Monday, 18 December 2017

सनातन धर्म के अठारह पुराण

सभी हिंदुओं को जानना चाहिए, सनातन धर्म के अठारह पुराणों के बारे  में,,,

पुराण शब्द का अर्थ है प्राचीन कथा। पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। उन में लिखित ज्ञान और नैतिकता की बातें आज भी प्रासंगिक, अमूल्य तथा मानव सभ्यता की आधारशिला हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है।

पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय हैं। विशेष तथ्य यह है कि पुराणों में देवा-देवताओं, राजाओ, और ऋषि-मुनियों के साथ साथ जन साधारण की कथायें भी उल्लेख किया गया हैं जिस से पौराणिक काल के सभी पहलूओं का चित्रण मिलता है।

महृर्षि वेदव्यास ने 18 पुराणों का संस्कृत भाषा में संकलन किया है। ब्रह्मा विष्णु तथा महेश्वर उन पुराणों के मुख्य देव हैं। त्रिमूर्ति के प्रत्येक भगवान स्वरूप को छः पुराण समर्पित किये गये हैं। इन 18 पुराणों के अतिरिक्त 16 उप-पुराण भी हैं किन्तु विषय को सीमित रखने के लिये केवल मुख्य पुराणों का संक्षिप्त परिचय ही दिया गया है। मुख्य पुराणों का वर्णन इस प्रकार हैः-

1. ब्रह्म पुराण – ब्रह्म पुराण सब से प्राचीन है। इस पुराण में 246 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा आवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ से सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर सिन्धु घाटी सभ्यता तक की कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

2. पद्म पुराण - पद्म पुराण में 55000 श्र्लोक हैं और यह गॅंथ पाँच खण्डों में विभाजित है जिन के नाम सृष्टिखण्ड, स्वर्गखण्ड, उत्तरखण्ड, भूमिखण्ड तथा पातालखण्ड हैं। इस ग्रंथ में पृथ्वी आकाश, तथा नक्षत्रों की उत्पति के बारे में उल्लेख किया गया है। चार प्रकार से जीवों की उत्पत्ति होती है जिन्हें उदिभज, स्वेदज, अणडज तथा जरायुज की श्रेणा में रखा गया है। यह वर्गीकरण पुर्णत्या वैज्ञायानिक है। भारत के सभी पर्वतों तथा नदियों के बारे में भी विस्तरित वर्णन है। इस पुराण में शकुन्तला दुष्यन्त से ले कर भगवान राम तक के कई पूर्वजों का इतिहास है। शकुन्तला दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का नाम जम्बूदीप से भरतखण्ड और पश्चात भारत पडा था।

3. विष्णु पुराण - विष्णु पुराण में 6 अँश तथा 23000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में भगवान विष्णु, बालक ध्रुव, तथा कृष्णावतार की कथायें संकलित हैं। इस के अतिरिक्त सम्राट पृथु की कथा भी शामिल है जिस के कारण हमारी धरती का नाम पृथ्वी पडा था। इस पुराण में सू्र्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास है। भारत की राष्ट्रीय पहचान सदियों पुरानी है जिस का प्रमाण विष्णु पुराण के निम्नलिखित शलोक में मिलता हैःउत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।(साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि वह भूगौलिक क्षेत्र जो उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में सागर से घिरा हुआ है भारत देश है तथा उस में निवास करने वाले सभी जन भारत देश की ही संतान हैं।) भारत देश और भारत वासियों की इस से स्पष्ट पहचान और क्या हो सकती है? विष्णु पुराण वास्तव में ऐक ऐतिहासिक ग्रंथ है।

4. शिव पुराण – शिव पुराण में 24000 श्र्लोक हैं तथा यह सात संहिताओं में विभाजित है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की महानता तथा उन से सम्बन्धित घटनाओं को दर्शाया गया है। इस ग्रंथ को वायु पुराण भी कहते हैं। इस में कैलास पर्वत, शिवलिंग तथा रुद्राक्ष का वर्णन और महत्व, सप्ताह के दिनों के नामों की रचना, प्रजापतियों तथा काम पर विजय पाने के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। सप्ताह के दिनों के नाम हमारे सौर मण्डल के ग्रहों पर आधारित हैं और आज भी लगभग समस्त विश्व में प्रयोग किये जाते हैं।

5. भागवत पुराण – भागवत पुराण में 18000 श्र्लोक हैं तथा 12 स्कंध हैं। इस ग्रंथ में अध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप है। भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य की महानता को दर्शाया गया है। विष्णु और कृष्णावतार की कथाओं के अतिरिक्त महाभारत काल से पूर्व के कई राजाओं, ऋषि मुनियों तथा असुरों की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ में महाभारत युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण का देहत्याग, दूारिका नगरी के जलमग्न होने और यादव वँशियों के नाश तक का विवर्ण भी दिया गया है।

6. नारद पुराण - नारद पुराण में 25000 श्र्लोक हैं तथा इस के दो भाग हैं। इस ग्रंथ में सभी 18 पुराणों का सार दिया गया है। प्रथम भाग में मन्त्र तथा मृत्यु पश्चात के क्रम आदि के विधान हैं। गंगा अवतरण की कथा भी विस्तार पूर्वक दी गयी है। दूसरे भाग में संगीत के सातों स्वरों, सप्तक के मन्द्र, मध्य तथा तार स्थानों, मूर्छनाओं, शुद्ध ऐवम कूट तानो और स्वरमण्डल का ज्ञान लिखित है। संगीत पद्धति का यह ज्ञान आज भी भारतीय संगीत का आधार है। जो पाश्चात्य संगीत की चकाचौंध से चकित हो जाते हैं उन के लिये उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नारद पुराण के कई शताब्दी पश्चात तक भी पाश्चात्य संगीत में केवल पाँच स्वर होते थे तथा संगीत की थि्योरी का विकास शून्य के बराबर था। मूर्छनाओं के आधार पर ही पाश्चात्य संगीत के स्केल बने है।

7. मार्कण्डेय पुराण – अन्य पुराणों की अपेक्षा यह छोटा पुराण है। मार्कण्डेय पुराण में 9000 श्र्लोक तथा 137 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में सामाजिक न्याय और योग के विषय में ऋषि मार्कण्डेय तथा ऋषि जैमिनि के मध्य वार्तालाप है। इस के अतिरिक्त भगवती दुर्गा तथा श्रीक़ृष्ण से जुड़ी हुयी कथायें भी संकलित हैं।

8. अग्नि पुराण – अग्नि पुराण में 383 अध्याय तथा 15000 श्र्लोक हैं। इस पुराण को भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोष (इनसाईक्लोपीडिया) कह सकते है। इस ग्रंथ में मत्स्यावतार, रामायण तथा महाभारत की संक्षिप्त कथायें भी संकलित हैं। इस के अतिरिक्त कई विषयों पर वार्तालाप है जिन में धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद मुख्य हैं। धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद को उप-वेद भी कहा जाता है।

9. भविष्य पुराण – भविष्य पुराण में 129 अध्याय तथा 28000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में सूर्य का महत्व, वर्ष के 12 महीनों का निर्माण, भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षिक विधानों आदि कई विषयों पर वार्तालाप है। इस पुराण में साँपों की पहचान, विष तथा विषदंश सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गयी है। इस पुराण में पुराने राजवँशों के अतिरिक्त भविष्य में आने वाले नन्द वँश, मौर्य वँशों, मुग़ल वँश, छत्रपति शिवा जी तक का वृतान्त भी दिया गया है । सत्य नारायण की कथा भी इसी पुराण से ली गयी है। यह पुराण भी भारतीय इतिहास का महत्वशाली स्त्रोत्र है जिस पर शोध कार्य करना चाहिये।

10. ब्रह्मावैवर्ता पुराण – ब्रह्माविवर्ता पुराण में 18000 श्र्लोक तथा 218 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा, गणेश, तुल्सी, सावित्री, लक्ष्म सरस्वती तथा क़ृष्ण की महानता को दर्शाया गया है तथा उन से जुड़ी हुयी कथायें संकलित हैं। इस पुराण में आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान भी संकलित है।

11. लिंग पुराण – लिंग पुराण में 11000 श्र्लोक और 163 अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा खगौलिक काल में युग, कल्प आदि की तालिका का वर्णन है। राजा अम्बरीष की कथा भी इसी पुराण में लिखित है। इस ग्रंथ में अघोर मंत्रों तथा अघोर विद्या के सम्बन्ध में भी उल्लेख किया गया है।

12. वराह पुराण – वराह पुराण में 217 स्कन्ध तथा 10000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में वराह अवतार की कथा के अतिरिक्त भागवत गीता महामात्या का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस पुराण में सृष्टि के विकास, स्वर्ग, पाताल तथा अन्य लोकों का वर्णन भी दिया गया है। श्राद्ध पद्धति, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन विचरने, अमावस और पूर्णमासी के कारणों का वर्णन है। महत्व की बात यह है कि जो भूगौलिक और खगौलिक तथ्य इस पुराण में संकलित हैं वही तथ्य पाश्चात्य जगत के वैज्ञिानिकों को पंद्रहवी शताब्दी के बाद ही पता चले थे।

13. सकन्द पुराण – सकन्द पुराण सब से विशाल पुराण है तथा इस पुराण में 81000 श्र्लोक और छः खण्ड हैं। सकन्द पुराण में प्राचीन भारत का भूगौलिक वर्णन है जिस में 27 नक्षत्रों, 18 नदियों, अरुणाचल प्रदेश का सौंदर्य, भारत में स्थित 12 ज्योतिर्लिंगों, तथा गंगा अवतरण के आख्यान शामिल हैं। इसी पुराण में स्याहाद्री पर्वत श्रंखला तथा कन्या कुमारी मन्दिर का उल्लेख भी किया गया है। इसी पुराण में सोमदेव, तारा तथा उन के पुत्र बुद्ध ग्रह की उत्पत्ति की अलंकारमयी कथा भी है।

14. वामन पुराण - वामन पुराण में 95 अध्याय तथा 10000 श्र्लोक तथा दो खण्ड हैं। इस पुराण का केवल प्रथम खण्ड ही उप्लब्द्ध है। इस पुराण में वामन अवतार की कथा विस्तार से कही गयी हैं जो भरूचकच्छ (गुजरात) में हुआ था। इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में भी सृष्टि, जम्बूद तथा अन्य सात दूीपों की उत्पत्ति, पृथ्वी की भूगौलिक स्थिति, महत्वशाली पर्वतों, नदियों तथा भारत के खण्डों का जिक्र है।

15. कुर्मा पुराण – कुर्मा पुराण में 18000 श्र्लोक तथा चार खण्ड हैं। इस पुराण में चारों वेदों का सार संक्षिप्त रूप में दिया गया है। कुर्मा पुराण में कुर्मा अवतार से सम्बन्धित सागर मंथन की कथा विस्तार पूर्वक लिखी गयी है। इस में ब्रह्मा, शिव, विष्णु, पृथ्वी, गंगा की उत्पत्ति, चारों युगों, मानव जीवन के चार आश्रम धर्मों, तथा चन्द्रवँशी राजाओं के बारे में भी वर्णन है।

16. मतस्य पुराण – मतस्य पुराण में 290 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मतस्य अवतार की कथा का विस्तरित उल्लेख किया गया है। सृष्टि की उत्पत्ति हमारे सौर मण्डल के सभी ग्रहों, चारों युगों तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास वर्णित है। कच, देवयानी, शर्मिष्ठा तथा राजा ययाति की रोचक कथा भी इसी पुराण में है।

17. गरुड़ पुराण – गरुड़ पुराण में 279 अध्याय तथा 18000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा 84 लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस पुराण में कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का वर्णन भी है। साधारण लोग इस ग्रंथ को पढ़ने से हिचकिचाते हैं क्यों कि इस ग्रंथ को किसी सम्वन्धी या परिचित की मृत्यु होने के पश्चात ही पढ़वाया जाता है। वास्तव में इस पुराण में मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म होने पर गर्भ में स्थित भ्रूण की वैज्ञानिक अवस्था सांकेतिक रूप से बखान की गयी है जिसे वैतरणी नदी आदि की संज्ञा दी गयी है। समस्त योरुप में उस समय तक भ्रूण के विकास के बारे में कोई भी वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी। अंग्रेज़ी साहित्य में जान बनियन की कृति दि पिलग्रिम्स प्रौग्रेस कदाचित इस ग्रंथ से परेरित लगती है जिस में एक एवेंजलिस्ट मानव को क्रिस्चियन बनने के लिय त्साहित करते दिखाया है ताकि वह नरक से बच सके।

18. ब्रह्माण्ड पुराण - ब्रह्माण्ड पुराण में 12000 श्र्लोक तथा पू्र्व, मध्य और उत्तर तीन भाग हैं। मान्यता है कि अध्यात्म रामायण पहले ब्रह्माण्ड पुराण का ही एक अंश थी जो अभी एक प्रथक ग्रंथ है। इस पुराण में ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहों के बारे में वर्णन किया गया है। कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास भी संकलित है। सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ले कर अभी तक सात मनोवन्तर (काल) बीत चुके हैं जिन का विस्तरित वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। परशुराम की कथा भी इस पुराण में दी गयी है। इस ग्रँथ को विश्व का प्रथम खगोल शास्त्र कह सकते है। भारत के ऋषि इस पुराण के ज्ञान को इण्डोनेशिया भी ले कर गये थे जिस के प्रमाण इण्डोनेशिया की भाषा में मिलते है।

हिन्दू पौराणिक इतिहास की तरह अन्य देशों में भी महामानवों, दैत्यों, देवों, राजाओं तथा साधारण नागरिकों की कथायें प्रचिलित हैं। कईयों के नाम उच्चारण तथा भाषाओं की विभिन्नता के कारण बिगड़ भी चुके हैं जैसे कि हरिकुल ईश से हरकुलिस, कश्यप सागर से केस्पियन सी, तथा शम्भूसिहं से शिन बू सिन आदि बन गये। तक्षक के नाम से तक्षशिला और तक्षकखण्ड से ताशकन्द बन गये। यह विवरण अवश्य ही किसी ना किसी ऐतिहासिक घटना कई ओर संकेत करते हैं।

प्राचीन काल में इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। इतिहास लिखने का कोई रिवाज नहीं था और राजाओ नें कल्पना शक्तियों से भी अपनी वंशावलियों को सूर्य और चन्द्र वंशों से जोडा है। इस कारण पौराणिक कथायें इतिहास, साहित्य तथा दंत कथाओं का मिश्रण हैं।

रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं जिन को केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोधकरना होगा|

Saturday, 9 December 2017

ब्राह्मणों ने सगर्भमंत्र जप का आश्रय लिया

All World Gayatri Pariwar 🔍 PAGE TITLES March 1960 ब्राह्मण की कामधेनु गौ-गायत्री (पं .श्रीराम शर्मा आचार्य) यों तो गायत्री मन्त्र मानव मात्र के लिए उपास्य एवं कल्याण कारक है, उसकी शरण में जाने पर सभी का कल्याण होता है, पर जो लोग ब्रह्म परायण हैं, जिन्होंने अपनी सात्विक प्रवृत्तियों को जागृत करके ब्राह्मणत्व प्राप्त किया है, उनके लिए गायत्री परम कल्याण कारिणी है। एक उत्तम औषधि सभी को लाभदायक होती है पर जिनका पेट साफ होता है उन्हें वह तत्काल गुण दिखाती है। अपच के कारण जिनका पेट खराब है, उन्हें वही दवा कम लाभ पहुँचावेगी, देर में असर करेगी। गुणकारी इंजेक्शन भी जिनका खून खराब है, उन्हें इतना लाभ नहीं पहुँचाते जितना शुद्ध रक्त वालों को। इसमें दवा का कोई पक्षपात नहीं है और न इस बात का निषेध है कि जिन्हें अपच हो या खून खराब हो वे दवा या इंजेक्शन लें ही नहीं। ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है। पर स्पष्ट बात यह है कि जिनकी आत्मा में सतोगुण की मात्रा अधिक है, उन्हें गायत्री उन लोगों की अपेक्षा बहुत अधिक, बहुत शीघ्र लाभ पहुँचाती है जिनमें दुर्गुण और कुविचार भरे हुए हैं। सद्भावना युक्त व्यक्ति ब्राह्मण कहे जाते हैं, जिनमें ब्राह्मण मौजूद है उनके लिए गायत्री परम् जप है, परम साधन है, इस साधन का आश्रय लेकर वे अपना लोक परलोक बड़ी सरलता पूर्वक सुख शान्ति मय बना सकते हैं। उनके लिए यह गायत्री माता इतनी दयालु और दानी सिद्ध होती है जितनी शरीर को जन्म देने वाली परम करुणामयी माता भी नहीं हो सकती। कहा भी है -- सर्व वेदमयी विद्या गायत्री पर देवता। परस्य ब्रह्मणो माता सर्व वेदमयी सदा। महाभाव मयी नित्या सच्चिदानन्द रूपिणी। अर्थात्- गायत्री सर्व वेदमयी परा विद्या है। यही ब्राह्मण की माता है। यही नित्य सच्चिदानन्द स्वरूप तथा महा भावमयी भी है। गायत्री वेद जननी गायत्री ब्राह्मणः प्रसूः। गातारं त्रायते यस्माद् गायत्री तेन गीयते। स्कंध पुराण - 9/51 गायत्री वेदों की माता है, गायत्री ब्राह्मण की माता है। यह गायन करने वाले का त्राण - उद्धार करती है इसलिए गायत्री कहते हैं। किं ब्राह्म्णस्यपितरं किगु पृच्छसि मातरं। श्रुतं चेदस्मिन् वेद्यंस पिता स पितामहः। काठक संहिता 30।1 यह क्यों पूछते हो कि ब्राह्मण का बाप कौन है? माता कौन है? श्रुत (ब्रह्मज्ञान) ही उसका बाप और वही बाबा हैं। ओंकार पितृ रूपेण गायत्री मातरं तथा। पितरौ यो न जानाती स विप्रस्त्वन्यरेतसः। ॐ कार को पिता और गायत्री को माता रूप में जो नहीं जानता, वह ब्राह्मण वर्ण शंकर है। ब्राह्मण की माता गायत्री और पिता वेद है। कहा भी है : - मातात्वं च कुतः कस्य पिता कस्मात्समुद्भवः। कुलात्कस्य समुत्वन्नं इदं ब्रह्मीति ब्राह्मणः। गायत्री मन्तुमेवं तं पिता वेदोपि संभवः। ब्रह्म कुल समुत्पन्नं इदं ब्रह्मीति ब्राहम्णाः॥ अर्थात् - मेरी माता कौन? पिता कौन? कुल कौन है? इसे जो जानता है वह ब्राह्मण है। गायत्री ही माता है, वेद ही पिता है, ब्रह्म ही कुल है, जो इस तत्व को जानता है, वही ब्राह्मण है। ब्राह्मण के जीवन का लक्ष आत्मबल एवं ब्रह्मतेज को प्राप्त करना होता है। वह जानता है कि संसार में जो कुछ उत्तम है वह सभी आत्मबल और ब्रह्मतेज उपलब्ध करने पर प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए वह सम्पूर्ण आनन्दों के लिए वेद जननी गायत्री का ही आश्रय लेता है। तेजो वै ब्रह्मवर्चसं गायत्री, तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्वी भवति। - ऐतरेय ब्राह्मण अर्थात्-गायत्री में जो तेज है वही ब्रह्मवर्चस है। इससे उपासक तेजस्वी और ब्रह्म वर्चस्वी हो जाता है। जिसने ब्रह्म वर्चस प्राप्त किया उसके लिए गायत्री साक्षात् कामधेनु गौ के सामान है। उसे इसी महाशक्ति के द्वारा अपनी अभीष्ट कामना पूर्ण करने वाले वरदान मिल जाते हैं। इसलिए गायत्री को वरदात्री कहा गया है। उसे परमदेवी भी कहते है। यों सभी दैवी शक्तियाँ ‘देवी’ कहलाती हैं। पर अन्य दिव्य शक्तियों की सीमा थोड़ी-थोड़ी है। वे उपासना करने पर मनुष्य का सीमित कल्याण करती हैं। किन्तु गायत्री के लिए ऐसा कोई सीमा बन्ध नहीं है, उसके गर्भ में समस्त शक्तियाँ सन्निहित होने से परम देवी कही जाती है। सच्चे मन से उपासना करके यदि उसका थोड़ा सा भी अनुग्रह प्राप्त किया जा सके तो साधक उस परम गति को प्राप्त कर लेता है जिसके कारण लोक में सुख और परलोक में अभीष्ट शान्ति प्राप्त होती है। कहा भी है :-- वंदे ताँ पणाँम देवीं गायत्री वरदाँ शुभाम्। यत्कृपालेशतो यान्ति द्विजा वै परमाँ गतिम्। उस वरदात्री परम देवी गायत्री को नमस्कार है जिसकी लेश मात्र कृपा से द्विज परम गति को प्राप्त होते हैं। ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व बहुत कुछ गायत्री उपासना पर निर्भर रहता है क्योंकि जो सद्गुण सामान्य लौकिक प्रयत्न करने पर बहुत कठिनाई से प्राप्त होते हैं वे इस उपासना के माध्यम से स्वयमेव विकसित होने लगते हैं और उन अन्तः स्फुरणाओं के जागरण से उसका ब्रह्मणत्व दिन-दिन सुदृढ़ होता जाता है। आत्मा में पवित्रता का अंश दिन-दिन बढ़ता जाता है। जपनिष्ठो द्विज श्रेष्ठो ऽखिल यज्ञ फलं भवेत्। सर्वेषामेव यज्ञानाँ जायते ऽसौ महाफलः॥ जपेन देवता नित्यं स्तूयमाना प्रसीदति। प्रसन्ना विपुलान् कामान् दयान्मुक्तिंच शाश्वतीम। यक्षरक्षः पिशाचाश्च ग्रहाः सर्पाश्च भीषणाः। जपिनं नोयसर्पन्ति भयभीताः समन्ततः। यावन्तः कर्मयज्ञाः स्युः प्रदिष्ठानि तपाँसि च। सर्वे ते जप यज्ञस्य कलाँ नार्हति षोडशीम्। - तंत्र सार अर्थात्-जप निष्ठ द्विज सब यज्ञों के फल को प्राप्त करता है। उस पर देवता प्रसन्न होते हैं और उनकी प्रसन्नता से लोक में सुख तथा परलोक में मुक्ति प्राप्त होती है। आसुरी शक्तियाँ उसे भयभीत नहीं करतीं। अन्य सभी साधना कर्मों में जप यज्ञ अधिक फल दायक एवं श्रेष्ठ है। जिस प्रकार जड़ को सींचने से पत्र, पल्लव, पुष्प, फल आदि सभी की प्राप्ति हो जाती है। उन सबके लिए अलग-अलग प्रयत्न नहीं करना पड़ता, उसी प्रकार गायत्री साधना में अन्य सभी साधनाओं द्वारा हो सकने वाले लाभ प्राप्त हो जाते हैं। जप्यवेनैवतुसंसिद्धचेत् ब्राह्मणोनात्र संशयः। कुर्यादन्यन्नवा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते। मनु 2। 97 अर्थात्- ब्राह्मण चाहे कोई अन्य उपासना करे या न करे वह केवल गायत्री मन्त्र से ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है। गायत्री सामुपासीनो द्विजो भवति निर्भयः। -शिव तत्व विवेक गायत्री की भली प्रकार उपासना करने से द्विज निर्भय हो जाते हैं। यों दैनिक “पंच यज्ञो” को लौकिक नियम धर्मों में आवश्यक नित्यकर्म माना गया है और प्रतिदिन ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ, भूत यज्ञ, अतिथि यज्ञ, इन पाँच यज्ञों का करना सभी के लिए विधान है। पर आध्यात्मिक दृष्टि में अकेले गायत्री जप में पाँच यज्ञों का समावेश है। गायत्री के पाँच अंग भी पाँच ब्रह्म यज्ञ कहे गये हैं। नित्य इस उपासना के करने से पाँचों दैनिक यज्ञों का फल प्राप्त होता है। प्रणवो व्याहृतयः सावित्रि चेत्यैत पंच ब्रह्मयज्ञ। अहरह ब्राह्मिणं किल्विषात्मा वयन्ती। वोधायनस्मृति एक प्रणव, तीन व्याहृति और गायत्री मन्त्र यही पाँच ब्रह्म यज्ञ हैं। इनकी निरन्तर उपासना करने वाला ब्राह्मण पवित्र हो जाता है। प्राचीन काल में अनेक साधकों ने इसी उपासना के द्वारा मानव जीवन की सफलता का सर्वोच्च प्रतीक ‘ब्रह्मर्षि’ पद पाया। इतना ही नहीं देवताओं ने भी इसी महामन्त्र की शक्ति से असुरों को परास्त कर अपना देवत्व स्थिर रखा। वृद्धैः काश्यप गौतम प्रभृतिभि भृर्ग्वंगिरोत्र्यादिभिः शुक्रागस्त्य बृहस्पति प्रभृतिभिर्ब्रह्मर्षिभिः सेवितम्॥ भारद्वाजयतं ऋषीक तनयेः प्राप्तं वशिष्ठात पुनः। सावित्री मधि गम्य शक्र वसुभिः कृत्स्ना जिता दानवाः। अर्थात्- इस गायत्री की उपासना करके वृद्ध काश्यप्, गौतम, भृगु, अंगिरा, अत्रि भारद्वाज बृहस्पति, शुक्राचार्य, अगस्त, वशिष्ठ आदि ने ब्रह्मर्षि पद पाया और इन्द्र, वसु आदि देवताओं ने असुरों पर विजय प्राप्त की। इत्येवं संधिचार्याथ गायत्री प्रजपेत्सुधीः आदि देवीं च त्रिपदा ब्राह्मणत्वादिदामजाम्। शि. कै. 13-57 इन बातों पर विचार कर ब्राह्मण को चाहिए कि ब्राह्मणत्व प्रदान करने वाली गायत्री का जप किया करें। बहुनाकिम होक्तेन यथावत् साधु साधिता। द्विजन्मनामियं विद्या सिद्धि काम दुधा मता। - शारदायाँ अर्थात्- अधिक कहने की क्या आवश्यकता है। भली प्रकार साधना की हुई यह गायत्री विद्या द्विजों के लिए कामधेनु के समान सब सिद्धियों को देने वाली है। इस कामधेनु का दूध ही इस जगती तल का ‘परम् रस’ कहलाता है। इसी को ब्रह्मानन्द कहते हैं। इससे मधुर आनन्द दायक और उल्लास भरी मादक वस्तु और कोई इस संसार में नहीं है। जिसे इस कामधेनु का दूध पीने को मिल गया, उसके सभी अभाव दूर हो जाते हैं, कोई वस्तु ऐसी नहीं रहती जो उसके कर-तल-गत न हो। ऐसा ब्रह्म सिद्धि प्राप्त गायत्री उपासक अपने आपको सर्व संतुष्ट, सर्व सुखी अनुभव करता है। उसके आन्तरिक आनन्द एवं उल्लास का ठिकाना नहीं रहता। ब्रह्मानंद रसं पीत्वा ये उन्मत्त योगिनः। इन्द्रोऽपि रंक बद्भा का कथा नृप कीटकः। ब्रह्मानन्द रूपी परम रस को पीकर योगी जन आनंद मग्न उन्मत्त हो जाते हैं। उनके सामने इन्द्र रंक प्रतीत होता है फिर साधारण राजा अमीर जैसे कीड़े-मकोड़ों की तो बात ही क्या है। gurukulamFacebookTwitterGoogle+TelegramWhatsApp Months  अखंड ज्योति कहानियाँ See More About Gayatri Pariwar Gayatri Pariwar is a living model of a futuristic society, being guided by principles of human unity and equality. It's a modern adoption of the age old wisdom of Vedic Rishis, who practiced and propagated the philosophy of Vasudhaiva Kutumbakam. Founded by saint, reformer, writer, philosopher, spiritual guide and visionary Yug Rishi Pandit Shriram Sharma Acharya this mission has emerged as a mass movement for Transformation of Era. Contact Us Address: All World Gayatri Pariwar Shantikunj, Haridwar India Centres Contacts Abroad Contacts Phone: +91-1334-260602 Email:shantikunj@awgp.org Subscribe for Daily Messages