Tuesday, 2 January 2018

सन्त मत

रूहानी मार्ग Wednesday, August 10, 2016 सन्त मत      सन्त मत का अभिप्राय है सन्तों की मति अर्थात् मत पर चलना। सन्त मत में सबसे मुख्य तीन बातें हैंः- 1.सद्गुरु, 2.सत्संग,3.सत्यनाम। सन्त मत में इन तीनों से ही सम्बन्ध जोड़ना पड़ता है। जब तक इन तीनों से सम्पर्क नहीं किया जाता तब तक वास्तविक उद्देश्य अर्थात् आत्म-कल्याण नहीं हो सकता।      सर्वप्रथम मनुष्य को सद्गुरु से मिलाप करना है। उनके सामीप्य में रहना तथा उनके पवित्र वचन श्रवण करना ही सत्संग है। उनके पावन उपदेश तथा वचनों को अपने ह्मदय में धारण करना प्रधान धर्म है। तदनन्तर सद्गुरु उसे सत्यनाम अर्थात् सुरत शब्द का भेद बतलाएंगे। जिसकी साधना और अभ्यास करने से जीव के सब सांसारिक एवं मायिक बन्धन कट जाते हैं। यह सत्यनाम क्या वस्तु है? यह कोई बाह्र विद्या नहीं जिसे पढ़ने-पढ़ाने से जाना जा सके। यह आन्तरिक ब्राहृविद्या है। इसका सम्बन्ध जीव की सुरति और उसकी विचारधारा से है। इसलिये सन्तमत में इसे सुरत-शब्द-योग कहा जाता है। इसका भाव यह है कि जीव की सुरति के साथ-शब्द-ब्राहृ का मिलाप हो जाना।      इस सृष्टि का कत्र्ता परब्राहृ शब्द रुप में सम्पूर्ण ब्राहृाण्ड के अणु-अणु में ओत प्रोत है। यही शब्द-ब्राहृ ही प्रत्येक प्राणी के रोम-रोम में रमा हुआ है। और यही हर एक जीव का प्राणाधार है। इसी शब्द के ही आधार पर यह जीव सब सम्बन्धियों व मित्रों को अच्छा मालूम होता है। इसी के आधार पर ही स्थिर है और उसकी देह संसार में कार्य कर रही है। और समस्त प्राणी इसको प्यार करते हैं। यदि यह शब्द इस जीव के साथ न रहे तो इसे मृतक कहा जाता है। वे ही मित्र सम्बन्धी जो इसके साथ प्यार करते थे फिर इससे घृणा करने लगते हैं। फिर यह मनुष्य जलाने, पानी में बहाने अथवा मिट्टी में दबाने के योग्य ही होगा। यह शब्द इस मानव जीवन में इतना महत्त्वपूर्ण है।      इस शब्द-ब्राहृ का ज्ञान सन्त-सद्गुरु ही प्रदान कर सकते हैं। सन्त मत में सुरत-शब्द योग या सत्यनाम का भेद सद्गुरु से ही प्राप्त होता है। जिस प्रकार बाह्र विद्या विद्यालयों व महाविद्यालयों में प्राप्त हो सकती है। इसी भांति ब्राहृ विद्या का ज्ञान भी सन्त मत में सद्गुरु से ही प्राप्त होता है। इसमें सन्देह नहीं कि यह सब ज्ञान पाठ्य-पुस्तकों में लिखा होता है तो भी उसे समझने के लिये विद्यालय, महाविद्यालय व विश्व विद्यालयों में जाकर सतर्क होकर अध्यापकों से पाठ सुनने पड़ते हैं क्योंकि उन पुस्तकों में जो भेद छुपा होता है उसे शिक्षक ही व्यक्त करते हैं वे उसकी व्याख्या करके विद्यार्थी के मस्तिष्क में उसे बैठाते हैं जिससे विद्यार्थी उससे लाभान्वित होते हैं।      इसी प्रकार ब्राहृविद्या अर्थात् सुरति शब्दयोग का रहस्य सभी धार्मिक ग्रन्थों व शास्त्रों में छुपा हुआ होता है परन्तु पढ़ने वाले लोग उस भेद को जान नहीं सकते। वे कई बार उन पुस्तकों को पढ़ते हैं किन्तु उन पर वह भेद स्पष्ट नहीं होता। वह भेद उन पर तभी स्पष्ट होगा जब वे सन्त सद्गुरु की शरण में आयेंगे। सद्गुरु उन गूढ़ रहस्र्यों को उन्हें समझाएंगे तब वे जान सकेंगे कि उन धार्मिक पुस्तकों में क्या लिखा हुआ है। और सत्पुरुष उन ग्रन्थों में क्या क्या भेद छोड़ गये हैं। उस राज को जान करके ही उन्हीं पुस्तकों को फिर से पढ़ने में उन्हें अत्यधिक प्रसन्नता होगी।      वस्तुतः सन्तमत में ही ब्राहृविद्या का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। वह ज्ञान-प्राप्त भी केवल केवल सद्गुरु से होता है। जब जीव सद्गुरु की निष्काम सेवा करेगा, शब्द का अभ्यास करेगा, सद्गुरु का पवित्र सत्संग श्रवण करेगा तथा अपने विचारों को सद्गुरु की मौज के अनुसार बनायेगा तो फिर उसको सद्गुरु का वास्तविक स्वरुप दृष्टिगोचर होगा। उनके शब्द-स्वरुप में एकाग्र होने से सद्गुरु के आध्यात्मिक सत्संग का आन्तरिक उद्देश्य उसकी समझ में आयेगा। 33 गुर का सबद लगो मन मीठा। पारब्राहृ ताते मोहि डीठा।।राग गौड़ी महला 5. पृ.187) सन्तमत में जीव को अपनी विचारधारा में परिवर्तन करना होता है-यही सबसे अनिवार्य शर्त है। इसी से वह इस मार्ग में उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकता है जब तक वह जीव अपने विचारों को सद्गुरु के विचारों में सम्मिलित नहीं करता तब तक वह आत्मिक प्रगति नहीं कर सकता। उसको ब्राहृविद्या की प्राप्ति नहीं हो सकती। सन्त मत में अपने विचारों को सद्गुरु के विचारों में मिला देना अर्थात एक रंग हो जाना ही सबसे बड़ा कर्म है। यही सबसे बड़ा ज्ञान, सेवा और योग है। अपने विचारों को मिटा करके सद्गुरु जी की मौज को अपनाना ही सबसे ऊँची शिक्षा है। जैसे पानी पानी में मिलकर एक रुप हो जाता है वैसे ही जीवों के विचार सद्गुरु के विचारों में मिल कर एक रुप हो जाते हैं। यही सन्त मत की अन्तिम मंज़िल है।        सेवक स्वामी एक मति, जो मति में मति मिलि जाय।                 चतुराई   रीझे   नहीं  ,   रीझे   मन   के  भाय।। सेवक और स्वामी अथवा जीव और सद्गुरु तभी एक मत हो सकते हैं जब जीव सद्गुरु की मौज के अनुसार ही आचरण करे। सद्गुरु की आज्ञानुसार तन और धन से सेवा करे। जब तन व धन से सेवा करेगा तो मन स्वयमेव सद्गुरु की ओर जायेगा। जब मन सद्गुरु के ध्यान व स्मरण में लगेगा तो उसके विचार शनैःशनैः सद्गुरु के विचारों में लीन हो जाएंगे। पुनः ऐसा समय आयेगा जब वह सद्गुरु की कृपा से एकमत हो जाएगा।      सन्त मत में सबसे विकट समस्या यही होती है कि जीव अपने विचारों का त्याग नहीं करता यह जीव चाहे स्त्री-पुत्र-धन माल आदि सब वस्तुओं का त्याग करे किन्तु जब तक अपने विचार और अपनी मनमति नहीं छोड़ता तब तक अपने ध्येय पर नहीं पहुँचता। सन्त मत के जिनते महान आचार्य हो गुज़रे हैं जैसे परमसन्त श्री कबीर साहिब जी, श्री गुरुनानकदेव जी, श्री परमहँस अद्वैत मत के महान प्रथम आचार्य श्री परमहंस दयाल जी महाराज और उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारियों का यही मत रहा है कि श्री गुरु-आज्ञा का पालन करना ही जीव का परम धर्म है। सर्वप्रथम कोटि का भक्त, साधु अथवा संन्यासी वह है जिसका मन अपने सद्गुरु की आज्ञा में रंगा हो। जब यह मन सोलह के सोलह आने सद्गुरु की आज्ञा में रंग जायेगा तो इस जीव के अपने विचार सद्गुरु की विचार धारा में स्वयमेव बदल जायेंगे। फिर सेवक और स्वामी एक मति हो जायेंगे।      सन्त मत के आचार्य जीव को आन्तरिक सुरत शब्द योग की युक्ति बताते हैं और मानुष देह को ही परमात्मा का वास्तविक मन्दिर बतलाते हैं। इस मानवीय काया में ही जीव को उस ज्योति स्वरुप ब्राहृ में लीन हो जाने को कहते हैं किन्तु समय समय पर विश्व में प्रकट होने वाली विभूतियों की कृपा के बिना ये जीव इस मंज़िल को प्राप्त नहीं कर सकते।      इसके अतिरिक्त सन्त मत-वर्तमान काल को सबसे अधिक महत्त्व देता है। भूतकाल एक स्वप्न है और भविष्यकाल मात्र एक विचार है। इन दोनों को छोड़कर वर्तमान समय का समादर करना चाहिये। यही समय है जिसमें जीव जो चाहे कर सकता है। बीता हुआ काल लौटा नहीं करता। यही समझना चाहिये कि जो प्रभु की मौज थी वैसा ही हुआ। सब ठीक ही हुआ इसी तरह आगे आने वाले समय की दशा है। वह भी एक विचार है हो सकता है कि वह हो या न हो। इसलिये सन्त मत के महान आचार्यों ने वर्तमान काल को विशेष गौरव प्रदान किया है उनका यह भी आदेश होता है कि यह जीव परमार्थ करे।  इस समय को सद्गुरु की आज्ञा व सेवा में ही व्यतीत करे। जिससे वह इस जीवन-काल में ही यथार्थ आनन्द व सुख को प्राप्त कर सके। अपनी सुरति  को काल व माया के चक्र से मुक्त करा ले। यह काम 34 सद्गुरु के शब्द की कमाई से और उनका ध्यान करने से सम्भव हो सकता है। यदि जीव की सुरति जीवन काल में स्वतन्त्र न हो सकी तो मरने के बाद वह अपने उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सकती। भावार्थ यह कि जीवन काल में ही सब कुछ करना है।      सन्तमत में जैसे वर्तमान काल को अत्युत्तम समझा जाता है इसी तरह समय के सन्त सद्गुरु को भी सर्वोत्कृष्ट समझा जाता है। वर्तमान के सद्गुरु की उपासना,सेवा और भक्ति ही सबसे ऊँची मानी जाती है। तत्कालीन सद्गुरु ही जीव के आमने-सामने बैठकर उसकी हर तरह से न्यूनता को पूरा कर सकते हैं।      पहले वर्णन हो चुका है कि जीव ने अपने विचारों को सद्गुरु के विचारों में लीन करना है यह तभी सम्भव है जब कि सद्गुरु सगुण रुप में सामने विराजमान हों। जीव का मन बड़ा चंचल है। हर घड़ी जीव को माया की ओर आकृष्ट करता है। सद्गुरु के चरणों में किये हुए उसके विश्वास पर चोट करता हैऔर उसे अनेक प्रकार के भ्रम व संशयों के चक्र में डाल देता है। इन सब बातों और रुकावटों से बचने के लिये जीव को वर्तमान सद्गुरु की छत्रच्छाया की अत्यन्त आवश्यकता है। समय के सद्गुरु जीव को भ्रम-संशय व सन्देहों से छुड़ाकर उसकी सुरति को अपने अनामी स्थान पर ले जायेंगे। उसे माया के चंगुल से सर्वदा के लिये विमुक्त करा देंगे।      जीव के अन्तःकरण में अनेकों विचार भरे रहते हैं। साकार सद्गुरु ही उन सब मिथ्या विचारों को काट कर अपनी एक विचार धारा जीव के हृदय में भर देते हैं। जब जीव एक विचार का अथवा एक मत का हो जाता है तो वह ईश्वर रुप हो जायेगा। क्योंकि एक विचार ही ईश्वर है और अनेक विचार जीव हैं।      आज जो समय का सम्राट अथवा न्यायाधीश होगा उसके आदेश में ही शक्ति है। इसी प्रकार प्रकृति ने इस विश्व में आध्यात्मिक परम्परा को आगे बढ़ाने के लिये उस पवित्र आसन पर श्री सद्गुरुदेव जी को विराजमान किया है। जो भी सन्त सत्पुरुष इस अध्यात्म के सिंहासन पर समासीन होकर संसार में कार्य कर गये हैं उनके प्रति जीवों के ह्मदयों में अवश्य ही सम्मान होगा। किन्तु आत्मिक लाभ और मन की घड़त तत्कालीन सद्गुरु ही कर सकते हैं। वर्तमान काल के सद्गुरु की भक्ति, सेवा व आज्ञा का पालन करना ही सन्त मत है।      सन्त मत में पुरुष-स्त्री, बड़े-छोटे और जाति-पांति का भेद नहीं होता। इसकी शिक्षा सबके लिये एक जैसी है। इस भांति जब जीव सन्त मत का अनुुयायी बन जाता है तो इस भवसागर से जीवन काल में ही पार हो जाता है। जीव अपना सम्बन्ध वर्तमान सद्गुरु की पवित्र आज्ञा से, उनके पवित्र अनाहत शब्द व सुरत-शब्द-योग में लगाता है तो उसे नित्य सुख और अनुपम शान्ति मिलती है। सुरति अपने अनामी लोक जहां से यह उतरी थी पर पहुँच कर अपने मालिक सन्त सद्गुरु के स्वरुप में लीन हो जाती है। विश्व में इसलिये सन्त मत सर्वश्रेष्ठ माना गया है। Sahaj at 4:37 PM Share No comments: Post a Comment ‹ › Home View web version About Me Sahaj View my complete profile Powered by Blogger.

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