध्यानयोगकी समान नही है ॥१४॥
चलते फिरते बैठते उठते बोलते शयन करते, अथवा दूसरे कार्योमें भी युक्त हो, और उनके अनेक पातकोंसे युक्त हो, वह भी ध्यान करनेसे मुक्त होजाता है ॥१५॥
इस ध्यानयोगके करनेसे नाश नही होता, नित्यनैमित्तिक कर्मकी समान इसमें प्रत्यवाय नही है, यह थोडासा अनुष्ठान क्रियाभी प्राणीको महाभयसे रक्षा करता है ॥१६॥अतिआश्चर्य अथवा भय और शोक प्राप्त हुआ हो वा छींकने अथवा और कोई रोगमें जो किस बहानेसेभी मेरा उच्चारण करता है वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है ॥१७॥महापापीभी यदि देहान्तमें मेरा स्मरण करे तो (नमः शिवाय) इस पंचाक्षरी विद्याका उच्चारण करे तो निःसंदेह उसकी मुक्ती हो जाती है ॥१८॥जो अपने आत्मासे ही आत्माको देखते सब संसारको शिवरूप देखते है उनको क्षेत्र तीर्थ वा दूसरे कर्मोके करनेसे क्या लाभ है उन्हे करनेकी आवश्यकता नही ॥१९॥विभूति और रुद्राक्ष सदा सबको धारण करना चाहिये, शिवभक्ति करनेवाले योगी हो अथवा न हो सब रुद्राक्ष धारण करे जिन्हे शिवभक्ति प्राप्त होनेकी इच्छा हो ॥२०॥जो अग्निहोत्रकी भस्म और रुद्राक्षको धारण करता है, वह महापापी होगा तौ भी निःसन्देह मुक्त हो जायेगा ॥२१॥और शिव उपासनाके कर्म करै अथवा न करै जो केवल शिवका नामभी जपता है वह सदा मुक्तस्वरूप है ॥२२॥अन्तकालमें जो रुद्राक्ष और विभूतिको धारण करता है, उसे चाहे महापाप भी लगे हो नरोंमे नीचभी हो किसी प्रकारसे भी यमके दूत उसे स्पर्श करनेको समर्थ नही होते ॥२३॥२४॥जो कोई बेलवृक्षके जडकी मिट्टी शरीरमें लगाता है उसके निकट यमदूत किसी प्रकार से नही आ सकते ॥२५॥श्रीरामबोले- हे भगवन् किन मूर्तियोंमें पूजन करनेसे आप प्रसन्न होते हो, यह जाननेकी मुझे बड़ी इच्छा है, सो आप कृपाकर कहिये ॥२६॥श्रीभगवान बोले - मृत्तिका, गोबर, भस्म, चंदन, वालुका, काष्ठ, पाषाण, लोहखण्ड, केशरादि रंग, कांसी ,खर्पर (जस्त) पीतल ॥२७॥तांबा, रुपा, सुवर्ण, अथवा अनेक प्रकारके रत्न पारा अथवा कपूर ॥२८॥
इनमें जो अपनेको प्राप्त हो सके और जो इष्ट हो उससे शिवलिंगकी मूर्ति निर्माण करे, इस प्रकार प्रीतिसे मेरी उपासना करे तो कोटिगुणा फल होता है ॥२९॥
गृहस्थी पुरुशोंको उचित है कि, मृत्तिका काष्ठ लोह कांसी अथवा पाषाणकी प्रतिमा करे, उसमें पूजन करनेसे गृहस्थियोंको सदा आनंद की प्राप्ति होती है ॥३०॥मृत्तिकाकी प्रतिमा पूजन करनेसे आयु, काष्ठकी प्रतिमा पूजन करनेसे सम्पत्ति, कांस्यकी पूजन करनेसे कुलवृद्धि, लोहकी प्रतिमा पूजन करनेसे धर्मबुद्धि, पाषाणकी प्रतिमा पूजन करनेसे पुत्र प्राप्ति क्रमसे होती है, बिल्ववृक्षके नीचे अथवा उसके फलमें जो मेरी आराधना करता है ॥३१॥इस लोकमें महालक्ष्मीको प्राप्त होकर अन्तमें शिवलोकको प्राप्त होता है और बिल्ववृक्षके नीचे बैठकर जो विधिपूर्वक मंत्रो को जपे ॥३२॥तो एकही दिनमे उस जप करनेवालेको पुरश्चरणका फल मिलता है, और जो मनुष्य बेलके वनमें कुटी बनाकर नित्य प्रति निवास करे ॥३३॥उसके जपमात्रसे ही सब मंत्र सिद्ध हो जाते है, पर्वत के ऊपर नदी के किनारे, बिल्वके नीचे शिवालयमे ॥३४॥अग्निहोत्रकी शालामें विष्णुके मंदिरमें जो मंत्रका जप करता है, दानव यक्ष राक्षस इसके जपमें विघ्न नही कर सकते ॥३५॥
उसे कोई पास स्पर्श नई कर सकता, वह शिवके सायुज्य लोकको प्राप्त होता है, पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश ॥३६॥पर्वत किम्वा अपनी आत्माहीमें जो मनुष्य मेरा पूजन करता है, एक लवमात्रकी पूजा करनेसे उसे सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है ॥३७॥हे राम अपने आत्मामें जो पूजन करता है, उसकी बराबरी दूसरी पूजा नही आत्मामें पूजन करनेहारा चाण्डालभी मेरे लोकको प्राप्त होता है । सम्पूर्ण शुभकर्म आत्माहीको अर्पण करना, उसी का विचार करना, पापाचरण न करना, यही आत्माकी पूजा है ॥३८॥ऊर्णावस्त्रके आसनपर पूजा करनेसे मनुष्यको सब कामनाकी प्राप्ति हो जाती है, मृगचर्मके आसनपर पूजा करनेसे मुक्ति और व्याघ्रचर्मपर पूजा करनेसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ॥३९॥कुशासनपर बैठकर पूजा करनेसे ज्ञान, पत्रके आसनपर आरोग्यता, पाषाणके आसनपर दुःख और काश्ठके आसनपर पूजा करनेसे अनेक प्रकारके रोग होते है ॥४०॥वस्त्रपे बैठनेसे लक्ष्मी प्राप्ति और पृथ्वीपर बैठकर जपनेसे मंत्र सिद्ध नही होता, उत्तर वा पूर्वको मुखकर जप और पूजाका प्रारम्भ करना उचित है ॥४१॥हे रामचन्द्र! सावधान होकर सुनो, अब मालाकी विधि कहता हूँ, स्फटिककी मालासे साम्राज्य प्राप्त होता है पुत्रजीव जियापोतेकी मालासे अत्यन्त धनकी प्राप्ति होती है ॥४२॥कुशकी ग्रन्थिकी मालासे आत्मज्ञान और रुद्राक्षकी मालासे सम्पूर्ण कार्योकी सिद्धि होती है, प्रवाल (मूंगा) की मालासे सब लोकके वश करने को सामर्थ्य होती है ॥४३॥आमलेके फलोंकी माला मोक्षकी देनेवाली है, मोतियोंकी माला सम्पूर्ण विद्याओंकी देनेहारी है ॥४४॥माणिक्यकी माला त्रिलोकीकी स्त्रियोंको वश करनेहारी है नील मरकत मणिकी माला शत्रु को भय देती है ॥४५॥सोनेकी बनी माला बड़ी शोभाको तथा लक्ष्मीको देती है, चांदीकी मालासे मनेच्छित कन्या प्राप्त होती है ॥४६॥और एक पारेकी माला जो औषधिद्वारा बनती है, वह सम्पूर्णही कामनाको प्राप्त करती है एक सौ आठ १०८ मणियोंकी माला सबसे उत्तम होती है ॥४७॥सौ दानेकी उत्तम, पचास दानेकी मध्यम, अथवा ५७ दानेकी भी मध्यम है और सत्ताईस दानेकी माला अधम कहाती है ॥४८॥
पच्चीस दानोंकी भी अधम होती है,जो सौ दानोंकी माला हो तो पचास अक्षर (अ) से (ल) तक उलटे सीधे क्रमसे हो सकते है, अर्थात मेरुतक एकबार गिन सकता है ॥४९॥इस प्रकारसे स्पष्ट स्थापन करे, और किसीको माला न दिखावे गुप्त जपे ॥५०॥जो अक्षरोंकी कल्पना करके मालाद्वारा जप किया जाता है, वर्णविन्यास (कल्पना) से एकही बारमें उसका पुरश्चरण हो जाता है ॥५१॥बायां चरण गुदस्थानपर रक्खे अर्थात एडी लगावे और दाहिना चरण उपस्थके ऊपर रखकर बैठे, यह उत्तम और अतिश्रेष्ठ योनिबंध आसन कहाता है ॥५२॥
जो योनिमुद्राके आसनसे बैठकर सावधान हो जप करता है कोई मंत्र हो अवश्य सिद्धिकी प्राप्ति हो जाती है ॥५३॥छिन्न, रुद्र, स्तंभित, मिलित, मूर्च्छित, सुप्त, मत्त, हीनवीर्य, दग्ध, त्रस्त, शत्रुपक्षके जाननेवाले यह मंत्र शास्त्रमें मंत्रोके प्रकार लिखे है उनमें इनके लक्षण लिखे है कि इस प्रकारका मंत्र ऐसा होता है ॥५४॥
तथा बालक, यौवन, वृद्ध, मत्त इत्यादि किसी प्रकारका भी दूषित मंत्र क्यो न हो योनिमुद्राके आसनसे जप करे तो सिद्ध हो जाता है ॥५५॥इसी मुद्रासे वे मंत्र सिद्ध होते है दूसरे प्रकारसे नही होते उस कालसे लेकर मध्याह्न कालतक मंत्रका जप करना कहा है, इससे उपरान्त जपे तो कर्ताका नाश होता है यह सम्पूर्ण काम्यफलोंके पुरश्चरणकी विधि है ॥५६॥५७॥नित्य नैमित्तिक तपश्चर्याका नियम नही है, चाहे जबतक जितनी इच्छा हो जप करता रहे, उसमे कुछ दोष नही होता ॥५८॥जो मेरी मूर्तिका ध्यान करता हुआ निष्काम बुद्धिसे रुद्रजप अथवा षडक्षर मंत्र ॐकार सहित जितेन्द्रिय होकर जपता (ॐ नमः शिवाय) यह षडक्षर मंत्र है ॥५९॥हे राम! अथवा अथर्वशीर्ष वा कैवल्य उपनिषदके जो मन्त्र जपता है वह उसी देहसे स्वयं शिव हो जाता है अर्थात् सायुज्य मुक्तिको प्राप्त होता है ॥६०॥जो नित्यप्रति शिवगीताको पढता और नित्य जप करता वा श्रवण करता है वह निःसन्देह संसारसे मुक्त हो जाता है ॥६१॥सूतजी बोले, हे शौनकादि ऋषियो ! भगवान् शिवजी रामचन्द्रजीसे इस प्रकार उपदेश कर वहां ही अन्तर्धान होगये और आत्मज्ञानके प्राप्त होनेसे रामचन्द्रनेभी अपनेको कृतार्थ माना ॥६२॥और एकाग्र चित्तसे ध्यान करते है उनके हाथमें मुक्ति स्थित रहती है, इस कारण हे मुनियो! नित्य प्रति सावधान होकर शिवगीताको सुनो ॥६४॥अनायास मुक्ति हो जायगी इसमें कुछ भी संदेह नही, इसमें शरीरको क्लेश नही, मानसिक क्लेश नही, धनका व्यय नही ॥६५॥न और किसी प्रकारकी पीडा है, केवल श्रवणसे ही मुक्ति हो जाती है, हे ऋषियो! इस कारण तुम नित्यप्रति शिवगीताका श्रवण करो ॥६६॥ऋषि बोले, हे सूतजी! आजसे तुम्ही हमारे आचार्य पिता और गुरु हो जो कि, आपने हमको अविद्याके पार तार दिया ॥६७॥
जन्म देनेवालेसे ब्रह्मज्ञान देनेवालेको गौरव अधिक है इसकारण हे सूत! सत्यही तुमसे अधिक कोई दूसरा गुरु हमारा नही है ॥६८॥व्यासजी बोले - ऐसा कहकर सम्पूर्ण ऋषि सायंसंध्या करनेके निमित्त गये, और सूतपुत्रकी बडाई करते गोमती नदीके समीप ध्यान करने लगे शिवपरायण हुए ॥६९॥इति श्रीपद्मपुराणे उपरिभागे शिवगीतासूपनिषत्सुब्रह्मविद्यायायोगशास्त्रे शिवराघवसंवादे गीताधिकारनिरूपणं नाम षोडशोऽध्यायः ॥१६विद्या दो विद्या: परा, अपरा ।
चार विद्या: त्रयी, आन्वीक्षिकी, वार्ता, दंडनीति ।
चैदह विद्या: 4 वेद + 6 वेदांग + न्याय + मीमांसा + पुराण + धर्मशास्त्र ।अठारह विद्या: - 14 विद्या+ 4 उपवेद (आयुर्वेद, गांधर्व वेद, धनुर्वेद, अर्थवेद ) । -विश्वम्भ्रा पृ. 64-5, वर्ष-7, अंक-3, 1972.६४ कलायें निम्नलिखित हैं।1- गानविद्या 2- वाद्य-भांति-भांतिके बाजे बजाना
3- नृत्य
4- नाट्य
5- चित्रकारी
6- बेल-बूटे बनाना
7- चावल और पुष्पादिसे पूजा के उपहार की रचना करना
8- फूलों की सेज बनान
9- दांत, वस्त्र और अंगों को रंगना
10- मणियों की फर्श बनाना
11- शय्मा-रचना
12- जलको बांध देना
13- विचित्र सििद्धयां दिखलाना
14- हार-माला आदि बनाना
15- कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना
16- कपड़े और गहने बनाना
17- फूलों के आभूषणों से श्रृंगार करना
18- कानों के पत्तों की रचना करना
19- सुगंध वस्तुएं-इत्र, तैल आदि बनाना
20- इंद्रजाल-जादूगरी
21- चाहे जैसा वेष धारण कर लेना
22- हाथ की फुतीकें काम
23- तरह-तरह खाने की वस्तुएं बनाना
24- तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना
25- सूई का काम
26- कठपुतली बनाना, नाचना
27- पहली
28- प्रतिमा आदि बनाना
29- कूटनीति
30- ग्रंथों के पढ़ाने की चातुरी
31- नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना
32- समस्यापूर्ति करना
33- पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना
34- गलीचे, दरी आदि बनाना
35- बढ़ई की कारीगरी
36- गृह आदि बनाने की कारीगरी
37- सोने, चांदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा
38- सोना-चांदी आदि बना लेना
39- मणियों के रंग को पहचानना
40- खानों की पहचान
41- वृक्षों की चिकित्सा
42- भेड़ा, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति
43- तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना
44- उच्चाटनकी विधि
45- केशों की सफाई का कौशल
46- मुट्ठी की चीज या मनकी बात बता देना
47- म्लेच्छ-काव्यों का समझ लेना
48- विभिन्न देशों की भाषा का ज्ञान
49- शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना
50- नाना प्रकार के मातृकायन्त्र बनाना
51- रत्नों को नाना प्रकार के आकारों में काटना
52- सांकेतिक भाषा बनाना
53- मनमें कटकरचना करना
54- नयी-नयी बातें निकालना
55- छल से काम निकालना
56- समस्त कोशों का ज्ञान
57- समस्त छन्दों का ज्ञान
58- वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या
59- द्यू्त क्रीड़ा
60- दूरके मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण
61- बालकों के खेल
62- मन्त्रविद्या
63- विजय प्राप्त कराने वाली विद्या
64- बेताल आदि को वश में रखने की विद्या यक्ष के 18प्रश्न -यक्ष - मनुष्य का कौन साथ देता हैं?
युधिष्ठिर - धैर्य ही मनुष्य का साथ देता हैं।
यक्ष - यशलाभ का एकमात्र उपाय क्या हैं?
युधिष्ठिर - दान
यक्ष - हवा से भी तेज चलने वाला कौन हैं?
युधिष्ठिर - मन
यक्ष - विदेश जाने वाले का कौन साथी होता हैं?
युधिष्ठिर - विधा
यक्ष - किसे त्याग कर मनुष्य प्रिय हो जाता हैं?
युधिष्ठिर - अहंभाव से उत्पन्न गर्व के छूट जाने पर।
यक्ष - किस चीज के छूट जाने पर दुःख नहीं होता?
युधिष्ठिर - क्रोध
यक्ष - किस चीज को गवाकर मनुष्य धनी बनता हैं?
युधिष्ठिर - लोभ
यक्ष - ब्राह्मण होना किस बात पर निर्भर हैं? जन्म पर, विधा पर, शीलस्वभाव पर ?
युधिष्ठिर - शीलस्वभाव पर
यक्ष - कौनसा ऐसा एकमात्र उपाय हैं, जिससे जीवन सुखी हो सकता हैं?
युधिष्ठिर - अच्छा स्वभाव ही सुखी होने का उपाय हैं।
यक्ष - सर्वोतम लाभ क्या हैं?
युधिष्ठिर - आरोग्य
यक्ष - धर्म से बढ़कर संसार में और क्या हैं?
युधिष्ठिर - उदारता
यक्ष - कैसे व्यक्ति के साथ की गई मित्रता कभी पुरानी नहीं पड़ती?
युधिष्ठिर - सज्जनों के साथ की गई मित्रता।
यक्ष - इस जगत में आश्चर्य क्या हैं?
युधिष्ठिर - रोज हजारो लोग मर रहे हैं फिर भी लोग चाहते हैं कि वे अन्नतकाल तक जीवित रहें, इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता हैं!
सप्त श्लोकी गोरक्ष गीता
वेदा न लोका न सुरा न यज्ञा वर्णाश्रमो नैव कुलं न जाति ।न धूम्र मार्गों न च दीप्त मार्गों ब्रह्मैक रूपं परमार्द तत्वम् ।।1।।मूर्खोSपि नाहं न च पण्डितोЅहं मौनं च वार्ता न मे कदाचित् ।वितर्क तर्क च कथं वदामि स्वरूप निर्वाण मना मयोहम् ।।2।।न ते माता च पिता न बन्धुर्नते च पत्नी न च शत्रु मित्राः ।न पक्षपातो न विपक्षपातः कथं हि तृप्तो न च काम कामी ।।3।।
जितेन्द्रियोहं न जितेन्द्रियोहः न च संयमो मे नियमो न जातिः ।त्वया मयायत्र कथं वदामि वयं स्वरूप निर्वाण मना मयोहम् ।।4।।शिवं न जानामि कथं वदामि वयं शिवश्च परमार्थ तत्वम् ।सत्य स्वभावो गगनोप मोहं ज्ञानामृतं शुद्ध मतीन्द्रियोहम् ।।5।।अतत्व रूपं नहि वस्तु किंचित् तत्व स्वरूपं नहि वस्तु किंचित् ।
आत्म स्वरूपं परमार्थ तत्वं न हिंसको वापि न चापि शुद्धम् ।।6।।षडग्ङ योगो न च नैव शुद्धं गुरूपदेशे न च नैव शुद्धम् ।मनोविनाशाय च नैश शुद्धं वयं तत्वं वयं मेव शुद्धम् ।।7।।। इति सम्पूर्णं।।
पांच नाम गुझ गायत्री आत्म तत्व जगाओ। ऊँ किलियं हरियम् श्रीयम् सोहं ध्याओ।। भावार्थ: पांच नाम जो गुझ गायत्री है। इनका जाप करके आत्मा को जागृत करो । द्वितीय बार में नाम जाप : सतनाम सतगुरु अर्थात् तत्वदर्शी सन्त दूसरी बार में दो अक्षर का सतनाम जाप देते हैं जिनमें एक ऊँ और दूसरा तत् (जो कि गुप्त है उपदेशी को बताया जाता है) जिनको स्वांस के साथ जाप किया जाता है।