Tuesday, 20 March 2018

कर नैनों दीदार महलमें प्यारा है 

Live Satsang Holy Books Publications Info Rules Downloads Pics हि कर नैनों दीदार महलमें प्यारा है - ArticlesBlog कर नैनों दीदार महलमें प्यारा है Published on Jan 16, 2018 कर नैनों दीदार महलमें प्यारा है।।टेक।। काम क्रोध मद लोभ बिसारो, शील सँतोष क्षमा सत धारो। मद मांस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोडै असवार, भरम से न्यारा है।1। धोती नेती बस्ती पाओ, आसन पदम जुगतसे लाओ। कुम्भक कर रेचक करवाओ, पहिले मूल सुधार कारज हो सारा है।2। मूल कँवल दल चतूर बखानो, किलियम जाप लाल रंग मानो। देव गनेश तहँ रोपा थानो, रिद्धि सिद्धि चँवर ढुलारा है।3। स्वाद चक्र षटदल विस्तारो, ब्रह्म सावित्री रूप निहारो। उलटि नागिनी का सिर मारो, तहाँ शब्द ओंकारा है।।4।। नाभी अष्ट कमल दल साजा, सेत सिंहासन बिष्णु बिराजा। हरियम् जाप तासु मुख गाजा, लछमी शिव आधारा है।।5।। द्वादश कमल हृदयेके माहीं, जंग गौर शिव ध्यान लगाई। सोहं शब्द तहाँ धुन छाई, गन करै जैजैकारा है।।6।। षोड्श कमल कंठ के माहीं, तेही मध बसे अविद्या बाई। हरि हर ब्रह्म चँवर ढुराई, जहँ श्रीयम् नाम उचारा है।।7।। तापर कुंज कमल है भाई, बग भौंरा दुइ रूप लखाई। निज मन करत वहाँ ठकुराई, सो नैनन पिछवारा है।।8।। कमलन भेद किया निर्वारा, यह सब रचना पिंड मँझारा। सतसँग कर सतगुरु शिर धारा, वह सतनाम उचारा है।।9।। आँख कान मुख बन्द कराओ, अनहद झिंगा शब्द सुनाओ। दोनों तिल इक तार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है।।10।। चंद सूर एक घर लाओ, सुषमन सेती ध्यान लगाओ। तिरबेनीके संधि समाओ, भौर उतर चल पारा है।।11।। घंटा शंख सुनो धुन दोई, सहस्र कमल दल जगमग होई। ता मध करता निरखो सोई, बंकनाल धस पारा है।।12।। डाकिनी शाकनी बहु किलकारे, जम किंकर धर्म दूत हकारे। सत्तनाम सुन भागे सारें, जब सतगुरु नाम उचारा है।।13।। गगन मँडल बिच उर्धमुख कुइया, गुरुमुख साधू भर भर पीया। निगुरो प्यास मरे बिन कीया, जाके हिये अँधियारा है।।14।। त्रिकुटी महलमें विद्या सारा, धनहर गरजे बजे नगारा। लाल बरन सूरज उजियारा, चतूर दलकमल मंझार शब्द ओंकारा है।15। साध सोई जिन यह गढ लीनहा, नौ दरवाजे परगट चीन्हा। दसवाँ खोल जाय जिन दीन्हा, जहाँ कुलुफ रहा मारा है।।16।। आगे सेत सुन्न है भाई, मानसरोवर पैठि अन्हाई। हंसन मिलि हंसा होई जाई, मिलै जो अमी अहारा है।।17।। किंगरी सारंग बजै सितारा, क्षर ब्रह्म सुन्न दरबारा। द्वादस भानु हंस उँजियारा, षट दल कमल मँझार शब्द ररंकारा है।।18।। महा सुन्न सिंध बिषमी घाटी, बिन सतगुरु पावै नहिं बाटी। व्याघर सिहं सरप बहु काटी, तहँ सहज अचिंत पसारा है।।19।। अष्ट दल कमल पारब्रह्म भाई, दहिने द्वादश अंचित रहाई। बायें दस दल सहज समाई, यो कमलन निरवारा है।।20।। पाँच ब्रह्म पांचों अँड बीनो, पाँच ब्रह्म निःअच्छर चीन्हों। चार मुकाम गुप्त तहँ कीन्हो, जा मध बंदीवान पुरुष दरबारा है।। 21।। दो पर्वतके संध निहारो, भँवर गुफा तहां संत पुकारो। हंसा करते केल अपारो, तहाँ गुरन दर्बारा है।।22।। सहस अठासी दीप रचाये, हीरे पन्ने महल जड़ाये। मुरली बजत अखंड सदा ये, तँह सोहं झनकारा है।।23।। सोहं हद तजी जब भाई, सत्तलोककी हद पुनि आई। उठत सुगंध महा अधिकाई, जाको वार न पारा है।।24।। षोडस भानु हंसको रूपा, बीना सत धुन बजै अनूपा। हंसा करत चँवर शिर भूपा, सत्त पुरुष दर्बारा है।।25।। कोटिन भानु उदय जो होई, एते ही पुनि चंद्र लखोई। पुरुष रोम सम एक न होई, ऐसा पुरुष दिदारा है।।26।। आगे अलख लोक है भाई, अलख पुरुषकी तहँ ठकुराई। अरबन सूर रोम सम नाहीं, ऐसा अलख निहारा है।।27।। ता पर अगम महल इक साजा, अगम पुरुष ताहिको राजा। खरबन सूर रोम इक लाजा, ऐसा अगम अपारा है।।28।। ता पर अकह लोक है भाई, पुरुष अनामि तहां रहाई। जो पहुँचा जानेगा वाही, कहन सुनन ते न्यारा है।।29।। काया भेद किया निरुवारा, यह सब रचना पिंड मँझारा। माया अविगत जाल पसारा, सो कारीगर भारा है।।30।। आदि माया कीन्ही चतूराई, झूठी बाजी पिंड दिखाई। अवगति रचना रची अँड माहीं, ताका प्रतिबिंब डारा है।।31।। शब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुरु दई तारी। खुले कपाट शब्द झनकारी, पिंड अंडके पार सो देश हमारा है।।32।। नोट:- कुंज कमल त्रिकुटी में बने 7वें कमल को कहा है जिसके दो दल हैं एक काला (भंवरे जैसा काला) दूसरा बग (बुगले पक्षी जैसा सफेद) है। जो त्रिकुटी कमल में विद्या सारा लिखा है और चतुर दल कमल लिखा है। यह त्रयदल कमल है। यह छठा कमल है। इसकी तीन पंखुड़ी दल हैं। इसमें देवी दुर्गा श्री सरस्वती रूप बनाकर रहती है। ओंकार शब्द उसी के स्थान पर हो रहा है। यह चैपाई नं. 15 का विश्लेष्ण है। चैपाई नं. 18 में षट दल कमल लिखा। यह अक्षर पुरूष के लोक का वर्णन है, परंतु काल ब्रह्म ने इसकी नकल ब्रह्मलोक में बनाई है। उसमें ररंकार शब्द हो रहा है। दूसरे शब्दों में चैपाई नं. 18 में जो वर्णन है, यह अक्षर पुरूष के लोक का है। उसमें दो ही कमल हैं। एक षट (छः) दल का कमल जिसमें उसका न्यायधीश बैठता है। जहाँ पर भक्त उसके लोक का किराया यानि सोहं शब्द की भक्ति की राशि जमा करवाता है। दूसरा अष्ट दल का कमल है। उसमें अक्षर पुरूष रहता है। उसकी राजधानी कमल के फूल के आकार की है जिसमें आठ पंखुड़ी बनी दिखाई देती हैं। शब्दः-- "कर नैनों दीदार महल में प्यारा है" तथा कबीर सागर में साहेब कबीर ने काल के जाल का पूरा विवरण दिया है। वाणी नं. 1 से 13 तक का भावार्थ स्थूल शरीर (पाँच तत्त्व से बना मनुष्य) को एक टेलिविजन जानो। इसमें चैनल लगे हैं। 1) मूल कमल - गणेश  2) स्वाद चक्र - ब्रह्मा-सावित्री  3) नाभि कमल - विष्णु-लक्ष्मी  4) हृदय कमल - शिव-पार्वती  5) कंठ कमल - अविद्या (प्रकृति)  त्रिकुटी दो दल (काला व सफेद रंग) का कमल है। इसे एयरपोर्ट जानों जैसे हवाई अड्डा हो। वहाँ से जहाँ भी जाना है वही जहाज उपलब्ध होगा। चूंकि सर्व संत यहीं से अपना आगे जाने का मार्ग लेते हैं। वहाँ पर परमात्मा (भक्त जिस इष्ट का उपासक है) गुरु का रूप (शब्द स्वरूपी गुरु या शब्द गुरु कहिए) बना कर आता है तथा अपने हंस को अपने साथ ले कर स्वस्थान में ले जाता है। यहाँ पर निजमन (पारब्रह्म) भी रहता है। वह जीव के साथ किसी प्रकार का धोखा नहीं होने देता। जैसे हवाई अड्डे पर जाने से पहले जिस देश में जाना है उसका पासपोर्ट, वीजा व टिकट पहले ही प्राप्त कर लिया जाता है। वहाँ पर जाते ही उसी जहाज में बैठा दिया जाता है। जिसने जिस इष्ट लोक में जाने की तैयारी गुरु बना कर नाम स्मरण करके कर रखी है वह उसी लोक में त्रिकुटी से अपने शब्द गुरु के साथ चला जाता है। इससे आगे सहंस्रार कमल है तथा ज्योति नजर आती है। ब्रह्म उपासक इस ज्योति को देख कर अपने धन्य भाग समझते हैं। यहीं तक की जानकारी पतंजलि योग दर्शन व अन्य योगियों का अनुभव है। इससे आगे किसी प्रमाणित शास्त्र में ज्ञान नहीं है। यह काल का प्रथम जाल है। जिन भक्त आत्माओं को पूर्ण सतगुरु मिल गया, उसने सतसंग सुन कर सतनाम ले लिया। वह इस जाल को समझ गया तथा नाम जपने लग गया। काल का दूसरा जाल है कि सतलोक, अलख लोक, अगम लोक व अनामी लोक यह सब पूर्णब्रह्म की रचना की झूठी नकल कर रखी है {उसका प्रतिबिम्ब (स्वरूप) डारा है}। नकली शब्द बना रखे हैं। उनको सुनने का तरीका है आँख-कान-मुख हाथ की उँगलियों से बन्द करके फिर उसमें कानों पर ध्यान लगाओ। एक झींगा कीट होता है वह झीं-झीं की आवाज करता रहता है। उससे मिलती जुलती आवाज है। उसे अनहद झींगा शब्द कहते हैं इसे सुनो। दूसरी साधना - दोनों आँखों की पुतलियों (सैलियों के निचे) को दबाओ। उसमें से नाना प्रकार का प्रकाश का नजारा (गुलजारा) दिखाई देगा। फिर तीसरी साधना बताई - ठण्डा स्वांस चन्द (बांई नाक वाली स्वांस) व सुर (सूर्य) गर्म स्वांस (दांई नाक वाली स्वांस) को इक्ट्ठा करके सुषमना में प्रवेश करो। यह प्राणायाम विधि है। फिर आगे चलो त्रिवेणी पर। यह सब काल रचित है। जब साधक त्रिवेणी पर चले जाते हैं। वहाँ तीन रास्ते होते हैं। (यह त्रिवेणी काल के इक्कीसवें ब्रह्माण्ड में है जो कमलों की सँख्या में नहीं है।) बांई ओर सहंस्रार (एक हजार कमल दल) दल वाला कमल है। वह काल (ज्योति निरंजन) का महास्वर्ग है। इसमें घंटा तथा शंख की आवाज होती सुनाई देवेगी तथा फिर झिलमिल-झिलमिल प्रकाश नजर आएगा। वहाँ निराकार रूप में (काल) कर्ता रहता है। ऐसा साधक मानते हैं परंतु वास्तव में महाब्रह्मा-महाविष्णु व महाशिव रूप में आकार में है। अठासी हजार नगरियां हैं तथा सप्तपुरी का मण्डल है। परंतु महा प्रलय में फिर समाप्त हो जाएंगे। काल जब दोबारा सृष्टि रचेगा तो फिर चैरासी लाख योनियों में कर्म कष्ट भोगने के लिए चले जाएंगे। जब यह साधक ब्रह्मरन्द्र (काल लोक से अक्षर पुरूष के लोक में प्रवेश होने वाले ग्यारहवें द्वार को यहाँ ब्रह्मरन्द्र कहा है। वास्तव में ब्रह्मरन्द्र त्रिवेणी पर है) की ओर चलता है तो वहाँ पर बहुत भयंकर आकृतियाँ वाली स्त्रिायों (डाकनी) की व यम दूतों की पूरी फौज रहती है। उस कटक दल (काल सेना) को न तो ऊँ नाम से जीता जा सकता, न किलियम् से, न हरियम् से, न सोहं से, न ही ज्योति निरंजन - रंरकार - ओंकार - सोहं - शक्ति (श्रीयम्) से, न ही राधास्वामी नाम से, न हीं अकाल मूर्त-शब्द स्वरूपी राम या सतपुरुष या अन्य मनमुखी नामों से जीता जा सकता है। वह केवल पूर्ण संत से उपदेश प्राप्त करके सतनाम सच्चा नाम (ऊँ-सोहं) स्वांस के स्मरण करने से उनको तीर से लगते हैं। जिससे वे भाग जाते हैं। रास्ता खाली हो जाता है, ब्रह्मरन्द्र खुल जाता है तथा साधक काल के असली (विराट रूप में जहाँ रहता है) स्वरूप को देख कर उसके सिर पर पैर रखकर ग्यारहवें द्वार, जो काल ने अपने सिर से बन्द कर रखा है जो सतगुरु के सत्यनाम व सारनाम के दबाव से काल का सिर स्वतः झुक जाता है और वह द्वार खुल जाता है। इस प्रकार यह हंस परब्रह्म के लोक, में प्रवेश कर जाता है। वहाँ काल की माया का दबाव नहीं है। उसके बाद अपने आप केवल सोहं शब्द व सारनाम स्मरण शुरु हो जाता है। ऊँ का जाप उच्चारण नहीं होता। चूंकि वहाँ सूक्ष्म शरीर छूट जाता है अर्थात् ओम मंत्र की कमाई ब्रह्म (काल) को छोड़ दी जाती है। कारण व महाकारण भी सारनाम के स्मरण से (जो केवल सुरति निरति से शुरु हो जाता है) समाप्त हो जाते हैं। उस समय केवल कैवल्य शरीर रह जाता है। उस समय जीव की स्थिति बारह सूर्यों के प्रकाश के समान हो जाती है, इतना तेजोमय हो जाता है। सतगुरु वहाँ पूछते हैं कि हे हंस आत्मा! आपका किसी जीव में, वस्तु में, सम्पत्ति में मोह तो नहीं है। यदि है तो फिर वापिस काल लोक में जाना होगा। परंतु उस समय यह जीवात्मा काल का पूर्ण जाल पार कर चुकी होती है। वापिस जाने को आत्मा नहीं मानती। तब कह देती है कि नहीं सतगुरु जी, अब उस नरक में नहीं जाऊँगा। तब सतगुरु उस हंस को अमृत मानसरोवर में स्नान करवाते हैं। उस समय उस हंस का कैवल्य शरीर तथा सर्व आवरण समाप्त होकर आत्म तत्त्व में आ जाता है। यह मानसरोवर परब्रह्म के लोक तथा सतलोक के बीच में बने सुन्न स्थान में है जहाँ से भंवर गुफा प्रारम्भ होती है। उस समय इस आत्मा का स्वरूप 16 सूर्यों जितना तेजोमय हो जाता है तथा बारहवें द्वार को पार कर सत्यलोक में प्रवेश कर सदा पूर्ण मोक्ष के आनन्द को पाती है। यह पूर्ण मुक्ति है। यह आत्मा भूल कर भी वापिस काल के जाल में नहीं आती। जैसे बच्चे का एक बार आग में हाथ जल जाए तो वह फिर उधर नहीं जाता। उसे छूने की कोशिश भी नहीं करता। वाणी नं. 14 में साहेब कबीर बता रहे हैं कि यह संसार उल्टा लटक रहा है। जैसे किसी कुँए में अमृत भरा है अर्थात् परमात्मा का आनन्द इस शरीर में है। वह दसवें द्वार के पार ही है जो इस शरीर के अन्दर नीचे को मुख वाला सुषमना द्वार है। जो सुष्मणा में से पार हो जाता है वही भक्त लाभ प्राप्त करता है यह साधना नाम व गुरु धारण करके ही बनती है। वाणी नं. 15 में सतगुरु कबीर साहेब जी भेद दे रहे हैं कि जब काल साधक ऊँ नाम का जाप परमात्मा को निर्गुण जान कर गुरु धारण करके करता है तो काल स्वयं उस साधक के गुरु का (नकली शब्द रूप) रूप बनाकर आता है तथा महास्वर्ग (महाइन्द्रलोक) में ले जाता है। जब वह महाइन्द्र लोक के निकट जाते हैं तो बहुत जोर से बादल की गर्जना जैसा भयंकर शब्द होता है। जो साधक डर जाता है वह वापिस चैरासी में चला जाता है और जो नहीं डरता है वह अपने गुरु के साथ आगे बढ़ जाता है। उसे फिर सुहावना नंगारा बजता हुआ सुनाई देता है। चार पंखड़ी वाला कमल का लाल रंग का एक और कमल है उसमें ओंकार धुनि हो रही हो जो महास्वर्ग में है। वास्तव में यह तीन पंखुड़ी का कमल है जो छठा कमल है। लिखने में गलती है। वाणी नं. 16 का अर्थ है कि संत वह है जो दसवें दरवाजे पर काल द्वारा लगाए ताले को सत्यनाम की चाबी से खोल कर आगे ग्यारहवाँ द्वार जो काल ने नकली सतलोक आदि बीस ब्रह्मण्डों के पार इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बनाकर बन्द कर रखा है उसे भी खोल कर परब्रह्म (अक्षर ब्रह्म) के लोक में चला जाता है। क्योंकि नौ द्वार (दो नाक, दो कान, दो आँखें, मुख, गुदा-लिंग ये नौ) प्रगट दिखाई देते हैं। दसवें द्वार पर (जो सुषमना खुलने पर आता है) ताला लगा रखा है तथा ग्यारहवां द्वार परब्रह्म के लोक में प्रवेश करने वाले स्थान पर बना रखा है। जहाँ स्वयं काल भगवान सशरीर विराजमान है। वाणी नं. 17 का भावार्थ है कि आगे सेत सुन्न है (जो काल भगवान ने नकली बना रखी है) वहाँ एक नकली मानसरोवर बना रखा है तथा जो निर्गुण उपासक ब्रह्म के होते हैं उन्हें इस सरोवर में स्नान कराने के बाद नकली परब्रह्म के लोक में जो महास्वर्ग में रच रखा है भेज देता है। वे अन्य साधकों की दृष्टि से दूर हो जाते हैं। उन्हें ब्रह्म लीन मान लिया जाता है। इस स्थान को काल ने गुप्त रखा हुआ है। जो इसमें पहुँच गए वह पूर्व पहुँचे हंसों को मिल कर आन्नदित होते हैं। जैसे पित्र-पित्रों को मिलकर तथा भूत भूतों को मिल कर। इसमें रंरकार धुनि चल रही है। जिन साधकों ने खैचरी मुद्रा लगा कर साधना ररंकार जाप से की वे महाविष्णु (ब्रह्म-काल) के महास्वर्ग में चले जाते हैं। फिर काल निर्मित महासुन्न है, उसको बिना गुरु वाले हंस पार नहीं कर सकते। वहाँ पर काल ने मायावी सिंह, व्याध व सर्प छोड़ रखे हैं वे बिना गुरु के हंस को काटते हैं। इसलिए भक्ति चाहे काल लोक की करो, चाहे सतलोक की, लेकिन गुरु बनाना जरूरी है। यह सहज सुखदाई विस्तार है। यह जो कमल वर्णन किए जा रहे हैं यह सूक्ष्म शरीर के हैं तथा सूक्ष्म शरीर भी काल द्वारा जीव पर चढाया गया है। इसलिए यह सब काल की नकली रचना का वर्णन सतगुरु बता रहे हैं। अष्ट पंखड़ी वाला एक और कमल है वह परब्रह्म का लोक कहा है। वास्तव में यह वह स्थान है जहाँ पर पूर्ण ब्रह्म अन्य रूप में निवास करता है तथा वहाँ न ब्रह्म (काल) जा सकता है तथा न तीनों देव ही जा सकते हैं। इसलिए इसे भी परब्रह्म कहा जाता है। उसके दांए हिस्से में बारह भक्त रहते हैं। उसके बांए में दस दल का कमल है जिसमें कर्म सन्यासी निर्गुण उपासक रहते हैं। ऐसे-2 काल ने पाँच ब्रह्म (भगवान) व पाँच अण्ड मण्डल बना रखे हैं। उनको अपनी ओर से निःअक्षर की उपाधि दे रखी है और चार स्थान गुप्त रखे हैं जिनमें वे भक्त जो सतगुरु कबीर के उपासक होते हैं तथा फिर दोबारा काल भक्ति करने लगते हैं। उनसे काल (ब्रह्म-निरंजन) इतना नाराज हो जाता है कि उन्हें कैदी बनाकर इन गुप्त स्थानों पर रख देता है तथा वहाँ महाकष्ट देता है। आगे दो पर्वत हैं। उनके बीचों बीच एक रास्ता है। वहाँ काल के उपासक जो गुरुपद पर होते हैं उन्हें कुछ दिन इस स्थान पर रखता है। इसे भंवर गुफा भी कहते हैं। वहाँ पर ये हंस (गुरुजन) मौज मारते हैं तथा वहाँ सोहं शब्द की स्वतः धुनि चल रही है और मुरली की मीठी-2 धुन भी चल रही होती है तथा उस स्थान में हीरे-पन्ने जडे़ हुए हैं। बहुत ही मनोरम स्थान बना रखा है। जब इस सोहं मन्त्र द्वारा किए जाप से अक्षर पुरूष (परब्रह्म) के लोक से पार होने पर नकली सतलोक आता है। परब्रह्म रूप धार कर काल ही धोखा दे रहा है। उसमें महक उठती रहती है। जो बहुत विस्तृत स्थान है। यहाँ पर काल उपासक विशेष साधक (मार्कण्डे ऋषि जैसे) ही पहुँच पाते हैं। यहाँ काल स्वयं सतपुरुष बना बैठा है। वहाँ पर अपने आप धुनि हो रही है। वहाँ पहुँचे हंस उस महाविष्णु रूप में बैठे नकली सतपुरुष पर आदर से चँवर करते हैं तथा आनन्दित होते हैं। उस काल रूपी सतपुरुष का रूप हजारों सूर्य और चन्द्रमाओं की रोशनी हो ऐसा सतपुरुष से कुछ मिलता जुलता रूप बना रखा है। फर स्वयं ही अलख पुरुष बना बैठा है तथा अलख लोक बना रखा है। फिर स्वयं ही अगम पुरुष बनकर अगम लोक में व अनामी पुरुष बनकर अकह लोक में सबको धोखा दिए बैठा है तथा कहता है कि वह तो अवर्णननीय है। यह वही जानेगा जो वहां पहुँचेगा। कबीर साहेब जी ने शब्द के अंत में कहा कि यह सब काया स्थूल व सूक्ष्म शरीर के कमलों का न्यारा-2 विवरण आपके सामने कर दिया। यह सब वर्णन रचना का भेद आपको बताया है यह (दोनों शरीर स्थूल व सूक्ष्म के अन्दर है) काया के अन्दर ही है। इस काल की माया (प्रकृति) ने अपनी चतुराई से झूठी रचना करके सतलोक की रचना जैसी ही अण्ड (ब्रह्मण्ड) में नकली रचना कर रखी है। फिर भी इसमें और वास्तविक सतलोक में दिन और रात का अन्तर है। जैसे बारीक नमक तथा बूरा में कोई अंतर दिखाई नहीं देता परंतु स्वाद भिन्न है। कबीर साहेब कहते हैं कि हमारा मार्ग विहंगम (पक्षी) की तरह है। जैसे पक्षी जमीन से उड़ कर सीधा वृक्ष की चोटी पर पहुँच जाता है। काल साधकों का मार्ग पपील मार्ग है। जैसे चींटी जमीन से चल कर वृक्ष के तने से फिर डार व टहनियों पर से ऊपर जाती है। त्रिकुटी से कबीर साहेब के हंस विमान में बैठ कर उड़ जाते हैं। परंतु ब्रह्म (काल) के उपासक चींटी की तरह चल कर अपने-अपने इष्ट स्थान पर जाते हैं। सारनाम रूपी विमान से ही साधक सतलोक जा सकता है। अन्य किसी उपासना या मंत्र से नहीं जाया जा सकता। जैसे समुद्र को समुद्री जहाज या हवाई जहाज से ही पार किया जा सकता है, तैर कर नहीं। इसलिए पूज्य कबीर साहेब जी ने कहा है कि हम व हमारे हंस आत्मा शब्द (सत्यनाम व सार नाम) के आधार पर सतलोक चले जाते हैं। वहाँ पर आत्मा के शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों के प्रकाश तुल्य हो जाता है। वहाँ मनुष्य जैसा ही अमर शरीर आत्मा को प्राप्त होता है। वहाँ पर जीव नहीं कहलाता, वहां पर परमात्मा जैसे गुणों युक्त होकर हंस कहलाता है तथा ऊपर के दोनों लोकों अलख लोक व अगम लोक में परमहंस कहा जाता है, अनामी लोक में परमात्मा तथा आत्मा का अस्तित्व भिन्न नहीं रहता। तत्त्वज्ञान के आधार से साधक सूक्ष्म शरीर वाले कमलों में नहीं उलझते। चूंकि सतगुरु जी सार शब्द रूपी कुंजी दे देता है, जिससे काल के सर्व ताले (बन्धन) अपने आप खुलते चले जाते हैं तथा वास्तविक शब्द की झनकार (धुनि) होने लगती है जो इस शरीर के बाहर सत्यलोक में हो रही है। हमारा सत्यलोक पिंड (शरीर) व अण्ड (ब्रह्मण्ड) के पार है। वहां जा कर आत्मा पूर्ण मुक्ति प्राप्त करती है। Tags: Kabir Sagar Body Chakras << Go back to the previous page  Recent Posts Satlok Vs Heaven How was the Temple of Shri Jagan Nath built in Puri? 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बृह्माण्ड के देशों का संक्षिप्त परिचय 

सोमवार, जनवरी 02, 2012 बृह्माण्ड के देशों का संक्षिप्त परिचय और श्री गुरुतत्व बृह्माण्ड के देशों का संक्षिप्त परिचय - सहसदल कमल । बंकनाल । त्रिकुटी । सुन्न 0 यानी 10 दशम द्वार । महासुन्न 0 । भंवर गुफ़ा । सत्य लोक । अनामी पद ( गुप्त ) अलख लोक । अगम लोक । अकह लोक । कृम से ये मण्डल आज्ञा चक्र अर्थात 6 छठें चक्र के ऊपर के सत्यराज्य के लोक हैं । इस सत्यराज के 2 विभाग हैं - 1 बृह्माण्ड । और 2 निर्मल चैतन्य देश । बृह्माण्ड के अन्तर्गत - सहसदल कमल । बंकनाल । त्रिकुटी । और सुन्न 0 या 10 दशम द्वार मण्डल आते हैं । इन लोकों में योगमाया या विधा माया का प्रभुत्व रहता है । सुन्न 0 या 10 दशम द्वार के बाद भंवर गुफ़ा से अकह लोक तक के लोक निर्मल चैतन्य के देश अथवा दयाल देश कहलाते हैं । इस स्थान को ही सुरत का निज धाम कहते हैं । सदगुरू देव की उपासना, उनकी अनन्य भक्ति को छोडकर यहां पहुंचने का दूसरा कोई उपाय या साधना नहीं है । सहसदल कमल - सहसदल कमल को सन्तजन त्रिलोकी नाथ या निरंजन का देश कहते हैं । यहां तक पहुंचे हुए साधक साधना की दृष्टि से ऊंचाई पर पहुंचे हुए साधक होते हैं । इनका सदगुरू में अगाध प्रेम होता है । और जिनको श्री सदगुरू के चरणों की प्यास बराबर बनी रहती है । उनको श्री सदगुरू देव महाराज ऊपर के मण्डलों में पहुंचा देते हैं । श्री सदगुरू महाराज के जो शिष्य़ हैं । वे श्री सदगुरू के नाम भजन और ध्यान के सहारे यहां पहुंचते हैं । श्री सदगुरू भगवान को अपने संग साथ रखने वाले शिष्य को वे कृपालु माया के प्रलोभनों में नहीं फ़ंसने देते हैं । त्रिकुटी - श्री सदगुरू महाराज ने अपने शिष्यों को जो परानाम का उपदेश दिया है । वह बहुत बडी अमूल्य निधि है । उस अमूल्य निधि का सदा सदा भजन । सुमिरन । ध्यान हर स्थिति में करते रहना चाहिये । ऐसे शिष्य को सदगुरू देव बंकनाल नामक सूक्ष्म मार्ग में प्रवेश दिलाकर इसके ऊपर के त्रिकुटी नामक देश में पहुंचा देते हैं । इस त्रिकुटी नामक देश का वर्णन करते हुए सन्त दरिया साहब कहते हैं  - त्रिकुटी माहीं सुख घना । नाहीं दुख का लेस । जन दरिया सुख दुख नहीं । वह कोई अनुभवै देश । सन्त महापुरूषों ने अपने वचनों में कहा है कि - त्रिकुटी नामक यह मण्डल बृह्म का देश है । जैसे सहसदल कमल में अमृत बरसता रहता है । ठीक उसी प्रकार त्रिकुटी में भी अमृत बरसता रहता है । यहां पहुंचे हुये साधक की त्रिकुटी का अमृत पान करने व उसमें स्नान करने से आशा व तृष्णा की प्यास शान्त हो जाती है । यह त्रिकुटी नामक महल सम्पूर्ण विधाओं का भण्डार है । मन । बुद्धि । चित्त और अहंकार की गति त्रिकुटी पहुंचने तक ही रहती है । इसके आगे त्रिकुटी महल है । जहां श्री सदगुरू पूर्ण बृह्म का निवास होता है । जब साधक श्री सदगुरू की दया से बृह्म सरोवर में जाकर स्नान पान करने लग जाता है । तो वह शरीर रहते हुए भी मन, वाणी और शरीर से परे हो जाता है । ये तीनों उसे प्रभावित नहीं कर पाते हैं । जब त्रिकुटी की सन्धि में स्थिरता पूर्वक श्री सदगुरू के नाम का भजन । सुमिरन । ध्यान होने लगता है । तो प्राण इङा पिंगला नाडियों को छोडकर अवश्य ही सुषुम्रा नाङी में प्रवाहित होने लगता है । और तब अपने श्री सदगुरू देव के प्रति श्रद्धा और निष्ठा की अटूट धारा बहने लगती है । श्री सदगुरू देव महाराज ने इस प्रकार त्रिकुटी नामक मण्डल का पूर्ण रहस्य बतलाया । जिसे केवल समय के सन्त महापुरूषों की चरण शरण में जाने से ही जाना जा सकता है । केवल वाणी विलास या पुस्तकीय ज्ञान से भक्ति की आध्यात्मिक मंजिलों ( आन्तरिक मंजिलों ) को पार करना असम्भव है । इसी आन्तरिक मार्ग को पार करने के लिये परम सन्त कबीर साहब जी उपदेश देते है  - त्रिकुटी में गुरूदेव का । करै जो गुरू मुख ध्यान । यम किंकर का भय मिटे । पावे पद निर्वान । सुन्न 0 या 10 दशम द्वार - जब शिष्य की सुरत श्री सदगुरू देव महाराज के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान के दृढ अभ्यास से इस त्रिकुटी नामक मण्डल में पहुंचती है । तब उसको सत शिष्य का दर्जा प्राप्त हो जाता है । फ़िर वह 10 दशम द्वार में प्रवेश करना चाहता है । इस 10 दशम द्वार में जिस गुरू भक्त की सुरत सदगुरू की कृपा से पहुंच जाती है । वही गुरू भक्त सच्चे अर्थों में सत शिष्य कहलाता है । साधु कहलाता है । श्री सदगुरू देव जी महाराज के नाम के भजन । सुमिरन और उनकी सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान की प्रगाढता के भाव दशा में साधक की सुरत त्रिकुटी मण्डल से चलकर जब 10 दशम द्वार में प्रवेश कर श्री सदगुरू देव जी महाराज का श्रद्धा । प्रेम । प्यार के साथ इतना स्पष्ट दर्शन करती है । जितना स्पष्ट स्वच्छ दर्पण में अपना चेहरा दिखलाई देता है । तब साधक की सुरत शून्य मण्डल 0 या 10 दशम द्वार में प्रवेश कर श्री सदगुरू देव महाराज की कृपा प्राप्त कर अपने को धन्य धन्य मानने लग जाती है । इस प्रकार साधक की सुरत को 10 दशम द्वार में पहुंचने से उसमें शुद्ध परमार्थ का उदय हो जाता है । अपने श्री सदगुरू देव महाराज के स्वरूप में स्फ़टिक के समान अत्यन्त उज्ज्वल सफ़ेद प्रकाश विधमान रहता है । सन्त महापुरूषों का कहना है कि शून्य मण्डल 0 या 10 दशम द्वार में अक्षय पुरूष के आसन के नीचे अमृत का 1 कुण्ड है । जिसको मान सरोवर कहते है । उसमें साधक के स्नान । पान । ध्यान करने से उसकी सुरत विशेष निर्मल हो जाती है । इसीलिये यहां पहुंची हुई सुरत की हंस गति हो जाती है । महासुन्न 0 - इसके बाद श्री सदगुरू देव जी महाराज अपने ही प्रकाश के द्वारा सुरत को महासुन्न 0 के घोर अन्धकार के मैदान से पार करके ऊपर के मण्डलों में ले जाते हैं । साधक जब श्री सदगुरू देव महाराज का साथ हर वक्त पकडे रहता है । तभी घोर अन्धकार युक्त इस विषम घाटी को पार कर पाता है । अर्थात श्री सदगुरू देव महाराज की चरण धूलि में स्नान करते हुए साधक घोर अन्धकारयुक्त महासुन्न 0 की विषम घाटी को पार करने में समर्थ हो जाता है । जिन आत्माओं को श्री सदगुरू देव महाराज भजन । सुमिरन । ध्यान का अभ्यास करवा करवाकर अपने साथ आगे ले जाते हैं । उन आत्माओं से महा शून्य 0 में फ़ंसी हुई आत्मायें प्रार्थना करती है कि अपने श्री सदगुरू देव महाराज के सम्मुख सिफ़ारिश करो कि हमें भी ऊपर ले चलें । यदि उन सन्तों की मौज हो जाती है । तो वे महा शून्य 0 की इन आत्माओं को अपने साथ आगे ले जाते हैं । भंवर गुफ़ा - पूरे गुरू की कृपा से जब साधक महाशून्य 0 से आगे की यात्रा करता है । तो सत्यराज्य के भंवर गुफ़ा नामक स्थान में पहुंचता है । जैसे सहसदल कमल नामक मण्डल बृह्माण्ड देश का पहला लोक है । उसी तरह शून्य 0 या 10 दशम द्वार निर्मल चैतन्य देश अथवा दयाल देश का द्वार है । और भंवर गुफ़ा नामक लोक श्री सदगुरू देव महाराज के दयाल देश नामक निज धाम का पहला लोक है । महा शून्य 0 से ऊपर की ओर सूरत या चित शक्ति की 1 गुफ़ा है । जिसे भंवर गुफ़ा कहते हैं । यहां पहुंची हुई निर्मल चैतन्य सुरतें निरन्तर भिन्न भिन्न प्रकार के उत्सव मनाती रहती है । यहां की सुरते हंस कहलाती हैं । अपने श्री सदगुरू रूपी क्षीर सागर में सदा मुरली की मधुर धुन बजती रहती है । इसी मुरली की गूंज के मध्य " सोहं " की झंकार होती रहती है । यह ऐसा ही है । जैसे बूंद समुद्र को देखकर कहे कि मैं तुम्हारा ही अंश हूं । मालिक महासागर है । और जीव बूंद है । इसी तरह आत्मा सत पुरूष को देखकर कहती है कि मै श्री सदगुरू देव जी महाराज का 1 अंश हूं । सतलोक - भंवर गुफ़ा के बाद माथे में ऊपर की ओर निर्मल चैतन्य देश का सत लोक नामक मण्डल है । अपने श्री सदगुरू देव महाराज जी के श्री चरणों में निरन्तर रमे हुए दास को श्री सदगुरू देव महाराज भंवर गुफ़ा नामक मण्डल से सत लोक नामक लोक में ले जाते हैं । इस देश के मालिक का नाम सत पुरूष है । सतलोक वह स्थान है । जहां से सम्पूर्ण रचना का प्रकाश होता है । साधक सतलोक में पहुंचकर श्री सदगुरू देव महाराज में लीन रहता है । इस तरह के बूंद यहां पहुंचकर समुद्र में मिलकर समुद्र हो जाती है । सन्त कहते हैं कि सतलोक सर्वश्रेष्ट सुन्दरता का लोक है । यहां सभी तरफ़ उच्चकोटि की सुगन्ध फ़ैली हुई है । जो साधक अपने श्री सदगुरू देव के श्री चरणों की कृपा से सतलोक में पहुंचा है । वह 16 सूर्यों के प्रकाश जैसा तेज पुंज और उज्जवल हो जाता है । सतलोक में पहुंचकर साधक काल की सीमा से बाहर हो जाता है । श्री सदगुरू देव जी महाराज का भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । ध्यान करने वाले अभ्यासी सतलोक पहुंचते हैं । सतलोक पहुंचने पर ही जीव को मुक्ति लाभ होता है । जब सत लोक राह चढि जाई । तब यह जीव मुक्ति को पाई । परन्तु धन्य है । श्री सदगुरू देव जी महाराज का यह कृपालु स्वभाव । जिससे प्रेरित होकर वे उस जीव को अपने पास न रखकर उसे निर्मल चैतन्य देश के सतलोक के ऊपर के मण्डलों पर भेज देते हैं । सतलोक तक पहुंचने में श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा के साथ साथ शिष्य के स्वयं के अभ्यास की भी अपेक्षा रहती है । परन्तु सतलोक तक पहुंच जाने के बाद शिष्य के प्रयास की दौड धूप समाप्त हो जाती है । यहां से ऊपर के मण्डलों में एकमात्र श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा ही अपने शिष्य को अपने प्रताप से आगे भेजती है । अनामी लोक - सतलोक के बाद और अलख लोक के बीच में अनामी पद नामक निर्मल चैतन्य देश है । इस स्थान की निर्मल सुरत को अनामी सम्भवत: इसलिये कहा जाता है कि सत्य लोक में अलख पुरूष सत्य नाम के रूप में  प्रकाशित हो जाता है । अनामी पद सत्य लोक के स्वामी सत्य नाम का पूर्ण रूप है । जिसे सन्तों ने गुप्त भेद भी कहा है । अलख लोक - श्री सदगुरू देव जी महाराज का विज्ञानमय स्वरूप शिष्य की आत्मा को ऊपर के अलख । अगम और अकह लोकों में पहुंचा देता है । यहां के मालिक का नाम अलख पुरूष है । अलख पुरूष के एक एक रोम में अनेकों सूर्य का प्रकाश विराजमान रहता है । अलख लोक के ऊपर अगम लोक नामक महाचैतन्य का लोक है । इसकी महिमा अधिक से अधिक है । इस लोक के मालिक का नाम अगम पुरूष है । अगम पुरूष के एक एक रोम में अनेकों सूर्य का प्रकाश है । महापुरूषों ने बताया है कि यह देश परम सन्तों का देश है । अकह लोक - इस अगम लोक के ऊपर जो अकह लोक है । उसका वर्णन करने में सन्त भी मौन हो गये । क्योंकि यहां का प्रकाश और यहां की निर्मलता बेअन्त है । इसका वर्णन किसी भी प्रकार नहीं किया जा सकता है । जैसे गूंगे आदमी को मिठाई खिला दी जाय । और वह उस मिठाई के स्वाद का वर्णन न कर सके । उसी प्रकार इस लोक का वर्णन नहीं किय जा सकता है । क्योंकि यह लोक अवर्णनीय है । इसीलिये इसे अकह लोक कहते है । गुरू की कृपा से जो यहां पहुंचे हैं । वही इसका अनुभव कर पाते हैं । तभी तो सन्त भीखा साहब कहते हैं कि इसकी गति अगम्य है - भीखा बात अगम्य की । कहन सुनन में नाहिं । जो जाने सो कहे ना । कहे सो जाने नाहिं । कहने का तात्पर्य यह है कि जो साधक अपने श्री सदगुरू देव जी महाराज के बताये हुए नाम का भजन । सुमिरन तथा उनकी सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान पूर्ण श्रद्धा के साथ करता जाता है । वह सदा अपनी एक के बाद दूसरी आध्यात्मिक मंजिल पर चढता चला जाता है । पल पल सुमिरन जो करे । हिरदय श्रद्धा धार । आधि व्याधि नाशे सकल । चढ जावै धुर धाम । साधक यदि नियम पूर्वक प्रतिदिन भजन । सुमिरन । ध्यान । यानी सुरत शब्द योग का अभ्यास करते हैं । तो उनको आन्तरिक आनन्द का अनुभव होने लगता है । और उनका चित्त प्रसन्न रहने लग जाता है । यह श्री सदगुरू देव जी महाराज की प्रत्यक्ष दया और उनकी कृपा है । जो शिष्य को गुरू की भक्ति की दिशा में ले जाती है । गुरू की भक्ति की दिशा में ले जाने का तात्पर्य यह है कि साधक की चेतना के ज्ञानात्मक और क्रियात्मक और भावात्मक पक्ष श्री सदगुरू देव जी महाराज पर श्रद्धा और विश्वास के रंग में ऐसे रंग जाते हैं कि श्री सदगुरू देव महाराज की कृपा से शिष्य का ज्ञान और उसके सम्पूर्ण कर्म गुरू भक्ति के रस से सराबोर हो जाते हैं । इस भक्ति की साधना में परानाम का सुमिरन । और ध्यान अर्थात गुरू स्वरूप का अपने अन्तर्चक्षुओं 3rd eye से दर्शन करना । और उनकी मानसिक सेवा । पूजा करने का प्रधान स्थान है । इसमें अपने श्रद्धा भाव द्वारा ही श्री सदगुरू देव जी महाराज के भाव स्वरूप का भजन ध्यान किया जाता है । इस प्रकार की उपासना से गुरू भक्ति के साधक अपने श्री सदगुरू की कृपा से माथे में भाव राज्य के द्वार को खोलकर अन्दर प्रवेश कर जाते हैं । और श्री सदगुरू देव जी महाराज के असीम दया से निकली हुई चेतना की निर्मल किरणों की सहायता से उनकी महिमा का रसास्वादन करते हुए उनके परम धाम की ओर बढने का सतत प्रयास करते हैं । प्रभु को प्राप्त करने के जो अभिलाषी भक्ति की साधना के द्वारा मन को इष्ट के साथ जोड लेते हैं । वही मालिक को प्राप्त कर सकते हैं । सदा सदा ही मालिक के भजन । भक्ति । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में रत रहने वाले प्रभु को प्राप्त करने के अभिलाषी शिष्य में स्वभावत: गुरू के स्वरूप उभर आते हैं । सदगुरू की प्राप्ति को ईश्वर का साक्षात अनुग्रह समझना चाहिये । गुरू का दर्शन । उनमें पूर्ण भक्ति भाव । उनकी प्रसन्नता प्राप्ति । और परिणाम स्वरूप अन्त: दर्शन की व्याकुलता । ये सभी ईश्वर के सार्थक अनुग्रह बताये गये हैं । ईश्वर के अनुग्रह कारी स्वरूप को गुरू तत्त्व कहते हैं । ************** यह लेख और - गुरु मोक्ष का द्वार हैं । श्री राजू मल्होत्रा द्वारा भेजा गया है । आपका बहुत बहुत आभार ।  RAJEEV BABA पर सोमवार, जनवरी 02, 2012 साझा करें कोई टिप्पणी नहीं: एक टिप्पणी भेजें टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है. ‹ › मुख्यपृष्ठ वेब वर्शन देखें WELCOME RAJEEV BABA AGRA, U.P, India ये मेरे परमपूज्य गुरुदेव सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज परमहंस की तस्वीर है उनका सम्पर्क नम्बर 09639892934 है और मेरा सम्पर्क नम्बर 0 94564 32709 है इन नम्बर पर आप ब्लाग लेखों से जुडी किसी भी जिज्ञासा या आत्मज्ञान सम्बन्धित किसी भी प्रश्न का उत्तर पूछ सकते हैं । मेरा पूरा प्रोफ़ाइल देखें Blogger द्वारा संचालित.

सोऽहं को सासों में हमेशा याद रखो

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Yes this Soooo... and Hammmm..... is in your breath, you have to only feel this sound So now you know that SoHam is true name of God. SoHam is Aham Brahma Asmi, SoHam is Anal Haq, SoHam is ajajpa jap, SoHam is नाम सुमिरन swasa ko kar sumirani, ajajpa ko kar jap; parm tattwa ko dhyan dharu, soham ape ap; This is very simple sadhana every one can do this Now I am giving you Hidden Secret Mantra 1. Sit in a comfortable cross legged position and use only dark room and no light inter this room 2. Place your hands in Gyan Mudra (thumb and index finger lightly meeting) 3. Close your eyes and Take 10 deep, slow breaths though the nose 4. Close your eyes and concentrate on agya chaKra (आज्ञा चक्र) latest 2-5 minutes 5. Now start taking breath from agya chaKra (आज्ञा चक्र) between two eyebrows.  6. when you take first breath in ( inhale slowly) feel the sound Auuuuu... And when you breath out (slowly exhale) feel the sound Mmmm........ Now take second breath in ( inhale slowly) feel the sound Sooooo..... And when when breath out (slowly exhale) feel the sound Hammm... Now The Great OM SoHam Mantra is complete. Continue this cycle to feel OuM SoHam Mantra latest 20-30 minutes In every night and in morning before sunrise After one month you have to feel aum soham in your breath every time. 7. do any work of your daily life but focus on the breath and feel oum soham and you finds great joy within you.  8. After 6 month leave oum now do only soham in your breath. . Close your ears with the thumbs. Close your eyes with the index fingers and lips with the ring and little fingers. Take a deep breath in and then close your nostrils with the middle fingers.While holding the breath inside, rotate your consciousness in the spinal column. With the vibrations of Sooo... descend from Ajna Chakra (आज्ञा) to Muladhara Chakra, and with the vibrations of Hammm... ascend from Muladhara Chakra to Ajna Chakra (आज्ञा). Then release the breath. 9.In fist month Atala ,Vitala ,Sutala ,Talatala, Rasatala , Mahatala ,Patala Chakras open in your body. In Second Month Golata, Lalata, and Lalana Chakras open in your body Then after four month Muladhara Chakra, Svadhishthana Chakra ( स्वाधिष्ठान), Manipura Chakra (मणिपूर), Anahata Chakra (अनाहत), Vishuddha Chakra (विशुद्ध), Ajna Chakra (आज्ञा), Sahasrara Chakra (सहस्रार) Strate opening only by doing this Soooo.... Hammmm....... ajajpa jap or नाम सुमिरन. If you do this GOD always with you and protect you from all bad things GOD fulfill your all wishes and desire. And last GOD give you path to see God, to touch God ,to Feel God. Because God is now within you only. 10. It is your duty who follow SoHam Mantra. A) I did not need of your money god give me every thing but it is important only for your benefit “Gurudakshina is a way to prosperity, power of self-reliance, and confidence of every molecule of your being. It is not only very, very spiritual; it is God-like in giving. Though God gives us everything, when we give that much in His Name to our higher self, it is called Gurudakshina. you understand when you start doing this. PayPal.Me/Shreem B). Give This Mantra at least one Person you will experience a sense of great comfort and joy. c). Do every thing what you want to do but never forget feel of soham mantra in your breath. D). Try to give This True knowledge to other person also. never fail to remember feel of Soham in your Breath. सोऽहं को सासों में हमेशा याद रखो correct name of god true name of god by kabir what is satya naam in kabir panthers kabir panth mantra satyanam satyanam soham guru ram-- soham hansa satguru sharanam, sat sat soham kalimal haranam adi gayatri amar sthan, soham tattva le hansa lok saman; sat gayatri ajapa jap, kahai kabir amar ghar bas; satya hai amar satya hai sunya, satyahi me kachhu pap na punya; kahai kabir suno dharma dass, yaha gayatri karo prakash. swasa ko kar sumirani, ajajpa ko kar jap; parm tattwa ko dhyan dharu, soham ape ap; soham poya pawan me, bandha meru sumer; brahma gath hridai dharo, yehi bidhi mala pher; chitgun chitt vilas dass so antar nahi, adi ant me madhya gosai; agaha gahan me nahi, gahani gahiye so kaisa; soham shabda saman adi brahm jaise ka taisa; kahe kabir ham khele sahaj subhaw, akaha adol abol soham samata; tame an base ek ramta, wa ramta ko lakhe jo koi, tako awagawan na hoi; what is the right name for god correct name of god what is Satya Naam what is satya naam in kabir panthers kabir panth mantra कबीर जी द्वारा भगवान का सच नाम कहता हूँ कही जात हूँ । कहूँ बजा कर ढोल स्वाँस जो खाली जात है । तीन लोक का मोल । स्वाँस उस्वाँस में नाम जपो । व्यर्था स्वाँस मत खोय न जाने इस स्वाँस को । आवन होके न होय क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह हम बैरागी बृह्म पद । सन्यासी महादेव सोहं मंत्र दिया शंकर कूं । करत हमारी सेव अष्ट कमल तोहि भेद बताऊँ । अजपा सोहं प्रगट बुझाऊँ what is the right name for god correct name of god true name of god by Guru Nanak Dev Ji what is Satya Naam गुरु नानक देव जी द्वारा भगवान का सच नाम satnam by guru nanak guru nanak satnam बिन गुर प्रीति न ऊपजै हउमै मैलु न जाइ।।सोहं आपु पछाणीऐ सबदि भेदि पतीआइ।।गुरमुखि आपु पछाणीऐ अवर कि करे कराइ।। मिलिआ का किआ मेलीऐ सबदि मिले पतीआइ।।मनमुखि सोझी न पवै वीछुडि़ चोटा खाइ।।नानक दरु घरु एकु है अवरु न दूजी जाइ।।सोहं हंसा जपु बिन माला । तहिं रचिआ जहिं केवल बाला ।सोहं शब्दु सदा धुनि गाजै । जागतु सोवै नित शब्दु बिराजै तीन अवस्था के सँगि रहै । जागत सोवत सोहं कहै ।सोहं जाप जपै दिन राता । मन ते त्यागे दुबिधा भ्रांता पूर्ब फिरि पच्छम कौ तानै । अजपा जाप जपै मनु मानै ।अनहत सुरति रहै लिवलाय । कहु नानक पद पिंड समाय ।सोहं हंसा जाँ का जापु । इहु जपु जपै बढ़ै परतापु अंमि न डूबै अगनि न जरै । नानक तिंह घरि बासा करै सोहं हंसा जपु बिन माला । तहिं रचिआ जहिं केवल बाला गुर मिलि नीरहिं नीर समाना । तब नानक मनूआ गगनि समाना what is the right name for god correct name of god what is Satya Naam gods real name true name of god by Gribdas G गरीबदास जी द्वारा भगवान का सच नाम सोहं शब्द हम जग में लाए । सार शब्द हम गुप्त छुपाए सतगुरु सोहं नाम दे गुझ बीज विस्तार बिन सोहं सोझे नहीं मूल मंत्र निज सार सतगुरु परदा खोलहीं परा लोक लेजाहिं सोहं जाप अजपा है बिन रसना है धुन्न what is the right name for god correct name of god what is Satya Naam gods real name true name of god by Pltu Sahib पलटू साहिब जी द्वारा भगवान का सच नाम भँवरगुफा के बीच उठत है सोहं बानी जहँ उठै सोहंगम सब्द सब्द के भीतर पैठा । नाना उठै तरंग रंग कुछ कहा न जाई जंत्र बिना जंत्री बजै । रसना बिनु गावै सोहं सब्द अलापि कै । मन को समुझावै श्वांसा की कर सुमरणी, अजपा को कर जाप परम तत्व को ध्यान धरि, सोहं आपे आप माला है निज श्वांस की, फेरेंगे कोई दास चौरासी भरमे नहीं, कटे कर्म की फांस ओहम से काया बनी । सोहम से मन होय ओहम सोहम से परे । बूझे विरला कोय जो जन होए जौहरी । सो धन ले विलगाय सोहं सोहं जप मुए । वृथा जन्म गवाया सार शब्द मुक्ति का दाता । जाका भेद नहीं पाया what is satya naam in radha soami radha soami naam daan five words five charged words of radha soami 1. Jot Niranjan. 2. Omkar. 3. Rarankar. 4. Soham. 5. Sat Nam Radha Soami take all five name Jot Niranjan Ram Niranjan Onkar… Rarankar Niranjan, Om, Soham, Shakti and Rarankar Soham Sat Naam Radha Soami take all five name From Sahaja Yoga मूल कँवल दल चतुर बखानो । कलिंग जाप लाल रंग मानो । देव गनेश तहं रोपा थानो । रिध सिध चँवर ढ़ुलारा है । 3 स्वाद चक्र षटदल बिस्तारो । बृह्मा सावित्री रुप निहारो । उलटि नागिनी का शिर मारो । तहां शबद (ॐ) ओंकारा है । 4 नाभी अष्टकँवल दल साजा । सेत सिंहासन बिष्नु बिराजा । हिरिंग जाप तासु मुख गाजा । लछमी शिव आधारा है । 5 द्वादश कँवल हृदय के माहीं । जंग गौर शिव ध्यान लगाई । " सोहं " शबद तहाँ धुन छाई । गन करै जै जैकारा है । 6 षोडश दल कँवल कंठ के माहीं । तेहि मध बसे अविद्या बाई । हरि हर बृह्मा चँवर ढ़ुलाई । जहँ शरिंग नाम उचारा है । 7 ता पर कंज कँवल है भाई । बग भौंरा दुइ रुप लखाई । निज मन करत तहाँ ठकुराई । सो नैनन पिछवारा है । 8 कंवलन भेद किया निर्वारा । यह सब रचना पिण्ड मंझारा । सतसंग कर सतगुरु सिर धारा । वह सतनाम उचारा है । 9 आंख कान मुख बन्द कराओ । अनहद झिंगा शब्द सुनाओ । दोनों तिल इक तार मिलाओ । तब देखो गुलजारा है । 10 चंद सूर एकै घर लाओ । सुषमन सेती ध्यान लगाओ । तिरबेनी के संघ समाओ । भोर उतर चल पारा है । 11 घंटा शंख सुनो धुन दोई । सहस कँवल दल जगमग होई । ता मध करता निरखो सोई । बंकनाल धंस पारा है । 12 डांकिन सांकिनी बहु किलकारें । जम किंकर धर्मदूत हंकारें । सतनाम सुन भागें सारे । जब सतगुरु नाम उचारा है । 13 गगन मंडल विच उर्धमुख कुइंआं । गुरुमुख साधू भर भर पिया । निगुरे प्यास मरे बिन कीया । जा के हिये अंधियारा है । 14 त्रिकुटी महल में विद्या सारा । घनहर गरजें बजे नगारा । लाल बरन सूरज उजियारा । चतुर कँवल मंझार शब्द ओंकारा है । 15 साध सोई जिन यह गढ़ लीना । (9) नौ दरवाजे परगट चीन्हा । दसवां खोल जाय जिन दीन्हा । जहां कुफुल रहा मारा है । 16 आगे सेत सुन्न है भाई । मान सरोवर पैठि अन्हाई । हंसन मिल हंसा होइ जाई । मिलै जो अमी अहारा है । 17 किंगरी सारंग बजै सितारा । अच्छर बृह्म सुन्न दरबारा । द्वादस भानु हंस उजियारा । खटदल कँवल मंझार शब्द ररंकारा है । 18 महासुन्न सिंध बिषमी घाटी । बिन सतगुरु पावै नहिं बाटी । ब्याघर सिंह सरप बहु काटी । तहं सहज अचिंत पसारा है । 19 अष्ट दल कंवल पारबृह्म भाई । दाहिने द्वादस अचिंत रहाई । बायें दस दल सहज समाई । यूं कंवलन निरवारा है । 20 पांच ब्रह्म पांचों अंड बीनो । पांच बृह्म नि:अक्षर चीन्हो । चार मुकाम गुप्त तहं कीन्हो । जा मध बंदीवान पुरुष दरबारा है । 21 दो पर्वत के संध निहारो । भंवर गुफा ते संत पुकारो । हंसा करते केल अपारो । तहां गुरन दरबारा है । 22 सहस अठासी द्वीप रचाये । हीरे पन्ने महल जड़ाये । मुरली बजत अखंड सदाये । तहं "सोहं" झुनकारा है । 23 सोहं हद तजी जब भाई । सतलोक की हद पुनि आई । उठत सुगंध महा अधिकाई । जा को वार न पारा है । 24 what is the right name for god gods real name The true name (SoHam) of god is Taken from Tantra Gandharva Tantra Kali Tantra Kularnava Tantra Mahanirvana Tantra Niruttara Tantra This SoHam mantra is also given in Bhaja Gaureesam Gowresa Ashtakam Shakthi Mahimnah Stotram Tripurasundari Vijaya Sthava This Soham Sadhana also given in Adi Shankara's Vakya Vritti subsequent works in the Nath tradition foundational for Hatha yoga. Matsyendranath's Yogavishaya Gorakshanath's Siddha Siddhanta Paddhati Gorakshanath's Yoga Bija Gorakshanath's Goraksha Shataka SoHam manntra also given in Upanishads Sannyasa Upanishads such as Naradaparivrajaka Upanishad, Nirvana Upanishad, Ashrama Upanishad, Maitreya Upanishad and Satyayaniya Upanishad.Yoga Upanishads such as Dhyanabindu Upanishad and Yogashikha Upanishad,Hamsa Upanishad. These all Tantra and Upanishads are present before birth of kabir panth so when kabir panthi such as Rampal clame That Soham or Sohang manntra is given by only kabir is worng fist this sohum mantra is given by lord shiva ji to goddess parvati all this is described in many Tantra which is older then vedas. All things described in Sahaja Yoga kabir is taken fron Gandharva Tantra,Kali Tantra,Kularnava Tantra,Mahanirvana Tantra,Niruttara Tantra And also from Sannyasa Upanishads such as Naradaparivrajaka Upanishad, Nirvana Upanishad, Ashrama Upanishad, Maitreya Upanishad and Satyayaniya Upanishad.Yoga Upanishads such as Dhyanabindu Upanishad and Yogashikha Upanishad,Hamsa Upanishad And also from Adi Shankara's Vakya Vritti subsequent works in the Nath tradition foundational for Hatha yoga.Matsyendranath's Yogavishaya,Gorakshanath's Siddha Siddhanta Paddhati,Gorakshanath's Yoga Bija,Gorakshanath's Goraksha Shataka. Jai Mahakal                      जय माँ काली       जय महाकाली                        Jai Mahakali काली महाकाली कालिके परमेश्वरी । सर्वानन्दकरी देवी नारायणि नमोऽस्तुते ।। जय काली, जय तारा, जय त्रिपुरसुन्दरी ,जय भुवनेश्वरी, जय छिन्नमस्ता, जय भैरवी, जय धूमावती, जय बगळामुखी, जय मातंगी , जय कमला. Tag: gods real name in hebrew what is god's name in christianity true name of god 216 letters gods real name yahweh what is god's name in english what is god's name catholic what is jesus real name gods real name ahayah Share No comments: Post a Comment ‹ Home View web version Powered by Blogger.

satya naam in radha soami

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गुरु नानाक द्वारा सतनाम

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सहज योग - शुरू से अन्त तक

▼ 04 अगस्त 2011 सहज योग - शुरू से अन्त तक लेखकीय - आप लोग अक्सर प्रश्न करते रहे हैं कि अन्तर में योग की स्थितियाँ क्या है ? यानी किसके बाद क्या आता है । अतः आज मैं कबीर साहब की वाणी में ये सब रचना आपके लिये प्रकाशित कर रहा हूँ । हालांकि संक्षिप्त अर्थ में सब बात पूरी तरह स्पष्ट करना संभव नहीं हैं । फ़िर भी आपको बहुत कुछ पता चल जायेगा । ऐसी आशा है । विशेष - घबरायें नहीं । ये सब स्थितियाँ जानकारी के लिये बता रहा हूँ । जैसा इसमें वर्णन के अनुसार कठिन सा लगता है । वैसी दिक्कत हमारे " सहज योग " में नहीं आती । मगर प्राप्ति अन्त तक होती है । कर नैनों दीदार । महल में प्यारा है । काम क्रोध मद लोभ बिसारो । सील संतोष छिमा सत धारो । मद्य मांस मिथ्या तज डारो । हो ज्ञान घोड़े असवार । भरम से न्यारा है । 1 धोती नेती वस्ती पाओ । आसन पदम जुगत से लाओ । कुभंक कर रेचक करवाओ । पहिले मूल सुधार । कारज हो सारा है । 2 मूल कँवल दल चतुर बखानो । कलिंग जाप लाल रंग मानो । देव गनेश तहं रोपा थानो । रिध सिध चँवर ढ़ुलारा है । 3 स्वाद चक्र  षटदल बिस्तारो । बृह्मा सावित्री रुप निहारो । उलटि नागिनी का शिर मारो । तहां शबद (ॐ) ओंकारा है । 4 नाभी अष्टकँवल दल साजा । सेत सिंहासन बिष्नु बिराजा । हिरिंग जाप तासु मुख गाजा । लछमी शिव आधारा है । 5 द्वादश कँवल हृदय के माहीं । जंग गौर शिव ध्यान लगाई । " सोहं " शबद तहाँ धुन छाई । गन करै जै जैकारा है । 6 षोडश दल कँवल कंठ के माहीं । तेहि मध बसे अविद्या बाई । हरि हर बृह्मा चँवर ढ़ुलाई । जहँ शरिंग नाम उचारा है । 7 ता पर कंज कँवल है भाई । बग भौंरा दुइ रुप लखाई । निज मन करत तहाँ ठकुराई । सो नैनन पिछवारा है । 8 कंवलन भेद किया निर्वारा । यह सब रचना पिण्ड मंझारा । सतसंग कर सतगुरु सिर धारा । वह सतनाम उचारा है । 9 आंख कान मुख बन्द कराओ । अनहद झिंगा शब्द सुनाओ । दोनों तिल इक तार मिलाओ । तब देखो गुलजारा है । 10 चंद सूर एकै घर लाओ । सुषमन सेती ध्यान लगाओ । तिरबेनी के संघ समाओ । भोर उतर चल पारा है । 11 घंटा शंख सुनो धुन दोई । सहस कँवल दल जगमग होई । ता मध करता निरखो सोई । बंकनाल धंस पारा है । 12 डांकिन सांकिनी बहु किलकारें । जम किंकर धर्मदूत हंकारें । सतनाम सुन भागें सारे । जब सतगुरु नाम उचारा है । 13 गगन मंडल विच उर्धमुख कुइंआं ।  गुरुमुख साधू भर भर पिया । निगुरे प्यास मरे बिन कीया । जा के हिये अंधियारा है । 14 त्रिकुटी महल में विद्या सारा । घनहर गरजें बजे नगारा । लाल बरन सूरज उजियारा । चतुर कँवल मंझार शब्द ओंकारा है । 15 साध सोई जिन यह गढ़ लीना । (9) नौ दरवाजे परगट चीन्हा । दसवां खोल जाय जिन दीन्हा । जहां कुफुल रहा मारा है । 16 आगे सेत सुन्न है भाई  । मान सरोवर पैठि अन्हाई । हंसन मिल हंसा होइ जाई । मिलै जो अमी अहारा है । 17 किंगरी सारंग बजै सितारा । अच्छर बृह्म सुन्न दरबारा । द्वादस भानु हंस उजियारा । खटदल कँवल मंझार शब्द ररंकारा है । 18 महासुन्न सिंध बिषमी घाटी । बिन सतगुरु पावै नहिं बाटी । ब्याघर सिंह सरप बहु काटी । तहं सहज अचिंत पसारा है । 19 अष्ट दल कंवल पारबृह्म भाई । दाहिने द्वादस अचिंत रहाई । बायें दस दल सहज समाई । यूं कंवलन निरवारा है । 20 पांच ब्रह्म पांचों अंड बीनो । पांच बृह्म नि:अक्षर चीन्हो । चार मुकाम गुप्त तहं कीन्हो । जा मध बंदीवान पुरुष दरबारा है । 21 दो पर्वत के संध निहारो । भंवर गुफा ते संत पुकारो । हंसा करते केल अपारो । तहां गुरन दरबारा है । 22 सहस अठासी(88000) द्वीप रचाये । हीरे पन्ने महल जड़ाये । मुरली बजत अखंड सदाये । तहं "सोहं" झुनकारा है । 23 सोहं हद तजी जब भाई । सतलोक की हद पुनि आई । उठत सुगंध महा अधिकाई । जा को वार न पारा है । 24 (16)षोड़स भानु हंस को रुपा । बीना सत धुन बजै अनूपा । हंसा करत चंवर सिर भूपा । सत्त पुरुष दरबारा है । 25 (करोङों) कोटिन भानु उदय जो होई । एते ही पुनि चंद्र लखोई । पुरुष रोम सम एक न होइ । ऐसा पुरुष दीदारा है । 26 आगे अलख लोक है भाई । अलख पुरुष की तहं ठकुराई । अरबन सूर रोम सम नाहीं । ऐसा अलख निहारा है । 27 ता पर अगम महल इक साजा । अगम पुरुष ताहि को राजा । खरबन सूर रोम इक लाजा । ऐसा अगम अपारा है । 28 ता पर अकह लोक है भाई । पुरुष अनामी तहां रहाई । जो पहुँचा जानेगा वाही । कहन सुनन से न्यारा है । 29 काया भेद किया निर्वारा । यह सब रचना पिंड मंझारा । माया अवगति जाल पसारा । सो कारीगर भारा है । 30 आदि माया कीन्ही चतुराई । झूठी बाजी पिंड दिखाई । अवगति रचन रची अंड माहीं । ता का प्रतिबिंब डारा है । 31 शब्द बिहंगम चाल हमारी । कहैं कबीर सतगुरु दइ तारी । खुले कपाट शबद झुनकारी । पिण्ड अण्ड के पार । सो ही देश हमारा है । 32 **************** कर नैनों दीदार । महल में प्यारा है । सदगुरु कबीर साहब कहते हैं - हे मनुष्य ! तू अपनी ज्ञान रुपी आँख ( तीसरा नेत्र ) से देख ( दीदार कर )  तेरे इसी शरीर में साहिब विराजमान है । काम क्रोध मद लोभ बिसारो । सील संतोष छिमा सत धारो । लेकिन साहिब के दर्शन हेतु उससे पहले - काम । क्रोध । अहंकार और लोभ छोड़कर । उसकी जगह शील । क्षमा । सत्य और संतोष धारण कर । मद्य मांस मिथ्या तज डारो । हो ज्ञान घोड़े असवार । भरम से न्यारा है । 1 मांस और मदिरा छोड़कर सात्विक शाकाहारी भोजन कर । झूठ । असत्य मिथ्या बातों को तजकर । सत्य को अपनाकर । ज्ञान रुपी घोड़े पर चढ़कर । मोह रुपी भृम से छुटकारा पाकर ।  वहाँ जा पाते हैं । धोती नेती वस्ती पाओ । आसन पदम जुगत से लाओ । भारतीय योग के तरीके - धोती । नेती और वस्ति से शरीर की आंतरिक शुद्धि कर । इसके बाद पदम आसन में बैठने का अभ्यास कर । इसके बाद कुम्भक रेचक के प्राणायाम द्वारा प्राणों को साधकर शरीर के अन्दर पहले चक्र - मूलाधार चक्र को बेधना है । कुभंक कर रेचक करवाओ । पहिले मूल सुधार । कारज हो सारा है । 2 इसके बाद कुम्भक रेचक के प्राणायाम द्वारा प्राणों को साधकर मूल स्थिति यानी शरीर को योग और भक्ति हेतु तैयार करो । तब काम बनेगा । मूल कँवल दल चतुर बखानो । कलिंग जाप लाल रंग मानो । मूलाधार चक्र का देवता गणेश हैं । वहाँ 4 दल कमल है । जाप करिंग है । रंग लाल है । देव गनेश तहं रोपा थानो । रिध सिध चँवर ढ़ुलारा है । 3 यहाँ का देवता गणेश है । रिद्धियाँ सिद्धियाँ सेवा कर रही हैं । स्वाद चक्र (6) षटदल बिस्तारो । बृह्मा सावित्री रुप निहारो । स्वाधिष्ठान चक्र का देवता बृह्मा ( सावित्री - बृह्मा की पत्नी ) है । वहाँ 6 दल कमल है । उलटि नागिनी का शिर मारो । तहां शबद (ॐ) ओंकारा है । 4 नागिनी रूपी कुण्डलिनी उल्टा मुँह किये साढे तीन लपेटे मारकर बैठी है । ( इसलिये इंसान को अपनी शक्ति का अहसास नहीं है ) जब यह सीधी होकर उठती है । तब अन्तर में ॐ धुन सुनाई देती है । नाभी (8) अष्टकँवल दल साजा । सेत सिंहासन बिष्नु बिराजा । नाभि चक्र का देवता बिष्णु है । वहाँ 8 अष्ट दल कमल है । हिरिंग जाप तासु मुख गाजा । लछमी शिव आधारा है । 5 यहाँ हिरिंग का जाप है । तथा लक्ष्मी शिव का आधार है । (12) द्वादश कँवल हृदय के माहीं । जंग गौर शिव ध्यान लगाई । हृदय चक्र देवता शंकर है । वहाँ 12 द्वादश दल कमल है । " सोहं " शबद तहाँ धुन छाई । गन करै जै जैकारा है । 6 सोहं शब्द की वहाँ धुन हो रही है । और देवता जय जयकार कर रहे हैं । 16 षोडश दल कँवल कंठ के माहीं । तेहि मध बसे अविद्या बाई । कंठ चक्र की देवी शक्ति देवी हैं । वहाँ 16 सोलह  दल कमल है । हरि हर बृह्मा चँवर ढ़ुलाई । जहँ शरिंग नाम उचारा है । 7 बृह्मा विष्णु महेश यहाँ चँवर ढुलाते हुये देवी की सेवा करते हैं । यहाँ " शरिंग " मन्त्र उच्चारित हो रहा है । ता पर कंज कँवल है भाई । बग भौंरा दुइ रुप लखाई । यहाँ पर कंज कमल है । तथा यहाँ दिव्य भँवरा के दर्शन होते हैं । निज मन करत तहाँ ठकुराई । सो नैनन पिछवारा है । 8 मन का जहाँ निवास है । जिस स्थान का वह स्वामी है । वह स्थान आँखों के पीछे है । कंवलन भेद किया निर्वारा । यह सब रचना पिण्ड मंझारा । यह सव रचना शरीर के बीच में है । जिसको कमलों के द्वारा बाँटा गया है । सतसंग कर सतगुरु सिर धारा । वह सतनाम उचारा है । 9 सतसंग करते हुये जो सतगुरु की शिष्यता गृहण करता है । और सतनाम का जाप करता है । वही इसे जान पाता है । आंख कान मुख बन्द कराओ । अनहद झिंगा शब्द सुनाओ । दोनों आँख कान ( उँगली डालकर या रुई लगाकर ) और मुँह बन्द करके अनहद शब्द जो झींगुर की आवाज के समान है । इसको सुनो । दोनों तिल इक तार मिलाओ । तब देखो गुलजारा है । 10 आँखों की दोनों पुतलियाँ जब एक ( स्वतः हो जाती हैं ) होकर मिलेंगी । तब आप अन्दर के अदृश्य नजारे देखोगे । चंद सूर एकै घर लाओ । सुषमन सेती ध्यान लगाओ । तब सूर्य चन्द्रमा आपके इसी शरीर में एक ही स्थान पर दिखेंगे । तिरबेनी के संघ समाओ । भोर उतर चल पारा है । 11 इङा पिंगला और सुषमणा यानी इन नाङियों के मिलन स्थान त्रिवेणी से ऊपर उठने लगते हैं । घंटा शंख सुनो धुन दोई । 1000 सहस कँवल दल जगमग होई । यहाँ घण्टा और शंख की धुन हो रही है । और 1000 पत्तों वाला कमल जगमगा रहा है । ता मध करता निरखो सोई । बंकनाल धंस पारा है । 12 इसी कमल के मध्य करतार या कर्ता पुरुष विराजमान है । आगे बंक ( टेङी नली के समान - ये ठीक S अक्षर के समान है । यहाँ निकलने में थोङी कठिनाई होती है ।  ) नाल मार्ग आता है । डांकिन सांकिनी बहु किलकारें । जम किंकर धर्मदूत हंकारें । यहाँ पर डाकिनी शाकिनी किलकारियाँ भरती हुयी डराने की कोशिश करती हैं । यम के दूत भय दिलाते हैं । सतनाम सुन भागें सारे । जब सतगुरु नाम उचारा है । 13 लेकिन इस सतनाम को सुनते ही और सतगुरु का ध्यान आते ही वह डर कर भाग जाते हैं । गगन मंडल विच उर्धमुख कुइंआं ।  गुरुमुख साधू भर भर पिया । आकाश मंडल में उल्टा अमृत कुँआ है । जिससे गुरुमुख साधु भर भरकर अमृत पीते हैं । निगुरे प्यास मरे बिन कीया । जा के हिये अंधियारा है । 14 निगुरे कभी इस अमृत को नहीं पी पाते । और उनके ह्रदय में अँधकार ही रहता है । यानी सत्य का प्रकाश कभी नहीं होता । त्रिकुटी महल में विद्या सारा । घनहर गरजें बजे नगारा । त्रिकुटी महल में अदभुत नजारे हैं । नगाङा आदि बाजे बज रहे हैं । इस महल में विध्या के निराले रूप दिखते हैं । लाल बरन सूरज उजियारा । चतुर कँवल मंझार शब्द ओंकारा है । 15 यहाँ लाल रंग है । चार दल कमल है । जिसके मध्य ॐकार ध्वनि उठ रही है । और उजाला फ़ैला हुआ है । साध सोई जिन यह गढ़ लीना । नौ दरवाजे परगट चीन्हा । वही साधु है । जिसने इस नौ द्वारों के इस शरीर के असली भेद को जान लिया । (10) दसवां खोल जाय जिन दीन्हा । जहां कुफुल रहा मारा है । 16 तथा नौ दरवाजों से ऊपर दसवाँ द्वार यानी मुक्ति का द्वार खोल लिया । जहाँ सारे बुरे संस्कार फ़ल नष्ट हो जाते हैं । आगे सेत सुन्न है भाई  । मान सरोवर पैठि अन्हाई । आगे सुन्न का मैदान है । यहाँ आत्मा मान सरोवर में स्नान करती है । हंसन मिल हंसा होइ जाई । मिलै जो अमी अहारा है । 17 यहाँ आत्मा हँसो से मिलकर हँस रूप हो जाती है । और अमृत का आहार करती है । किंगरी सारंग बजै सितारा । अच्छर बृह्म सुन्न दरबारा । यहाँ किरंगी सारंगी सितार आदि बज रहे हैं । यहाँ अक्षर बृह्म का दरबार है । (12) द्वादस भानु हंस उजियारा । खटदल कँवल मंझार शब्द ररंकारा है । 18 यहाँ आत्मा का प्रकाश 12 सूर्य के बराबर हो जाता है । कमल के मध्य ररंकार ध्वनि हो रही है । महासुन्न सिंध बिषमी घाटी । बिन सतगुरु पावै नहिं बाटी । महासुन्न की घाटी और मैदान बहुत ही विशाल और कठिनाईयों से भरा है । बिना सतगुरु के यहाँ से पार होना असंभव ही है । ब्याघर सिंह सरप बहु काटी । तहं सहज अचिंत पसारा है । 19 शेर चीता सर्प अजगर आदि काटने लगते है । (8) अष्ट दल कंवल पारबृह्म भाई । दाहिने द्वादस अचिंत रहाई । पारबृह्म में आठ दल का कमल है । इसके दाँये बारह अचिंत दीप है । बायें (10) दस दल सहज समाई । यूं कंवलन निरवारा है । 20 बाँयी  तरफ़ सहज लोक है । यहाँ दस दल का कमल है । ऐसे कमलों का स्थान है । पांच बृह्म पांचों अंड बीनो । पांच बृह्म नि:अक्षर चीन्हो । ( इस लाइन का अर्थ समझाना बहुत कठिन है । ) चार मुकाम गुप्त तहं कीन्हो । जा मध बंदीवान पुरुष दरबारा है । 21 यहाँ 4 स्थान गुप्त हैं । इसके बीच उन बन्दीवान आत्माओं का निवास है । जो पूरा सतगुरु न मिलने से आगे नहीं जा पायीं । या नाम सुमरन की कमी से । वे जाते हुये सन्तों से प्रार्थना करती हैं । तब कभी कभी सन्त दया करके उन्हें अपने साथ आगे ले जाते हैं । यहाँ आत्मायें आनन्द से तो हैं । पर उन्हें मालिक का दर्शन नहीं होता । दो पर्वत के संध निहारो । भंवर गुफा ते संत पुकारो । इन दोनों पर्वत के बीच भँवर गुफ़ा दिखाई देती है । हंसा करते केल अपारो । तहां गुरन दरबारा है । 22 हँस आत्मायें यहाँ खेलती हुयी आनन्द करती हैं । यहाँ गुरुओं का दरबार है । सहस अठासी(88000) द्वीप रचाये । हीरे पन्ने महल जड़ाये । यहाँ आगे 88000 सुन्दर द्वीप बने हुये हैं । जिनमें हीरा पन्ना आदि जङकर भव्य महलों की तरह निवास बने हैं । मुरली बजत अखंड सदाये । तहं "सोहं" झुनकारा है । 23 यहाँ लगातार बाँसुरी बजती रहती है । यही वो असली बाँसुरी है । जिस पर गोपियाँ झूम उठती थी । यहाँ " सोहं..सोहं " की अखण्ड धुनि हो रही है । सोहं हद तजी जब भाई । सतलोक की हद पुनि आई । सोहं की सीमा समाप्त होते ही सतलोक की सीमा शुरू हो जाती है । उठत सुगंध महा अधिकाई । जा को वार न पारा है । 24 यहाँ इतनी अधिक चंदन की सुगन्ध आ रही है कि उसका वर्णन संभव नहीं है । (16)षोड़स भानु हंस को रुपा । बीना सत धुन बजै अनूपा । अब आत्मा हँस रूप होकर 16 सूर्यों के बराबर प्रकाश वाली हो जाती है । यहाँ वीणा की मधुर अनोखी धुन सुनाई दे रही है । हंसा करत चंवर सिर भूपा । सत्त पुरुष दरबारा है । 25 यहाँ सतपुरुष का दरबार है । जहाँ हँस आत्मायें चंवर ढुला रही हैं । कोटिन भानु उदय जो होई । एते ही पुनि चंद्र लखोई । करोंङों सूर्य एक साथ निकल आयें । और इतने ही चन्द्रमा निकल आयें । पुरुष रोम सम एक न होइ । ऐसा पुरुष दीदारा है । 26 लेकिन सतपुरुष के एक रोम के प्रकाश की बराबरी नहीं कर सकते । सतपुरुष का ऐसा दर्शन होता है । आगे अलख लोक है भाई । अलख पुरुष की तहं ठकुराई । आगे " अलख लोक " है । यहाँ के स्वामी " अलख पुरुष " हैं । अरबन सूर रोम सम नाहीं । ऐसा अलख निहारा है । 27 अरबों सूर्यों का प्रकाश इनके एक रोम से होने वाले प्रकाश की बराबरी नहीं कर सकता । ऐसा न देखे जाने वाला दर्शन सदगुरु कृपा से प्राप्त होता है । ता पर अगम महल इक साजा । अगम पुरुष ताहि को राजा । इसके ऊपर " अगम लोक " है ।  " अगम पुरुष " यहाँ के स्वामी हैं । खरबन सूर रोम इक लाजा । ऐसा अगम अपारा है । 28 खरबों सूर्यों का प्रकाश इनके एक रोम के प्रकाश के आगे फ़ीका है । ऐसा अपार अगम ( जहाँ जाया न जा सके ) शोभायुक्त है । ता पर अकह लोक है भाई । पुरुष अनामी तहां रहाई । इसके ऊपर " अकह लोक " है । यानी जहाँ कुछ भी कहने की स्थिति ही खत्म हो जाती है । और जहाँ पहुँचकर सन्त " मौन हो जाते हैं । शाश्वत आनन्द में पहुँच जाते हैं । यहाँ के स्वामी को ’ अनामी पुरुष " कहा जाता है । यानी इनका कोई भी कैसा भी नाम नहीं हैं । जो पहुँचा जानेगा वाही । कहन सुनन से न्यारा है । 29 यहाँ की असली बात पहुँचने वाला ही जान पाता है । क्योंकि ये कहने सुनने में नहीं आती । यानी इसका कैसा भी वर्णन असंभव ही है । काया भेद किया निर्वारा । यह सब रचना पिंड मंझारा । यह सब अदभुत रचना इसी शरीर के भीतर ही है ।  इस तरह शरीर को भेद द्वारा बाँटकर निर्माण किया है । माया अवगति जाल पसारा । सो कारीगर भारा है । 30 माया ने अपना विलक्षण जाल फ़ैलाकर बहुत भारी कारीगरी दिखाई है । आदि माया कीन्ही चतुराई । झूठी बाजी पिंड दिखाई । आदि माया ने चालाकी से पिंड शरीर में ऐसा ही झूठा खेल बना दिया । पर असल बात कुछ और ही है । अवगति रचन रची अंड माहीं । ता का प्रतिबिंब डारा है । 31 असल रचना का छाया रूप मायावी प्रतिबिम्ब उसने चतुराई से पिण्ड में बना दिया । ताकि साधक धोखे में रहें । अतः सदगुरु के बिना सच्चाई ग्यात नहीं होती । शब्द बिहंगम चाल हमारी । कहैं कबीर सतगुरु दइ तारी । शब्द के सहारे बिना किसी डोर के ( यह शब्द ही खींच लेता है ) बिहंगम यानी पक्षी की तरह उङते हुये सन्त आनन्द से जाते हैं । लेकिन सिर्फ़ वही जा सकते हैं । जिनको सदगुरु कृपा करके चाबी दे देते हैं । खुले कपाट शबद झुनकारी । पिंड अंड के पार । सो ही देश हमारा है । 32 जब अन्दर का दरबाजा खोलकर हम शब्द की धुन झनकार सुनते हैं ।  और अण्ड पिण्ड के पार जाते हैं । तब हमारा असली देश असली घर आता है । at 6:14 am साझा करें ‹ › मुख्यपृष्ठ वेब वर्शन देखें Blogger द्वारा संचालित.

Monday, 19 March 2018

पूर्ण सच्चे संत की पहचान

[3/14, 8:25 PM] Vedant😊: Vedic Aim वेद, उपनिषद, गीता, भागवत, वेदांत और अन्य ग्रंथों का सार एवम सरल रूप ज्ञान सबको प्रदान करना कविता संख्या के साथ, हमारा परम उद्देश्य हैं। × Subscribe! to our YouTube channel प्रमाण क्या है और कितने प्रकार के होते हैं?  भारतीय दर्शन में प्रमाण उसे कहते हैं जो सत्य ज्ञान करने में सहायता करे। अर्थात् वह बात जिससे किसी दूसरी बात का यथार्थ (सच्चाई) का ज्ञान हो। 'प्रमाण' न्याय का मुख्य विषय है। जिसके द्वारा यथार्थ (सच्चाई) का ज्ञान हो उसे प्रमाण कहते हैं। प्रमाण चार प्रकार के होते हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्दप्रमाण। प्रत्यक्ष गौतम ने न्यायसूत्र में कहा है कि इंद्रियों के साथ संबंध होने से किसी वस्तु का जो ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष है। अर्थात इंद्रिय के द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता है, वही प्रत्यक्ष है। यह प्रमाण सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। क्योंकि यह प्रत्यक्ष (हमारे सामने) है। जैसे, हमें सामने आगे आग जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके गर्मी का अनुभव करें तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि 'आग जल रही है'। इस उद्धरण में पदार्थ (आग) और इंद्रिय (आँख और त्वचा) का प्रत्यक्ष संबंध हुआ इसलिए हमें प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। यह प्रत्यक्ष ज्ञान ६ प्रकार का होता है - १. चाक्षुष प्रत्यक्ष:- जो किसी पदार्थ के सामने आने पर होता है। जैसे, यह आग है। २. श्रावण प्रत्यक्ष, जैसे, आँखें बंद रहने पर भी घंटे का शब्द सुनाई पड़ने पर यह ज्ञान होता है कि घंटा बजा। ३. स्पर्श प्रत्यक्ष:- जैसे ठंडा पानी को हाथ में लेने से ज्ञान होता है कि वह बहुत ठंढी है। ४. रसायन प्रत्यक्ष:- जैसे, फल खाने पर जान पड़ता है कि वह मीठा है अथवा खट्टा है। ५. घ्राणज प्रत्यक्ष:- जैसे, फूल सूँघने पर पता लगता है कि वह सुगंधित है। ६. मानस प्रत्यक्ष:- जैसे, सुख, दुःख, दया आदि का अनुभव। अनुमान प्रमाण प्रत्यक्ष द्वारा जिस वस्तु के अस्तित्व का ज्ञान नहीं हो रहा हैं, उसका ज्ञान किसी ऐसी वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर, जो उस अप्रत्यक्ष वस्तु के अस्तित्व का संकेत इस ज्ञान पर पहुँचने की प्रक्रिया का नाम अनुमान है।अनुमान प्रमाण में पाँच खंड हैं जो 'अवयव' कहलाते हैं। प्रतिरा, हेतु, उदाहरण, उपनय (जो वाक्य बतलाए हुए चिह्न या लिंग का होना प्रकट करे) और निगमन। इस को उदाहरण से समाजिये, यहाँ पर आग है (प्रतिज्ञा)। क्योकि यहाँ धूआँ है (हेतु)। जहाँ जहाँ धूआँ रहता है वहाँ वहाँ आग रहती है, 'जैसे रसोई घर में' (उदारहण)। यहाँ पर धूआँ है (उपनय)। इसीलिये यहाँ पर आग है (निगमन)। साधारणतः इन पाँच अवयवों से युक्त वाक्य को न्याय कहते हैं। अतएव इन पाँच अवयवों से युक्त प्रमाण को अनुमान प्रमाण कहते हैं। उपमान प्रमाण किसी जानी हुई वस्तु के समरूपता से न जानी हुई वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वही उपमान है। सरल शब्दों में कहें तो, किसी अज्ञात वस्तु को किसी ज्ञात वस्तु की समानता के आधार पर किसी नाम से जानना उपमान कहलाता है। जैसे किसी को मालूम है कि नीलगाय, गाय जैसी होती है; किसी के मुँह से यह सुनकर जब हम जंगल में नीलगाय देखते हैं तब चट हमें ज्ञान हो जाता है कि 'यह नीलगाय है'। इससे प्रतीत हुआ कि किसी वस्तु का उसके नाम के साथ संबंध ही उपमिति ज्ञान का विषय है। उपमान को कई नए दार्शनिकों ने इस प्रकार अनुमान कै अंतर्गत किया है। अर्थात उपमान प्रमाण, अनुमान प्रमाण के अंतर्गत है। शब्द प्रमाण शब्दप्रमाण वो प्रमाण होता है, जिसके शब्द पर कोंई संदेह (शक) न हो। शब्दप्रमाण को विस्तार में जानने के लिए पढ़े ❛शब्द प्रमाण क्या है और उसके प्रकार?❜ ज्ञान काण्ड You Might Also Like सबसे बड़े भगवान कौन है, राम कृष्ण शंकर या विष्णु?  हमने आपको इस लेख में प्रमाणों के द्वारा बताया कि राम और कृष्ण एक ही हैं और यह वाक्य ब्रह्मा के हैं कि "राम और कृष्ण एक हैं।" ब्रह्मा से बड़ा बुद्धिमान कौन होगा। अस्तु, राम और कृष्ण एक है यह बात हमने आपको बताया। फिर हमने अपने दूसरे लेख में यह बताया कि कैसे भगवान के सभी अवतार एक हैं इस लेख का सारांश यह है कि ब्रह्मा शंकर विष्णु सीता राधा लक्ष्मी सरस्वती यह सब एक है और लीला में भगवान अपने आपको दो तीन चार पांच रूप में बनाए हुए हैं। लेकिन वास्तव में यह लोग एक हैं। फिर हमने आपको बताया कि क्या हिन्दू एक भगवान में मानते हैं इस लेख में हमने आप को बताया कि ब्रह्म परमात्मा और भगवान यह ३ शब्दों का वेदों शास्त्रों पुराणों में प्रयोग किया जाता है और यह तीनों एक ही है। यह सभी लेखों का सारांश यह है कि भगवान के सभी अवतार एक ही हैं और उनमे कोई भी अंतर हैं। अतः इनमें भेद बुद्धि नहीं लाना चाहिए कि यह भगवान बड़े हैं और यह भगवान छोटे हैं। यह बात हमें नहीं सोचना चाहिए। क्यों? इसलिए क्योंकि नारद जी ने कहा नारद भक्ति सूत्र ४१"भक्त और भगवान में अंतर नहीं हुआ करता।" तो जब भक्त और भगवान मे… KEEP READING प्रह्लाद ने असुर बालकों को महत्वपूर्ण उपदेश दिया।  एक दिन गुरु पुत्र अपने संसारी गृहस्ती कार्य से बहार चले गए। तब प्रह्लाद ने अपने दैत्य सहपाठियों को बुलाया। सब असुर बालक थे, राक्षसों के बच्चे पढ़ते थे ६-७ वर्ष के थे। सबको बुलाया और उपदेश देने लगे। वो उपदेश्य बड़ा महत्वूपर्ण है। पहला श्लोक है उपदेश का भागवत ७.६.१ कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान्भागवतानिह।  दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम्॥ भावार्थ - बच्चों कुमारावस्‍था में ही भागवत धर्म परायण हो जाना चाहिए (भगवान का बन जाना चाहिए)। क्‍योंकि अगली अवस्‍था मिले न मिले। जवानी की अवस्था को न देखो, वृद्धा अवस्था को मत परखो। क्यों? इसलिए क्योकि यह मानव जन्म देव दुर्लभ है। यह मानव देह कब छिन जाये इसका किसी को पता नहीं। क्या पता तुम्हे जवानी की अवस्था मिले न मिले। इसलिए अगली आयु की प्रतिछा न करो। धर्म २ प्रकार के होते है एक तो भागवत धर्म और दूसरा माइक (माया का) धर्म। भागवत धर्म को स्वभावक धर्म, परधर्म, गुणातीत धर्म, दिब्य धर्म, आध्यात्मिक धर्म कहते है। और माइक (माया का) धर्म को शारीरक धर्म, अपरधर्म, आगंतुक धर्म, त्रिगुणात्मक धर्म अनेक नाम है। धर्म के बारे में जानने के लिए पढ़े धर्म क्या है? ध… KEEP READING नरसिंह भगवान और प्रह्लाद के बीच ज्ञान की बात।  हमने आपको हिरण्यकशिपु या हिरण्यकश्यप कौन था? - नरसिंह कथा के लेख में विस्तार से कथा बताया। भगवान नरसिंह ने हिरण्यकशिपु को मारा, लेकिन उसके उपरांत भी भगवान क्रोध में थे। अब हिरण्यकशिपु का वध करने के बाद सब देवता लोग आ गए, ब्रह्मा, शंकर भी आये। तब नारद मुनि सब ने कहा कि "भाई भगवान नरसिंह अवतार लिए है उनकी स्तुति करे, अभिनंदन करें, उनका धन्यवाद करना चाहिए, उन्होंने इतना बड़ा काम किया, इस लिए आप सब जाये उनके पास।" देवताओं ने पहले ही मना कर दिया। देवताओं ने कहा कि "अभी तो भगवान नरसिंह बड़े क्रोध में है, हमसे उनका यह स्वरूप देखा नहीं जा रहा है। हम सब देवता उनके इस स्वरूप से भयभीत है। अतएव हम नहीं जाएगे।" तो कौन जाएगा? यह प्रश्न हुआ। तो सबने शंकर जी को कहा की महाराज आप जाइये, आप तो प्रलय करने वाले है। तब शंकर जी ने कहा "नहीं-नहीं मेरी हिम्मत नहीं है, मैं नहीं जा सकता" तब ब्रह्मा से कहा गया, "आप तो सृष्टि करता है, आपकी दुनिया हैं, आपके लिए ही तो आए हैं।" ब्रह्मा जी कहते हैं "वह सब तो ठीक है। लेकिन मैं तो नहीं जाऊंगा।" तो फिर सब ने परामर्श क… KEEP READING धर्म क्या है? धर्म के प्रकार? परधर्म व अपरधर्म क्या है?  धर्म का अर्थ होता है "धारण करना" या "धारण करने योग" वेदों में दो प्रकार के धर्मों का वर्णन हैं , १.परधर्म २.अपरधर्म।अपरधर्म अर्थात "वर्णाश्रम धर्म" वर्णा माने, "ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र", और आश्रम अर्थात, "ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास यह चार आश्रम हैं।"जैसे ब्राह्मण क्या करे क्या ना करे, उसके बारे में वेदों में बहुत कुछ विस्तार से लिखा है, जैसे ब्राह्मण ब्रह्मचर्य में क्या करे क्या ना करे, फिर गृहस्थ में क्या करे क्या न करे, वानप्रस्थ और संन्यास में क्या करे क्या न करे, वैसे ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए भी लिखा हैं। वेदों में वर्णाश्रम धर्म का बड़ालंबा -चौड़ा उलेख है, अगर इस जन्म में कोई पढ़े और पालन करे, तो वो असंभव बात है। परधर्म का अर्थ संक्षेप में होता है भगवान (श्री कृष्ण, राम, संकर आदि) की भक्ति। लेकिन परधर्म में कामना नहीं होती, यानि "हेतु के बिना" अर्थात अहेतुकी जो भक्ति होती है, वो परधर्म है। तोपरधर्म मतलब भगवान(श्री कृष्ण, राम, संकर आदि) उनका नाम, उनका रूप, उनकी लीला, उनके गुण,उनके धाम,… KEEP READING भक्त प्रह्लाद कौन थे? इनके जन्म और जीवन की कथा।  भक्त प्रह्लाद को कौन नहीं जानता, प्रह्लाद निश्काम भक्तों की श्रेणी में आते है। निश्काम का अर्थ है - जो अपने सुख के लिए कार्य न करे, वो केवल अपने स्वामी के सुख के लिए कार्य करे। विज्ञान कहता है की माँ के गर्भ में स्थापित शिशु के बुद्धी विकास में माँ का पूर्ण योगदान होता है, माँ के जैसे विचार होंगे शिशु का विकास उसी स्तर में होता है। नारद जी का भक्त प्रह्लाद को इंद्र से बचाना जैसा की कथा में बताया गया है कि महान दैत्य हिरण्यकशिपु (जिसे हिरण्यकश्यप से भी जाना जाता है) की पत्नी कयाधु जब गर्भावस्था में थीं। तब हिरण्यकशिपु घोर तप कर रहा था। जिसके डर से देवराज इंद्र डरने लगा, उसने कयाधु को मारने के लिए उसको बंधक बना के इंद्रलोक ले जा रहा था, तभी देवऋषी नारद जी ने इंद्र को देखा। नारद जी ने कहा - "हे देवराज इंद्र! आप यह क्या करने जा रहे है? आपको पता है! कयाधु अभी गर्भावस्था में है और उसके गर्भा में एक महान भक्त है। आप उसकी हत्या करेंगे?" नारद जी के ऐसे वचन सुनकर इंद्र डर गया, उसे नारद जी से कहा "छमा कर मुनिवर! मुझसे भूल हो गयी है।" नारद जी को कयाधु को भक्ति का उपदेश देना … KEEP READING माया क्या है? माया की परिभाषा और उसके प्रकार?  माया क्या है?रामचरितमानस बालकाण्ड ११६ "जासु सत्यता तें जड माया।" एक वाक्य में कहें तो माया जड़ है। जैसे एक कुल्हाड़ी। कुल्हाड़ी अपने आप कुछ नहीं कर सकती। वैसे ही माया अपने आप कुछ नहीं कर सकती। जब लकड़हारा उस कुल्हाड़ी को उठा कर तने पर प्रहार करता है। तब वह कुल्हाड़ी लकड़ी काटती है। वैसे ही माया भगवान की शक्ति पाकर काम करती हैं। माया की परिभाषा भागवत २.९.३३ "जिसकी प्रतीति मेरे (भगवान के) बिना न हो। जिसकी प्रतीति मेरे (भगवान के) बिना हो।" थोड़ी टेढ़ी परिभाषा है, हम समझाने का प्रयत्न करेंगे। 'जिसकी प्रतीति मेरे बिना हो।' इस का अर्थ है, माया वहीं होगी जहां भगवान नहीं होंगे। चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.३१ 'श्री कृष्ण सूर्य सम, माया होवै अंधकार, जहाँ सूर्य ताहा नहीं माया अंधकार" इस को एक उदाहरण से समझिए, सूर्य की किरण जल (तालाब) में पड़ती हैं। तो ये किरण कहाँ है? जल में हैं। तो जल में सूर्य नहीं है। सूर्य ऊपर है और किरण निचे है। यह किरण ऊपर नहीं जा सकती क्योंकि वो नीचे है। लेकिन सूर्य के बिना किरण तालाब पर नहीं पड़ सकती। किरण का अपना अस्तित्व पृथक (अलग) नह… KEEP READING क्यों रामचरितमानस में नहीं लिखा राम की बहन शान्ता का प्रकरण?  क्यों तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में नहीं लिखा राम की बहन शान्ता का प्रकरण? यह प्रश्न हम लोग के मन में आता हैं। जिसके कारण हमारे मन में यह शंका होती है की रामचरितमानस सही है या वाल्मीकि की रामायण सही है? इस शंका का समाधान इस लेख में करने वाले है। राजा रोमपाद जिन्होंने शान्ता को दशरथ से गोद लिया था। शान्ता का विवाह उन्होंने ऋष्यश्रृंग (श्रृंगी ऋषि) के साथ किया था।ऋष्यश्रृंग (श्रृंगी ऋषि) के जन्म, जीवन, शान्ता से विवाह और राजा रोमपाद की कथा को वाल्मीकि जी ने अपने रामायण बालकाण्ड नवम: सर्ग - १.९.२ - २० में संछेप में और विस्तार से बालकाण्ड दस और ग्यारह सर्ग में लिखा है। इसी कथा में राम की बहन शान्ता का प्रकरण है, जिसमे सुमन्त्र जी दशरथ जी को बताते है कि कैसे राजा रोमपाद की वजह से उनके वर्षा नहीं होनेके कारण उन्होंने ऋष्यश्रृंग (श्रृंगी ऋषि) को बुलाया और शान्ता का विवाह श्रृंगी ऋषि के साथ कर दिया। इसी प्रकरण में एक बार सुमन्त्र जी दशरथ जी से कहते है - "ऋष्यशृङ्गः तु जामाता पुत्रान् तव विधास्यति। १-९-१९" भावार्थ - इस तरह ऋष्यश्रृंग आपके (दशरथ के) जामाता (दामाद) हुए। वे ही आपके ल… KEEP READING क्या राम और कृष्ण एक ही हैं?  भगवान के अवतारों में भेद-भाव करना ये ❛नामापराध❜ हैं। और ❛नामापराध❜ से बड़ा कोई पाप नहीं हुआ करता। भगवान के जितने भी अवतार है उनमे भेद-भाव करना अपराध हैं। भगवान के किसी भी अवतार में भेद बुद्धि नहीं लगनी चाहिए और खास तोर से राम-कृष्ण अवतार में। और सभी अवतार में तो शरीर का अंतर हैं, देखने मे! जैसे नरसिंह अवतार, वराह अवतार, मत्स्य अवतार। लेकिन! राम कृष्ण में तो शरीर में भी भेद नहीं हैं। अध्यात्म रामायण में ब्रह्मा ने कहा था "मायातीतं माधवमाद्यं जगदािदं"हे राम तुम माया तित(माया से परे), मायाधीश हो और तुम माधव हो।ब्रह्मा माधव कह रहे है। अरे ब्रह्मा जी! आप की बुद्धि ख़राब है क्या? ब्रह्मा जी ये तो राघव है, माधव तो द्वापर में अवतार लेके आये थे। फिर ब्रह्मा बोले अध्यात्म रामायण "वन्दे रामं मरकतवर्णं"हे राम, मै आपको प्रणाम करता हूँ, जो मरकतवर्णं के आप हैं। मरकतवर्णं अर्थः मथुरा के धीश। अब सोचों मथुरा से क्या मतलब है राम का? राम तो मथुरा गये ही नहीं, रामाअवतार में। और ये भी सुनो अध्यात्म रामायण "वृन्दारण्ये वन्दितवृन्दारकवृन्दं" वृंदावन में रहने वाले मेरे राम। ध्… KEEP READING Terms Of Services Privacy Policy Disclaimer Copyright © 2016-18 Vedicaim.com All rights reserved  ✿वेद विज्ञान✤महापुरुष परिचय-✿जीव✤माया✿भगवान-✿ज्ञान काण्ड✤कर्म काण्ड✿भक्ति / उपासना काण्ड-✿गुरु✤कथा✿त्यौहार-✤संपर्क करें✿हमारा उद्देश्य   Vedic Aim [3/18, 1:49 PM] Vedant😊: ||   सच्चे साधू [ संत ]  की पहचान   || जिन संतों में निम्न चार विशेषताएँ हों , वे ही सच्चे संत कहलाने योग्य हैं :-  [ १ ]   त्याग -  स्वरूप से पदार्थों का त्याग |  जैसे संन्यासाश्रम में मान - बडाई , कंचन - कामिनी का त्याग |  [ २ ] संयम -  इन्द्रिय , मन अपने वश में रखना , इसका नाम संयम है |  [ ३ ]  वैराग्य -  वस्तुओं में जिसका राग नहीं है |  संयम तो सकामी योगी भी कर सकते हैं |  मन , इन्द्रियों का संयम किये बिना समाधि नहीं होती |  संयम का मतलब है वश में कर लेना |  इन्द्रियों को वश में कर लेना एक चीज है , विषयों से हटाना एक चीज है , उनमें राग का अभाव कर देना एक चीज है |  भगवान ने गीता [  २ / ५९ ] में कहा है  "  इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करनेवाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं , परन्तु उनमें रहनेवाली आसक्ति निवृत नहीं होती |  इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है |  [ ४ ]  उपरामता -  जैसे कसाई की दूकान की तरफ हमारी वृति जाती ही नहीं , इस प्रकार की वृति का नाम ' उपरामता ' है |  हम स्वरूप से विषयों का त्याग कर देते हैं |  वह त्याग है किन्तु विषयों में राग होने के कारण उपरामता नहीं है |  जिसके साथ राग का अभाव होकर स्वत:  उपरति होती है ,  वह उपरामता है |  राग का अभाव हो वह उपरति है , तथा वैराग्ययुक्त उपरति हो , वही उपरामता है |   जिसके भीतर वैराग्य - उपरति दोनों हैं , त्याग उसके अंतर्गत है |  संयम होने से त्याग सहज हो सकता है , परन्तु उपरति दूसरी चीज है |  त्याग से ऊंचा दर्जा संयम का है , इनसे ऊंचा दर्जा वैराग्य का है |  वैराग्य से ऊंचा उपरति का है |  चारों ही उत्तम हैं |  गीता [ २ / ५८ ]  में बताया गया है की जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है , तब उसकी बुद्धि स्थिर है , ऐसा समझना चाहिए |  स्थिर बुद्धि वाले पुरुष में संयम और वैराग्य दोनों ही हैं |  ये दो चीजें साथ में हो जायेंगी तो उपरति चाहे जब कर लो |  जैसे आँख खुली है , तो बंद करने में क्या देर लगेगी ?  वैसे ही जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं , उसके लिए संयम क्या कठिन है ?  स्वरूप से त्याग मामूली चीज है , पर वैराग्य मूल्यवान है |  साधक  तो चाहता है की त्याग हो , पर वस्तुवें बार - बार वापस मन में आ जाती हैं ;  पर मिथ्याचारी तो दंभी है |  मन और इन्द्रियों में बाहरी संयम है , पर उपरामता और वैराग्य नहीं है , दो अलग - अलग चीजें हैं |  वैराग्य - उपरामता से ध्यान ऊंची चीज है |  उपरामता और वैराग्य हो जाने पर ध्यान सुगमता से लग सकता है |  वैराग्य तो हृदय से पैदा हो तब हो |  हर समय वैराग्य और उपरामता में रहे |  किसी समय सत्संग की बात हो गई , फिर अपना ध्यान करे |  सोने की , खाने की , पीने की , किसी बात की परवाह नहीं रखे , चाहे जैसा होता रहे |  साथ ही वैराग्य और उपरामता हो , हर समय वृतियां संसार से उपराम रहें , इस प्रकार समय बितावे तो गृहस्थ में ही संन्यास है |  आजकल वानप्रस्थ आश्रम तो एक प्रकार से लुप्त है |  गृहस्थ होते हुए ही सन्यास ले ले , यानी गृहस्थ होता हुआ भी विरक्त रहे |  जिस आश्रम में हो उसी में अपना काम करे |  साधू होकर असाधु हो जाय तो खराब है |  साधू न होवे तो कोई बात नहीं है |  गीता [ २ / ६५ ]  में बताया गया है की "  अंत:करण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दू:खों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्तवाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भली - भाँती स्थिर हो जाती है |"  यहाँ चित्त की प्रसन्नता प्रसाद है |  यज्ञ से बचा हुआ है वह प्रसाद है |  खूब समझ लेना चाहिए - इन्द्रियाँ अग्नि हैं , विषय आहुति है |  जो मनुष्य इस प्रकार का यज्ञ करते हैं , इन्द्रियों के साथ विषयों का संयोग तो होता है , परन्तु रागरहित होता है , वह इन्द्रियों में विषयों की आहुति है |  पाँचों इन्द्रियों का संयोग तो है , किन्तु उनमें राग नहीं है |  इस प्रकार जिसकी इन्द्रियाँ रागरहित विचरती है , वह रागरहित विचरना प्रसाद को प्राप्त होना है |  ऐसा जो वैराग्य है , वह यज्ञ है |  गीता [ २ / ६४ ] में यज्ञ का विधि - विधान  भी  बता दिया |  ||           इत्ती      || [3/18, 1:50 PM] Vedant😊:   पूर्ण संत की पहचान By: Poonam Dhindsa                                पूर्ण संत की पहचान   वेदों, गीता जी आदि पवित्रा सद्ग्रंथों में प्रमाण मिलता है कि जब-जब धर्म कीहानि होती है व अधर्म की वृद्धि होती है तथा वर्तमान के नकली संत, महंत व गुरुओंद्वारा भक्ति मार्ग के स्वरूप को बिगाड़ दिया गया होता है। फिर परमेश्वर स्वयं आकरया अपने परमज्ञानी संत को भेज कर सच्चे ज्ञान के द्वारा धर्म की पुनः स्थापना करताहै। वह भक्ति मार्ग को शास्त्रों के अनुसार समझाता है। उसकी पहचान होती है किवर्तमान के धर्म गुरु उसके विरोध में खड़े होकर राजा व प्रजा को गुमराह करके उसकेऊपर अत्याचार करवाते हैं। कबीर साहेब जी अपनी वाणी में कहते हैं कि- जो मम संत सत उपदेश दृढ़ावै (बतावै), वाके संग सभि राड़ बढ़ावै। या सब संत महंतन कीकरणी, धर्मदास मैं तो से वर्णी।। कबीर साहेब अपने प्रिय शिष्य धर्मदास को इस वाणी में ये समझा रहे हैं कि जो मेरासंत सत भक्ति मार्ग को बताएगा उसके साथ सभी संत व महंत झगड़ा करेंगे। ये उसकी पहचानहोगी। दूसरी पहचान वह संत सभी धर्म ग्रंथों का पूर्ण जानकार होता है। प्रमाण सतगुरुगरीबदास जी की वाणी में - ”सतगुरु के लक्षण कहूं, मधूरे बैन विनोद। चार वेद षट शास्त्रा, कहै अठारा बोध।।“ सतगुरु गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में पूर्ण संत की पहचान बता रहे हैं कि वहचारों वेदों, छः शास्त्रों, अठारह पुराणों आदि सभी ग्रंथों का पूर्ण जानकार होगाअर्थात् उनका सार निकाल कर बताएगा। यजुर्वेद अध्याय 19 मंत्रा 25ए 26 में लिखा हैकि वेदों के अधूरे वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों व एक चैथाई श्लोकों को पुराकरके विस्तार से बताएगा व तीन समय की पूजा बताएगा। सुबह पूर्ण परमात्मा की पूजा, दोपहर को विश्व के देवताओं का सत्कार व संध्या आरती अलग से बताएगा वह जगत का उपकारकसंत होता है। यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्रा 25 सन्धिछेदः- अर्द्ध ऋचैः उक्थानाम् रूपम् पदैः आप्नोति निविदः। प्रणवैःशस्त्राणाम् रूपम् पयसा सोमः आप्यते।(25) अनुवादः- जो सन्त (अर्द्ध ऋचैः) वेदों के अर्द्ध वाक्यों अर्थात् सांकेतिकशब्दों को पूर्ण करके (निविदः) आपूत्र्ति करता है (पदैः) श्लोक के चैथे भागों कोअर्थात् आंशिक वाक्यों को (उक्थानम्) स्तोत्रों के (रूपम्) रूप में (आप्नोति)प्राप्त करता है अर्थात् आंशिक विवरण को पूर्ण रूप से समझता और समझाता है (शस्त्राणाम्) जैसे शस्त्रों को चलाना जानने वाला उन्हें (रूपम्) पूर्ण रूप सेप्रयोग करता है एैसे पूर्ण सन्त (प्रणवैः) औंकारों अर्थात् ओम्-तत्-सत् मन्त्रों कोपूर्ण रूप से समझ व समझा कर (पयसा) दध-पानी छानता है अर्थात् पानी रहित दूध जैसातत्व ज्ञान प्रदान करता है जिससे (सोमः) अमर पुरूष अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त करता है। वह पूर्ण सन्त वेद को जानने वाला कहा जाता है। भावार्थः-तत्वदर्शी सन्त वह होता है जो वेदों के सांकेतिक शब्दों को पूर्ण विस्तार से वर्णनकरता है जिससे पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति होती है वह वेद के जानने वाला कहा जाताहै। यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्रा 26 सन्धिछेद:- अश्विभ्याम् प्रातः सवनम् इन्द्रेण ऐन्द्रम् माध्यन्दिनम् वैश्वदैवम्सरस्वत्या तृतीयम् आप्तम् सवनम् (26) अनुवाद:- वह पूर्ण सन्त तीन समय की साधना बताता है। (अश्विभ्याम्) सूर्य केउदय-अस्त से बने एक दिन के आधार से (इन्द्रेण) प्रथम श्रेष्ठता से सर्व देवों केमालिक पूर्ण परमात्मा की (प्रातः सवनम्) पूजा तो प्रातः काल करने को कहता है जो(ऐन्द्रम्) पूर्ण परमात्मा के लिए होती है। दूसरी (माध्यन्दिनम्) दिन के मध्य मेंकरने को कहता है जो (वैश्वदैवम्) सर्व देवताओं के सत्कार के सम्बधित (सरस्वत्या)अमृतवाणी द्वारा साधना करने को कहता है तथा (तृतीयम्) तीसरी (सवनम्) पूजा शाम को (आप्तम्) प्राप्त करता है अर्थात् जो तीनों समय की साधना भिन्न-2 करने को कहता हैवह जगत् का उपकारक सन्त है। भावार्थः- जिस पूर्ण सन्त के विषय में मन्त्रा 25 में कहा है वह दिन में 3 तीन बार (प्रातः दिन के मध्य-तथा शाम को) साधना करने को कहता है। सुबह तो पूर्ण परमात्मा की पूजा मध्याõ को सर्व देवताओं को सत्कार के लिए तथा शाम को संध्या आरती आदि को अमृत वाणी के द्वारा करने को कहता है वह सर्व संसार का उपकार करने वाला होता है। यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्रा 30 सन्धिछेदः- व्रतेन दीक्षाम् आप्नोति दीक्षया आप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणाश्रद्धाम् आप्नोति श्रद्धया सत्यम् आप्यते (30) अनुवादः- (व्रतेन) दुव्र्यसनों का व्रत रखने से अर्थात् भांग, शराब, मांस तथातम्बाखु आदि के सेवन से संयम रखने वाला साधक (दीक्षाम्) पूर्ण सन्त से दीक्षा को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् वह पूर्ण सन्त का शिष्य बनता है (दीक्षया) पूर्णसन्त दीक्षित शिष्य से (दक्षिणाम्) दान को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् सन्तउसी से दक्षिणा लेता है जो उस से नाम ले लेता है। इसी प्रकार विधिवत् (दक्षिणा)गुरूदेव द्वारा बताए अनुसार जो दान-दक्षिणा से धर्म करता है उस से (श्रद्धाम्)श्रद्धा को (आप्नोति) प्राप्त होता है (श्रद्धया) श्रद्धा से भक्ति करने से(सत्यम्) सदा रहने वाले सुख व परमात्मा अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते)प्राप्त होता है। भावार्थ:- पूर्ण सन्त उसी व्यक्ति को शिष्य बनाता है जो सदाचारी रहे। अभक्ष्य पदार्थों का सेवन व नशीली वस्तुओं का सेवन न करने का आश्वासन देता है। पूर्ण सन्त उसी से दान ग्रहण करता है जो उसका शिष्य बन जाता है फिर गुरू देव से दीक्षा प्राप्त करके फिर दान दक्षिणा करता है उस से श्रद्धा बढ़ती है। श्रद्धा से सत्य भक्ति करने से अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति होती है अर्थात् पूर्ण मोक्ष होता है। पूर्ण संत भिक्षा व चंदा मांगता नहीं फिरेगा। कबीर, गुरू बिन माला फेरते गुरू बिन देते दान। गुरू बिन दोनों निष्फल है पूछोवेद पुराण।। तीसरी पहचान तीन प्रकार के मंत्रों (नाम) को तीन बार में उपदेश करेगा जिसकावर्णन कबीर सागर ग्रंथ पृष्ठ नं. 265 बोध सागर में मिलता है व गीता जी के अध्यायनं. 17 श्लोक 23 व सामवेद संख्या नं. 822 में मिलता है। कबीर सागर में अमर मूल बोध सागर पृष्ठ 265 - तब कबीर अस कहेवे लीन्हा, ज्ञानभेद सकल कह दीन्हा।। धर्मदास मैं कहो बिचारी, जिहिते निबहै सबसंसारी।। प्रथमहि शिष्य होय जो आई, ता कहैं पान देहु तुम भाई।।1।। जब देखहुतुम दृढ़ता ज्ञाना, ता कहैं कहु शब्द प्रवाना।।2।। शब्द मांहि जब निश्चय आवै, ताकहैं ज्ञान अगाध सुनावै।।3।। दोबारा फिर समझाया है - बालक सम जाकर है ज्ञाना। तासों कहहू वचन प्रवाना।।1।। जा को सूक्ष्म ज्ञान हैभाई। ता को स्मरन देहु लखाई।।2।। ज्ञान गम्य जा को पुनि होई। सार शब्द जा को कहसोई।।3।। जा को होए दिव्य ज्ञान परवेशा, ताको कहे तत्व ज्ञान उपदेशा।।4।। उपरोक्त वाणी से स्पष्ट है कि कड़िहार गुरु (पूर्ण संत) तीन स्थिति में सार नामतक प्रदान करता है तथा चैथी स्थिति में सार शब्द प्रदान करना होता है। क्योंकि कबीरसागर में तो प्रमाण बाद में देखा था परंतु उपदेश विधि पहले ही पूज्य दादा गुरुदेवतथा परमेश्वर कबीर साहेब जी ने हमारे पूज्य गुरुदेव को प्रदान कर दी थी जो हमारे कोशुरु से ही तीन बार में नामदान की दीक्षा करते आ रहे हैं। हमारे गुरुदेव रामपाल जी महाराज प्रथम बार में श्री गणेश जी, श्री ब्रह्मासावित्री जी, श्री लक्ष्मी विष्णु जी, श्री शंकर पार्वती जी व माता शेरांवाली कानाम जाप देते हैं। जिनका वास हमारे मानव शरीर में बने चक्रों में होता है। मूलाधारचक्र में श्री गणेश जी का वास, स्वाद चक्र में ब्रह्मा सावित्री जी का वास, नाभिचक्र में लक्ष्मी विष्णु जी का वास, हृदय चक्र में शंकर पार्वती जी का वास, कंठचक्र में शेरांवाली माता का वास है और इन सब देवी-देवताओं के आदि अनादि नाम मंत्राहोते हैं जिनका वर्तमान में गुरुओं को ज्ञान नहीं है। इन मंत्रों के जाप से येपांचों चक्र खुल जाते हैं। इन चक्रों के खुलने के बाद मानव भक्ति करने के लायक बनताहै। सतगुरु गरीबदास जी अपनी वाणी में प्रमाण देते हैं कि:-- पांच नाम गुझ गायत्री आत्म तत्व जगाओ। ¬ किलियं हरियम् श्रीयम् सोहं ध्याओ।। भावार्थ: पांच नाम जो गुझ गायत्राी है। इनका जाप करक े आत्मा का े जागृत करा।ेदूसरी बार में दो अक्षर का जाप देते हैं जिनमें एक ओम् और दूसरा तत् (जो कि गुप्तहै उपदेशी को बताया जाता है) जिनको स्वांस के साथ जाप किया जाता है। तीसरी बार में सारनाम देते हैं जो कि पूर्ण रूप से गुप्त है। तीन बार में नाम जाप का प्रमाण:-- अध्याय 17 का श्लोक 23 ¬, तत्, सत्, इति, निर्देशः, ब्रह्मणः, त्रिविधः, स्मृतः, ब्राह्मणाः, तेन, वेदाः, च, यज्ञाः, च, विहिताः, पुरा।।23।। अनुवाद: (¬) ब्रह्म का(तत्) यह सांकेतिक मंत्रा परब्रह्म का (सत्) पूर्णब्रह्मका (इति) ऐसे यह (त्रिविधः) तीन प्रकार के (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा के नाम सुमरणका (निर्देशः) संकेत (स्मृतः) कहा है (च) और (पुरा) सृष्टिके आदिकालमें (ब्राह्मणाः) विद्वानों ने बताया कि (तेन) उसी पूर्ण परमात्मा ने (वेदाः) वेद (च)तथा (यज्ञाः) यज्ञादि (विहिताः) रचे। संख्या न. 822 सामवेद उतार्चिक अध्याय 3 खण्ड न. 5 श्लोक न. 8(संत रामपाल दासद्वारा भाषा-भाष्य)ः- मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविर्नृभिर्यतः परि कोशां असिष्यदत्। त्रितस्य नामजनयन्मधु क्षरन्निन्द्रस्य वायुं सख्याय वर्धयन्।।8।। मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविर् नृभिः यतः परि कोशान् असिष्यदत् त्रि तस्य नामजनयन् मधु क्षरनः न इन्द्रस्य वायुम् सख्याय वर्धयन्। शब्दार्थ (पूव्र्यः) सनातन अर्थात् अविनाशी (कविर नृभिः) कबीर परमेश्वर मानव रूपधारण करके अर्थात् गुरु रूप में प्रकट होकर (मनीषिभिः) हृदय से चाहने वाले श्रद्धासे भक्ति करने वाले भक्तात्मा को (त्रि) तीन (नाम) मन्त्रा अर्थात् नाम उपदेश देकर (पवते) पवित्रा करके (जनयन्) जन्म व (क्षरनः) मृत्यु से (न) रहित करता है तथा (तस्य) उसके (वायुम्) प्राण अर्थात् जीवन-स्वांसों को जो संस्कारवश गिनती के डालेहुए होते हैं को (कोशान्) अपने भण्डार से (सख्याय) मित्राता के आधार से(परि) पूर्णरूप से (वर्धयन्) बढ़ाता है। (यतः) जिस कारण से (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (मधु)वास्तविक आनन्द को (असिष्यदत्) अपने आशीर्वाद प्रसाद से प्राप्त करवाता है। भावार्थ:- इस मन्त्रा में स्पष्ट किया है कि पूर्ण परमात्मा कविर अर्थात् कबीर मानव शरीर में गुरु रूप में प्रकट होकर प्रभु प्रेमीयों को तीन नाम का जाप देकर सत्य भक्ति कराता है तथा उस मित्रा भक्त को पवित्राकरके अपने आर्शिवाद से पूर्ण परमात्मा प्राप्ति करके पूर्ण सुख प्राप्त कराता है। साधक की आयु बढाता है। यही प्रमाण गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में है कि ओम्-तत्-सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविद्य स्मृतः भावार्थ है कि पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने का ¬ (1) तत् (2) सत् (3) यह मन्त्रा जाप स्मरण करने का निर्देश है। इस नाम को तत्वदर्शी संत से प्राप्त करो। तत्वदर्शी संत के विषय में गीता अध्याय 4 श्लोक नं. 34 में कहा है तथा गीता अध्याय नं. 15 श्लोक नं. 1 व 4 में तत्वदर्शी सन्त की पहचान बताई तथा कहा है कि तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान जानकर उसके पश्चात् उस परमपद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए। जहां जाने के पश्चात् साधक लौट कर संसार में नहीं आते अर्थात् पूर्ण मुक्त हो जाते हैं। उसी पूर्ण परमात्मा से संसार की रचना हुई है। विशेष:- उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि पवित्रा चारों वेद भी साक्षी हैं किपूर्ण परमात्मा ही पूजा के योग्य है, उसका वास्तविक नाम कविर्देव(कबीर परमेश्वर) हैतथा तीन मंत्रा के नाम का जाप करने से ही पूर्ण मोक्ष होता है। धर्मदास जी को तो परमश्ेवर कबीर साहेब जी ने सार शब्द देने से मना कर दिया थातथा कहा था कि यदि सार शब्द किसी काल के दूत के हाथ पड़ गया तो बिचली पीढ़ी वाले हंसपार नहीं हो पाऐंगे। जैसे कलयुग के प्रारम्भ में प्रथम पीढ़ी वाले भक्त अशिक्षित थेतथा कलयुग के अंत में अंतिम पीढ़ी वाले भक्त कृतघनी हो जाऐंगे तथा अब वर्तमान मेंसन् 1947 से भारत स्वतंत्रा होने के पश्चात् बिचली पीढ़ी प्रारम्भ हुई है। सन् 1951 में सतगुरु रामपाल जी महाराज को भेजा है। अब सर्व भक्तजन शिक्षित हैं। शास्त्राअपने पास विद्यमान हैं। अब यह सत मार्ग सत साधना पूरे संसार में फैलेगा तथा नकलीगुरु तथा संत, महंत छुपते फिरेंगे। इसलिए कबीर सागर, जीव धर्म बोध, बोध सागर, पृष्ठ 1937 पर:- धर्मदास तोहि लाख दुहाई, सार शब्द कहीं बाहर नहीं जाई। सार शब्द बाहर जो परिहै, बिचली पीढ़ी हंस नहीं तरि है। पुस्तक “धनी धर्मदास जीवन दर्शन एवं वंश परिचय” के पृष्ठ 46 पर लिखा है किग्यारहवीं पीढ़ी को गद्दी नहीं मिली। जिस महंत जी का नाम “धीरज नाम साहब” कवर्धा मेंरहता था। उसके बाद बारहवां महंत उग्र नाम साहेब ने दामाखेड़ा में गद्दी की स्थापनाकी तथा स्वयं ही महंत बन बैठा। इससे पहले दामाखेड़ा में गद्दी नहीं थी। इससे स्पष्टहै कि पूरे विश्व में सतगुरु रामपाल जी महाराज के अतिरिक्त वास्तविक भक्ति मार्गनहीं है। सर्व प्रभु प्रेमी श्रद्धालुओं से प्रार्थना है कि प्रभु का भेजा हुआ दासजान कर अपना कल्याण करवाऐं। यह संसार समझदा नाहीं, कहन्दा श्याम दोपहरे नूं। गरीबदास यह वक्त जात है, रोवोगेइस पहरे नूं।। बारहवें पंथ (गरीबदास पंथ बारहवां पंथ लिखा है कबीर सागर, कबीरचरित्रा बोध पृष्ठ 1870 पर) के विषय में कबीर सागर कबीर वाणी पृष्ठ नं. 136.137 परवाणी लिखी है कि:- सम्वत् सत्रासै पचहत्तर होई, तादिन प्रेम प्रकटें जग सोई। साखी हमारी ले जीवसमझावै, असंख्य जन्म ठौर नहीं पावै। बारवें पंथ प्रगट ह्नै बानी, शब्द हमारे कीनिर्णय ठानी। अस्थिर घर का मरम न पावैं, ये बारा पंथ हमही को ध्यावैं। बारवेंपंथ हम ही चलि आवैं, सब पंथ मेटि एक ही पंथ चलावें। धर्मदास मोरी लाख दोहाई, सारशब्द बाहर नहीं जाई। सार शब्द बाहर जो परही, बिचली पीढी हंस नहींतरहीं। तेतिस अर्ब ज्ञान हम भाखा, सार शब्द गुप्त हम राखा। मूल ज्ञान तब तकछुपाई, जब लग द्वादश पंथ मिट जाई। यहां पर साहेब कबीर जी अपने शिष्य धर्मदास जी को समझाते हैं कि संवत् 1775 मेंमेरे ज्ञान का प्रचार होगा जो बारहवां पंथ होगा। बारहवें पंथ में हमारी वाणी प्रकटहोगी लेकिन सही भक्ति मार्ग नहीं होगा। फिर बारहवें पंथ में हम ही चल कर आएगें औरसभी पंथ मिटा कर केवल एक पंथ चलाएंगे। लेकिन धर्मदास तुझे लाख सौगंध है कि यह सारशब्द किसी कुपात्रा को मत दे देना नहीं तो बिचली पीढ़ी के हंस पार नहीं हो सकेंगे।इसलिए जब तक बारह पंथ मिटा कर एक पंथ नहीं चलेगा तब तक मैं यह मूल ज्ञान छिपा कररखूंगा। संत गरीबदास जी महाराज की वाणी में नाम का महत्व:-- नाम अभैपद ऊंचा संतों, नाम अभैपद ऊंचा। राम दुहाई साच कहत हूं, सतगुरु सेपूछा।। कहै कबीर पुरुष बरियामं, गरीबदास एक नौका नामं।। नाम निरंजन नीकासंतों, नाम निरंजन नीका। तीर्थ व्रत थोथरे लागे, जप तप संजम फीका।। गज तुरकपालकी अर्था, नाम बिना सब दानं व्यर्था। कबीर, नाम गहे सो संत सुजाना, नाम बिनाजग उरझाना। ताहि ना जाने ये संसारा, नाम बिना सब जम के चारा।। संत नानक साहेब जी की वाणी में नाम का महत्व:-- नानक नाम चढ़दी कलां, तेरे भाणे सबदा भला। नानक दुःखिया सब संसार, सुखिया सोयनाम आधार।। जाप ताप ज्ञान सब ध्यान, षट शास्त्रा सिमरत व्याखान। जोग अभ्यासकर्म धर्म सब क्रिया, सगल त्यागवण मध्य फिरिया। अनेक प्रकार किए बहुत यत्ना, दानपूण्य होमै बहु रत्ना। शीश कटाये होमै कर राति, व्रत नेम करे बहुभांति।। नहीं तुल्य राम नाम विचार, नानक गुरुमुख नाम जपिये एक बार।। (परम पूज्य कबीर साहेब(कविर् देव) की अमृतवाणी) संतो शब्दई शब्द बखाना।।टेक।।  शब्द फांस फँसा सब कोई शब्द नहीं पहचाना।।  प्रथमहिं ब्रह्म स्वं इच्छा ते पाँचै शब्द उचारा। सोहं, निरंजन, रंरकार, शक्तिऔर ओंकारा।।  पाँचै तत्व प्रकृति तीनों गुण उपजाया। लोक द्वीप चारों खान चैरासीलख बनाया।।  शब्दइ काल कलंदर कहिये शब्दइ भर्म भुलाया।। पाँच शब्द की आशा मेंसर्वस मूल गंवाया।।  शब्दइ ब्रह्म प्रकाश मेंट के बैठे मूंदे द्वारा। शब्दइनिरगुण शब्दइ सरगुण शब्दइ वेद पुकारा।।  शुद्ध ब्रह्म काया के भीतर बैठ करेस्थाना। ज्ञानी योगी पंडित औ सिद्ध शब्द में उरझाना।।  पाँचइ शब्द पाँच हैंमुद्रा काया बीच ठिकाना। जो जिहसंक आराधन करता सो तिहि करत बखाना।।  शब्द निरंजनचांचरी मुद्रा है नैनन के माँही। ताको जाने गोरख योगी महा तेज तप माँही।।  शब्दओंकार भूचरी मुद्रा त्रिकुटी है स्थाना। व्यास देव ताहि पहिचाना चांद सूर्य तिहिजाना।।  सोहं शब्द अगोचरी मुद्रा भंवर गुफा स्थाना। शुकदेव मुनी ताहि पहिचानासुन अनहद को काना।।  शब्द रंरकार खेचरी मुद्रा दसवें द्वार ठिकाना। ब्रह्माविष्णु महेश आदि लो रंरकार पहिचाना।। शक्ति शब्द ध्यान उनमुनी मुद्रा बसे आकाशसनेही। झिलमिल झिलमिल जोत दिखावे जाने जनक विदेही।।  पाँच शब्द पाँच हैं मुद्रासो निश्चय कर जाना। आगे पुरुष पुरान निःअक्षर तिनकी खबर न जाना।।  नौ नाथ चैरासीसिद्धि लो पाँच शब्द में अटके। मुद्रा साध रहे घट भीतर फिर ओंधे मख्ुा लटके।।  पाँच शब्द पाँच है मुद्रा लोक द्वीप यमजाला। कहैं कबीर अक्षर के आगे निःअक्षरका उजियाला।। जैसा कि इस शब्द ‘‘संतो शब्दई शब्द बखाना‘‘ में लिखा है कि सभी संत जन शब्द (नाम) की महिमा सुनाते हैं। पूर्णब्रह्म कबीर साहिब जी ने बताया है कि शब्द सतपुरुषका भी है जो कि सतपुरुष का प्रतीक है व ज्योति निरंजन(काल) का प्रतीक भी शब्द हीहै। जैसे शब्द ज्योति निरंजन यह चांचरी मुद्रा को प्राप्त करवाता है इसको गोरख योगीने बहुत अधिक तप करके प्राप्त किया जो कि आम(साधारण) व्यक्ति के बस की बात नहीं हैऔर फिर गोरख नाथ काल तक ही साधना करके सिद्ध बन गए। मुक्त नहीं हो पाए। जब कबीरसाहिब ने सत्यनाम तथा सार नाम दिया तब काल से छुटकारा गोरख नाथ जी का हुआ। इसीलिएज्योति निरंजन नाम का जाप करने वाले काल जाल से नहीं बच सकते अर्थात् सत्यलोक नहींजा सकते। शब्द ओंकार(ओ3म) का जाप करने से भूंचरी मुद्रा की स्थिति में साधक आ जाताहे। जो कि वेद व्यास ने साधना की और काल जाल में ही रहा। सोहं नाम के जाप से अगोचरीमुद्रा की स्थिति हो जाती है और काल के लोक में बनी भंवर गुफा में पहुँच जाते हैं।जिसकी साधना सुखदेव ऋषि ने की और केवल श्री विष्णु जी के लोक में बने स्वर्ग तकपहुँचा। शब्द रंरकार खैचरी मुद्रा दसमें द्वार(सुष्मणा) तक पहुँच जाते हंै। ब्रह्माविष्णु महेश तीनों ने ररंकार को ही सत्य मान कर काल के जाल में उलझे रहे।शक्ति(श्रीयम्) शब्द ये उनमनी मुद्रा को प्राप्त करवा देता है जिसको राजा जनक नेप्राप्त किया परन्तु मुक्ति नहीं हुई। कई संतों ने पाँच नामों में शक्ति की जगहसत्यनाम जोड़ दिया है जो कि सत्यनाम कोई जाप नहीं है। ये तो सच्चे नाम की तरफ ईशाराहै जैसे सत्यलोक को सच्च खण्ड भी कहते हैं एैसे ही सत्यनाम व सच्चा नाम है। केवलसत्यनाम-सत्यनाम जाप करने का नहीं है। इन पाँच शब्दों की साधना करने वाले नौ नाथतथा चैरासी सिद्ध भी इन्हीं तक सीमित रहे तथा शरीर में (घट में) ही धुनि सुनकरआनन्द लेते रहे। वास्तविक सत्यलोक स्थान तो शरीर (पिण्ड) से (अण्ड) ब्रह्मण्ड सेपार है, इसलिए फिर माता के गर्भ में आए (उलटे लटके) अर्थात् जन्म-मृत्यु का कष्टसमाप्त नहीं हुआ। जो भी उपलब्धि (घट) शरीर में होगी वह तो काल (ब्रह्म) तक की हीहै, क्योंकि पूर्ण परमात्मा का निज स्थान (सत्यलोक) तथा उसी के शरीर का प्रकाश तोपरब्रह्म आदि से भी अधिक तथा बहुत आगे(दूर) है। उसके लिए तो पूर्ण संत ही पूरीसाधना बताएगा जो पाँच नामों (शब्दों) से भिन्न है। संतों सतगुरु मोहे भावै, जो नैनन अलख लखावै।। ढोलत ढिगै ना बोलत बिसरै, सत उपदेशदृढ़ावै।। आंख ना मूंदै कान ना रूदैं ना अनहद उरझावै। प्राण पूंज क्रियाओं सेन्यारा, सहज समाधी बतावै।। घट रामायण के रचयिता आदरणीय तुलसीदास साहेब जी हाथ रस वाले स्वयं कहते हैं कि:- (घट रामायण प्रथम भाग पृष्ठ नं. 27)। पाँचों नाम काल के जानौ तब दानी मन संका आनौ।  सुरति निरत लै लोक सिधाऊँ, आदिनाम ले काल गिराऊँ।  सतनाम ले जीव उबारी, अस चल जाऊँ पुरुष दरबारी।। कबीर, कोटि नाम संसार में , इनसे मुक्ति न हो।  सार नाम मुक्ति का दाता, वाकोजाने न कोए।। गुरु नानक जी की वाणी में तीन नाम का प्रमाण:-- पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै। एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणीनिज घर जावै।। जै पंडित तु पढ़िया, बिना दउ अखर दउ नामा। परणवत नानक एक लंघाए, जे कर सच समावा। वेद कतेब सिमरित सब सांसत, इन पढ़ि मुक्ति न होई।। एक अक्षरजो गुरुमुख जापै, तिस की निरमल होई।। भावार्थ: गुरु नानक जी महाराज अपनी वाणी द्वारा समाझाना चाहते हैं कि पूरा सतगुरु वही है जो दो अक्षर के जाप के बारे में जानता है। जिनमें एक काल व माया के बंधन से छुड़वाता है और दूसरा परमात्मा को दिखाता है और तीसरा जो एक अक्षर है वो परमात्मा से मिलाता है। संत गरीबदास जी महाराज की अमृत वाणी में स्वांस के नाम काप्रमाण:-- गरीब, स्वांसा पारस भेद हमारा, जो खोजे सो उतरे पारा। स्वांसा पारा आदिनिशानी, जो खोजे सो होए दरबानी। स्वांसा ही में सार पद, पद में स्वांसा सार। दमदेही का खोज करो, आवागमन निवार।। गरीब, स्वांस सुरति के मध्य है, न्यारा कदेनहीं होय। सतगुरु साक्षी भूत कूं, राखो सुरति समोय।। गरीब, चार पदार्थ उर मेंजोवै, सुरति निरति मन पवन समोवै। सुरति निरति मन पवन पदार्थ(नाम), करो इक्तरयार। द्वादस अन्दर समोय ले, दिल अंदर दीदार। कबीर, कहता हूं कहि जात हूं, कहूं बजा कर ढोल। स्वांस जो खाली जात है, तीन लोकका मोल।। कबीर, माला स्वांस उस्वांस की, फेरेंगे निज दास। चैरासी भ्रमे नहीं, कटैं कर्मकी फांस।। गुरु नानक देव जी की वाणी में प्रमाण:-- चहऊं का संग, चहऊं का मीत, जामै चारि हटावै नित। मन पवन को राखै बंद, लहेत्रिकुटी त्रिवैणी संध।। अखण्ड मण्डल में सुन्न समाना, मन पवन सच्च खण्डटिकाना।। पूर्ण सतगुरु वही है जो तीन बार में नाम दे और स्वांस की क्रिया के साथ सुमिरणका तरीका बताए। तभी जीव का मोक्ष संभव है। जैसे परमात्मा सत्य है। ठीक उसी प्रकारपरमात्मा का साक्षात्कार व मोक्ष प्राप्त करने का तरीका भी आदि अनादि व सत्य है जोकभी नहीं बदलता है। गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में कहते हैं: भक्ति बीज पलटै नहीं, युग जांही असंख। सांई सिर पर राखियो, चैरासी नहींशंक।। घीसा आए एको देश से, उतरे एको घाट। समझों का मार्ग एक है, मूर्ख बारहबाट।। कबीर भक्ति बीज पलटै नहीं, आन पड़ै बहु झोल। जै कंचन बिष्टा परै, घटै न ताकामोल।। बहुत से महापुरुष सच्चे नामों के बारे में नहीं जानते। वे मनमुखी नाम देते हैंजिससे न सुख होता है और न ही मुक्ति होती है। कोई कहता है तप, हवन, यज्ञ आदि करो वकुछ महापुरुष आंख, कान और मुंह बंद करके अन्दर ध्यान लगाने की बात कहते हैं जो कियह उनकी मनमुखी साधना का प्रतीक है। जबकि कबीर साहेब, संत गरीबदास जी महाराज, गुरुनानक देव जी आदि परम संतों ने सारी क्रियाओं को मना करके केवल एक नाम जाप करने कोही कहा है। एक नैसत्रो दमस नामक भविष्य वक्ता था। जिसकी सर्व भविष्य वाणियां सत्य हो रहीहैं जो लगभग चार सौ वर्ष पूर्व लिखी व बोली गई थी। उसने कहा है कि सन् 2006 में एकहिन्दू संत प्रकट होगा अर्थात् संसार में उसकी चर्चा होगी। वह संत न तो मुसलमानहोगा, न वह इसाई होगा वह केवल हिन्दू ही होगा। उस द्वारा बताया गया भक्ति मार्गसर्व से भिन्न तथा तथ्यों पर आधारित होगा। उसको ज्ञान में कोई पराजित नहीं करसकेगा। सन् 2006 में उस संत की आयु 50 व 60 वर्ष के बीच होगी। (संत रामपाल जीमहाराज का जन्म 8 सितम्बर सन् 1951 को हुआ। जुलाई सन् 2006 में संत जी की आयु ठीक 55 वर्ष बनती है जो भविष्यवाणी अनुसार सही है।) उस हिन्दू संत द्वारा बताए गए ज्ञानको पूरा संसार स्वीकार करेगा। उस हिन्दू संत की अध्यक्षता में सर्व संसार में भारतवर्ष का शासन होगा तथा उस संत की आज्ञा से सर्व कार्य होंगे। उसकी महिमा आसमानों सेऊपर होंगी। नैसत्रो दमस द्वारा बताया सांकेतिक संत रामपाल जी महाराज हैं जो सन् 2006 में विख्यात हुए हैं। भले ही अनजानों ने बुराई करके प्रसिद्ध किया है परंतुसंत में कोई दोष नहीं है। उपरोक्त लक्षण जो बताए हैं ये सभी तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज में विद्यमानहैं।                                  “कौन तथा कैसा है कुल का मालिक?”   जिन-जिन पुण्यात्माओं ने परमात्मा को प्राप्त किया उन्होंने बताया कि कुल कामालिक एक है। वह मानव सदृश तेजोमय शरीर युक्त है। जिसके एक रोम कूप का प्रकाश करोड़सूर्य तथा करोड़ चन्द्रमाओं की रोशनी से भी अधिक है। उसी ने नाना रूप बनाए हैं।परमेश्वर का वास्तविक नाम अपनी-अपनी भाषाओं में कविर्देव (वेदों में संस्कृत भाषामें) तथा हक्का कबीर (श्री गुरु ग्रन्थ साहेब में पृष्ठ नं. 721 पर क्षेत्राीय भाषामें) तथा सत् कबीर (श्रीधर्मदास जी की वाणी में क्षेत्राीय भाषा में) तथा बन्दी छोड़कबीर (सन्त गरीबदास जी के सद्ग्रन्थ में क्षेत्रीय भाषा में) कबीरा, कबीरन् व खबीराया खबीरन् (श्री र्कुआन शरीफ़ सूरत फुर्कानि नं. 25, आयत नं. 19, 21, 52, 58, 59 मेंक्षेत्राीय अरबी भाषा में)। इसी पूर्ण परमात्मा के उपमात्मक नाम अनामी पुरुष, अगमपुरुष, अलख पुरुष, सतपुरुष, अकाल मूर्ति, शब्द स्वरूपी राम, पूर्ण ब्रह्म, परमअक्षर ब्रह्म आदि हैं, जैसे देश के प्रधानमंत्राी का वास्तविक शरीर का नाम कुछ औरहोता है तथा उपमात्मक नाम प्रधान मंत्री जी, प्राइम मिनिस्टर जी अलग होता है। जैसेभारत देश का प्रधानमंत्री जी अपने पास गृह विभाग रख लेता है। जब वह उस विभाग केदस्त्तावेजों पर हस्त्ताक्षर करता है तो वहाँ गृहमंत्री की भूमिका करता है तथा अपनापद भी गृहमन्त्री लिखता है, हस्त्ताक्षर वही होते हैं। इसी प्रकार ईश्वरीय सत्ता कोसमझना है। जिन सन्तों व ऋषियों को परमात्मा प्राप्ति नहीं हुई, उन्होंने अपना अन्तिम अनुभवबताया है कि प्रभु का केवल प्रकाश देखा जा सकता है, प्रभु दिखाई नहीं देता क्योंकिउसका कोई आकार नहीं है तथा शरीर में धुनि सुनना आदि प्रभु भक्ति की उपलब्धि है। आओ विचार करें - जैसे कोई अंधा अन्य अंधों में अपने आपको आँखों वाला सिद्ध किएबैठा हो और कहता है कि रात्राी में चन्द्रमा की रोशनी बहुत सुहावनी मन भावनी होतीहै, मैं देखता हूँ। अन्य अन्धे शिष्यों ने पूछा कि गुरु जी चन्द्रमा कैसा होता है।चतुर अन्धे ने उत्तर दिया कि चन्द्रमा तो निराकार है वह दिखाई थोड़े ही दे सकता है।कोई कहे सूर्य निराकार है वह दिखाई नहीं देता रवि स्वप्रकाशित है इसलिए उसका केवलप्रकाश दिखाई देता है। गुरु जी के बताये अनुसार शिष्य 2) घण्टे सुबह तथा 2) घण्टेशाम आकाश में देखते हैं। परन्तु कुछ दिखाई नहीं देता। स्वयं ही विचार विमर्श करतेहैं कि गुरु जी तो सही कह रहे हैं, हमारी साधना पूरी 2) घण्टे सुबह शाम नहीं होपाती। इसलिए हमंे सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश दिखाई नहीं दे रहा। चतुर गुरु जी कीव्याख्या पर आधारित होकर उस चतुर अन्धे(ज्ञान नेत्रा हीन) की व्याख्या के प्रचारककरोड़ों अंधे (ज्ञाननेत्रा हीन) हो चुके हैं। फिर उन्हें आँखों वाला (तत्वदर्शीसन्त) बताए कि सूर्य आकार में है और उसी से प्रकाश निकल रहा है। सूर्य बिना प्रकाशकिसका देखा? इसी प्रकार चन्द्रमा से प्रकाश निकल रहा है नेत्राहीनों! चन्द्रमा केबिना रात्राी में प्रकाश कैसे हो सकता है? जैसे कोई कहे कि ट्यूब लाईट देखी, फिरकोई पूछे कि ट्यूब कैसी होती है जिसकी आपने रोशनी देखी है? उत्तर मिले कि ट्यूब तोनिराकार होने के कारण दिख