Thursday, 4 January 2018
वेदान्त दर्शन
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वेदान्त दर्शन
भारतीय / हिन्दू दर्शन की आस्तिक धाराओं में एक प्रमुख धारा
वेदान्त ज्ञानयोग की एक शाखा है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। इसका मुख्य स्रोत उपनिषद है जो वेद ग्रंथो और अरण्यक ग्रंथों का सार समझे जाते हैं। उपनिषद् वैदिक साहित्य का अंतिम भाग है, इसीलिए इसको वेदान्त कहते हैं। कर्मकांड और उपासना का मुख्यत: वर्णन मंत्र और ब्राह्मणों में है, ज्ञान का विवेचन उपनिषदों में। 'वेदान्त' का शाब्दिक अर्थ है - 'वेदों का अंत' (अथवा सार)।
वेदान्त की तीन शाखाएँ जो सबसे ज्यादा जानी जाती हैं वे हैं: अद्वैत वेदान्त, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत। आदि शंकराचार्य, रामानुज और श्री मध्वाचार्य जिनको क्रमश: इन तीनो शाखाओं का प्रवर्तक माना जाता है, इनके अलावा भी ज्ञानयोग की अन्य शाखाएँ हैं। ये शाखाएँ अपने प्रवर्तकों के नाम से जानी जाती हैं जिनमें भास्कर, वल्लभ, चैतन्य, निम्बारक, वाचस्पति मिश्र, सुरेश्वर और विज्ञान भिक्षु। आधुनिक काल में जो प्रमुख वेदान्ती हुये हैं उनमें रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष, स्वामी शिवानंद और रमण महर्षि उल्लेखनीय हैं। ये आधुनिक विचारक अद्वैत वेदान्त शाखा का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे वेदान्तो के प्रवर्तकों ने भी अपने विचारों को भारत में भलिभाँति प्रचारित किया है परन्तु भारत के बाहर उन्हें बहुत कम जाना जाता है।
'वेदान्त’ का अर्थ संपादित करें
‘वेदान्त’ का शाब्दिक अर्थ है ‘वेदों का अन्त’। आरम्भ में उपनिषदों के लिए ‘वेदान्त’ शब्द का प्रयोग हुआ किन्तु बाद में उपनिषदों के सिद्धान्तों को आधार मानकर जिन विचारों का विकास हुआ, उनके लिए भी ‘वेदान्त’ शब्द का प्रयोग होने लगा। उपनिषदों के लिए 'वेदान्त' शब्द के प्रयोग के प्रायः तीन कारण दिये जाते हैं :-
(1) उपनिषद् ‘वेद’ के अन्त में आते हैं। ‘वेद’ के अन्दर प्रथमतः वैदिक संहिताएँ- ऋक्, यजुः, साम तथा अथर्व आती हैं और इनके उपरान्त ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् आते हैं। इस साहित्य के अन्त में होने के कारण उपनिषद् वेदान्त कहे जाते हैं।
(2) वैदिक अध्ययन की दृष्टि से भी उपनिषदों के अध्ययन की बारी अन्त में आती थी। सबसे पहले संहिताओं का अध्ययन होता था। तदुपरान्त गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर यज्ञादि गृहस्थोचित कर्म करने के लिए ब्राह्मण-ग्रन्थों की आवश्यकता पड़ती थी। वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम में प्रवेश करने पर आरण्यकों की आवश्यकता होती थी, वन में रहते हुए लोग जीवन तथा जगत् की पहेली को सुलझाने का प्रयत्न करते थे। यही उपनिषद् के अध्ययन तथा मनन की अवस्था थी।
(3) उपनिषदों में वेदों का ‘अन्त’ अर्थात् वेदों के विचारों का परिपक्व रूप है। यह माना जाता था कि वेद-वेदांग आदि सभी शास्त्रों का अध्ययन कर लेने पर भी बिना उपनिषदों की शिक्षा प्राप्त किये हुए मनुष्य का ज्ञान पूर्ण नहीं होता था।
आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार ‘वेदान्त’ पद का तात्पर्य है-
वेदादि में विधिपूर्वक अध्ययन, मनन तथा उपासना आदि के अन्त में जो तत्त्व जाना जाये उस तत्त्व का विशेष रूप से यहाँ निरूपण किया गया हो, उस शास्त्र को ‘वेदान्त’ कहा जाता है।
वेदान्त का साहित्य संपादित करें
ऊपर कहा जा चुका है ‘वेदान्त’ शब्द मूलतः उपनिषदों के लिए प्रयुक्त होता था। अलग-अलग संहिताओं तथा उनकी शाखाओं से सम्बद्ध अनेक उपनिषद् हमें प्राप्त हैं। जिनमें प्रमुख तथा प्राचीन हैं - ईश, केन, कठ, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य तथा बृहदारण्यक। इन उपनिषदों के दार्शनिक सिद्धान्तों में काफी कुछ समानता है किन्तु अनेक स्थानों पर विरोध भी प्रतीत होता है। कालान्तर में यह आवश्यकता अनुभव की गई कि विरोधी प्रतीत होने वाले विचारों में समन्वय स्थापित कर सर्वसम्मत उपदेशों का संकलन किया जाये। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए बादरायण व्यास ने ब्रह्मसूत्र की रचना की जिसे वेदान्त सूत्र, शारीरकसूत्र, शारीरकमीमांसा या उत्तरमीमांसा भी कहा जाता है। इसमें उपनिषदों के सिद्धान्तों को अत्यन्त संक्षेप में, सूत्र रूप में संकलित किया गया है।
अत्यधिक संक्षेप होने के कारण सूत्रों में अपने आप में अस्पष्टता है और उन्हें बिना भाष्य या टीका के समझना सम्भव नहीं है। इसीलिए अनेक भाष्यकारों ने अपने-अपने भाष्यों द्वारा इनके अभिप्राय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया किन्तु इस स्पष्टीकरण में उनका अपना-अपना दृष्टिकोण था और इसीलिये उनमें पर्याप्त मतभेद है। प्रत्येक ने यह सिद्ध करने की चेष्टा की कि उसका भाष्य ही ब्रह्मसूत्रों के वास्तविक अर्थ का स्पष्टीकरण करता है। फलतः सभी भाष्यकार एक-एक वेदान्त सम्प्रदाय के प्रवर्तक बन गये। इनमें प्रमुख है शंकर का अद्वैतवाद, रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद, मध्व का द्वैतवाद, निम्बार्क का द्वैताद्वैतवाद तथा वल्लभ का शुद्धाद्वैतवाद। इन भाष्यों के अनन्तर इन भाष्यों पर टीकाएँ तथा टीकाओं पर टीकाओं का क्रम चला। अपने-अपने सम्प्रदाय के मत को पुष्ट करने के लिए अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थों की भी रचना हुई, जिनसे वेदान्त का साहित्य अत्यन्त विशाल हो गया।
ऐतिहासिक रूप से किसी गुरु के लिये आचार्य बनने / समझे जाने के लिये वेदान्त की पुस्तकों पर टीकाएँ या भाष्य लिखने पड़ते हैं। इन पुस्तकों में तीन महत्वपूर्ण पुस्तक शामिल हैं उपनिषद, भगवद गीता और ब्रह्मसूत्र, जिन्हें प्रस्थानत्रयी कहते हैं। तदनुसार आदि शंकराचार्य, रामानुज और मध्वाचार्य तीनों ने इन तीन महत्वपूर्ण पुस्तकों पर विशिष्ट रचनायें दी हैं। तीनों ग्रंथों में प्रगट विचारों का कई तरह से व्याख्यान किया जा सकता है। इसी कारण से ब्रह्म, जीव तथा जगत् के संबंध में अनेक मत उपस्थित किए गए और इस तरह वेदान्त के अनेक रूपो का निर्माण हुआ था |
अद्वैत वेदान्त संपादित करें
गौडपाद (300 ई.) तथा उनके अनुवर्ती आदि शंकराचार्य (700 ई.) ब्रह्म को प्रधान मानकर जीव और जगत् को उससे अभिन्न मानते हैं। उनके अनुसार तत्व को उत्पत्ति और विनाश से रहित होना चाहिए। नाशवान् जगत तत्वशून्य है, जीव भी जैसा दिखाई देता है वैसा तत्वत: नहीं है। जाग्रत और स्वप्नावस्थाओं में जीव जगत् में रहता है परंतु सुषुप्ति में जीव प्रपंच ज्ञानशून्य चेतनावस्था में रहता है। इससे सिद्ध होता है कि जीव का शुद्ध रूप सुषुप्ति जैसा होना चाहिए। सुषुप्ति अवस्था अनित्य है अत: इससे परे तुरीयावस्था को जीव का शुद्ध रूप माना जाता है। इस अवस्था में नश्वर जगत् से कोई संबंध नहीं होता और जीव को पुन: नश्वर जगत् में प्रवेश भी नहीं करना पड़ता। यह तुरीयावस्था अभ्यास से प्राप्त होती है। ब्रह्म-जीव-जगत् में अभेद का ज्ञान उत्पन्न होने पर जगत् जीव में तथा जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है। तीनों में वास्तविक अभेद होने पर भी अज्ञान के कारण जीव जगत् को अपने से पृथक् समझता है। परंतु स्वप्नसंसार की तरह जाग्रत संसार भी जीव की कल्पना है। भेद इतना ही है कि स्वप्न व्यक्तिगत कल्पना का परिणाम है जबकि जाग्रत अनुभव-समष्टि-गत महाकल्पना का। स्वप्नजगत् का ज्ञान होने पर दोनों में मिथ्यात्व सिद्ध है। परंतु बौद्धों की तरह वेदान्त में जीव को जगत् का अंग होने के कारण मिथ्या नहीं माना जाता। मिथ्यात्व का अनुभव करनेवाला जीव परम सत्य है, उसे मिथ्या मानने पर सभी ज्ञान को मिथ्या मानना होगा। परंतु जिस रूप में जीव संसार में व्यवहार करता है उसका वह रूप अवश्य मिथ्या है। जीव की तुरीयावस्था भेदज्ञान शून्य शुद्धावस्था है। ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का संबंध मिथ्या संबंध है। इनसे परे होकर जीव अपनी शुद्ध चेतनावस्था को प्राप्त होता है। इस अवस्था में भेद का लेश भी नहीं है क्योंकि भेद द्वैत में होता है। इसी अद्वैत अवस्था को ब्रह्म कहते हैं। तत्व असीम होता है, यदि दूसरा तत्व भी हो तो पहले तत्व की सीमा हो जाएगी और सीमित हो जाने से वह तत्व बुद्धिगम्य होगा जिसमें ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का भेद प्रतिभासित होने लगेगा। अनुभव साक्षी है कि सभी ज्ञेय वस्तुएँ नश्वर हैं। अत: यदि हम तत्व को अनश्वर मानते हैं तो हमें उसे अद्वय, अज्ञेय, शुद्ध चैतन्य मानना ही होगा। ऐसे तत्व को मानकर जगत् की अनुभूयमान स्थिति का हमें विवर्तवाद के सहार व्याख्यान करना होगा। रस्सी में प्रतिभासित होनेवाले सर्प की तरह यह जगत् न तो सत् है, न असत् है। सत् होता तो इसका कभी नाश न होता, असत् होता तो सुख, दु:ख का अनुभव न होता। अत: सत् असत् से विलक्षण अनिवर्चनीय अवस्था ही वास्तविक अवस्था हो सकती है। उपनिषदों में नेति कहकर इसी अज्ञातावस्था का प्रतिपादन किया गया है। अज्ञान भाव रूप है क्योंकि इससे वस्तु के अस्तित्व की उपलब्धि होती है, यह अभाव रूप है, क्योंकि इसका वास्तविक रूप कुछ भी नहीं है। इसी अज्ञान को जगत् का कारण माना जाता है। अज्ञान का ब्रह्म के साथ क्या संबंध है, इसका सही उत्तर कठिन है परंतु ब्रह्म अपने शुद्ध निर्गुण रूप में अज्ञान विरहित है, किसी तरह वह भावाभाव विलक्षण अज्ञान से आवृत्त होकर सगुण ईश्वर कहलाने लगता है और इस तरह सृष्टिक्रम चालू हो जाता है। ईश्वर को अपने शुद्ध रूप का ज्ञान होता है परंतु जीव को अपने ब्रह्मरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना के द्वारा ब्रह्मीभूत होना पड़ता है। गुरु के मुख से 'तत्वमसि' का उपदेश सुनकर जीव 'अहं ब्रह्मास्मि' का अनुभव करता है। उस अवस्था में संपूर्ण जगत् को आत्ममय तथा अपने में सम्पूर्ण जगत् को देखता है क्योंकि उस समय उसके (ब्रह्म) के अतिरिक्त कोई तत्व नहीं होता। इसी अवस्था को तुरीयावस्था या मोक्ष कहते हैं।
विशिष्टाद्वैत वेदान्त संपादित करें
रामानुजाचार्य ने (11वीं शताब्दी) शंकर मत के विपरीत यह कहा कि ईश्वर (ब्रह्म) स्वतंत्र तत्व है परंतु जीव भी सत्य है, मिथ्या नहीं। ये जीव ईश्वर के साथ संबद्ध हैं। उनका यह संबंध भी अज्ञान के कारण नहीं है, वह वास्तविक है। मोक्ष होने पर भी जीव की स्वतंत्र सत्ता रहती है। भौतिक जगत् और जीव अलग अलग रूप से सत्य हैं परंतु ईश्वर की सत्यता इनकी सत्यता से विलक्षण है। ब्रह्म पूर्ण है, जगत् जड़ है, जीव अज्ञान और दु:ख से घिरा है। ये तीनों मिलकर एकाकार हो जाते हैं क्योंकि जगत् और जीव ब्रह्म के शरीर हैं और ब्रह्म इनकी आत्मा तथा नियंता है। ब्रह्म से पृथक् इनका अस्तित्व नहीं है, ये ब्रह्म की सेवा करने के लिए ही हैं। इस दर्शन में अद्वैत की जगह बहुत्व की कल्पना है परंतु ब्रह्म अनेक में एकता स्थापित करनेवाला एक तत्व है। बहुत्व से विशिष्ट अद्वय ब्रह्म का प्रतिपादन करने के कारण इसे विशिष्टाद्वैत कहा जाता है।
विशिष्टाद्वैत मत में भेदरहित ज्ञान असंभव माना गया है। इसीलिए शंकर का शुद्ध अद्वय ब्रह्म इस मत में ग्राह्य नहीं है। ब्रह्म सविशेष है और उसकी विशेषता इसमें है कि उसमें सभी सत् गुण विद्यामान हैं। अत: ब्रह्म वास्तव में शरीरी ईश्वर है। सभी वैयक्तिक आत्माएँ सत्य हैं और इन्हीं से ब्रह्म का शरीर निर्मित है। ये ब्रह्म में, मोक्ष हाने पर, लीन नहीं होतीं; इनका अस्तित्व अक्षुण्ण बना रहता है। इस तरह ब्रह्म अनेकता में एकता स्थापित करनेवाला सूत्र है। यही ब्रह्म प्रलय काल में सूक्ष्मभूत और आत्माओं के साथ कारण रूप में स्थित रहता है परंतु सृष्टिकाल में सूक्ष्म स्थूल रूप धारण कर लेता है। यही कार्य ब्रह्म कहा जाता है। अनंत ज्ञान और आनंद से युक्त ब्रह्म को नारायण कहते हैं जो लक्ष्मी (शक्ति) के साथ बैकुंठ में निवास करते हैं। भक्ति के द्वारा इस नारायण के समीप पहुँचा जा सकता है। सर्वोत्तम भक्ति नारायण के प्रसाद से प्राप्त होती है और यह भगवद्ज्ञानमय है। भक्ति मार्ग में जाति-वर्ण-गत भेद का स्थान नहीं है। सबके लिए भगवत्प्राप्ति का यह राजमार्ग है।
द्वैत वैदांत संपादित करें
मध्व (1197 ई.) ने द्वैत वेदान्त का प्रचार किया जिसमें पाँच भेदों को आधार माना जाता है- जीव ईश्वर, जीव जीव, जीव जगत्, ईश्वर जगत्, जगत् जगत्। इनमें भेद स्वत: सिद्ध है। भेद के बिना वस्तु की स्थिति असंभव है। जगत् और जीव ईश्वर से पृथक् हैं किंतु ईश्वर द्वारा नियंत्रित हैं। सगुण ईश्वर जगत् का स्रष्टा, पालक और संहारक है। भक्ति से प्रसन्न होनेवाले ईश्वर के इशारे पर ही सृष्टि का खेल चलता है। यद्यपि जीव स्वभावत: ज्ञानमय और आनंदमय है परंतु शरीर, मन आदि के संसर्ग से इसे दु:ख भोगना पड़ता है। यह संसर्ग कर्मों के परिणामस्वरूप होता है। जीव ईश्वरनियंत्रित होने पर भी कर्ता और फलभोक्ता है। ईश्वर में नित्य प्रेम ही भक्ति है जिससे जीव मुक्त होकर, ईश्वर के समीप स्थित होकर, आनंदभोग करता है। भौतिक जगत् ईश्वर के अधीन है और ईश्वर की इच्छा से ही सृष्टि और प्रलय में यह क्रमश: स्थूल और सूक्ष्म अवस्था में स्थित होता है। रामानुज की तरह मध्व जीव और जगत् को ब्रह्म का शरीर नहीं मानते। ये स्वत:स्थित तत्व हैं। उनमें परस्पर भेद वास्तविक है। ईश्वर केवल इनका नियंत्रण करता है। इस दर्शन में ब्रह्म जगत् का निमित्त कारण है, प्रकृति (भौतिक तत्व) उपादान कारण है।
द्वैताद्वैत वेदान्त संपादित करें
निंबार्क (11 वीं शताब्दी) का दर्शन रामानुज से अत्यधिक प्रभावित है। जीव ज्ञान स्वरूप तथा ज्ञान का आधार है। जीव और ज्ञान में धर्मी-धर्म-भाव-संबध अथवा भेदाभेद संबंध माना गया है। यही ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है। ईश्वर जीव का नियंता, भर्ता और साक्षी है। भक्ति से ज्ञान का उदय होने पर संसार के दु:ख से मुक्त जीव ईश्वर का सामीप्य प्राप्त करता है। अप्राकृत भूत से ईश्वर का शरीर तथा प्राकृत भूत से जगत् का निर्माण हुआ है। काल तीसरा भूत माना गया है। ईश्वर को कृष्ण राधा के रूप में माना गया है। जीव और भूत इसी के अंग हैं। यही उपादान और निमित कारण है। जीव-जगत् तथा ईश्वर में भेद भी है अभेद भी है। यदि जीव-जगत् तथा ईश्वर एक होते तो ईश्वर को भी जीव की तरह कष्ट भोगना पड़ता। यदि भिन्न होते तो ईश्वर सर्वव्यापी सर्वांतरात्मा कैसे कहलाता?
शुद्धाद्वैत वेदान्त संपादित करें
वल्लभ (1479 ई.) के इस मत में ब्रह्म स्वतंत्र तत्व है। सच्चिदानंद श्रीकृष्ण ही ब्रह्म हैं और जीव तथा जगत् उनके अंश हैं। वही अणोरणीयान् तथा महतो महीयान् है। वह एक भी है, नाना भी है। वही अपनी इच्छा से अपने आप को जीव और जगत् के नाना रूपों में प्रकट करता है। माया उसकी शक्ति है जिसी सहायता से वह एक से अनेक होता है। परंतु अनेक मिथ्या नहीं है। श्रीकृष्ण से जीव-जगत् की स्वभावत: उत्पत्ति होती है। इस उत्पत्ति से श्रीकृष्ण में कोई विकार नहीं उत्पन्न होता। जीव-जगत् तथा ईश्वर का संबंध चिनगारी आग का सबंध है। ईश्वर के प्रति स्नेह भक्ति है। सांसारिक वस्तुओं से वैराग्य लेकर ईश्वर में राग लगाना जीव का कर्तव्य है। ईश्वर के अनुग्रह से ही यह भक्ति प्राप्य है, भक्त होना जीव के अपने वश में नहीं है। ईश्वर जब प्रसन्न हो जाते हैं तो जीव को (अंश) अपने भीतर ले लेते हैं या अपने पास नित्यसुख का उपभोग करने के लिए रख लेते हैं। इस भक्तिमार्ग को पुष्टिमार्ग भी कहते हैं।
अचिंत्य भेदाभेद वेदान्त संपादित करें
महाप्रभु चैतन्य (1485-1533 ई.) के इस संप्रदाय में अनंत गुणनिधान, सच्चिदानंद श्रीकृष्ण परब्रह्म माने गए हैं। ब्रह्म भेदातीत हैं। परंतु अपनी शक्ति से वह जीव और जगत् के रूप में आविर्भूत होता है। ये ब्रह्म से भिन्न और अभिन्न हैं। अपने आपमें वह निमित्त कारण है परंतु शक्ति से संपर्क होने के कारण वह उपादान कारण भी है। उसकी तटस्थशक्ति से जीवों का तथा मायाशक्ति से जगत् का निर्माण होता है। जीव अनंत और अणु रूप हैं। यह सूर्य की किरणों की तरह ईश्वर पर निर्भर हैं। संसार उसी का प्रकाश है अत: मिथ्या नहीं है। मोक्ष में जीव का अज्ञान नष्ट होता है पर संसार बना रहता है। सारी अभिलाषाओं को छोड़कर कृष्ण का अनुसेवन ही भक्ति है। वेदशास्त्रानुमोदित मार्ग से ईश्वरभक्ति के अनंतर जब जीव ईश्वर के रग में रँग जाता है तब वास्तविक भक्ति होती है जिसे रुचि या रागानुगा भक्ति कहते हैं। राधा की भक्ति सर्वोत्कृष्ट है। वृंदावन धाम में सर्वदा कृष्ण का आनंदपूर्ण प्रेम प्राप्त करना ही मोक्ष है।
सन्दर्भ ग्रंथ संपादित करें
उपनिषद्; भगवद्गीता; गौडपादकारिका; ब्रह्मसूत्र;
उपनिषद्गीता और ब्रह्मसूत्र पर सांप्रदायिक भाष्य;
राधाकृष्णन् : इंडियन फिलासफी, भाग 1-2;
दासगुप्त : हिस्टरी ऑव इंडियन फलासफी, भाग 1-
इन्हें भी देखें संपादित करें
वेदान्तसूत्र - वादरायणकृत सूत्र ग्रन्थ जिसे ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं।
वेदांग - शिक्षा, कल्प, व्याकरण आदि वेद के छः अंग
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Tuesday, 2 January 2018
"नाम"सर्वत्र एक जैसा सम और एक है।
पांचों नाम एक कैसे:-
१)प्रेम
२)सुरत
३)निरंतर
४)मन
५)पवन। ५चो मिल कर एक
आदि नाम (कशी/भृकुटी)१ॐकार में एक जाहां हो वही नाम है।
जोति लजाय ब्रह्म जहं दरसै, आगे अगम अपारा।
The Hindi literature given on this site is partially translatable through 'Google Translate'.
Ok, got it
Baba Faqir Chand
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अगम-वाणी भाग-4
सत्संग प्रवचन
(मानवता मंदिर 28-7-1967)
आदि अवस्था
आज सत्संग में यह शब्द पढ़ा गयाः-
कबीरा कब से भये बैरागी, तुम्हरी सुरत कहां को लागी।
उत्तर;- धुंधमई का मेला नाहीं, नहिं गुरु नहिं चेला।
सकल पसारा जेहि दिन नाहीं, जेहि दिन पुरुष अकेला।
गोरख हम तब के वैरागी, हमरी सुरत नाम से लागी।
यदि आज यह अनुभव न होता कि मैं किसी के अन्तर नहीं जाता तो शायद मैं इस शब्द के अर्थ को बिल्कुल न समझ सकता. गोरख प्रश्न करता है. गोरख योगी था. योग दो वस्तुओं के मिलाप का नाम है. मैं अपने अन्तर में कभी किसी ख्याल को लेकर उस पर विचार करता था. कभी राम, कृष्ण या दाता दयाल की मूर्ति बनाकर आनन्द लेता था. इस प्रकार के योगों से मन के अन्दर शक्ति आती थी. जो ख्याल करता वह पूरा होता रहता था. चूंकि उस मालिक से मिलने की इच्छा थी तो जो अनुभव मुझे गुरु पद पर आने से हुआ उससे यह विश्वास हुआ कि जो कुछ मैं सोचता था, देखता था वह तो वह था जो मेरे अन्तर से पैदा होता था. अतः विवश हुआ कि उस मालिक को ढूंढूं जहां से कि मैं आया था. कबीर का जो कथन है:-
धुंधमई का मेला नाहीं, नहिं गुरु नहिं चेला।
यह धुंधमई का मेला क्या है? धुंधमई कहते हैं जब प्रातः काल को धुंध छा जाती है और कुछ दिखाई नहीं देता. जब मनुष्य की बुद्धि किसी विचार को लेकर उस मालिक की खोज करती है और उसकी बुद्धि काम नहीं करती तो उस बुद्धि के काम न करने का नाम धुंधमई है. कबीर का क्या भाव होगा या किस भाव से यह शब्द लिखा है मुझे नहीं मालूम, मैं कहता हूँ कि बुद्धि से यदि कोई चाहे कि मैं उस मालिक का दर्शन कर सकूं तो असम्भव है. साथ ही जब तक कोई आदमी किसी रूप को चाहे वह किसी देवता का है या गुरु का है या प्रकाश रूपी गुरु की आंख, नाक, मस्तक आदि को प्रकाशवान रूप में देखता है, वह उस मालिक तक नहीं पहुंच सकता और न कोई पहुंचा. क्यों? क्योंकि जो व्यक्ति मुझको अपने अन्तर प्रकाशवान कमल के फूल पर देखते हैं और मैं वहां नहीं होता तो विवश हो गया हूँ कि कबीर के इस शब्द के साथ सहमत हूँ.
कबीर का कथन सत्य है कि हमारा जो आदि है जहां से हम आये हैं वह वह अवस्था है जहां न तो धुंधमई है अर्थात् न बुद्धि है और न स्वामी और सेवक, न गुरु है न चेला है. कबीर भी नहीं, मैं भी नहीं. हर एक मनुष्य का वह आदि है जहां से हम इस रचना के सिलसिले में इस संसार में आये हैं.
ब्रह्म नहीं जब टोपी दीन्हा, विष्णु नहीं जब टीका।
सिव सकती कै जन्मौ नाहीं, जबे जोग हम सीखा।।
गोरख को उत्तर देते हुये कबीर कहते हैं कि हम उस समय से वैरागी है जब ब्रह्मा ने रचना भी नहीं की थी. ब्रह्मा वह शक्ति है जो हमारे मन में संकल्प पैदा करती, वासनी उठाती है. विष्णु वह शक्ति है जो हमारे अन्तर उत्पन्न हुई वासना की पूर्ति करके हमें आनन्द देती है. शिव वह शक्ति है जो उत्पन्न हुई और विकसित हुई वासनाओं को मिटा देती है, समाप्त कर देती है. उस अवस्था में, जिसका मैंने वर्णन किया, न ब्रह्मा होता है न कोई वासना उठती है और न वासना की पूर्ति होती है और न उसके विनाश का प्रश्न पैदा होता है.
सतयुग में हम पहिरि पांवरी, त्रेता झोरी डंडा।
कबीर का इससे क्या भाव है वह कबीर जाने मगर जो मैं समझता हूँ, वह कहता हूँ. सत्युग हमारा बालपन का समय है. हमारी सुरत की धार या वह जो हम हैं, आदि घर से आये हैं. इस शरीर में आने से इस शरीर में ठहर जाते हैं, खड़ाऊं के सहारे हो जाते हैं, शरीर में सुरत का ठहराव आ जाता है. यह सत्युग है. झोली डंडा क्या होता है? साधु लोग रोटी खाने के लिये झोली पहन कर डंडा लेकर मांगते फिरते हैं अपनी उदर पूर्ति के लिये. जब बचपन से आदमी बड़ा होता है तो वह उदर के भरने के लिये तरह-तरह की आशायें रख कर के फिरता है, काम करता है, नौकरी करता है, खेती करता है. ऐसा समझता हूँ.
द्वापर में हम अड़बंद पहिरा, कलऊ फिरयौ नौ खंडा।
'द्वापर में हमने लंगोट पहिरा.' लंगोट का अर्थ है इद्रियों का निरोध करना. जब हम दुनिया के कश्मकश में असफल होते हैं तो वह जो हमारी वासनायें उठती हैं वे सब की सब पूरी नहीं हो सकतीं. सब्र-संतोष से काम लेने की कोशिश करते हैं. इसका नाम है 'द्वापर में हम अड़बंद पहिरा'. 'कलियुग फिरयो नौ खंडा.' हम जब्त या संयम से भी काम लेते हैं मगर फिर भी शान्ति नहीं मिलती. बुद्धि चंचल हो जाती है. शान्ति नहीं मिलती. फिर क्या होता है-
काशी में हम प्रकट भये हैं, रामानन्द चिताये।
हमारा जो यह शरीर है यह काशी है. कलियुग में जब ये सब बातें हो जाती हैं, जीव अशान्त हो जाता है. फिर उसको गुरु मिलता है. कबीर का गुरु रामानन्द था. अब सबको तो रामानन्द मिलने से रहा. गुरु उसको चेताता है जिस तरह कि दाता दयाल ने मुझको चेताया. क्या चेतावनी दी? जो चेतावनी मुझे मिली वह बताता हूँ-- दाता दयाल ने सन् 1921 ई. में मेरे नाम मेरे चिताने के लिए 'काल चक्र' के शीर्षक से एक शब्द लिखा था--
काल चक्र इक सहज हिंडोला, झूले अचरज न्यारा।
सब कोई झूले झूला चढ़ कर, काल झुलावन हारा।।
(पूरा शब्द 'फकीर भजनावली' में छपा हुआ है.) इस शब्द में उन्होंने मुझे यह लिखा-
अब के चूके मौज न ऐसी, त्याग काल की आसा।
आज का साधन आज ही कर ले, कल को होगा उदासा।।
राधास्वामी दया के सागर, तेरे कारन आये।
उनके चरन में शीश झुका कर, अपना काज बना ले।।
राधास्वामी राधास्वामी, राधास्वामी गाना।
मन बच कर्म से भक्ति कमाना, भूले बाहर आना।।
वह जो राधास्वामी गाना है वह क्या है? वह है सुरत से शब्द को सुनना. यह शब्द ही नाम है मगर यह नाम उस समय प्रकट होता है जब मनुष्य को यह ज्ञान हो जाता है कि जितने रूप-रंग-रेखायें तथा विचार-भाव मनुष्य के अन्तर पैदा होते हैं ये माया हैं, कल्पित हैं. मुझे यह ज्ञान नहीं होता था. इसी ज्ञान को देने को मुझे गुरु पदवी दी थी. अब जाकर समझ में आया कि मैं नहीं प्रत्येक व्यक्ति 'आदि सुरत' है. शब्द जब होता है किसी वस्तु की गति से होता है या टकराने से होता है. तो जितने शब्द हमारे अन्तर में किसी वासना को रखते हुए, किसी दूसरे ख्याल, मूर्ति या चित्र के साथ जुड़ने से पैदा होते हैं वे सार शब्द या सत् शब्द नहीं हो सकते. बात बहुत ऊँची है. असली शब्द हमारे अपने रूप, जो अकाल, अनाम, परमतत्त्व की स्वाभाविक हिलोर गति है, उसका नाम है.
सहजै सहजै मेला होइगा, जागी भगति उतंगा।
कहै कबीर सुनो हो गोरख, चलो सबद के संगा।।
कबीर गोरखनाथ से कहते हैं कि इस मंजिल तक पहुंचने के लिए सहज रास्ते से चलो. जल्दी मत करो. जब तक आदमी के अन्तर में केवल सत्यता, असलियत की सच्ची तड़प पैदा नहीं होगी तब तक यह वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती. मुझमें यह भावना थी. मैं असलियत को देखना चाहता था. अगर अपने मान-बड़ाई और धन-संपत्ति की इच्छा होती तो मैं रहस्य को गोपनीय (गुप्त) रखता. जितना चाहे धन, मान ले लेता. ऐ मेरी विचारधारा के पढ़ने वालो! मैंने यह काम क्यों किया? कुछ तो मेरे प्रारब्ध कर्म समझ लो. कुछ मालिक की मौज, कुछ ऋण समझ लो. मेरी नीयत केवल गरीबों को चिताने की है. जो मेरी तरह परम शान्ति या असलियत के प्राप्त करने के इच्छुक हैं, सहज-सहज चलते रहें. यह प्रकृति, माया इतनी बलवान हैं कि मुझ पर भी हमला करती रहती है. अभ्यास में जाता हूँ. यह जो आनन्द देने वाले दृश्य, प्रेम करने वाला भाव, दाता दयाल से प्रेम अथवा अपने अनुभव को वर्णन करने का भाव यह भी माया ही है. यह मेरी सुरत को अपने उस असली नाम से नीचे लाने की कोशिश करता रहता है. तो जब तक जीना तब तक सीना. बात मेरी समझ में आ गई. सफर करता हुआ चला जा रहा हूँ. जीवन का क्या परिणाम हो उसको नहीं जानता. मौज का खेल है. सत्यता के साथ जितनी मेरी ड्यूटी थी वह कर चला.
सत्संग प्रवचन
(मानवता मन्दिर 27-7-67)
सतलोक
चल हंसा सतलोक हमारे, छोड़ यह संसारा हो।
मेरे दिल के अन्दर एक खोज थी और किसी हद तक अब भी है. यह खोज उस समय पैदा होती है जब मेरा अस्तित्व शारीरिक और मानसिक भान-बोध में आता है. सत कबीर का यह शब्द है जो धर्मदास को कहा गया है :-
चल हंसा सतलोक हमारे, छोड़ यह संसारा हो।
यह संसार काल है राजा, करम को जाल पसारा हो।।
वे कहते हैं कि यह संसार काल का पसारा है. काल कहते हैं समय को, गति को. तो सतलोक क्या हुआ? हमारी वह अवस्था जहां हमारे अन्तर गति नहीं होती, कोई दृश्य नहीं होता, कोई वस्तु हमारे सामने नहीं आती. मैं अपने आप से पूछता हूँ कि क्या कोई ऐसी अवस्था है. 'हां' है. मैं अनुभव करता हूँ मगर सचाई यह है कि वहां स्थायी रूप से अथवा हर समय ठहरा नहीं जाता. हाँ कबीर आज मिलता या धर्मदास मिलता तो उनसे पूछता कि क्या तुम हमेशा उस अवस्था में रह सकते हो.
मुझे इस अवस्था का ज्ञान या अनुभव केवल इस ख्याल ने दिलाया कि मैं किसी के अन्तर नहीं जाता. यदि यह अनुभव न होता तो शायद इस सतलोक का विश्वास ही न आता. जो कुछ कोई देखता है वह उसका अपना ही संसार है. हर वस्तु मनुष्य का अपना ही आपा है. उसके सामने जो कुछ दृष्टिगोचर होता है, अन्तर में या बाहर में, वह संसार है. सम+ सार=संसार. सम कहते हैं समान को, बराबर को. कबीर कहता तो सत्य है मगर संसार के प्राणियों को क्या इसकी आवश्यकता है? नहीं. कोई-कोई जीव अधिकारी होता है. मैं भी अधिकारी नहीं था. दाता दयाल की दया से अधिकारी हो गया मगर अभी संसार मेरा छूटा नहीं. यद्यपि यह संसार अब दुखदाई नहीं होता और न सुखदाई होता है मगर अभी मौजूद है. सत्संग कराता हूँ. यह भी तो मेरा संसार ही है. सतलोक है. इतना अनुभव है मगर जिसको मैं सतलोक कहता हूँ क्या पता संतों का सतलोक कोई और हो. यह वर्णन शैली रोचक है और होनी भी चाहिये. बिना रोचकता के आकर्षण नहीं होता.
चौदह खण्ड बसै जाके मुख, सब को करत अहारा हो।।
जारि बारि कोयला कर डारत, फिर फिर दे औतारा हो।।
ब्रह्मा बिस्नु सिव तन धरि आये, और को कौन बिचारा हो।।
सोचता हूँ यह सृष्टि अनादि है. यदि यह मान लूँ कि सन्तों की शिक्षा से आवागमन छूट जाता है तो ख्याल करता हूँ कि सत का प्राकट्य कलियुग में हुआ तो आबादी तो इतनी बढ़ी कि जिसका कोई हिसाब नहीं. घट जानी चाहिए थी. इसे जानने में मेरा दिमाग़ फेल होता है. मैं तो हौसले से कहना चाहता हूँ कि कुदरत के भेद का पता शायद कबीर को भी न लगा हो. इतना ही लगा कि वे इस संसार से उस ज्ञान के आधार पर, जो मैंने संतमत में समझा, शायद आप अलग हो गये हों. कई बार सोचता हूँ कि अलग हो गये तो क्या हो गया. जो अलग हो गया उसके लिए संसार नहीं रहा. दुनिया जैसी है वैसी बनी हुई है. सत्युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के चक्र आते रहते हैं. क्या कहूं कि कितने मनुष्य या कितनी आत्माएँ इस संसार से निकल गईं! समझ यही आई कि आप निकल गया उसके लिये संसार भी निकल गया.
मैं बचपन से उस मालिक से मिलने की प्रबल लालसा करता था. कभी उसको किसी मानव के रूप में पूजा, कभी किसी रूप में पूजा. अब मेरे अनुभव में यह आया कि जब तक किसी मनुष्य की सुरत किसी मनुष्य को पूजती है या उस मालिक को किसी मानव रूप में पूजती रहती है, उसका यह संसार समाप्त नहीं हो सकता क्योंकि मानव कोई हो मानव रूप में ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो, कोई गुरु हो, कोई महात्मा हो, मानव में किसी न किसी वासना का रहना मेरी समझ में लाजिमी है. इसलिए जो मनुष्य इस संसार से निकलना चाहता है उसको अपना इष्ट वह जो शक्ति या शब्द जो आदि गति कहलाती है उसका इष्ट बांधना लाजिमी है. यह मेरा अनुभव है. जीवन भर उस मालिक को किसी न किसी रूप में मानता आ रहा हूँ. तो अपना अनुभव कहता हूँ कि जब तक मैं ऐसा करता रहता हूँ संसार कायम रहना है. इसलिये संन्तों के मत में शब्द का इष्ट बताया गया है. इस शब्द के इष्ट से संसार छूट जाता है क्योंकि संसार की रचना का आदि शब्द है या नाम है. यही बात कबीर ने कही है.
सुर नर मुनि सब छल बल मारिन, चौरासी में डारा हो।।
मद्ध अकास आप जहं बैठे, जोति सबद उजियारा हो।।
वह जो मालिक है वह शब्द और प्रकाश का रूप है. जब तक मनुष्य की सुरत शब्द और प्रकाश को अपना इष्ट नहीं बनाती स्वयं शब्द और प्रकाश नहीं हो जाती, तब तक संसार नहीं छूट सकता. मैं अपने अनुभव के आधार पर कबीर के साथ सहमत हूँ. वह शब्द और प्रकाश एक तो हमारे अन्तर हमारा अपना ही रूप है और एक इस चौदह लोक अर्थात् जितना ऊपर का संसार है सब का आदि वह शब्द और प्रकाश का भंडार है. एक सतलोक हमारा अपना रूप है और एक सतलोक इस संसार के ऊपर ब्रह्मांडों से परे हो सकता है. जो जीव प्राण त्यागते समय शब्द और प्रकाश, अपने रूप में ठहरे हुए होते हैं और संसार का जब त्याग हुआ हुआ होता है तो उनका हर एक तत्त्व अपने-अपने भंडार में मिल जाता है. मिट्टी तत्त्व मिट्टी में मिल गया. जल तत्त्व जल में मिल गया. इसी तरह से संभव हो सकता है कि हमारा अपना शब्द और प्रकाश रूपी आत्मा अथवा जो हम हैं, शरीर के त्याग के बाद उस बड़े भंडार में मिल जाए. चाहता हूँ कि बता सकूं कि शरीर के त्याग के बाद मेरे साथ क्या हुआ. अनुभव मानता है कि उस मालिक का रूप ऐसे ही अनेक सूर्यों का प्रकाश और शब्द की धुन का भंडार है जैसे हमारे अन्तर में तो वायु थोड़ी सी आती है मगर जब वह अन्दर से निकलती है तो बाहर वायु के लोक में मिल जाती है. इसलिए कबीर कहता हैः-
सेत सरूप सबद जहं फूले, हंसा करत बिहारा हो।
कोटिन सूर चन्द छिप जैहैं, एक रोम उजियारा हो।।
जिस तरह यह सृष्टि बड़ी विशाल है, पृथ्वी तत्त्व बड़ा विशाल है, जल तत्त्व बड़ा विशाल है आदि आदि, इसी प्रकार से वह प्रकाश और शब्द, श्वेत प्रकाश और शब्द असीमित, अनन्त (लोक) होगा. अनुभव मानता है कि जिस तरह से हम देह में रहते हुये इस दुनिया में भ्रमण करते हुये आनन्द लेते हैं इसी तरह से जो हमारा शब्द और प्रकाशरूपी आत्मा है जब संसार को त्याग कर स्थायीरूप से शरीर से निकल जाता है तो वह उसी तरह से उस लोक में विहार करेगा जिस तरह से हम इस शरीर को रखते हुये इस दुनिया में विहार करते हैं.
वही पार इक नगर बसतु है, बरसत अमृत धारा हो।
कहे कबीर सुनो धर्मदासा, लखो पुरुष दरबारा हो।।
ज्ञात नहीं वह नगर क्या है. अनुभव से कहता हूँ कि हमारी शब्द और प्रकाश स्वरूपी आत्मा उस सागर में या उस शब्द और प्रकाश के भंडार में रमण करती रहती है. कभी-कभी अनुभव होता है मगर हमेशा नहीं. प्रालब्ध कर्म, शरीर और मन का बन्धन, सत्संग का झमेला और दुनिया के सम्बन्ध नीचे लाते रहते हैं.
मैंने इस प्रकार के ऊँचे सत्संग विलारी से आये हुये कुछ आदमियों को दिये. क्यों? ताकि वे जीवन भर इस फकीरचन्द के साथ न बंधे रहें. गुरु का काम चेतावनी देना, रहस्य बताना है और यही रहस्य सन्त कबीर ने अपने गुरुमुख चेले धर्मदास को दिया है. यह धर्मदास लाखों की सम्पत्ति दान करके कबीर का चेला बना था. संसार तो उसने पहले ही त्याग दिया था. यदि घरबार और धन-सम्पत्ति के त्यागने से ही संसार छूटता तो धर्मदास ने पहले ही छोड़ दिया था. उसको फिर कबीर क्यों कहता भाई संसार छोड़. इसलिये विलारी वालों को कहता हूँ कि संसार भाई-बन्धु और धन-दौलत नहीं है किन्तु संसार वह विचार वह रूप, रंग और रेखायें हैं जो मनुष्य के अन्तर उत्पन्न होती रहती हैं. मैं अपनी पोजीशन को साफ रखने के लिए सच्चाई से काम करता हूँ ताकि जीवों को असलियत का ज्ञान प्राप्त हो. मैं नहीं चाहता कि लोग अज्ञान से मुझे पूजें. यह मत्था टेकना, बाहरी पूजा, धन देना हमारा सांसारिक व्यवहार है. इसके बिना हमारा जीवन निर्मल हो नहीं सकता. चले चलो. जो समय मिलता है अपने अन्तर ठहरने का साधन करो. सत्संग सुन लिया. बात समझ में आ गयी. रोज़-रोज़ सत्संग में आने की भी आवश्यकता नहीं. साधन करो. अन्तर में ठहरने का यत्न करो. बस.
तुम लोग आये हो. सुनो, भगवान का अन्त नहीं है. जो सच्चे दिल से मांगो वह मिलता है. कुदरत कोई न कोई साधन या ज़रिया उसका बना देती है. जब किसी की इच्छा यहां तक पहुंच जाती है कि वह अपने जीवन (जान) की भी परवाह नहीं करता तब कुदरत उसकी पूर्ति का कोई न कोई सामान पैदा कर देती है. मालिक सब का है. यदि मनुष्य की नीयत सच्ची है तो जब उसको किसी वस्तु की प्रबल इच्छा है तो जिसकी इच्छा है, बशर्ते कि वह इच्छा सच्ची हो, वह पूरी हो जायेगी.
जो कुछ तुम्हें या मुझे मिलता है वह हमारी चाह का फल है. मांगो और मिलेगा. जल्दी मिले या देर से मिले. तुम लोग मेरे पास आये हो, मुझे खुशी नहीं मिलती. मैं नहीं चाहता संसार वालों को फकीर के जाल में फंसाने की कोशिश करूं. गुरु शक्ति है. तुम्हारे पास रहता है. तुम्हारे दिल में रहता है. जीव सहारा चाहता है लेकिन असली बात यह है जो मैंने बताई. जितना जोर लगाना है अन्तर में लगाओ. अन्तर में प्रेम करना सीखो.
'गगन चढ़न, मन वश करन यही बात मुश्किल'. बात करना, व्याख्यान देना, गाना, रोना, हँसना, दान-पुण्य करना तथा शरीर का बलिदान करना भी सुगम है किन्तु सुरत को मन से निकाल कर अकेला कर देना महाकठिन काम है. किसी समय सुरत फंसी तो मन में है, जीव को धोखा होता है कि मैं निकला हुआ हूँ.
मुझे जो कुछ प्राप्त हुआ वह दया तो दाता दयाल की है मगर आप लोगों से प्राप्त किया. गुरु पदवी पर आने से मेरा काम बन गया. काम तो बन गया किन्तु ठहरा नहीं जाता. आपको सच्ची बात बताता हूँ. जैसे मनानन्द है, कामानन्द है, विवेकानन्द है, आत्मानन्द है इसी तरह 'अनुभवानन्द' भी है. वह अनुभवानन्द निकलने नहीं देता. कबीर ने ये जितनी बातें लिखी हैं वे अनुभवानन्द में आकर लिखी हैं.
सत्संग प्रवचन (मानवता मन्दिर, 6-1-1968)
अगम देश
महरम होय सो जाने, साधो ऐसा देश हमारा।।
वेद कतेब पार नहीं पावत, कहन सुनन से न्यारा।।
जाति वरन कुल किरिया नाहीं, संध्या नैम उचारा।।
बिन जल बूंद परत जहं भारी, नहिं मीठा नहिं खारा।।
सुन्न महल में नौबत बाजै, किंगरी बीन सितारा।।
बिन बादल जहं बिजुरी चमकै, बिन सूरज उजियारा।।
बिना सीप जहं मोती उपजै, बिन सुर शब्द उचारा।।
जोति लजाय ब्रह्म जहं दरसै, आगे अगम अपारा।।
कहै कबीर वहं रहनि हमारी, बूझे गुरु मुख प्यारा।।
आयु बीत गयी उस देश को देखने के लिए. अपनी आत्मा से पूछता हूँ कि क्या वह देश है या यों ही किसी पन्थ या किसी सन्त के पीछे लगाने को ये पद कहे गये हैं? मैं कहता हूँ कि वह देश है. देश शब्द का अर्थ है एक बहुत बड़ा क्षेत्र. उसमें रचना रहती है, जीव-जन्तु बसते हैं अथवा कहीं जंगल और पहाड़ हैं. हम उस देश को देखते हैं. जैसे भारतवर्ष है, अमरीका है, अफ्रीका आदि देश हैं, ऐसे ही वह भी देश है. इस देश को हम कर्मेन्द्रियों द्वारा देखते हैं. यदि कर्मेन्द्रियां नहीं हैं अर्थात् आंख, कान, हाथ नहीं तो हम इस देश को देख नहीं सकते. जब तक कर्मेन्द्रियां तुम्हारे साथ हैं और तुम इन इन्द्रियों पर बैठे हुए तुम इसी देश को देख सकोगे. उस देश को कैसे देखोगे! जब तक कोई मनुष्य कर्मेन्द्रियों से अलग नहीं होता, तब तक यह जो जाग्रत का देश है इसी को देखेगा. इसलिए कर्मेन्द्रियों को छोड़ना पड़ता है उस देश को देखने के लिए. इस भूमंडल के परे एक सूक्ष्म माया का देश है जहां अग्नि, जल, वायु, मिट्टी और आकाश का स्थूल अस्तित्व नहीं है, केवल सूक्ष्म प्रकृति है. वह देश ज्ञानेद्रियों से देखा जाता है. वह मानसिक रचना का देश है. इसका उदाहरण स्वप्न से दिया जा सकता है. सूक्ष्म रचना समाधि में या स्वप्न में देखते हो अथवा समाधि में दृश्य देखते हो, उस समय कर्मेन्द्रियां काम नहीं करती. केवल ज्ञानेन्द्रियां रहती हैं और उस देश को जिसका वर्णन कबीर साहब ने इस शब्द में किया है उसको न कर्मेन्द्रियों के द्वारा देख सकते हो और न ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा देख सकते हो. वह सुरत (की इन्द्रिय) के साथ देखा जाता है. इन्द्रिय कहते हैं अंग को. सुरत हमारा एक अंग है. ये भिन्न-भिन्न प्रकार की इन्द्रियां हमारे शरीर की या जीवन की अंग हैं. जब तक कोई आदमी पहले कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को नहीं छोड़ता (अर्थात इनका भान-बोध नहीं त्यागता) उस देश को देखना असम्भव है. इसीलिए कबीर ने कहा है--'महरम होय सो जाने'. महरम कहते हैं जानकार को, ज्ञाता को, असलियत की समझ रखने वाले को. इसलिए सन्तों के मार्ग में योग का साधन उस देश में जाने के लिए अनिवार्य बताया गया है. वह योग क्या है? वह है पहले निर्विकल्प समाधि में जाना अथवा दसवें द्वार में पहुंचना. जब शून्य समाधि लगेगी तो कर्मेन्द्रियां और ज्ञानेन्द्रियां काम नहीं करेंगी. शरीर में रहते हुए यहां रहेंगी तो अवश्य मगर काम नहीं करेंगी. तब उस देश को सुरत रूपी इन्द्रिय देख सकती है, या वहां का अनुभव कर सकती है. उस देश में यह रचना वैसे ही है जैसे इस देश की अथवा सूक्ष्म प्रकृति की. फिर यदि कोई उस देश को देखना चाहता है तो उसे साधन करना होगा. मैं अपने जीवन में कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को साथ रखते हुए उस देश को देखने, जानने तथा सैर करने की कोशिश करता रहा मगर पूरा अनुभव नहीं हुआ था. यह अनुभव अब अधिक होता रहता है क्योंकि मन के अन्दर कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के जो खेल या दृश्य देखा करता था उसमें स्थिरता, या असलियत न होने का पूर्ण विश्वास हो गया. यह विश्वास हो गया कि ये सबके सब कल्पित या मायावी हैं अथवा परिवर्तनशील सिद्ध हुए. वह देश प्रकाश और शब्द का देश है. यहां प्रकाश के ही वृक्ष, प्रकाश के ही रूप तथा प्रकाश ही की रचना है. जिस तरह इस सृष्टि में अग्नि जल, वायु, पृथ्वी और आकाश के रूप हैं जो कर्मेन्द्रियों द्वारा देखे जाते हैं या सूक्ष्म प्रकृति की रचना ज्ञानेन्द्रियों से देखी जाती है, इसी प्रकार वह प्रकाश और शब्द का देश है. प्रकाश ही प्रकाश है. प्रकाश ही का सब पसारा है. वह सुरत से ही देखा जाता है. वहां कबीर कहते हैं-
बिन जल बूंद परत जहां भारी, नहिं मीठा नहिं खारा।।
सुन्न महल में नौबत बाजे, कंगरी बीन सितारा।।
वहां प्रकाश ही प्रकाश है. प्रकाश की गति या कम्पन का नाम है शब्द. जिस प्रकार स्थूल जगत में स्थूल प्रकृति के गति करने से शब्द का होना लाजिमी है इसी तरह सूक्ष्म रचना में जहां विचार का खेल होता है वहां भी विचार की गति से शब्द उत्पन्न होता है और वह जो प्रकाश का देश है वहां प्रकाश की गति से या कम्पन से शब्द होता है. जैसा यह देश है वैसा ही सूक्ष्म प्रकृति का देश है, वैसे ही प्रकाश का देश या लोक है. यहां भी शब्द है और वहां भी शब्द है. केवल शब्द-शब्द में अन्तर है. यहां नदी बहती है उसमें दूसरी तरह की आवाज़ है. पक्षी और पशु बोलते हैं उनकी आवाज दूसरी ही तरह की है. डाक्टर हृदय पर, शरीर पर स्टेथोस्कोप लगाते हैं, वहां और तरह की आवाज है. अतः शब्द तो सब जगह है मगर सन्तों ने जो अन्तर में शब्द सुने उनकी अपने-अपने शब्द गढ़ कर दुनिया के बाजों की आवाजों से उपमा या समानता देते हुए उनके नाम रखे. सितार, सारंगी, मुरली की आवाजें क्या हैं? उस लोक की जो प्रकाश है और उसमें जो कम्पन होता है, उसकी आवाजें है और दुनिया की वस्तुओं की आवाजों की उपमा देकर समझाने का एक ढंग है.
बिन बादल जहं बिजली चमके, बिन सूरज उजियारा।
बिना सीप जहं मोती उपजै, बिन सुर शब्द उचारा।।
यहां बादल होते हैं तो बादलों से बिजली चमकती है, वहां बिजली बादलों से नहीं निकलती क्योंकि बादलों का सम्बन्ध स्थूल माद्दे से है. वहां प्रकाश रूपी देश में जो चमक रहती है वह बिजली की चमक का इशारा है. यहां आवाज किसी बाजे से पैदा की जाती है, वहां प्रकाश रूपी जो माद्दा है उसमें से स्वयं आवाजें होती रहती हैं. सीप के बिना मोती! मोती तुम्हारी सुरत है. शरीर में रहती हुई वह मानव शरीर में बन्द हैं. वहां सीप की आवश्यकता नहीं. अर्थात् देह और मन की आवश्यकता नहीं. स्वयं वह नंगी होकर रहती है. सुरत जो है वह बिना सीप अर्थात् देह और मन के खोल के बिना मौजूद है.
जोति लजाय ब्रह्म जहं दरसै, आगे अगम अपारा।
कहें कबीर वहां रहन ही ऐसी, बूझै गुरु मुख प्यारा।।
जोति लजाय से अभिप्राय ज्योति स्वरूप के दर्शन से है. वह प्रकाश सहसदल कंवल में है. वह भी प्रकाश ही है मगर वह प्रकाश मन के संकल्पों के कारण होता है. इसका अर्थ यह है कि वह प्रकाश ज्योति जैसा नहीं होता. केवल सीप के रंग का होता है और उस सीप के रंग के प्रकाश का नाम है – जहां ब्रह्म है वह "ब्रह्म दरसै'. श्वेत रंग का देखना ही ब्रह्ममय होना है. ब्रह्म को देखना है. जब ये श्रेणियां तै हो जाती हैं और उस देश की सुरत बहुत सैर कर लेती है फिर उसको ज्ञान हो जाता है कि वह मालिक क्या है, मैं कौन हूँ. इस ज्ञान का नाम है अगम देश. बिना योग-साधन के यह ज्ञान या अनुभव नहीं हो सकता. वह योग है-
तन थिर मन थिर, सुरत निरत थिर होय।
कहें कबीर वा पलक को, बिरला पावे कोय।।
फिर उस देश की सैर करने के लिये क्या तरीका है. तन थिर अर्थात् कर्मेन्द्रियों को छोड़ो. मन थिर ज्ञानेन्द्रियों को छोड़ो. फिर वह जो प्रकाश रूपी देश है, ब्रह्म का देश है, इस से आगे जाओ. तब ज्ञान होगा इस अगम देश का. इसकी प्राप्ति का उपाय यह है कि अजपा जाप के करने से अर्थात् जिभ्या बिना हिलाये हुये मस्तिष्क में अजपा जाप करने से कर्मेन्द्रियों का खेल समाप्त होगा. इसको तीन बन्द कहते हैं.
चश्म बन्दो गोश बन्दो लब बन्द।
गर न बीनी सिर्रे हक़ बर पा न खंद।।
(अर्थात् आंख, जीभ और कान को बन्द करो. फिर हक़ की प्राप्ति न हो तो मुझ पर हँसो.)
यह सुमिरन है. जो इस उद्देश्य को लेकर सुमिरन नहीं करते हैं, उनको लाभ नहीं होता. हर काम का उद्देश्य होता है. जब कर्मेन्द्रियों का भान-बोध समाप्त हो गया फिर ज्ञानेन्द्रियां--मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार का बोध समाप्त होगा ध्यान योग से. (मैं नहीं कहता कि तुम किसका ध्यान करो) हमारे मार्ग में गुरु स्वरूप का ध्यान करते हैं. कोई ध्यान करो. जिसका ध्यान करते हो उसको पूर्ण मानो. जब ध्यान की अवस्था गहरी हो जायगी, निर्विकल्प समाधि लग जायगी. ज्ञानेन्द्रियों के सूक्ष्म देश की जो स्पप्न में या समाधि में सैर करते हो, यह बन्द हो जायगी.
फिर सुरत का खेल है प्रकाश और शब्द. वह भी एक लोक है. जब यह साधन पूरा हो जाएगा, फिर तुमको ज्ञान हो जाएगा कि असलियत क्या है. वह तुम आप ही आप हो.
जो दीखे सो है नाहीं, जो है वह कहा न जाई।
सैना बैना जो कोई बूझै, गूंगे का गुड़ खाई।।
इस निज रूप का ज्ञान उसी समय होगा जब तुम साधन करोगे. जब ज्ञान होगा तो वह अनिर्वचनीय है. 'जो दीखै सो नाहीं', इस दुनिया में जो कुछ तुम जाग्रत में देखते हो, वह भी नहीं, मन की रचना में जो देखा वह भी नहीं, जो प्रकाश लोक की सैर की वह भी नहीं. फिर वह क्या है? भिन्न-भिन्न शब्द गढ़ कर उसे प्रगट किया जाता है किन्तु ये सब अधूरे हैं.
यह करनी का भेद है, नाहीं बुद्धि विचार।
कथनी तज करनी करे, तब पावे कुछ सार।।
इस लोकों के बारे में मैंने तीन लोकों का वर्णन कर दिया अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण. इनका जो आधार है, जो वस्तु इन तीनों लोकों में खेलती है वह तुम हो. अब इस 'तुम को' तुम 'मैं' कह लो, सुरत कह लो, निज स्वरूप कह लो. इसका अनुभव मुझे इसी जीवन में हुआ. शरीर के स्थायी त्याग के बाद क्या होगा, कुछ नहीं कह सकता.
उतते कोई न आइया, जा से पूछूं जाय।
इतते सब कोई जात है, भार लदाय लदाय।।
यह जितना अनुभव हुआ इसी जीवन में हुआ, चूंकि मरने के बाद किसी ने आकर नहीं बताया. अतः साहस नहीं होता कि कुछ कहूं. इच्छा है कि मौज तौफीक़ दे कि बता सकूं कि शरीर के स्थाई त्याग के बाद मेरे साथ क्या बीतेगी. इस समय तक इस निश्चय पर पहुंचा हूँ कि जीवन मालिक की मौज का एक चमत्कार है. कभी सोचता हूँ कि वह आप ही सुरत रूप है. आप ही आकर इस रचना में खेलता है और खेल देखने के लिये आता है. फिर वह मालिक क्या निकला? चुप, खामोशी और अचरज. हम तुम उस अनन्त खामोशी या मौनता के समुद्र से प्रगट हुए सैर करते हैं. जब उसकी इच्छा होगी वह लय कर लेगा. गुरु गोविन्दसिंह जिनका आज जन्म दिन है यही कह गये-
मैं हूँ परम पुरुष का दासा।
जग में आया देखन तमाशा।।
कोई इस स्थूल जगत का तमाशा देखने के लिये आया. काम कर गया पांच कर्मेन्द्रियों द्वारा, जिससे अपना भी और दूसरों का भी भला हुआ. कोई आया ज्ञानेन्द्रियों की सैर कर गया. मीठा बोल गया, प्रेम कर गया, अच्छे विचार दे गया, एकता और प्रेम का खेल खेल गया. कोई सन्त आया जो आप ब्रह्ममय हो गया. कबीर की तरह प्रकाश के खेल में खेला. दूसरों को उस देश का पता दे गया. इस समय तक मेरी यह अवस्था है. मैंने इन तीनों प्रकार के खेलों को खेला है. शरीर से किसी का भला हो सके वह करने की कोशिश की. मैंने किसी से प्रेम किया, अच्छे विचार दिये, किसी को उत्साहित किया. आत्मा में या प्रकाश में रहता हुआ स्वयं आनन्द लिया और दूसरों को देने की कोशिश की. जीवन मुक्त की अवस्था में जहां ठहरा, वहीं आनन्द ले लिया. काम करते समय काम में, प्रकाश या शब्द में, जहां भी ठहरा, वहीं आनन्द लिया.
नोट:-मास्टर मोहनलाल ने प्रश्न किया कि आपने कहा कि प्रकाश से शब्द पैदा होता है. प्रकाश के देश में जो शब्द होता है वह प्रकाश की गति से होता है. सन्त कहते हैं शब्द से रचना होती है. इसे स्पष्ट करिये.
उत्तर :-जो शब्द स्थूल प्रकृति, सूक्ष्म प्रकृति या प्रकाशमयी कारण प्रकृति के हैं प्रकाश की गति से होते हैं. वह जो आदि शब्द है वह न तो घंटा-शंख का शब्द है, न ओंग है, न रारंग है न सारंग है, न मुरली है न बीन है. वह आदि शब्द है. राधास्वामी मत वालों ने उसका राधास्वामी नाम बताया. किसी ने उसको 'राम' का शब्द कहा. मगर उसका कोई रूप नहीं, कोई उसकी लय नहीं, तान नहीं. उसको कहते हैं सारशब्द. शेष जितने शब्द हैं इनका आधार वह शब्द है. जिस प्रकार की प्रकृति जिस देश की है उसके अनुसार शब्द होते हैं इसीलिये सन्तों ने कहा है-- सार शब्द का निरवारा. और वह सारशब्द असली नाम है. वह निज स्वरूप है.
प्रवचन
(मानवता मन्दिर होशियारपुर 15-1-68)
कबीर शब्द की व्याख्या
शब्द
हम ऐसा देखा सतगुरु संत सिपाही।।
संत नाम को पटा लिखायौ, सतगुरु आज्ञा पाई।
चौरासी के दुक्ख मिटे, अनुभौ जागीरी पाई।।
सुरत सींगरा1 सांग2 समुझ को, तन की तुपक बनाई।
दम को दारू सहज को सीसा, ज्ञान के गज ठहकाई।।
सील संतोष प्रेम की पथरी, चित चमकत चमकाई।
जोग को जामा बुद्धि मुद्रिका, प्रीति पियाला पाई।।
सत कै सेल्ह जुगत कै जमधर, छिमा ढाल ठनकाई।
मोह मोरचा पहले मार्यौ, दुविधा मार हटाई।।
सत्त नाम कै लगा पलीता, हर हर होत हवाई।
गम गोला गढ़ भीतर मार्यौ, भरम के बुर्ज ढहाई।।
सुरत निरत कै घेरा दीन्हों, बन्द कियौ दरवाजा।
सबद सूरमा भीतर पैठा, पकरि लियौ मन राजा।।
पांचों पकरे कामदार जो, पकरी ममता माई।
दास कबीर चढ़यौ गढ़ ऊपर, अभय निशान बजाई।।
( 1.सींगरा= सींग की तरह बारूद रखने का
2. सांग= बरछा)
यह शब्द सत्संग में पढ़ा गया. ख्याल आया कि कबीर ने यह क्या लिखा है. जो कुछ लिखा है क्या वह ठीक है? दुनिया कहेगी कि यह कैसा मूर्ख फकीर है जो सवाल करता है कि क्या कबीर का लिखा हुआ ठीक है. मैं क्या करूं! दाता ने कहा था फकीर!
जब लग देखो न अपने नैना।
कभी न मानो गुरु के बैना।।
मुझे संस्कार ही ऐसा मिला है. जब तक किसी वस्तु को स्वयं देख नहीं लिया, पहचाना नहीं, जाना नहीं, मैंने उसे नहीं माना. कबीर ने जो कुछ लिखा है उसे मैंने जान लिया, मान लिया, पहचान लिया कि ठीक है. अब उसका प्रमाण देता हूँ कि कैसे ठीक है.
मैंने गुरु आज्ञा का पालन किया. इस आज्ञापालन से सत्नाम का पटा लिखा गया अर्थात् मुझको विश्वास हो गया कि सिवाय नाम के और जो कुछ भी है वह सब कल्पित है, माया है, प्रकृति है. यह विश्वास कराने वाले सत्संगी हैं. गुरु आज्ञा क्या थी. यही कि सत्संग कराना और नाम दान देना. इसके अतिरिक्त और भी आज्ञा की -- जैसे हक़ हलाल की कमाई करना, प्रेम को दिल देना, ईर्ष्या, द्वेष मत्सर, घृणा को त्यागना. केवल इस ख्याल से कि मैं किसी के अन्तर नहीं जाता और मेरा रूप अन्तर प्रगट होकर सुरत चढ़ाता, मरते समय साथ ले जाता, अथवा अन्य काम करता है, तो यह सिद्ध हो गया कि मेरे अन्तर में जितने भाव-विचार, रूप-रंग तथा दृश्य पैदा होते थे वे मायावी हैं अथवा मन के बनाये हुए हैं. हैं नहीं मगर अन्तर में भासते हैं, बाहर में नहीं. बाहर की दुनिया तो प्रगट है. सूर्य भी है, तुम लोग भी बैठे हुए हो मगर जब तुम्हारा कल्पित रूप मेरे अन्तर आता है तो तुम नहीं होते. तो माया क्या हुई? यही कि जो रूप-रंग-दृश्य चाहे वह तुम्हारे या दाता दयाल या स्वामी जी महाराज के अन्तर में प्रगट हुए वे कल्पित थे. वह ही माया थी. बाहर के स्वामी जी या बाहर के दाता दयाल के रूप तो सत्य हैं मगर अन्तर के नहीं. बाहरी दुनिया है तो माया मगर यह भगवान की माया है, इस विश्वास ने सत्नाम का पटा लिख दिया. पटा कहते हैं किस बात के पूर्ण निश्चय होने को. फिर इस पटे के पूर्ण निश्चय का परिणाम यह हुआ कि मेरी सुरत जो अपने मन की कल्पनाओं, भावों और विचारों को सत्य मान कर फंसती रहती थी, उसमें फंसती नहीं. जो कुछ मेरे अन्तर फुरना होती है मैं उसको सत्य नहीं मानता मगर शरीर के स्थाई त्याग के बाद क्या होगा, इसका पता नहीं. इस समय तक तो यह विश्वास है कि अन्तर के दृश्य जो कुछ उठते हैं वे हैं नहीं. जब मेरी सुरत इनका अस्तित्व मानती ही नहीं तो फंसती भी नहीं, तो फिर 84 का चक्र मुझे कैसे आयेगा अर्थात् नहीं आयेगा. मुझे तो यह ज्ञान हुआ है. इसका नाम है अनुभव!
हम ऐसा देखा संत सिपाही।
वह सन्त सिपाही मैं हूँ या वे हैं जो मेरे जैसा अनुभव रखते हैं. दुनिया ने सन्त सिपाही को यह समझा हुआ है कि वह सन्त हो कर तलवार उठाता है. यह अज्ञान है. वह इस माया के जाल का सन्त सिपाही है.
सत्त नाम का पटा लिखाये, सतगुरु आज्ञा पाई।
चौरासी के दुक्ख मिटे, अनुभव जागीरी पाई।।
कोई ख्याल मन में आया तो चिन्ता पैदा हुई या खुशी हुई. जब यह ज्ञान हो चुका है कि मेरे हर प्रकार के विचार या ख्याल मायावी अर्थात् कल्पना मात्र हैं तो फिर सुरत कहां ठहरेगी? वह ठहरेगी नाम में. नाम है शब्द जो मेरे अपने ही आपका प्राण है, मेरा ही सांस है. मेरी ही आत्मा है. जो नाम मैं सुनता हूँ वह मेरा ही तो है, वह विचार, भाव, रूप, दृश्य यह भी तो मुझसे ही निकलते थे. मेरे ही आधार पर नाम है. मेरा ही नहीं प्रत्येक मनुष्य का आधार नाम है. इस अनुभव के आधार पर वे जो संकल्प-विकल्प, अच्छे या बुरे, जो दुख-सुख का कारण बनते थे, वे समाप्त हो गये.
सुरत सींगरा सांग समुझ को, तन की तुपक बनाई।
दम को दारू सहज को सीसा, ज्ञान के गज ठहकाई।।
कबीर ने युद्ध के शस्त्रों का सहारा लेकर बात कही है कि शरीर में रहते हुये अपनी तवज्जह से, इस अनुभव ज्ञान के गोले के साथ मन के अहसासात तथा भावों को, जो दुख-सुख का कारण बनते थे, शरीर में रहते हुए समाप्त कर दिये.
सील सन्तोष प्रेम की पथरी, चित चकमक चमकाई।
जोग को जामा बुद्धि मुद्रिका, प्रीति पियाला पाई।।
जब मनुष्य इस अनुभव में आता है तो शील, संतोष, प्रेम स्वयं पैदा हो जाते हैं. मेरे अनुभव में इस ज्ञान और अनुभव के बिना सन्तोष आदि स्थायी रूप से नहीं रह सकते, क्योंकि जब मनुष्य मन के संकल्प-विकल्पों को सत्य मान रहा है तो उसमें सन्तोष और शान्ति स्थायी रूप से नहीं आ सकती. यदि कोई चाहे भी तो उस दशा पर ठहर नहीं सकता. तुमने शीलवान व सन्तोषी रहने की कोशिश की परन्तु किसी ने कोई बात अनुचित कह दी और तुम्हारे अन्तर उसकी प्रतिक्रिया हुई तो शील भी गया और सन्तोष भी गया. मगर जब यह अनुभव-ज्ञान होगा कि जो मेरे अन्तर पैदा होता है यह तो माया है कल्पना है (अनुभव माया नहीं है किन्तु ज्ञान माया है). तो जो ज्ञान पैदा होता है वह तो माया है मगर कारण माया है. अनुभव अत्यन्त सूक्ष्म है. अनुभव से शील और सन्तोष स्थिर रहते हैं, मेरा जीवन इसी खब्त में बीता. बहुत कुछ सन्तोष तथा शान्ति को धारण किया मगर गिरता रहा. गिरावट यदि नहीं आई तो केवल इस अनुभव से नहीं आई कि यह सब माया है. अब भी जब कभी इस अनुभव को भूल जाता हूँ तो इस संसार का व्यवहार करते हुए मेरी दशा कभी-कभी गिर जाती है चाहे वह क्षण मात्र को ही हो. चूंकि नित्यप्रति साधन व विचार करता हूँ, सत्संग करता हूँ तुरन्त संभल जाता हूँ.
सत के सेल्ह जुगत कै जमधर, छिमा ढाल ठनकाई।
मोह मोरचना पहिले मारौ, दुविधा मारि हटाई।।
यदि यह ज्ञान हो भी जाय, तो इसको परिपक्व करने के लिए साधन और सत्संग करते रहना चाहिए. दाता दयाल महर्षि शिव ने जब यह काम दिया था तो कहा था कि सत्संग कराने से तेरा कल्याण होगा. यह जो मैं सत्संग कराता हूँ, प्रतिदिन वाणियां सुनता हूँ, किसी पर अहसान नहीं करता. मेरा अपना लाभ होता है. प्रतिदिन का साधन सहायता करता है इसलिए साधन और सत्संग जीवन के अंग होने चाहिएं.
सत्तनाम कै लगा पलीता, हरहर होत हवाई।
गम गोला गढ़ भीतर मारयो, भ्रम के बुर्ज ढहाई।।
'हर हर होत हवाई' से कबीर का क्या अभिप्राय है मैं नहीं जानता. मैं जो समझता हूँ वह कहता हूँ. जितने आदमी अपने मन से उस हरि, भगवान या परमेश्वर को पूजते हैं, उनको जब सत्नाम का ज्ञान हो जाता है तो यह पूजा समाप्त हो जाती है. यह जो हरि की पूजा है अथवा किसी की पूजा है यह हवाई हो जाती है अर्थात् समाप्त हो जाती है. क्यों? क्योंकि यह समस्त पूजा मनुष्य का अपना संकल्प या अपना विचार है. अपने अन्तर में वह सब का सब माया है, कल्पित है अथवा माना हुआ है. बाकी केवल शब्द रह जाता है जिसको हिन्दू शास्त्र शब्दब्रह्म कहते हैं. शब्दब्रह्म सनातन धर्म में सबसे ऊँचा है. चूंकि सनातन धर्म समुद्र है, कोई किसी जगह है कोई किसी जगह है. सनातन धर्म में माया भी है, ब्रह्म भी है, पारब्रह्म भी है, शब्दब्रह्म है, और शब्दब्रह्म से आगे परमतत्त्व है. श्रेणियां हैं. जो एम.ए. में पढ़ता है उसकी दृष्टि में छोटी क्लासें कुछ अर्थ नहीं रखतीं और वह उनकी ओर ध्यान नहीं देता. मैं खंडन नहीं करता किन्तु यथार्थ बात कहता हूँ.
सुरत निरत कै घेरा दीन्हों, बन्द कियो दरवाजा।
सबद सूरमा भीतर बैठा, पकरि लियो मन राजा।।
आज कल भी घेरा डालते हैं. घेराव में यह होता है कि बाहर के लोगों को अन्दर नहीं आने देते और अन्दर के लोगों को बाहर नहीं जाने देते. तो जब सुरत अन्तर में निरत करती है (अर्थात ठहर जाती है) तो हमारा आपा (शब्द रूपी सुरत) जब अपने अन्तर में ठहर कर निरत करता है तो बाहर के विचार, रूप-रंग न उसके पास आते हैं और न वे बाहर आते हैं. घेरा डालने का यही अभिप्राय है.
पांचों पकरे कामदार जो, पकरी ममता माई।
दास कबीरा चढ्यो गढ़ ऊपर, अभय निसान बजाई।।
वह जो हमारा आप है, निज स्वरूप है वही कबीर है. हर एक आदमी का जो निज स्वरूप है वही कबीर है.
जब यह अवस्था आ जाती है फिर मन के भाव, विचार, आदि कोई तंग नहीं करते. काबू में आ जाते हैं, जीवन में यदि दो-चार बार यह साधन हो जाये अर्थात् सुरत निरत होकर शब्द में ठहर जाये तो फिर उसको ज्ञान हो जाता है. सुरत को अकेले होने का साधन मिल जाता है. फिर जिस तरह उसका शरीर काम करता रहता है, व्यवहार और प्रतिभास में बरतता रहता है वह उसके दुख-सुख से विचलित नहीं होता क्योंकि अपने रूप का ज्ञान हो जाता है. भ्रम-संशय--- ईश्वर-परमेश्वर क्या है, मुक्ति क्या है, संसार क्या है? चले जाते हैं. भ्रम के जो गढ़ हैं अर्थात् हमारे अन्तर में जो प्रश्नोत्तर उठते रहते हैं ये टूट जाते हैं. जीवनमुक्त अवस्था या विदेह गति आ जाती है.
यह आत्मज्ञान है अथवा उपनिषदों का ज्ञान है.
सत्संग प्रवचन
(मानवता मन्दिर 1-8-1967)
संसार
सब जग रोगिया हो, जिन सतगुरु वैद न खोजा।
सीखा सीखी गुरु मुख हुआ, किया न तत्त विचारा।
गुरु चेला दोउन के सिर पै, जम मारे पैजारा।
झूठे गुरु को सब कोई पूजै, साचै न पतियाई।
अंधे बांह गही अंधे की, मारग कौन दिखाई।
इस शब्द में कबीर का क्या भाव है मैं नहीं जानता. जो मैंने समझा वह कहता हूँ. रोग कहते हैं शरीर में किसी तत्त्व का कम हो जाना या किसी तत्त्व का बढ़ जाना. यह शारीरिक रोग है जिससे शरीर रोगी हो जाता है. कफ़ बढ़ गया, पित्त बढ़ गया अथवा वायु प्रबल हो गयी आदि-आदि.
मन का रोग--किसी वस्तु की चाह का पैदा होना और किसी चाह या वासना को दूर करने की इच्छा पैदा होना. यह मानसिक रोग है. मैं इस मानसिक रोग को सोग या शोक भी कह सकता हूँ. एक आत्मिक रोग होता है. आत्मा प्रकाश स्वरूप है. प्रकाश का बढ़ना और घटना. यह तीनों अवस्थाओं में घटा-बढ़ी के साथ अशान्ति, चिन्ता, शोक, अज्ञान, भ्रम रहता है. इसका नाम --'रोग'-- मेरी समझ में आया है. इसका इलाज जो करता है उसका नाम सत्गुरु है.
सीखा सीखी गुरुमुख हुआ, किया न तत्त विचारा।
गुरु चेला दोउन के सिर पै, जम मारै पैजारा।।
कबीर ने निर्भय हो कर वाणी कही है. सारी दुनिया गुरु धारण करती है. गुरु पूजा लेते हैं, मान लेते हैं. चेले सेवा करते हैं और वे समझते हैं हमने गुरु को धारण कर लिया. मैं सोचता हूँ कि फिर गुरु क्या है. गुरु है सार-भेद, सार-ज्ञान, सार-अनुभव कि मनुष्य क्या है. जिस समय यह ज्ञान हो जाता है रोग-सोग और अज्ञान की चिन्ता नहीं रहती. घबराहट नहीं रहती, अशान्ति नहीं रहती. यह है तत्त्व विचार. जो तत्त्व विचार मुझको प्राप्त हुआ. मैं वह कहता हूँ. तत्त्व विचार से कबीर का क्या भाव रहा होगा मैं नहीं जानता. साधन, अभ्यास और सत्संग से यह विश्वास हुआ कि तत्त्व एक है. उसमें क्षोभ होती है. उसमें से शब्द और प्रकाश पैदा होता है. शब्द के पैदा होने से एक चेतना पैदा होती है. शायद आप न समझ सकें क्योंकि यह साधन का विषय है मगर यह तो समझ सकते हैं कि जब गहरी नींद में आप बिल्कुल बेहोश होते हैं और फिर उत्थान होता है तब थोड़ा सा होश आने से पहले एक प्रकार की चेतना होती है. यह तो शारीरिक अवस्था है. इसी प्रकार इस मार्ग पर चलने पर जब शारीरिक, मानसिक और आत्मिक चेतनाएं समाप्त होकर लय की अवस्था आती है, उस समय सब कुछ भूल जाने की अवस्था होती है. जब चेतनता आती है तो इस चेतनता में शब्द होता है. शब्द के होने से हमारे आपे को होश आता है या चेतनता आती है. या यों समझ लो कि जब अशब्द गति थी तो बेहोशी थी. जब शब्द हुआ तो तुम्हारी सुरत पैदा हुई. सुरत से आदि चेतनता या पहली चेतनता हुई. फिर वह चेतनता उसी तरह फुरती है जिस तरह गहरी नींद से उठने के बाद वह बढ़ी ठीक जाग्रत में वह खेल खेलती है. यदि मनुष्य इस अवस्था पर काबू रखे और विचार करे तो इस गहरी नींद से ठीक पूरी जाग्रत की जो अवस्था है उसमें जितने दर्जे या श्रेणियां अपनी बुद्धि से बनाना चाहे बनाकर उनका वर्णन कर सकता है. इसी प्रकार वह जो आदि चेतनता या सुरत शुरू में पैदा हुई उस सुरत में अनेक प्रकार की चेतनाएं--जैसे आत्मपना, मानसिक चेतनाएं और शारीरिक चेतनताएं पैदा होती हैं. इन चेतनताओं के विभिन्न नाम सन्तों ने गढ़े हैं. इनका पहला नाम है अगम अर्थात सुरत के 'है-पने' के प्रगट होने की पहली अवस्था, दूसरी अलख और तीसरी सत्. यह हमारी अपनी आदि सुरत की जाग्रत (सत्) स्वप्न (अलख) गहरी नींद (अगम) यह तीन अवस्थाएं हैं. इससे फिर आगे भंवर गुफा, महाशून्य, शून्य और त्रिकुटी हैं. ये क्या हैं? यह सुरत के साथ विचार-ज्ञान पैदा होता है उसकी तीन अवस्थाएं हैं. मन की गहरी नींद जो अगम का प्रतिबिम्ब है. यह सोहंग गति है. शून्य-महाशून्य, स्वप्नावस्था है. त्रिकुटी मन की जाग्रत अवस्था है. ऐसे ही सहस्रदल कंवल या ये सब जो निचली श्रेणियां हैं ये हमारी सुरत, आत्मा या मन के खेल हैं. यह खेल प्रकृति के कारण स्वाभाविक होते हैं. चूंकि हमें इनके स्वाभाविक होने का निश्चय नहीं होता, हम इन खेलों में अपने अज्ञान से दुख-सुख उठाते हैं और उन खेलों से जो दुख होता है उससे बचने का प्रयत्न करते हैं अथवा उसमें आनन्द लेने का प्रयत्न करते हैं. स्वामी जी का शब्द है :-
जग जाग्रत भौ दुख मूल। सुपना भी दुख सुख मूल।।
सुषुप्ति कुछ घर आराम। वह भी नहीं ठहरन धाम।।
तानों में फिरत आठों जाम। पूरा नहीं कहीं बिसराम।।
ये श्रेणियां शरीर की हैं.
अब करिये कौन उपाय। कासे अब पूछूं जाय।
तड़पूं और तरसूं निस दिन। बिरह अगनि जलूं मैं दिन दिन।।
कोई राह न सुख की गावे। सब करम भरम भरमावे ।।
निज भेद कहे नहीं कोई। बिरथा नर देही खोई।।
यह सोच करूं मैं भारी। तब सतगुरु कीन संभारी।।
सत्गुरु क्या करता है? इन जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में जो हर एक जीव चक्कर लगाता रहता है उससे बचने का उपाय बताता है.
कर दया भेद बतलाया। तुरिया फिर मारग गाया।।
तुरिया के आगे बरना। फिर उससे आगे चलना।।
तिस से भी परे लखाया। उसके भी पार सुनाया।।
तिस पर यह और समझाया। कुछ आगे और बुझाया।।
वहां से पुनि आगे भाखा। निज धाम मुख्य यह राखा।।
ये नौ (श्रेणियां) है. नौ श्रेणियां-- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे उन्होंने अनुभव से वर्णन की हैं. ये नौ श्रेणियां क्या हैं? मन की जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, फिर आत्मा की जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति फिर सुरत की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति. वह जो अन्तिम श्रेणी है वह क्या है? वह वह श्रेणी या अवस्था है जहां न मन रहता है न आत्मा न सुरत. अनामी पद, ज़ात, अकाल पुरुष. यह ज्ञान साधन करने से हो जाता है. मुझे दूसरों का पता नहीं. जो मुझे हुआ वह यह है कि मैं एक चैतन्य का बुलबुला हूँ जो मौज के क्षोभ में प्रगट होता है और उसी में समा जाता है. मेरा प्रगट होना और समा जाना उस मालिक परमतत्त्व आधार के अधीन है और यह जो कुछ हो रहा है स्वाभाविक है. होना ही ऐसा है. इस अनुभव ज्ञान से यह हुआ कि जो रोग-सोग (शोक) या अज्ञान पैदा होता था और मेरी सुरत को अशान्त रखता था, वह समाप्त हो गया. तो गुरु क्या देता है? साधन और अभ्यास से यह गति मनुष्य के अन्तर पैदा कर देता है तो इस अनुभव ज्ञान के होने से यह लाभ हुआ कि जो चिन्ता थी कि हम को शान्ति मिले, जिसके लिये हम गुरु धारण करते थे, वह उद्देश्य पूरा हो गया. कबीर कहते हैं:-
सीखा सीखी गुरु मुख हूआ, किया न तत्त विचारा।
गुरु चेला दोनों के सिर पर, जम मारे पैजारा।।
कबीर कहते हैं कि जो शिष्य गुरु धारण करके इस ज्ञान को प्राप्त नहीं करता अर्थात् तत्त्व को नहीं विचारता तथा वह पुरुष जो गुरु बन कर यह शिक्षा नहीं देता, तो दोनों के सिर पर जम जूते मारता है. अभिप्राय यह कि न शिष्य को शान्ति मिलती है और न गुरु को. दोनों ही अपने मन की कल्पनाओं में या मन के ग़लत विचारों में आकर कोई तप में, कोई जप में, कोई ईमानदारी में, कोई धर्म-कर्म में और कोई किसी बात में उलझा रहता है.
झूठे गुरु को सब कोई पूजे, सांचे न पतियाई।
अंधे बांह गही अंधे की, मारग कौन दिखाई।।
जितने और उपाय हैं चाहे कोई भी हों, मनुष्य का अज्ञान और अशान्ति दूर नहीं कर सकते. क्यों? उसका उत्तर सुनिये. जितने साधु और महात्मा लोग हैं क्या शरीर के रोगी नहीं हुये या नहीं होंगे? अवश्य हुए और होंगे. सब संत बीमार हुए. क्या उनके घरों में मृत्यु नहीं हुई? यह तो प्रत्यक्ष हम सन्तों में देखते हैं. उनके मन की क्या दशा होती है यह तो वही महात्मा जानते होंगे. मैं अपना हाल जानता हूँ. मन तरह-तरह के नाच नचाता है. 'मानवता मन्दिर' की उन्नति की इच्छा मौजूद है. यह भी इच्छा रहती है कि जो दुखी लोग आते हैं वे सुखी हो जाएं. अस्पताल खोला हुआ है. अपनी आवश्यकता पर दूसरों से सहायता लेता हूँ और यथाशक्ति दूसरों की सहायता करता हूँ. यह जीवन है. इसमें दुख-सुख, भलाई-बुराई, जीवन-मृत्यु, मान-अपमान कभी मिट नहीं सकते. सन्तों तक को भी यही हुआ. नामदेव को गाय के चमड़े में बांध दिया गया. गुरु नानक से चक्की पिसाई गई. कबीर के साथ भी दुर्व्यवहार हुआ. इसलिये असली गुरुमत है अपने रूप का ज्ञान. मुझे क्या ज्ञान मिला? यही कि मेरी सुरत उस मालिक, ज़ात या परम तत्त्व के हिलोर से बनती है. यह कर्तापुरुष का खेल है. जब जैसी प्रकृति जिस जीव की बनी है वैसा खेल तो होगा ही. केवल इस अनुभव से कि ऐसा ही होता है, मनुष्य को शान्ति रहती है क्योंकि उसका इष्ट वह अकाल पुरुष है या आधार है. हो सकता है कि शरीर के त्याग के बाद हमारी सुरत सदा के लिये उसमें लय हो जाय. दुनिया जैसी है वैसी ही रहेगी. अपना खेल खेला और निज स्वरूप में विलय हो गये.
जो होना है वह होकर रहना है. समझ और ज्ञान के बिना शान्ति नहीं मिलती. यह सारा संसार तो एक खेल है. खेल को खेलो. हाय-हाय करने से बच नहीं सकते. चिन्ता-फ़िक़्र नहीं करनी चाहिये. यही गुरुमत है. यहां कौन पति, कौन स्त्री! कौन बाप, कौन बेटा! कौन गुरु, कौन चेला! भ्रम है. यह संसार माया रूपी है. जब ज्ञान हो जाता है तबः-
जैसे जल में केवल निरालम्ब, मुरग़ाबी निशानये।
सुरत शब्द भव सागर तरिये, नानक नाम बखानिये।।
क्योंकि मन चंचल है इसलिये इसकी चंचलता को दूर करने के लिये यह सुमिरन, ध्यान और भजन है. यह सुमिरन-ध्यान-भजन इष्ट पद नहीं है. यह साधन मात्र है. सबसे बढ़ कर सत्संग है. सत्संग से समझ-बूझ आती है. विवेक आता है. और साधन से जो कुछ सत्संग में वचन कहे जाते हैं उनका अपने अनुभव के आधार पर दृढ़ निश्चय हो जाता है.
ये श्रेणियां कुछ नहीं हैं. केवल ठहर-ठहर कर चलने के अनुभव हैं. जो ठहरने वाले हैं वे इन श्रेणियों का ज्ञान ले लेते हैं. इनसे गुजर तो सब ही जाते हैं मगर पता नहीं होता कि हम गुजर गये. प्रत्येक आदमी इन श्रेणियों से गुजरता है और इष्ट पद पर पहुंच जाता है. इसलिये राधास्वामी दयाल ने लिखा है कि संत जीवों को बन्द गाड़ी में ले जाते हैं. इसका क्या भाव है? यही कि कोई गाड़ी में खिड़की खोल कर स्टेशन को देखता जाता है. कोई आनन्द से सो जाता है. पहुंच दोनों ही गये. जिनको इन श्रेणियों की पूरी जानकारी नहीं होती, ज्ञान नहीं होता, वे भी वहां पहुंच जायेंगे. यह आवश्यक नहीं है कि वहां पहुंचने के लिये हर प्रकार की चेतन्यताओं का अनुभव हो. तुम देखो जाग्रत से गहरी नींद, गहरी नींद से जाग्रत में हर आदमी प्रतिदिन आता है. जाता तो वह है (यह प्राकृतिक मार्ग है) मगर समझ नहीं है अतः भटकता फिरता है.
केवल एक अकाल पुरुष सबसे ऊँचा है उसको इष्ट बनाकर चले चलो. अपने आप पहुंच जाओगे. जो इन पर ठहरे उन्होंने इन स्थानों के नाम रख दिये हैं. इन नामों के कारण हम भ्रम में आ गये हैं. इष्ट पद है शान्ति, निर्भ्रांति, अडोलपना.
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सत्संग प्रवचन
(मानवता मंदिर 28-7-1967)
आदि अवस्था
आज सत्संग में यह शब्द पढ़ा गयाः-
कबीरा कब से भये बैरागी, तुम्हरी सुरत कहां को लागी।
उत्तर;- धुंधमई का मेला नाहीं, नहिं गुरु नहिं चेला।
सकल पसारा जेहि दिन नाहीं, जेहि दिन पुरुष अकेला।
गोरख हम तब के वैरागी, हमरी सुरत नाम से लागी।
यदि आज यह अनुभव न होता कि मैं किसी के अन्तर नहीं जाता तो शायद मैं इस शब्द के अर्थ को बिल्कुल न समझ सकता. गोरख प्रश्न करता है. गोरख योगी था. योग दो वस्तुओं के मिलाप का नाम है. मैं अपने अन्तर में कभी किसी ख्याल को लेकर उस पर विचार करता था. कभी राम, कृष्ण या दाता दयाल की मूर्ति बनाकर आनन्द लेता था. इस प्रकार के योगों से मन के अन्दर शक्ति आती थी. जो ख्याल करता वह पूरा होता रहता था. चूंकि उस मालिक से मिलने की इच्छा थी तो जो अनुभव मुझे गुरु पद पर आने से हुआ उससे यह विश्वास हुआ कि जो कुछ मैं सोचता था, देखता था वह तो वह था जो मेरे अन्तर से पैदा होता था. अतः विवश हुआ कि उस मालिक को ढूंढूं जहां से कि मैं आया था. कबीर का जो कथन है:-
धुंधमई का मेला नाहीं, नहिं गुरु नहिं चेला।
यह धुंधमई का मेला क्या है? धुंधमई कहते हैं जब प्रातः काल को धुंध छा जाती है और कुछ दिखाई नहीं देता. जब मनुष्य की बुद्धि किसी विचार को लेकर उस मालिक की खोज करती है और उसकी बुद्धि काम नहीं करती तो उस बुद्धि के काम न करने का नाम धुंधमई है. कबीर का क्या भाव होगा या किस भाव से यह शब्द लिखा है मुझे नहीं मालूम, मैं कहता हूँ कि बुद्धि से यदि कोई चाहे कि मैं उस मालिक का दर्शन कर सकूं तो असम्भव है. साथ ही जब तक कोई आदमी किसी रूप को चाहे वह किसी देवता का है या गुरु का है या प्रकाश रूपी गुरु की आंख, नाक, मस्तक आदि को प्रकाशवान रूप में देखता है, वह उस मालिक तक नहीं पहुंच सकता और न कोई पहुंचा. क्यों? क्योंकि जो व्यक्ति मुझको अपने अन्तर प्रकाशवान कमल के फूल पर देखते हैं और मैं वहां नहीं होता तो विवश हो गया हूँ कि कबीर के इस शब्द के साथ सहमत हूँ.
कबीर का कथन सत्य है कि हमारा जो आदि है जहां से हम आये हैं वह वह अवस्था है जहां न तो धुंधमई है अर्थात् न बुद्धि है और न स्वामी और सेवक, न गुरु है न चेला है. कबीर भी नहीं, मैं भी नहीं. हर एक मनुष्य का वह आदि है जहां से हम इस रचना के सिलसिले में इस संसार में आये हैं.
ब्रह्म नहीं जब टोपी दीन्हा, विष्णु नहीं जब टीका।
सिव सकती कै जन्मौ नाहीं, जबे जोग हम सीखा।।
गोरख को उत्तर देते हुये कबीर कहते हैं कि हम उस समय से वैरागी है जब ब्रह्मा ने रचना भी नहीं की थी. ब्रह्मा वह शक्ति है जो हमारे मन में संकल्प पैदा करती, वासनी उठाती है. विष्णु वह शक्ति है जो हमारे अन्तर उत्पन्न हुई वासना की पूर्ति करके हमें आनन्द देती है. शिव वह शक्ति है जो उत्पन्न हुई और विकसित हुई वासनाओं को मिटा देती है, समाप्त कर देती है. उस अवस्था में, जिसका मैंने वर्णन किया, न ब्रह्मा होता है न कोई वासना उठती है और न वासना की पूर्ति होती है और न उसके विनाश का प्रश्न पैदा होता है.
सतयुग में हम पहिरि पांवरी, त्रेता झोरी डंडा।
कबीर का इससे क्या भाव है वह कबीर जाने मगर जो मैं समझता हूँ, वह कहता हूँ. सत्युग हमारा बालपन का समय है. हमारी सुरत की धार या वह जो हम हैं, आदि घर से आये हैं. इस शरीर में आने से इस शरीर में ठहर जाते हैं, खड़ाऊं के सहारे हो जाते हैं, शरीर में सुरत का ठहराव आ जाता है. यह सत्युग है. झोली डंडा क्या होता है? साधु लोग रोटी खाने के लिये झोली पहन कर डंडा लेकर मांगते फिरते हैं अपनी उदर पूर्ति के लिये. जब बचपन से आदमी बड़ा होता है तो वह उदर के भरने के लिये तरह-तरह की आशायें रख कर के फिरता है, काम करता है, नौकरी करता है, खेती करता है. ऐसा समझता हूँ.
द्वापर में हम अड़बंद पहिरा, कलऊ फिरयौ नौ खंडा।
'द्वापर में हमने लंगोट पहिरा.' लंगोट का अर्थ है इद्रियों का निरोध करना. जब हम दुनिया के कश्मकश में असफल होते हैं तो वह जो हमारी वासनायें उठती हैं वे सब की सब पूरी नहीं हो सकतीं. सब्र-संतोष से काम लेने की कोशिश करते हैं. इसका नाम है 'द्वापर में हम अड़बंद पहिरा'. 'कलियुग फिरयो नौ खंडा.' हम जब्त या संयम से भी काम लेते हैं मगर फिर भी शान्ति नहीं मिलती. बुद्धि चंचल हो जाती है. शान्ति नहीं मिलती. फिर क्या होता है-
काशी में हम प्रकट भये हैं, रामानन्द चिताये।
हमारा जो यह शरीर है यह काशी है. कलियुग में जब ये सब बातें हो जाती हैं, जीव अशान्त हो जाता है. फिर उसको गुरु मिलता है. कबीर का गुरु रामानन्द था. अब सबको तो रामानन्द मिलने से रहा. गुरु उसको चेताता है जिस तरह कि दाता दयाल ने मुझको चेताया. क्या चेतावनी दी? जो चेतावनी मुझे मिली वह बताता हूँ-- दाता दयाल ने सन् 1921 ई. में मेरे नाम मेरे चिताने के लिए 'काल चक्र' के शीर्षक से एक शब्द लिखा था--
काल चक्र इक सहज हिंडोला, झूले अचरज न्यारा।
सब कोई झूले झूला चढ़ कर, काल झुलावन हारा।।
(पूरा शब्द 'फकीर भजनावली' में छपा हुआ है.) इस शब्द में उन्होंने मुझे यह लिखा-
अब के चूके मौज न ऐसी, त्याग काल की आसा।
आज का साधन आज ही कर ले, कल को होगा उदासा।।
राधास्वामी दया के सागर, तेरे कारन आये।
उनके चरन में शीश झुका कर, अपना काज बना ले।।
राधास्वामी राधास्वामी, राधास्वामी गाना।
मन बच कर्म से भक्ति कमाना, भूले बाहर आना।।
वह जो राधास्वामी गाना है वह क्या है? वह है सुरत से शब्द को सुनना. यह शब्द ही नाम है मगर यह नाम उस समय प्रकट होता है जब मनुष्य को यह ज्ञान हो जाता है कि जितने रूप-रंग-रेखायें तथा विचार-भाव मनुष्य के अन्तर पैदा होते हैं ये माया हैं, कल्पित हैं. मुझे यह ज्ञान नहीं होता था. इसी ज्ञान को देने को मुझे गुरु पदवी दी थी. अब जाकर समझ में आया कि मैं नहीं प्रत्येक व्यक्ति 'आदि सुरत' है. शब्द जब होता है किसी वस्तु की गति से होता है या टकराने से होता है. तो जितने शब्द हमारे अन्तर में किसी वासना को रखते हुए, किसी दूसरे ख्याल, मूर्ति या चित्र के साथ जुड़ने से पैदा होते हैं वे सार शब्द या सत् शब्द नहीं हो सकते. बात बहुत ऊँची है. असली शब्द हमारे अपने रूप, जो अकाल, अनाम, परमतत्त्व की स्वाभाविक हिलोर गति है, उसका नाम है.
सहजै सहजै मेला होइगा, जागी भगति उतंगा।
कहै कबीर सुनो हो गोरख, चलो सबद के संगा।।
कबीर गोरखनाथ से कहते हैं कि इस मंजिल तक पहुंचने के लिए सहज रास्ते से चलो. जल्दी मत करो. जब तक आदमी के अन्तर में केवल सत्यता, असलियत की सच्ची तड़प पैदा नहीं होगी तब तक यह वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती. मुझमें यह भावना थी. मैं असलियत को देखना चाहता था. अगर अपने मान-बड़ाई और धन-संपत्ति की इच्छा होती तो मैं रहस्य को गोपनीय (गुप्त) रखता. जितना चाहे धन, मान ले लेता. ऐ मेरी विचारधारा के पढ़ने वालो! मैंने यह काम क्यों किया? कुछ तो मेरे प्रारब्ध कर्म समझ लो. कुछ मालिक की मौज, कुछ ऋण समझ लो. मेरी नीयत केवल गरीबों को चिताने की है. जो मेरी तरह परम शान्ति या असलियत के प्राप्त करने के इच्छुक हैं, सहज-सहज चलते रहें. यह प्रकृति, माया इतनी बलवान हैं कि मुझ पर भी हमला करती रहती है. अभ्यास में जाता हूँ. यह जो आनन्द देने वाले दृश्य, प्रेम करने वाला भाव, दाता दयाल से प्रेम अथवा अपने अनुभव को वर्णन करने का भाव यह भी माया ही है. यह मेरी सुरत को अपने उस असली नाम से नीचे लाने की कोशिश करता रहता है. तो जब तक जीना तब तक सीना. बात मेरी समझ में आ गई. सफर करता हुआ चला जा रहा हूँ. जीवन का क्या परिणाम हो उसको नहीं जानता. मौज का खेल है. सत्यता के साथ जितनी मेरी ड्यूटी थी वह कर चला.
सत्संग प्रवचन
(मानवता मन्दिर 27-7-67)
सतलोक
चल हंसा सतलोक हमारे, छोड़ यह संसारा हो।
मेरे दिल के अन्दर एक खोज थी और किसी हद तक अब भी है. यह खोज उस समय पैदा होती है जब मेरा अस्तित्व शारीरिक और मानसिक भान-बोध में आता है. सत कबीर का यह शब्द है जो धर्मदास को कहा गया है :-
चल हंसा सतलोक हमारे, छोड़ यह संसारा हो।
यह संसार काल है राजा, करम को जाल पसारा हो।।
वे कहते हैं कि यह संसार काल का पसारा है. काल कहते हैं समय को, गति को. तो सतलोक क्या हुआ? हमारी वह अवस्था जहां हमारे अन्तर गति नहीं होती, कोई दृश्य नहीं होता, कोई वस्तु हमारे सामने नहीं आती. मैं अपने आप से पूछता हूँ कि क्या कोई ऐसी अवस्था है. 'हां' है. मैं अनुभव करता हूँ मगर सचाई यह है कि वहां स्थायी रूप से अथवा हर समय ठहरा नहीं जाता. हाँ कबीर आज मिलता या धर्मदास मिलता तो उनसे पूछता कि क्या तुम हमेशा उस अवस्था में रह सकते हो.
मुझे इस अवस्था का ज्ञान या अनुभव केवल इस ख्याल ने दिलाया कि मैं किसी के अन्तर नहीं जाता. यदि यह अनुभव न होता तो शायद इस सतलोक का विश्वास ही न आता. जो कुछ कोई देखता है वह उसका अपना ही संसार है. हर वस्तु मनुष्य का अपना ही आपा है. उसके सामने जो कुछ दृष्टिगोचर होता है, अन्तर में या बाहर में, वह संसार है. सम+ सार=संसार. सम कहते हैं समान को, बराबर को. कबीर कहता तो सत्य है मगर संसार के प्राणियों को क्या इसकी आवश्यकता है? नहीं. कोई-कोई जीव अधिकारी होता है. मैं भी अधिकारी नहीं था. दाता दयाल की दया से अधिकारी हो गया मगर अभी संसार मेरा छूटा नहीं. यद्यपि यह संसार अब दुखदाई नहीं होता और न सुखदाई होता है मगर अभी मौजूद है. सत्संग कराता हूँ. यह भी तो मेरा संसार ही है. सतलोक है. इतना अनुभव है मगर जिसको मैं सतलोक कहता हूँ क्या पता संतों का सतलोक कोई और हो. यह वर्णन शैली रोचक है और होनी भी चाहिये. बिना रोचकता के आकर्षण नहीं होता.
चौदह खण्ड बसै जाके मुख, सब को करत अहारा हो।।
जारि बारि कोयला कर डारत, फिर फिर दे औतारा हो।।
ब्रह्मा बिस्नु सिव तन धरि आये, और को कौन बिचारा हो।।
सोचता हूँ यह सृष्टि अनादि है. यदि यह मान लूँ कि सन्तों की शिक्षा से आवागमन छूट जाता है तो ख्याल करता हूँ कि सत का प्राकट्य कलियुग में हुआ तो आबादी तो इतनी बढ़ी कि जिसका कोई हिसाब नहीं. घट जानी चाहिए थी. इसे जानने में मेरा दिमाग़ फेल होता है. मैं तो हौसले से कहना चाहता हूँ कि कुदरत के भेद का पता शायद कबीर को भी न लगा हो. इतना ही लगा कि वे इस संसार से उस ज्ञान के आधार पर, जो मैंने संतमत में समझा, शायद आप अलग हो गये हों. कई बार सोचता हूँ कि अलग हो गये तो क्या हो गया. जो अलग हो गया उसके लिए संसार नहीं रहा. दुनिया जैसी है वैसी बनी हुई है. सत्युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के चक्र आते रहते हैं. क्या कहूं कि कितने मनुष्य या कितनी आत्माएँ इस संसार से निकल गईं! समझ यही आई कि आप निकल गया उसके लिये संसार भी निकल गया.
मैं बचपन से उस मालिक से मिलने की प्रबल लालसा करता था. कभी उसको किसी मानव के रूप में पूजा, कभी किसी रूप में पूजा. अब मेरे अनुभव में यह आया कि जब तक किसी मनुष्य की सुरत किसी मनुष्य को पूजती है या उस मालिक को किसी मानव रूप में पूजती रहती है, उसका यह संसार समाप्त नहीं हो सकता क्योंकि मानव कोई हो मानव रूप में ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो, कोई गुरु हो, कोई महात्मा हो, मानव में किसी न किसी वासना का रहना मेरी समझ में लाजिमी है. इसलिए जो मनुष्य इस संसार से निकलना चाहता है उसको अपना इष्ट वह जो शक्ति या शब्द जो आदि गति कहलाती है उसका इष्ट बांधना लाजिमी है. यह मेरा अनुभव है. जीवन भर उस मालिक को किसी न किसी रूप में मानता आ रहा हूँ. तो अपना अनुभव कहता हूँ कि जब तक मैं ऐसा करता रहता हूँ संसार कायम रहना है. इसलिये संन्तों के मत में शब्द का इष्ट बताया गया है. इस शब्द के इष्ट से संसार छूट जाता है क्योंकि संसार की रचना का आदि शब्द है या नाम है. यही बात कबीर ने कही है.
सुर नर मुनि सब छल बल मारिन, चौरासी में डारा हो।।
मद्ध अकास आप जहं बैठे, जोति सबद उजियारा हो।।
वह जो मालिक है वह शब्द और प्रकाश का रूप है. जब तक मनुष्य की सुरत शब्द और प्रकाश को अपना इष्ट नहीं बनाती स्वयं शब्द और प्रकाश नहीं हो जाती, तब तक संसार नहीं छूट सकता. मैं अपने अनुभव के आधार पर कबीर के साथ सहमत हूँ. वह शब्द और प्रकाश एक तो हमारे अन्तर हमारा अपना ही रूप है और एक इस चौदह लोक अर्थात् जितना ऊपर का संसार है सब का आदि वह शब्द और प्रकाश का भंडार है. एक सतलोक हमारा अपना रूप है और एक सतलोक इस संसार के ऊपर ब्रह्मांडों से परे हो सकता है. जो जीव प्राण त्यागते समय शब्द और प्रकाश, अपने रूप में ठहरे हुए होते हैं और संसार का जब त्याग हुआ हुआ होता है तो उनका हर एक तत्त्व अपने-अपने भंडार में मिल जाता है. मिट्टी तत्त्व मिट्टी में मिल गया. जल तत्त्व जल में मिल गया. इसी तरह से संभव हो सकता है कि हमारा अपना शब्द और प्रकाश रूपी आत्मा अथवा जो हम हैं, शरीर के त्याग के बाद उस बड़े भंडार में मिल जाए. चाहता हूँ कि बता सकूं कि शरीर के त्याग के बाद मेरे साथ क्या हुआ. अनुभव मानता है कि उस मालिक का रूप ऐसे ही अनेक सूर्यों का प्रकाश और शब्द की धुन का भंडार है जैसे हमारे अन्तर में तो वायु थोड़ी सी आती है मगर जब वह अन्दर से निकलती है तो बाहर वायु के लोक में मिल जाती है. इसलिए कबीर कहता हैः-
सेत सरूप सबद जहं फूले, हंसा करत बिहारा हो।
कोटिन सूर चन्द छिप जैहैं, एक रोम उजियारा हो।।
जिस तरह यह सृष्टि बड़ी विशाल है, पृथ्वी तत्त्व बड़ा विशाल है, जल तत्त्व बड़ा विशाल है आदि आदि, इसी प्रकार से वह प्रकाश और शब्द, श्वेत प्रकाश और शब्द असीमित, अनन्त (लोक) होगा. अनुभव मानता है कि जिस तरह से हम देह में रहते हुये इस दुनिया में भ्रमण करते हुये आनन्द लेते हैं इसी तरह से जो हमारा शब्द और प्रकाशरूपी आत्मा है जब संसार को त्याग कर स्थायीरूप से शरीर से निकल जाता है तो वह उसी तरह से उस लोक में विहार करेगा जिस तरह से हम इस शरीर को रखते हुये इस दुनिया में विहार करते हैं.
वही पार इक नगर बसतु है, बरसत अमृत धारा हो।
कहे कबीर सुनो धर्मदासा, लखो पुरुष दरबारा हो।।
ज्ञात नहीं वह नगर क्या है. अनुभव से कहता हूँ कि हमारी शब्द और प्रकाश स्वरूपी आत्मा उस सागर में या उस शब्द और प्रकाश के भंडार में रमण करती रहती है. कभी-कभी अनुभव होता है मगर हमेशा नहीं. प्रालब्ध कर्म, शरीर और मन का बन्धन, सत्संग का झमेला और दुनिया के सम्बन्ध नीचे लाते रहते हैं.
मैंने इस प्रकार के ऊँचे सत्संग विलारी से आये हुये कुछ आदमियों को दिये. क्यों? ताकि वे जीवन भर इस फकीरचन्द के साथ न बंधे रहें. गुरु का काम चेतावनी देना, रहस्य बताना है और यही रहस्य सन्त कबीर ने अपने गुरुमुख चेले धर्मदास को दिया है. यह धर्मदास लाखों की सम्पत्ति दान करके कबीर का चेला बना था. संसार तो उसने पहले ही त्याग दिया था. यदि घरबार और धन-सम्पत्ति के त्यागने से ही संसार छूटता तो धर्मदास ने पहले ही छोड़ दिया था. उसको फिर कबीर क्यों कहता भाई संसार छोड़. इसलिये विलारी वालों को कहता हूँ कि संसार भाई-बन्धु और धन-दौलत नहीं है किन्तु संसार वह विचार वह रूप, रंग और रेखायें हैं जो मनुष्य के अन्तर उत्पन्न होती रहती हैं. मैं अपनी पोजीशन को साफ रखने के लिए सच्चाई से काम करता हूँ ताकि जीवों को असलियत का ज्ञान प्राप्त हो. मैं नहीं चाहता कि लोग अज्ञान से मुझे पूजें. यह मत्था टेकना, बाहरी पूजा, धन देना हमारा सांसारिक व्यवहार है. इसके बिना हमारा जीवन निर्मल हो नहीं सकता. चले चलो. जो समय मिलता है अपने अन्तर ठहरने का साधन करो. सत्संग सुन लिया. बात समझ में आ गयी. रोज़-रोज़ सत्संग में आने की भी आवश्यकता नहीं. साधन करो. अन्तर में ठहरने का यत्न करो. बस.
तुम लोग आये हो. सुनो, भगवान का अन्त नहीं है. जो सच्चे दिल से मांगो वह मिलता है. कुदरत कोई न कोई साधन या ज़रिया उसका बना देती है. जब किसी की इच्छा यहां तक पहुंच जाती है कि वह अपने जीवन (जान) की भी परवाह नहीं करता तब कुदरत उसकी पूर्ति का कोई न कोई सामान पैदा कर देती है. मालिक सब का है. यदि मनुष्य की नीयत सच्ची है तो जब उसको किसी वस्तु की प्रबल इच्छा है तो जिसकी इच्छा है, बशर्ते कि वह इच्छा सच्ची हो, वह पूरी हो जायेगी.
जो कुछ तुम्हें या मुझे मिलता है वह हमारी चाह का फल है. मांगो और मिलेगा. जल्दी मिले या देर से मिले. तुम लोग मेरे पास आये हो, मुझे खुशी नहीं मिलती. मैं नहीं चाहता संसार वालों को फकीर के जाल में फंसाने की कोशिश करूं. गुरु शक्ति है. तुम्हारे पास रहता है. तुम्हारे दिल में रहता है. जीव सहारा चाहता है लेकिन असली बात यह है जो मैंने बताई. जितना जोर लगाना है अन्तर में लगाओ. अन्तर में प्रेम करना सीखो.
'गगन चढ़न, मन वश करन यही बात मुश्किल'. बात करना, व्याख्यान देना, गाना, रोना, हँसना, दान-पुण्य करना तथा शरीर का बलिदान करना भी सुगम है किन्तु सुरत को मन से निकाल कर अकेला कर देना महाकठिन काम है. किसी समय सुरत फंसी तो मन में है, जीव को धोखा होता है कि मैं निकला हुआ हूँ.
मुझे जो कुछ प्राप्त हुआ वह दया तो दाता दयाल की है मगर आप लोगों से प्राप्त किया. गुरु पदवी पर आने से मेरा काम बन गया. काम तो बन गया किन्तु ठहरा नहीं जाता. आपको सच्ची बात बताता हूँ. जैसे मनानन्द है, कामानन्द है, विवेकानन्द है, आत्मानन्द है इसी तरह 'अनुभवानन्द' भी है. वह अनुभवानन्द निकलने नहीं देता. कबीर ने ये जितनी बातें लिखी हैं वे अनुभवानन्द में आकर लिखी हैं.
सत्संग प्रवचन (मानवता मन्दिर, 6-1-1968)
अगम देश
महरम होय सो जाने, साधो ऐसा देश हमारा।।
वेद कतेब पार नहीं पावत, कहन सुनन से न्यारा।।
जाति वरन कुल किरिया नाहीं, संध्या नैम उचारा।।
बिन जल बूंद परत जहं भारी, नहिं मीठा नहिं खारा।।
सुन्न महल में नौबत बाजै, किंगरी बीन सितारा।।
बिन बादल जहं बिजुरी चमकै, बिन सूरज उजियारा।।
बिना सीप जहं मोती उपजै, बिन सुर शब्द उचारा।।
जोति लजाय ब्रह्म जहं दरसै, आगे अगम अपारा।।
कहै कबीर वहं रहनि हमारी, बूझे गुरु मुख प्यारा।।
आयु बीत गयी उस देश को देखने के लिए. अपनी आत्मा से पूछता हूँ कि क्या वह देश है या यों ही किसी पन्थ या किसी सन्त के पीछे लगाने को ये पद कहे गये हैं? मैं कहता हूँ कि वह देश है. देश शब्द का अर्थ है एक बहुत बड़ा क्षेत्र. उसमें रचना रहती है, जीव-जन्तु बसते हैं अथवा कहीं जंगल और पहाड़ हैं. हम उस देश को देखते हैं. जैसे भारतवर्ष है, अमरीका है, अफ्रीका आदि देश हैं, ऐसे ही वह भी देश है. इस देश को हम कर्मेन्द्रियों द्वारा देखते हैं. यदि कर्मेन्द्रियां नहीं हैं अर्थात् आंख, कान, हाथ नहीं तो हम इस देश को देख नहीं सकते. जब तक कर्मेन्द्रियां तुम्हारे साथ हैं और तुम इन इन्द्रियों पर बैठे हुए तुम इसी देश को देख सकोगे. उस देश को कैसे देखोगे! जब तक कोई मनुष्य कर्मेन्द्रियों से अलग नहीं होता, तब तक यह जो जाग्रत का देश है इसी को देखेगा. इसलिए कर्मेन्द्रियों को छोड़ना पड़ता है उस देश को देखने के लिए. इस भूमंडल के परे एक सूक्ष्म माया का देश है जहां अग्नि, जल, वायु, मिट्टी और आकाश का स्थूल अस्तित्व नहीं है, केवल सूक्ष्म प्रकृति है. वह देश ज्ञानेद्रियों से देखा जाता है. वह मानसिक रचना का देश है. इसका उदाहरण स्वप्न से दिया जा सकता है. सूक्ष्म रचना समाधि में या स्वप्न में देखते हो अथवा समाधि में दृश्य देखते हो, उस समय कर्मेन्द्रियां काम नहीं करती. केवल ज्ञानेन्द्रियां रहती हैं और उस देश को जिसका वर्णन कबीर साहब ने इस शब्द में किया है उसको न कर्मेन्द्रियों के द्वारा देख सकते हो और न ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा देख सकते हो. वह सुरत (की इन्द्रिय) के साथ देखा जाता है. इन्द्रिय कहते हैं अंग को. सुरत हमारा एक अंग है. ये भिन्न-भिन्न प्रकार की इन्द्रियां हमारे शरीर की या जीवन की अंग हैं. जब तक कोई आदमी पहले कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को नहीं छोड़ता (अर्थात इनका भान-बोध नहीं त्यागता) उस देश को देखना असम्भव है. इसीलिए कबीर ने कहा है--'महरम होय सो जाने'. महरम कहते हैं जानकार को, ज्ञाता को, असलियत की समझ रखने वाले को. इसलिए सन्तों के मार्ग में योग का साधन उस देश में जाने के लिए अनिवार्य बताया गया है. वह योग क्या है? वह है पहले निर्विकल्प समाधि में जाना अथवा दसवें द्वार में पहुंचना. जब शून्य समाधि लगेगी तो कर्मेन्द्रियां और ज्ञानेन्द्रियां काम नहीं करेंगी. शरीर में रहते हुए यहां रहेंगी तो अवश्य मगर काम नहीं करेंगी. तब उस देश को सुरत रूपी इन्द्रिय देख सकती है, या वहां का अनुभव कर सकती है. उस देश में यह रचना वैसे ही है जैसे इस देश की अथवा सूक्ष्म प्रकृति की. फिर यदि कोई उस देश को देखना चाहता है तो उसे साधन करना होगा. मैं अपने जीवन में कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को साथ रखते हुए उस देश को देखने, जानने तथा सैर करने की कोशिश करता रहा मगर पूरा अनुभव नहीं हुआ था. यह अनुभव अब अधिक होता रहता है क्योंकि मन के अन्दर कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के जो खेल या दृश्य देखा करता था उसमें स्थिरता, या असलियत न होने का पूर्ण विश्वास हो गया. यह विश्वास हो गया कि ये सबके सब कल्पित या मायावी हैं अथवा परिवर्तनशील सिद्ध हुए. वह देश प्रकाश और शब्द का देश है. यहां प्रकाश के ही वृक्ष, प्रकाश के ही रूप तथा प्रकाश ही की रचना है. जिस तरह इस सृष्टि में अग्नि जल, वायु, पृथ्वी और आकाश के रूप हैं जो कर्मेन्द्रियों द्वारा देखे जाते हैं या सूक्ष्म प्रकृति की रचना ज्ञानेन्द्रियों से देखी जाती है, इसी प्रकार वह प्रकाश और शब्द का देश है. प्रकाश ही प्रकाश है. प्रकाश ही का सब पसारा है. वह सुरत से ही देखा जाता है. वहां कबीर कहते हैं-
बिन जल बूंद परत जहां भारी, नहिं मीठा नहिं खारा।।
सुन्न महल में नौबत बाजे, कंगरी बीन सितारा।।
वहां प्रकाश ही प्रकाश है. प्रकाश की गति या कम्पन का नाम है शब्द. जिस प्रकार स्थूल जगत में स्थूल प्रकृति के गति करने से शब्द का होना लाजिमी है इसी तरह सूक्ष्म रचना में जहां विचार का खेल होता है वहां भी विचार की गति से शब्द उत्पन्न होता है और वह जो प्रकाश का देश है वहां प्रकाश की गति से या कम्पन से शब्द होता है. जैसा यह देश है वैसा ही सूक्ष्म प्रकृति का देश है, वैसे ही प्रकाश का देश या लोक है. यहां भी शब्द है और वहां भी शब्द है. केवल शब्द-शब्द में अन्तर है. यहां नदी बहती है उसमें दूसरी तरह की आवाज़ है. पक्षी और पशु बोलते हैं उनकी आवाज दूसरी ही तरह की है. डाक्टर हृदय पर, शरीर पर स्टेथोस्कोप लगाते हैं, वहां और तरह की आवाज है. अतः शब्द तो सब जगह है मगर सन्तों ने जो अन्तर में शब्द सुने उनकी अपने-अपने शब्द गढ़ कर दुनिया के बाजों की आवाजों से उपमा या समानता देते हुए उनके नाम रखे. सितार, सारंगी, मुरली की आवाजें क्या हैं? उस लोक की जो प्रकाश है और उसमें जो कम्पन होता है, उसकी आवाजें है और दुनिया की वस्तुओं की आवाजों की उपमा देकर समझाने का एक ढंग है.
बिन बादल जहं बिजली चमके, बिन सूरज उजियारा।
बिना सीप जहं मोती उपजै, बिन सुर शब्द उचारा।।
यहां बादल होते हैं तो बादलों से बिजली चमकती है, वहां बिजली बादलों से नहीं निकलती क्योंकि बादलों का सम्बन्ध स्थूल माद्दे से है. वहां प्रकाश रूपी देश में जो चमक रहती है वह बिजली की चमक का इशारा है. यहां आवाज किसी बाजे से पैदा की जाती है, वहां प्रकाश रूपी जो माद्दा है उसमें से स्वयं आवाजें होती रहती हैं. सीप के बिना मोती! मोती तुम्हारी सुरत है. शरीर में रहती हुई वह मानव शरीर में बन्द हैं. वहां सीप की आवश्यकता नहीं. अर्थात् देह और मन की आवश्यकता नहीं. स्वयं वह नंगी होकर रहती है. सुरत जो है वह बिना सीप अर्थात् देह और मन के खोल के बिना मौजूद है.
जोति लजाय ब्रह्म जहं दरसै, आगे अगम अपारा।
कहें कबीर वहां रहन ही ऐसी, बूझै गुरु मुख प्यारा।।
जोति लजाय से अभिप्राय ज्योति स्वरूप के दर्शन से है. वह प्रकाश सहसदल कंवल में है. वह भी प्रकाश ही है मगर वह प्रकाश मन के संकल्पों के कारण होता है. इसका अर्थ यह है कि वह प्रकाश ज्योति जैसा नहीं होता. केवल सीप के रंग का होता है और उस सीप के रंग के प्रकाश का नाम है – जहां ब्रह्म है वह "ब्रह्म दरसै'. श्वेत रंग का देखना ही ब्रह्ममय होना है. ब्रह्म को देखना है. जब ये श्रेणियां तै हो जाती हैं और उस देश की सुरत बहुत सैर कर लेती है फिर उसको ज्ञान हो जाता है कि वह मालिक क्या है, मैं कौन हूँ. इस ज्ञान का नाम है अगम देश. बिना योग-साधन के यह ज्ञान या अनुभव नहीं हो सकता. वह योग है-
तन थिर मन थिर, सुरत निरत थिर होय।
कहें कबीर वा पलक को, बिरला पावे कोय।।
फिर उस देश की सैर करने के लिये क्या तरीका है. तन थिर अर्थात् कर्मेन्द्रियों को छोड़ो. मन थिर ज्ञानेन्द्रियों को छोड़ो. फिर वह जो प्रकाश रूपी देश है, ब्रह्म का देश है, इस से आगे जाओ. तब ज्ञान होगा इस अगम देश का. इसकी प्राप्ति का उपाय यह है कि अजपा जाप के करने से अर्थात् जिभ्या बिना हिलाये हुये मस्तिष्क में अजपा जाप करने से कर्मेन्द्रियों का खेल समाप्त होगा. इसको तीन बन्द कहते हैं.
चश्म बन्दो गोश बन्दो लब बन्द।
गर न बीनी सिर्रे हक़ बर पा न खंद।।
(अर्थात् आंख, जीभ और कान को बन्द करो. फिर हक़ की प्राप्ति न हो तो मुझ पर हँसो.)
यह सुमिरन है. जो इस उद्देश्य को लेकर सुमिरन नहीं करते हैं, उनको लाभ नहीं होता. हर काम का उद्देश्य होता है. जब कर्मेन्द्रियों का भान-बोध समाप्त हो गया फिर ज्ञानेन्द्रियां--मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार का बोध समाप्त होगा ध्यान योग से. (मैं नहीं कहता कि तुम किसका ध्यान करो) हमारे मार्ग में गुरु स्वरूप का ध्यान करते हैं. कोई ध्यान करो. जिसका ध्यान करते हो उसको पूर्ण मानो. जब ध्यान की अवस्था गहरी हो जायगी, निर्विकल्प समाधि लग जायगी. ज्ञानेन्द्रियों के सूक्ष्म देश की जो स्पप्न में या समाधि में सैर करते हो, यह बन्द हो जायगी.
फिर सुरत का खेल है प्रकाश और शब्द. वह भी एक लोक है. जब यह साधन पूरा हो जाएगा, फिर तुमको ज्ञान हो जाएगा कि असलियत क्या है. वह तुम आप ही आप हो.
जो दीखे सो है नाहीं, जो है वह कहा न जाई।
सैना बैना जो कोई बूझै, गूंगे का गुड़ खाई।।
इस निज रूप का ज्ञान उसी समय होगा जब तुम साधन करोगे. जब ज्ञान होगा तो वह अनिर्वचनीय है. 'जो दीखै सो नाहीं', इस दुनिया में जो कुछ तुम जाग्रत में देखते हो, वह भी नहीं, मन की रचना में जो देखा वह भी नहीं, जो प्रकाश लोक की सैर की वह भी नहीं. फिर वह क्या है? भिन्न-भिन्न शब्द गढ़ कर उसे प्रगट किया जाता है किन्तु ये सब अधूरे हैं.
यह करनी का भेद है, नाहीं बुद्धि विचार।
कथनी तज करनी करे, तब पावे कुछ सार।।
इस लोकों के बारे में मैंने तीन लोकों का वर्णन कर दिया अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण. इनका जो आधार है, जो वस्तु इन तीनों लोकों में खेलती है वह तुम हो. अब इस 'तुम को' तुम 'मैं' कह लो, सुरत कह लो, निज स्वरूप कह लो. इसका अनुभव मुझे इसी जीवन में हुआ. शरीर के स्थायी त्याग के बाद क्या होगा, कुछ नहीं कह सकता.
उतते कोई न आइया, जा से पूछूं जाय।
इतते सब कोई जात है, भार लदाय लदाय।।
यह जितना अनुभव हुआ इसी जीवन में हुआ, चूंकि मरने के बाद किसी ने आकर नहीं बताया. अतः साहस नहीं होता कि कुछ कहूं. इच्छा है कि मौज तौफीक़ दे कि बता सकूं कि शरीर के स्थाई त्याग के बाद मेरे साथ क्या बीतेगी. इस समय तक इस निश्चय पर पहुंचा हूँ कि जीवन मालिक की मौज का एक चमत्कार है. कभी सोचता हूँ कि वह आप ही सुरत रूप है. आप ही आकर इस रचना में खेलता है और खेल देखने के लिये आता है. फिर वह मालिक क्या निकला? चुप, खामोशी और अचरज. हम तुम उस अनन्त खामोशी या मौनता के समुद्र से प्रगट हुए सैर करते हैं. जब उसकी इच्छा होगी वह लय कर लेगा. गुरु गोविन्दसिंह जिनका आज जन्म दिन है यही कह गये-
मैं हूँ परम पुरुष का दासा।
जग में आया देखन तमाशा।।
कोई इस स्थूल जगत का तमाशा देखने के लिये आया. काम कर गया पांच कर्मेन्द्रियों द्वारा, जिससे अपना भी और दूसरों का भी भला हुआ. कोई आया ज्ञानेन्द्रियों की सैर कर गया. मीठा बोल गया, प्रेम कर गया, अच्छे विचार दे गया, एकता और प्रेम का खेल खेल गया. कोई सन्त आया जो आप ब्रह्ममय हो गया. कबीर की तरह प्रकाश के खेल में खेला. दूसरों को उस देश का पता दे गया. इस समय तक मेरी यह अवस्था है. मैंने इन तीनों प्रकार के खेलों को खेला है. शरीर से किसी का भला हो सके वह करने की कोशिश की. मैंने किसी से प्रेम किया, अच्छे विचार दिये, किसी को उत्साहित किया. आत्मा में या प्रकाश में रहता हुआ स्वयं आनन्द लिया और दूसरों को देने की कोशिश की. जीवन मुक्त की अवस्था में जहां ठहरा, वहीं आनन्द ले लिया. काम करते समय काम में, प्रकाश या शब्द में, जहां भी ठहरा, वहीं आनन्द लिया.
नोट:-मास्टर मोहनलाल ने प्रश्न किया कि आपने कहा कि प्रकाश से शब्द पैदा होता है. प्रकाश के देश में जो शब्द होता है वह प्रकाश की गति से होता है. सन्त कहते हैं शब्द से रचना होती है. इसे स्पष्ट करिये.
उत्तर :-जो शब्द स्थूल प्रकृति, सूक्ष्म प्रकृति या प्रकाशमयी कारण प्रकृति के हैं प्रकाश की गति से होते हैं. वह जो आदि शब्द है वह न तो घंटा-शंख का शब्द है, न ओंग है, न रारंग है न सारंग है, न मुरली है न बीन है. वह आदि शब्द है. राधास्वामी मत वालों ने उसका राधास्वामी नाम बताया. किसी ने उसको 'राम' का शब्द कहा. मगर उसका कोई रूप नहीं, कोई उसकी लय नहीं, तान नहीं. उसको कहते हैं सारशब्द. शेष जितने शब्द हैं इनका आधार वह शब्द है. जिस प्रकार की प्रकृति जिस देश की है उसके अनुसार शब्द होते हैं इसीलिये सन्तों ने कहा है-- सार शब्द का निरवारा. और वह सारशब्द असली नाम है. वह निज स्वरूप है.
प्रवचन
(मानवता मन्दिर होशियारपुर 15-1-68)
कबीर शब्द की व्याख्या
शब्द
हम ऐसा देखा सतगुरु संत सिपाही।।
संत नाम को पटा लिखायौ, सतगुरु आज्ञा पाई।
चौरासी के दुक्ख मिटे, अनुभौ जागीरी पाई।।
सुरत सींगरा1 सांग2 समुझ को, तन की तुपक बनाई।
दम को दारू सहज को सीसा, ज्ञान के गज ठहकाई।।
सील संतोष प्रेम की पथरी, चित चमकत चमकाई।
जोग को जामा बुद्धि मुद्रिका, प्रीति पियाला पाई।।
सत कै सेल्ह जुगत कै जमधर, छिमा ढाल ठनकाई।
मोह मोरचा पहले मार्यौ, दुविधा मार हटाई।।
सत्त नाम कै लगा पलीता, हर हर होत हवाई।
गम गोला गढ़ भीतर मार्यौ, भरम के बुर्ज ढहाई।।
सुरत निरत कै घेरा दीन्हों, बन्द कियौ दरवाजा।
सबद सूरमा भीतर पैठा, पकरि लियौ मन राजा।।
पांचों पकरे कामदार जो, पकरी ममता माई।
दास कबीर चढ़यौ गढ़ ऊपर, अभय निशान बजाई।।
( 1.सींगरा= सींग की तरह बारूद रखने का
2. सांग= बरछा)
यह शब्द सत्संग में पढ़ा गया. ख्याल आया कि कबीर ने यह क्या लिखा है. जो कुछ लिखा है क्या वह ठीक है? दुनिया कहेगी कि यह कैसा मूर्ख फकीर है जो सवाल करता है कि क्या कबीर का लिखा हुआ ठीक है. मैं क्या करूं! दाता ने कहा था फकीर!
जब लग देखो न अपने नैना।
कभी न मानो गुरु के बैना।।
मुझे संस्कार ही ऐसा मिला है. जब तक किसी वस्तु को स्वयं देख नहीं लिया, पहचाना नहीं, जाना नहीं, मैंने उसे नहीं माना. कबीर ने जो कुछ लिखा है उसे मैंने जान लिया, मान लिया, पहचान लिया कि ठीक है. अब उसका प्रमाण देता हूँ कि कैसे ठीक है.
मैंने गुरु आज्ञा का पालन किया. इस आज्ञापालन से सत्नाम का पटा लिखा गया अर्थात् मुझको विश्वास हो गया कि सिवाय नाम के और जो कुछ भी है वह सब कल्पित है, माया है, प्रकृति है. यह विश्वास कराने वाले सत्संगी हैं. गुरु आज्ञा क्या थी. यही कि सत्संग कराना और नाम दान देना. इसके अतिरिक्त और भी आज्ञा की -- जैसे हक़ हलाल की कमाई करना, प्रेम को दिल देना, ईर्ष्या, द्वेष मत्सर, घृणा को त्यागना. केवल इस ख्याल से कि मैं किसी के अन्तर नहीं जाता और मेरा रूप अन्तर प्रगट होकर सुरत चढ़ाता, मरते समय साथ ले जाता, अथवा अन्य काम करता है, तो यह सिद्ध हो गया कि मेरे अन्तर में जितने भाव-विचार, रूप-रंग तथा दृश्य पैदा होते थे वे मायावी हैं अथवा मन के बनाये हुए हैं. हैं नहीं मगर अन्तर में भासते हैं, बाहर में नहीं. बाहर की दुनिया तो प्रगट है. सूर्य भी है, तुम लोग भी बैठे हुए हो मगर जब तुम्हारा कल्पित रूप मेरे अन्तर आता है तो तुम नहीं होते. तो माया क्या हुई? यही कि जो रूप-रंग-दृश्य चाहे वह तुम्हारे या दाता दयाल या स्वामी जी महाराज के अन्तर में प्रगट हुए वे कल्पित थे. वह ही माया थी. बाहर के स्वामी जी या बाहर के दाता दयाल के रूप तो सत्य हैं मगर अन्तर के नहीं. बाहरी दुनिया है तो माया मगर यह भगवान की माया है, इस विश्वास ने सत्नाम का पटा लिख दिया. पटा कहते हैं किस बात के पूर्ण निश्चय होने को. फिर इस पटे के पूर्ण निश्चय का परिणाम यह हुआ कि मेरी सुरत जो अपने मन की कल्पनाओं, भावों और विचारों को सत्य मान कर फंसती रहती थी, उसमें फंसती नहीं. जो कुछ मेरे अन्तर फुरना होती है मैं उसको सत्य नहीं मानता मगर शरीर के स्थाई त्याग के बाद क्या होगा, इसका पता नहीं. इस समय तक तो यह विश्वास है कि अन्तर के दृश्य जो कुछ उठते हैं वे हैं नहीं. जब मेरी सुरत इनका अस्तित्व मानती ही नहीं तो फंसती भी नहीं, तो फिर 84 का चक्र मुझे कैसे आयेगा अर्थात् नहीं आयेगा. मुझे तो यह ज्ञान हुआ है. इसका नाम है अनुभव!
हम ऐसा देखा संत सिपाही।
वह सन्त सिपाही मैं हूँ या वे हैं जो मेरे जैसा अनुभव रखते हैं. दुनिया ने सन्त सिपाही को यह समझा हुआ है कि वह सन्त हो कर तलवार उठाता है. यह अज्ञान है. वह इस माया के जाल का सन्त सिपाही है.
सत्त नाम का पटा लिखाये, सतगुरु आज्ञा पाई।
चौरासी के दुक्ख मिटे, अनुभव जागीरी पाई।।
कोई ख्याल मन में आया तो चिन्ता पैदा हुई या खुशी हुई. जब यह ज्ञान हो चुका है कि मेरे हर प्रकार के विचार या ख्याल मायावी अर्थात् कल्पना मात्र हैं तो फिर सुरत कहां ठहरेगी? वह ठहरेगी नाम में. नाम है शब्द जो मेरे अपने ही आपका प्राण है, मेरा ही सांस है. मेरी ही आत्मा है. जो नाम मैं सुनता हूँ वह मेरा ही तो है, वह विचार, भाव, रूप, दृश्य यह भी तो मुझसे ही निकलते थे. मेरे ही आधार पर नाम है. मेरा ही नहीं प्रत्येक मनुष्य का आधार नाम है. इस अनुभव के आधार पर वे जो संकल्प-विकल्प, अच्छे या बुरे, जो दुख-सुख का कारण बनते थे, वे समाप्त हो गये.
सुरत सींगरा सांग समुझ को, तन की तुपक बनाई।
दम को दारू सहज को सीसा, ज्ञान के गज ठहकाई।।
कबीर ने युद्ध के शस्त्रों का सहारा लेकर बात कही है कि शरीर में रहते हुये अपनी तवज्जह से, इस अनुभव ज्ञान के गोले के साथ मन के अहसासात तथा भावों को, जो दुख-सुख का कारण बनते थे, शरीर में रहते हुए समाप्त कर दिये.
सील सन्तोष प्रेम की पथरी, चित चकमक चमकाई।
जोग को जामा बुद्धि मुद्रिका, प्रीति पियाला पाई।।
जब मनुष्य इस अनुभव में आता है तो शील, संतोष, प्रेम स्वयं पैदा हो जाते हैं. मेरे अनुभव में इस ज्ञान और अनुभव के बिना सन्तोष आदि स्थायी रूप से नहीं रह सकते, क्योंकि जब मनुष्य मन के संकल्प-विकल्पों को सत्य मान रहा है तो उसमें सन्तोष और शान्ति स्थायी रूप से नहीं आ सकती. यदि कोई चाहे भी तो उस दशा पर ठहर नहीं सकता. तुमने शीलवान व सन्तोषी रहने की कोशिश की परन्तु किसी ने कोई बात अनुचित कह दी और तुम्हारे अन्तर उसकी प्रतिक्रिया हुई तो शील भी गया और सन्तोष भी गया. मगर जब यह अनुभव-ज्ञान होगा कि जो मेरे अन्तर पैदा होता है यह तो माया है कल्पना है (अनुभव माया नहीं है किन्तु ज्ञान माया है). तो जो ज्ञान पैदा होता है वह तो माया है मगर कारण माया है. अनुभव अत्यन्त सूक्ष्म है. अनुभव से शील और सन्तोष स्थिर रहते हैं, मेरा जीवन इसी खब्त में बीता. बहुत कुछ सन्तोष तथा शान्ति को धारण किया मगर गिरता रहा. गिरावट यदि नहीं आई तो केवल इस अनुभव से नहीं आई कि यह सब माया है. अब भी जब कभी इस अनुभव को भूल जाता हूँ तो इस संसार का व्यवहार करते हुए मेरी दशा कभी-कभी गिर जाती है चाहे वह क्षण मात्र को ही हो. चूंकि नित्यप्रति साधन व विचार करता हूँ, सत्संग करता हूँ तुरन्त संभल जाता हूँ.
सत के सेल्ह जुगत कै जमधर, छिमा ढाल ठनकाई।
मोह मोरचना पहिले मारौ, दुविधा मारि हटाई।।
यदि यह ज्ञान हो भी जाय, तो इसको परिपक्व करने के लिए साधन और सत्संग करते रहना चाहिए. दाता दयाल महर्षि शिव ने जब यह काम दिया था तो कहा था कि सत्संग कराने से तेरा कल्याण होगा. यह जो मैं सत्संग कराता हूँ, प्रतिदिन वाणियां सुनता हूँ, किसी पर अहसान नहीं करता. मेरा अपना लाभ होता है. प्रतिदिन का साधन सहायता करता है इसलिए साधन और सत्संग जीवन के अंग होने चाहिएं.
सत्तनाम कै लगा पलीता, हरहर होत हवाई।
गम गोला गढ़ भीतर मारयो, भ्रम के बुर्ज ढहाई।।
'हर हर होत हवाई' से कबीर का क्या अभिप्राय है मैं नहीं जानता. मैं जो समझता हूँ वह कहता हूँ. जितने आदमी अपने मन से उस हरि, भगवान या परमेश्वर को पूजते हैं, उनको जब सत्नाम का ज्ञान हो जाता है तो यह पूजा समाप्त हो जाती है. यह जो हरि की पूजा है अथवा किसी की पूजा है यह हवाई हो जाती है अर्थात् समाप्त हो जाती है. क्यों? क्योंकि यह समस्त पूजा मनुष्य का अपना संकल्प या अपना विचार है. अपने अन्तर में वह सब का सब माया है, कल्पित है अथवा माना हुआ है. बाकी केवल शब्द रह जाता है जिसको हिन्दू शास्त्र शब्दब्रह्म कहते हैं. शब्दब्रह्म सनातन धर्म में सबसे ऊँचा है. चूंकि सनातन धर्म समुद्र है, कोई किसी जगह है कोई किसी जगह है. सनातन धर्म में माया भी है, ब्रह्म भी है, पारब्रह्म भी है, शब्दब्रह्म है, और शब्दब्रह्म से आगे परमतत्त्व है. श्रेणियां हैं. जो एम.ए. में पढ़ता है उसकी दृष्टि में छोटी क्लासें कुछ अर्थ नहीं रखतीं और वह उनकी ओर ध्यान नहीं देता. मैं खंडन नहीं करता किन्तु यथार्थ बात कहता हूँ.
सुरत निरत कै घेरा दीन्हों, बन्द कियो दरवाजा।
सबद सूरमा भीतर बैठा, पकरि लियो मन राजा।।
आज कल भी घेरा डालते हैं. घेराव में यह होता है कि बाहर के लोगों को अन्दर नहीं आने देते और अन्दर के लोगों को बाहर नहीं जाने देते. तो जब सुरत अन्तर में निरत करती है (अर्थात ठहर जाती है) तो हमारा आपा (शब्द रूपी सुरत) जब अपने अन्तर में ठहर कर निरत करता है तो बाहर के विचार, रूप-रंग न उसके पास आते हैं और न वे बाहर आते हैं. घेरा डालने का यही अभिप्राय है.
पांचों पकरे कामदार जो, पकरी ममता माई।
दास कबीरा चढ्यो गढ़ ऊपर, अभय निसान बजाई।।
वह जो हमारा आप है, निज स्वरूप है वही कबीर है. हर एक आदमी का जो निज स्वरूप है वही कबीर है.
जब यह अवस्था आ जाती है फिर मन के भाव, विचार, आदि कोई तंग नहीं करते. काबू में आ जाते हैं, जीवन में यदि दो-चार बार यह साधन हो जाये अर्थात् सुरत निरत होकर शब्द में ठहर जाये तो फिर उसको ज्ञान हो जाता है. सुरत को अकेले होने का साधन मिल जाता है. फिर जिस तरह उसका शरीर काम करता रहता है, व्यवहार और प्रतिभास में बरतता रहता है वह उसके दुख-सुख से विचलित नहीं होता क्योंकि अपने रूप का ज्ञान हो जाता है. भ्रम-संशय--- ईश्वर-परमेश्वर क्या है, मुक्ति क्या है, संसार क्या है? चले जाते हैं. भ्रम के जो गढ़ हैं अर्थात् हमारे अन्तर में जो प्रश्नोत्तर उठते रहते हैं ये टूट जाते हैं. जीवनमुक्त अवस्था या विदेह गति आ जाती है.
यह आत्मज्ञान है अथवा उपनिषदों का ज्ञान है.
सत्संग प्रवचन
(मानवता मन्दिर 1-8-1967)
संसार
सब जग रोगिया हो, जिन सतगुरु वैद न खोजा।
सीखा सीखी गुरु मुख हुआ, किया न तत्त विचारा।
गुरु चेला दोउन के सिर पै, जम मारे पैजारा।
झूठे गुरु को सब कोई पूजै, साचै न पतियाई।
अंधे बांह गही अंधे की, मारग कौन दिखाई।
इस शब्द में कबीर का क्या भाव है मैं नहीं जानता. जो मैंने समझा वह कहता हूँ. रोग कहते हैं शरीर में किसी तत्त्व का कम हो जाना या किसी तत्त्व का बढ़ जाना. यह शारीरिक रोग है जिससे शरीर रोगी हो जाता है. कफ़ बढ़ गया, पित्त बढ़ गया अथवा वायु प्रबल हो गयी आदि-आदि.
मन का रोग--किसी वस्तु की चाह का पैदा होना और किसी चाह या वासना को दूर करने की इच्छा पैदा होना. यह मानसिक रोग है. मैं इस मानसिक रोग को सोग या शोक भी कह सकता हूँ. एक आत्मिक रोग होता है. आत्मा प्रकाश स्वरूप है. प्रकाश का बढ़ना और घटना. यह तीनों अवस्थाओं में घटा-बढ़ी के साथ अशान्ति, चिन्ता, शोक, अज्ञान, भ्रम रहता है. इसका नाम --'रोग'-- मेरी समझ में आया है. इसका इलाज जो करता है उसका नाम सत्गुरु है.
सीखा सीखी गुरुमुख हुआ, किया न तत्त विचारा।
गुरु चेला दोउन के सिर पै, जम मारै पैजारा।।
कबीर ने निर्भय हो कर वाणी कही है. सारी दुनिया गुरु धारण करती है. गुरु पूजा लेते हैं, मान लेते हैं. चेले सेवा करते हैं और वे समझते हैं हमने गुरु को धारण कर लिया. मैं सोचता हूँ कि फिर गुरु क्या है. गुरु है सार-भेद, सार-ज्ञान, सार-अनुभव कि मनुष्य क्या है. जिस समय यह ज्ञान हो जाता है रोग-सोग और अज्ञान की चिन्ता नहीं रहती. घबराहट नहीं रहती, अशान्ति नहीं रहती. यह है तत्त्व विचार. जो तत्त्व विचार मुझको प्राप्त हुआ. मैं वह कहता हूँ. तत्त्व विचार से कबीर का क्या भाव रहा होगा मैं नहीं जानता. साधन, अभ्यास और सत्संग से यह विश्वास हुआ कि तत्त्व एक है. उसमें क्षोभ होती है. उसमें से शब्द और प्रकाश पैदा होता है. शब्द के पैदा होने से एक चेतना पैदा होती है. शायद आप न समझ सकें क्योंकि यह साधन का विषय है मगर यह तो समझ सकते हैं कि जब गहरी नींद में आप बिल्कुल बेहोश होते हैं और फिर उत्थान होता है तब थोड़ा सा होश आने से पहले एक प्रकार की चेतना होती है. यह तो शारीरिक अवस्था है. इसी प्रकार इस मार्ग पर चलने पर जब शारीरिक, मानसिक और आत्मिक चेतनाएं समाप्त होकर लय की अवस्था आती है, उस समय सब कुछ भूल जाने की अवस्था होती है. जब चेतनता आती है तो इस चेतनता में शब्द होता है. शब्द के होने से हमारे आपे को होश आता है या चेतनता आती है. या यों समझ लो कि जब अशब्द गति थी तो बेहोशी थी. जब शब्द हुआ तो तुम्हारी सुरत पैदा हुई. सुरत से आदि चेतनता या पहली चेतनता हुई. फिर वह चेतनता उसी तरह फुरती है जिस तरह गहरी नींद से उठने के बाद वह बढ़ी ठीक जाग्रत में वह खेल खेलती है. यदि मनुष्य इस अवस्था पर काबू रखे और विचार करे तो इस गहरी नींद से ठीक पूरी जाग्रत की जो अवस्था है उसमें जितने दर्जे या श्रेणियां अपनी बुद्धि से बनाना चाहे बनाकर उनका वर्णन कर सकता है. इसी प्रकार वह जो आदि चेतनता या सुरत शुरू में पैदा हुई उस सुरत में अनेक प्रकार की चेतनाएं--जैसे आत्मपना, मानसिक चेतनाएं और शारीरिक चेतनताएं पैदा होती हैं. इन चेतनताओं के विभिन्न नाम सन्तों ने गढ़े हैं. इनका पहला नाम है अगम अर्थात सुरत के 'है-पने' के प्रगट होने की पहली अवस्था, दूसरी अलख और तीसरी सत्. यह हमारी अपनी आदि सुरत की जाग्रत (सत्) स्वप्न (अलख) गहरी नींद (अगम) यह तीन अवस्थाएं हैं. इससे फिर आगे भंवर गुफा, महाशून्य, शून्य और त्रिकुटी हैं. ये क्या हैं? यह सुरत के साथ विचार-ज्ञान पैदा होता है उसकी तीन अवस्थाएं हैं. मन की गहरी नींद जो अगम का प्रतिबिम्ब है. यह सोहंग गति है. शून्य-महाशून्य, स्वप्नावस्था है. त्रिकुटी मन की जाग्रत अवस्था है. ऐसे ही सहस्रदल कंवल या ये सब जो निचली श्रेणियां हैं ये हमारी सुरत, आत्मा या मन के खेल हैं. यह खेल प्रकृति के कारण स्वाभाविक होते हैं. चूंकि हमें इनके स्वाभाविक होने का निश्चय नहीं होता, हम इन खेलों में अपने अज्ञान से दुख-सुख उठाते हैं और उन खेलों से जो दुख होता है उससे बचने का प्रयत्न करते हैं अथवा उसमें आनन्द लेने का प्रयत्न करते हैं. स्वामी जी का शब्द है :-
जग जाग्रत भौ दुख मूल। सुपना भी दुख सुख मूल।।
सुषुप्ति कुछ घर आराम। वह भी नहीं ठहरन धाम।।
तानों में फिरत आठों जाम। पूरा नहीं कहीं बिसराम।।
ये श्रेणियां शरीर की हैं.
अब करिये कौन उपाय। कासे अब पूछूं जाय।
तड़पूं और तरसूं निस दिन। बिरह अगनि जलूं मैं दिन दिन।।
कोई राह न सुख की गावे। सब करम भरम भरमावे ।।
निज भेद कहे नहीं कोई। बिरथा नर देही खोई।।
यह सोच करूं मैं भारी। तब सतगुरु कीन संभारी।।
सत्गुरु क्या करता है? इन जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में जो हर एक जीव चक्कर लगाता रहता है उससे बचने का उपाय बताता है.
कर दया भेद बतलाया। तुरिया फिर मारग गाया।।
तुरिया के आगे बरना। फिर उससे आगे चलना।।
तिस से भी परे लखाया। उसके भी पार सुनाया।।
तिस पर यह और समझाया। कुछ आगे और बुझाया।।
वहां से पुनि आगे भाखा। निज धाम मुख्य यह राखा।।
ये नौ (श्रेणियां) है. नौ श्रेणियां-- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे उन्होंने अनुभव से वर्णन की हैं. ये नौ श्रेणियां क्या हैं? मन की जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, फिर आत्मा की जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति फिर सुरत की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति. वह जो अन्तिम श्रेणी है वह क्या है? वह वह श्रेणी या अवस्था है जहां न मन रहता है न आत्मा न सुरत. अनामी पद, ज़ात, अकाल पुरुष. यह ज्ञान साधन करने से हो जाता है. मुझे दूसरों का पता नहीं. जो मुझे हुआ वह यह है कि मैं एक चैतन्य का बुलबुला हूँ जो मौज के क्षोभ में प्रगट होता है और उसी में समा जाता है. मेरा प्रगट होना और समा जाना उस मालिक परमतत्त्व आधार के अधीन है और यह जो कुछ हो रहा है स्वाभाविक है. होना ही ऐसा है. इस अनुभव ज्ञान से यह हुआ कि जो रोग-सोग (शोक) या अज्ञान पैदा होता था और मेरी सुरत को अशान्त रखता था, वह समाप्त हो गया. तो गुरु क्या देता है? साधन और अभ्यास से यह गति मनुष्य के अन्तर पैदा कर देता है तो इस अनुभव ज्ञान के होने से यह लाभ हुआ कि जो चिन्ता थी कि हम को शान्ति मिले, जिसके लिये हम गुरु धारण करते थे, वह उद्देश्य पूरा हो गया. कबीर कहते हैं:-
सीखा सीखी गुरु मुख हूआ, किया न तत्त विचारा।
गुरु चेला दोनों के सिर पर, जम मारे पैजारा।।
कबीर कहते हैं कि जो शिष्य गुरु धारण करके इस ज्ञान को प्राप्त नहीं करता अर्थात् तत्त्व को नहीं विचारता तथा वह पुरुष जो गुरु बन कर यह शिक्षा नहीं देता, तो दोनों के सिर पर जम जूते मारता है. अभिप्राय यह कि न शिष्य को शान्ति मिलती है और न गुरु को. दोनों ही अपने मन की कल्पनाओं में या मन के ग़लत विचारों में आकर कोई तप में, कोई जप में, कोई ईमानदारी में, कोई धर्म-कर्म में और कोई किसी बात में उलझा रहता है.
झूठे गुरु को सब कोई पूजे, सांचे न पतियाई।
अंधे बांह गही अंधे की, मारग कौन दिखाई।।
जितने और उपाय हैं चाहे कोई भी हों, मनुष्य का अज्ञान और अशान्ति दूर नहीं कर सकते. क्यों? उसका उत्तर सुनिये. जितने साधु और महात्मा लोग हैं क्या शरीर के रोगी नहीं हुये या नहीं होंगे? अवश्य हुए और होंगे. सब संत बीमार हुए. क्या उनके घरों में मृत्यु नहीं हुई? यह तो प्रत्यक्ष हम सन्तों में देखते हैं. उनके मन की क्या दशा होती है यह तो वही महात्मा जानते होंगे. मैं अपना हाल जानता हूँ. मन तरह-तरह के नाच नचाता है. 'मानवता मन्दिर' की उन्नति की इच्छा मौजूद है. यह भी इच्छा रहती है कि जो दुखी लोग आते हैं वे सुखी हो जाएं. अस्पताल खोला हुआ है. अपनी आवश्यकता पर दूसरों से सहायता लेता हूँ और यथाशक्ति दूसरों की सहायता करता हूँ. यह जीवन है. इसमें दुख-सुख, भलाई-बुराई, जीवन-मृत्यु, मान-अपमान कभी मिट नहीं सकते. सन्तों तक को भी यही हुआ. नामदेव को गाय के चमड़े में बांध दिया गया. गुरु नानक से चक्की पिसाई गई. कबीर के साथ भी दुर्व्यवहार हुआ. इसलिये असली गुरुमत है अपने रूप का ज्ञान. मुझे क्या ज्ञान मिला? यही कि मेरी सुरत उस मालिक, ज़ात या परम तत्त्व के हिलोर से बनती है. यह कर्तापुरुष का खेल है. जब जैसी प्रकृति जिस जीव की बनी है वैसा खेल तो होगा ही. केवल इस अनुभव से कि ऐसा ही होता है, मनुष्य को शान्ति रहती है क्योंकि उसका इष्ट वह अकाल पुरुष है या आधार है. हो सकता है कि शरीर के त्याग के बाद हमारी सुरत सदा के लिये उसमें लय हो जाय. दुनिया जैसी है वैसी ही रहेगी. अपना खेल खेला और निज स्वरूप में विलय हो गये.
जो होना है वह होकर रहना है. समझ और ज्ञान के बिना शान्ति नहीं मिलती. यह सारा संसार तो एक खेल है. खेल को खेलो. हाय-हाय करने से बच नहीं सकते. चिन्ता-फ़िक़्र नहीं करनी चाहिये. यही गुरुमत है. यहां कौन पति, कौन स्त्री! कौन बाप, कौन बेटा! कौन गुरु, कौन चेला! भ्रम है. यह संसार माया रूपी है. जब ज्ञान हो जाता है तबः-
जैसे जल में केवल निरालम्ब, मुरग़ाबी निशानये।
सुरत शब्द भव सागर तरिये, नानक नाम बखानिये।।
क्योंकि मन चंचल है इसलिये इसकी चंचलता को दूर करने के लिये यह सुमिरन, ध्यान और भजन है. यह सुमिरन-ध्यान-भजन इष्ट पद नहीं है. यह साधन मात्र है. सबसे बढ़ कर सत्संग है. सत्संग से समझ-बूझ आती है. विवेक आता है. और साधन से जो कुछ सत्संग में वचन कहे जाते हैं उनका अपने अनुभव के आधार पर दृढ़ निश्चय हो जाता है.
ये श्रेणियां कुछ नहीं हैं. केवल ठहर-ठहर कर चलने के अनुभव हैं. जो ठहरने वाले हैं वे इन श्रेणियों का ज्ञान ले लेते हैं. इनसे गुजर तो सब ही जाते हैं मगर पता नहीं होता कि हम गुजर गये. प्रत्येक आदमी इन श्रेणियों से गुजरता है और इष्ट पद पर पहुंच जाता है. इसलिये राधास्वामी दयाल ने लिखा है कि संत जीवों को बन्द गाड़ी में ले जाते हैं. इसका क्या भाव है? यही कि कोई गाड़ी में खिड़की खोल कर स्टेशन को देखता जाता है. कोई आनन्द से सो जाता है. पहुंच दोनों ही गये. जिनको इन श्रेणियों की पूरी जानकारी नहीं होती, ज्ञान नहीं होता, वे भी वहां पहुंच जायेंगे. यह आवश्यक नहीं है कि वहां पहुंचने के लिये हर प्रकार की चेतन्यताओं का अनुभव हो. तुम देखो जाग्रत से गहरी नींद, गहरी नींद से जाग्रत में हर आदमी प्रतिदिन आता है. जाता तो वह है (यह प्राकृतिक मार्ग है) मगर समझ नहीं है अतः भटकता फिरता है.
केवल एक अकाल पुरुष सबसे ऊँचा है उसको इष्ट बनाकर चले चलो. अपने आप पहुंच जाओगे. जो इन पर ठहरे उन्होंने इन स्थानों के नाम रख दिये हैं. इन नामों के कारण हम भ्रम में आ गये हैं. इष्ट पद है शान्ति, निर्भ्रांति, अडोलपना.
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Who knows what may happen to me at the time of death? I may enter the state of unconsciousness, enter the state of dreams and see railway trains . . . How can I make a claim about my attainment of the Ultimate? The truth is that I know nothing. -Faqir Chand
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संत कबीर
तन मटकी, मन दही,
सुरत बिलोवन हार।
माखन (butter मक्खन) किसी संत ने चाखिया (taste करना, खाना),
छांछ (butter milk) पिये संसार ।।
- संत कबीर
अर्थ - हमारा शरीर मटकी और मन ये दही की तरह है। मक्खन बनाने के लिये उसे मथना (मटके में हिलाना) पड़ता है, जो लोग उसे अच्छी तरह से यह प्रक्रिया करेंगे उन्हें मक्खन मिलेगा और बाकी लोगों को छांछ मिलेगी।
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