Monday, 19 March 2018

पूर्ण सच्चे संत की पहचान

[3/14, 8:25 PM] Vedant😊: Vedic Aim वेद, उपनिषद, गीता, भागवत, वेदांत और अन्य ग्रंथों का सार एवम सरल रूप ज्ञान सबको प्रदान करना कविता संख्या के साथ, हमारा परम उद्देश्य हैं। × Subscribe! to our YouTube channel प्रमाण क्या है और कितने प्रकार के होते हैं?  भारतीय दर्शन में प्रमाण उसे कहते हैं जो सत्य ज्ञान करने में सहायता करे। अर्थात् वह बात जिससे किसी दूसरी बात का यथार्थ (सच्चाई) का ज्ञान हो। 'प्रमाण' न्याय का मुख्य विषय है। जिसके द्वारा यथार्थ (सच्चाई) का ज्ञान हो उसे प्रमाण कहते हैं। प्रमाण चार प्रकार के होते हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्दप्रमाण। प्रत्यक्ष गौतम ने न्यायसूत्र में कहा है कि इंद्रियों के साथ संबंध होने से किसी वस्तु का जो ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष है। अर्थात इंद्रिय के द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता है, वही प्रत्यक्ष है। यह प्रमाण सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। क्योंकि यह प्रत्यक्ष (हमारे सामने) है। जैसे, हमें सामने आगे आग जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके गर्मी का अनुभव करें तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि 'आग जल रही है'। इस उद्धरण में पदार्थ (आग) और इंद्रिय (आँख और त्वचा) का प्रत्यक्ष संबंध हुआ इसलिए हमें प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। यह प्रत्यक्ष ज्ञान ६ प्रकार का होता है - १. चाक्षुष प्रत्यक्ष:- जो किसी पदार्थ के सामने आने पर होता है। जैसे, यह आग है। २. श्रावण प्रत्यक्ष, जैसे, आँखें बंद रहने पर भी घंटे का शब्द सुनाई पड़ने पर यह ज्ञान होता है कि घंटा बजा। ३. स्पर्श प्रत्यक्ष:- जैसे ठंडा पानी को हाथ में लेने से ज्ञान होता है कि वह बहुत ठंढी है। ४. रसायन प्रत्यक्ष:- जैसे, फल खाने पर जान पड़ता है कि वह मीठा है अथवा खट्टा है। ५. घ्राणज प्रत्यक्ष:- जैसे, फूल सूँघने पर पता लगता है कि वह सुगंधित है। ६. मानस प्रत्यक्ष:- जैसे, सुख, दुःख, दया आदि का अनुभव। अनुमान प्रमाण प्रत्यक्ष द्वारा जिस वस्तु के अस्तित्व का ज्ञान नहीं हो रहा हैं, उसका ज्ञान किसी ऐसी वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर, जो उस अप्रत्यक्ष वस्तु के अस्तित्व का संकेत इस ज्ञान पर पहुँचने की प्रक्रिया का नाम अनुमान है।अनुमान प्रमाण में पाँच खंड हैं जो 'अवयव' कहलाते हैं। प्रतिरा, हेतु, उदाहरण, उपनय (जो वाक्य बतलाए हुए चिह्न या लिंग का होना प्रकट करे) और निगमन। इस को उदाहरण से समाजिये, यहाँ पर आग है (प्रतिज्ञा)। क्योकि यहाँ धूआँ है (हेतु)। जहाँ जहाँ धूआँ रहता है वहाँ वहाँ आग रहती है, 'जैसे रसोई घर में' (उदारहण)। यहाँ पर धूआँ है (उपनय)। इसीलिये यहाँ पर आग है (निगमन)। साधारणतः इन पाँच अवयवों से युक्त वाक्य को न्याय कहते हैं। अतएव इन पाँच अवयवों से युक्त प्रमाण को अनुमान प्रमाण कहते हैं। उपमान प्रमाण किसी जानी हुई वस्तु के समरूपता से न जानी हुई वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वही उपमान है। सरल शब्दों में कहें तो, किसी अज्ञात वस्तु को किसी ज्ञात वस्तु की समानता के आधार पर किसी नाम से जानना उपमान कहलाता है। जैसे किसी को मालूम है कि नीलगाय, गाय जैसी होती है; किसी के मुँह से यह सुनकर जब हम जंगल में नीलगाय देखते हैं तब चट हमें ज्ञान हो जाता है कि 'यह नीलगाय है'। इससे प्रतीत हुआ कि किसी वस्तु का उसके नाम के साथ संबंध ही उपमिति ज्ञान का विषय है। उपमान को कई नए दार्शनिकों ने इस प्रकार अनुमान कै अंतर्गत किया है। अर्थात उपमान प्रमाण, अनुमान प्रमाण के अंतर्गत है। शब्द प्रमाण शब्दप्रमाण वो प्रमाण होता है, जिसके शब्द पर कोंई संदेह (शक) न हो। शब्दप्रमाण को विस्तार में जानने के लिए पढ़े ❛शब्द प्रमाण क्या है और उसके प्रकार?❜ ज्ञान काण्ड You Might Also Like सबसे बड़े भगवान कौन है, राम कृष्ण शंकर या विष्णु?  हमने आपको इस लेख में प्रमाणों के द्वारा बताया कि राम और कृष्ण एक ही हैं और यह वाक्य ब्रह्मा के हैं कि "राम और कृष्ण एक हैं।" ब्रह्मा से बड़ा बुद्धिमान कौन होगा। अस्तु, राम और कृष्ण एक है यह बात हमने आपको बताया। फिर हमने अपने दूसरे लेख में यह बताया कि कैसे भगवान के सभी अवतार एक हैं इस लेख का सारांश यह है कि ब्रह्मा शंकर विष्णु सीता राधा लक्ष्मी सरस्वती यह सब एक है और लीला में भगवान अपने आपको दो तीन चार पांच रूप में बनाए हुए हैं। लेकिन वास्तव में यह लोग एक हैं। फिर हमने आपको बताया कि क्या हिन्दू एक भगवान में मानते हैं इस लेख में हमने आप को बताया कि ब्रह्म परमात्मा और भगवान यह ३ शब्दों का वेदों शास्त्रों पुराणों में प्रयोग किया जाता है और यह तीनों एक ही है। यह सभी लेखों का सारांश यह है कि भगवान के सभी अवतार एक ही हैं और उनमे कोई भी अंतर हैं। अतः इनमें भेद बुद्धि नहीं लाना चाहिए कि यह भगवान बड़े हैं और यह भगवान छोटे हैं। यह बात हमें नहीं सोचना चाहिए। क्यों? इसलिए क्योंकि नारद जी ने कहा नारद भक्ति सूत्र ४१"भक्त और भगवान में अंतर नहीं हुआ करता।" तो जब भक्त और भगवान मे… KEEP READING प्रह्लाद ने असुर बालकों को महत्वपूर्ण उपदेश दिया।  एक दिन गुरु पुत्र अपने संसारी गृहस्ती कार्य से बहार चले गए। तब प्रह्लाद ने अपने दैत्य सहपाठियों को बुलाया। सब असुर बालक थे, राक्षसों के बच्चे पढ़ते थे ६-७ वर्ष के थे। सबको बुलाया और उपदेश देने लगे। वो उपदेश्य बड़ा महत्वूपर्ण है। पहला श्लोक है उपदेश का भागवत ७.६.१ कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान्भागवतानिह।  दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम्॥ भावार्थ - बच्चों कुमारावस्‍था में ही भागवत धर्म परायण हो जाना चाहिए (भगवान का बन जाना चाहिए)। क्‍योंकि अगली अवस्‍था मिले न मिले। जवानी की अवस्था को न देखो, वृद्धा अवस्था को मत परखो। क्यों? इसलिए क्योकि यह मानव जन्म देव दुर्लभ है। यह मानव देह कब छिन जाये इसका किसी को पता नहीं। क्या पता तुम्हे जवानी की अवस्था मिले न मिले। इसलिए अगली आयु की प्रतिछा न करो। धर्म २ प्रकार के होते है एक तो भागवत धर्म और दूसरा माइक (माया का) धर्म। भागवत धर्म को स्वभावक धर्म, परधर्म, गुणातीत धर्म, दिब्य धर्म, आध्यात्मिक धर्म कहते है। और माइक (माया का) धर्म को शारीरक धर्म, अपरधर्म, आगंतुक धर्म, त्रिगुणात्मक धर्म अनेक नाम है। धर्म के बारे में जानने के लिए पढ़े धर्म क्या है? ध… KEEP READING नरसिंह भगवान और प्रह्लाद के बीच ज्ञान की बात।  हमने आपको हिरण्यकशिपु या हिरण्यकश्यप कौन था? - नरसिंह कथा के लेख में विस्तार से कथा बताया। भगवान नरसिंह ने हिरण्यकशिपु को मारा, लेकिन उसके उपरांत भी भगवान क्रोध में थे। अब हिरण्यकशिपु का वध करने के बाद सब देवता लोग आ गए, ब्रह्मा, शंकर भी आये। तब नारद मुनि सब ने कहा कि "भाई भगवान नरसिंह अवतार लिए है उनकी स्तुति करे, अभिनंदन करें, उनका धन्यवाद करना चाहिए, उन्होंने इतना बड़ा काम किया, इस लिए आप सब जाये उनके पास।" देवताओं ने पहले ही मना कर दिया। देवताओं ने कहा कि "अभी तो भगवान नरसिंह बड़े क्रोध में है, हमसे उनका यह स्वरूप देखा नहीं जा रहा है। हम सब देवता उनके इस स्वरूप से भयभीत है। अतएव हम नहीं जाएगे।" तो कौन जाएगा? यह प्रश्न हुआ। तो सबने शंकर जी को कहा की महाराज आप जाइये, आप तो प्रलय करने वाले है। तब शंकर जी ने कहा "नहीं-नहीं मेरी हिम्मत नहीं है, मैं नहीं जा सकता" तब ब्रह्मा से कहा गया, "आप तो सृष्टि करता है, आपकी दुनिया हैं, आपके लिए ही तो आए हैं।" ब्रह्मा जी कहते हैं "वह सब तो ठीक है। लेकिन मैं तो नहीं जाऊंगा।" तो फिर सब ने परामर्श क… KEEP READING धर्म क्या है? धर्म के प्रकार? परधर्म व अपरधर्म क्या है?  धर्म का अर्थ होता है "धारण करना" या "धारण करने योग" वेदों में दो प्रकार के धर्मों का वर्णन हैं , १.परधर्म २.अपरधर्म।अपरधर्म अर्थात "वर्णाश्रम धर्म" वर्णा माने, "ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र", और आश्रम अर्थात, "ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास यह चार आश्रम हैं।"जैसे ब्राह्मण क्या करे क्या ना करे, उसके बारे में वेदों में बहुत कुछ विस्तार से लिखा है, जैसे ब्राह्मण ब्रह्मचर्य में क्या करे क्या ना करे, फिर गृहस्थ में क्या करे क्या न करे, वानप्रस्थ और संन्यास में क्या करे क्या न करे, वैसे ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए भी लिखा हैं। वेदों में वर्णाश्रम धर्म का बड़ालंबा -चौड़ा उलेख है, अगर इस जन्म में कोई पढ़े और पालन करे, तो वो असंभव बात है। परधर्म का अर्थ संक्षेप में होता है भगवान (श्री कृष्ण, राम, संकर आदि) की भक्ति। लेकिन परधर्म में कामना नहीं होती, यानि "हेतु के बिना" अर्थात अहेतुकी जो भक्ति होती है, वो परधर्म है। तोपरधर्म मतलब भगवान(श्री कृष्ण, राम, संकर आदि) उनका नाम, उनका रूप, उनकी लीला, उनके गुण,उनके धाम,… KEEP READING भक्त प्रह्लाद कौन थे? इनके जन्म और जीवन की कथा।  भक्त प्रह्लाद को कौन नहीं जानता, प्रह्लाद निश्काम भक्तों की श्रेणी में आते है। निश्काम का अर्थ है - जो अपने सुख के लिए कार्य न करे, वो केवल अपने स्वामी के सुख के लिए कार्य करे। विज्ञान कहता है की माँ के गर्भ में स्थापित शिशु के बुद्धी विकास में माँ का पूर्ण योगदान होता है, माँ के जैसे विचार होंगे शिशु का विकास उसी स्तर में होता है। नारद जी का भक्त प्रह्लाद को इंद्र से बचाना जैसा की कथा में बताया गया है कि महान दैत्य हिरण्यकशिपु (जिसे हिरण्यकश्यप से भी जाना जाता है) की पत्नी कयाधु जब गर्भावस्था में थीं। तब हिरण्यकशिपु घोर तप कर रहा था। जिसके डर से देवराज इंद्र डरने लगा, उसने कयाधु को मारने के लिए उसको बंधक बना के इंद्रलोक ले जा रहा था, तभी देवऋषी नारद जी ने इंद्र को देखा। नारद जी ने कहा - "हे देवराज इंद्र! आप यह क्या करने जा रहे है? आपको पता है! कयाधु अभी गर्भावस्था में है और उसके गर्भा में एक महान भक्त है। आप उसकी हत्या करेंगे?" नारद जी के ऐसे वचन सुनकर इंद्र डर गया, उसे नारद जी से कहा "छमा कर मुनिवर! मुझसे भूल हो गयी है।" नारद जी को कयाधु को भक्ति का उपदेश देना … KEEP READING माया क्या है? माया की परिभाषा और उसके प्रकार?  माया क्या है?रामचरितमानस बालकाण्ड ११६ "जासु सत्यता तें जड माया।" एक वाक्य में कहें तो माया जड़ है। जैसे एक कुल्हाड़ी। कुल्हाड़ी अपने आप कुछ नहीं कर सकती। वैसे ही माया अपने आप कुछ नहीं कर सकती। जब लकड़हारा उस कुल्हाड़ी को उठा कर तने पर प्रहार करता है। तब वह कुल्हाड़ी लकड़ी काटती है। वैसे ही माया भगवान की शक्ति पाकर काम करती हैं। माया की परिभाषा भागवत २.९.३३ "जिसकी प्रतीति मेरे (भगवान के) बिना न हो। जिसकी प्रतीति मेरे (भगवान के) बिना हो।" थोड़ी टेढ़ी परिभाषा है, हम समझाने का प्रयत्न करेंगे। 'जिसकी प्रतीति मेरे बिना हो।' इस का अर्थ है, माया वहीं होगी जहां भगवान नहीं होंगे। चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.३१ 'श्री कृष्ण सूर्य सम, माया होवै अंधकार, जहाँ सूर्य ताहा नहीं माया अंधकार" इस को एक उदाहरण से समझिए, सूर्य की किरण जल (तालाब) में पड़ती हैं। तो ये किरण कहाँ है? जल में हैं। तो जल में सूर्य नहीं है। सूर्य ऊपर है और किरण निचे है। यह किरण ऊपर नहीं जा सकती क्योंकि वो नीचे है। लेकिन सूर्य के बिना किरण तालाब पर नहीं पड़ सकती। किरण का अपना अस्तित्व पृथक (अलग) नह… KEEP READING क्यों रामचरितमानस में नहीं लिखा राम की बहन शान्ता का प्रकरण?  क्यों तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में नहीं लिखा राम की बहन शान्ता का प्रकरण? यह प्रश्न हम लोग के मन में आता हैं। जिसके कारण हमारे मन में यह शंका होती है की रामचरितमानस सही है या वाल्मीकि की रामायण सही है? इस शंका का समाधान इस लेख में करने वाले है। राजा रोमपाद जिन्होंने शान्ता को दशरथ से गोद लिया था। शान्ता का विवाह उन्होंने ऋष्यश्रृंग (श्रृंगी ऋषि) के साथ किया था।ऋष्यश्रृंग (श्रृंगी ऋषि) के जन्म, जीवन, शान्ता से विवाह और राजा रोमपाद की कथा को वाल्मीकि जी ने अपने रामायण बालकाण्ड नवम: सर्ग - १.९.२ - २० में संछेप में और विस्तार से बालकाण्ड दस और ग्यारह सर्ग में लिखा है। इसी कथा में राम की बहन शान्ता का प्रकरण है, जिसमे सुमन्त्र जी दशरथ जी को बताते है कि कैसे राजा रोमपाद की वजह से उनके वर्षा नहीं होनेके कारण उन्होंने ऋष्यश्रृंग (श्रृंगी ऋषि) को बुलाया और शान्ता का विवाह श्रृंगी ऋषि के साथ कर दिया। इसी प्रकरण में एक बार सुमन्त्र जी दशरथ जी से कहते है - "ऋष्यशृङ्गः तु जामाता पुत्रान् तव विधास्यति। १-९-१९" भावार्थ - इस तरह ऋष्यश्रृंग आपके (दशरथ के) जामाता (दामाद) हुए। वे ही आपके ल… KEEP READING क्या राम और कृष्ण एक ही हैं?  भगवान के अवतारों में भेद-भाव करना ये ❛नामापराध❜ हैं। और ❛नामापराध❜ से बड़ा कोई पाप नहीं हुआ करता। भगवान के जितने भी अवतार है उनमे भेद-भाव करना अपराध हैं। भगवान के किसी भी अवतार में भेद बुद्धि नहीं लगनी चाहिए और खास तोर से राम-कृष्ण अवतार में। और सभी अवतार में तो शरीर का अंतर हैं, देखने मे! जैसे नरसिंह अवतार, वराह अवतार, मत्स्य अवतार। लेकिन! राम कृष्ण में तो शरीर में भी भेद नहीं हैं। अध्यात्म रामायण में ब्रह्मा ने कहा था "मायातीतं माधवमाद्यं जगदािदं"हे राम तुम माया तित(माया से परे), मायाधीश हो और तुम माधव हो।ब्रह्मा माधव कह रहे है। अरे ब्रह्मा जी! आप की बुद्धि ख़राब है क्या? ब्रह्मा जी ये तो राघव है, माधव तो द्वापर में अवतार लेके आये थे। फिर ब्रह्मा बोले अध्यात्म रामायण "वन्दे रामं मरकतवर्णं"हे राम, मै आपको प्रणाम करता हूँ, जो मरकतवर्णं के आप हैं। मरकतवर्णं अर्थः मथुरा के धीश। अब सोचों मथुरा से क्या मतलब है राम का? राम तो मथुरा गये ही नहीं, रामाअवतार में। और ये भी सुनो अध्यात्म रामायण "वृन्दारण्ये वन्दितवृन्दारकवृन्दं" वृंदावन में रहने वाले मेरे राम। ध्… KEEP READING Terms Of Services Privacy Policy Disclaimer Copyright © 2016-18 Vedicaim.com All rights reserved  ✿वेद विज्ञान✤महापुरुष परिचय-✿जीव✤माया✿भगवान-✿ज्ञान काण्ड✤कर्म काण्ड✿भक्ति / उपासना काण्ड-✿गुरु✤कथा✿त्यौहार-✤संपर्क करें✿हमारा उद्देश्य   Vedic Aim [3/18, 1:49 PM] Vedant😊: ||   सच्चे साधू [ संत ]  की पहचान   || जिन संतों में निम्न चार विशेषताएँ हों , वे ही सच्चे संत कहलाने योग्य हैं :-  [ १ ]   त्याग -  स्वरूप से पदार्थों का त्याग |  जैसे संन्यासाश्रम में मान - बडाई , कंचन - कामिनी का त्याग |  [ २ ] संयम -  इन्द्रिय , मन अपने वश में रखना , इसका नाम संयम है |  [ ३ ]  वैराग्य -  वस्तुओं में जिसका राग नहीं है |  संयम तो सकामी योगी भी कर सकते हैं |  मन , इन्द्रियों का संयम किये बिना समाधि नहीं होती |  संयम का मतलब है वश में कर लेना |  इन्द्रियों को वश में कर लेना एक चीज है , विषयों से हटाना एक चीज है , उनमें राग का अभाव कर देना एक चीज है |  भगवान ने गीता [  २ / ५९ ] में कहा है  "  इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करनेवाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं , परन्तु उनमें रहनेवाली आसक्ति निवृत नहीं होती |  इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है |  [ ४ ]  उपरामता -  जैसे कसाई की दूकान की तरफ हमारी वृति जाती ही नहीं , इस प्रकार की वृति का नाम ' उपरामता ' है |  हम स्वरूप से विषयों का त्याग कर देते हैं |  वह त्याग है किन्तु विषयों में राग होने के कारण उपरामता नहीं है |  जिसके साथ राग का अभाव होकर स्वत:  उपरति होती है ,  वह उपरामता है |  राग का अभाव हो वह उपरति है , तथा वैराग्ययुक्त उपरति हो , वही उपरामता है |   जिसके भीतर वैराग्य - उपरति दोनों हैं , त्याग उसके अंतर्गत है |  संयम होने से त्याग सहज हो सकता है , परन्तु उपरति दूसरी चीज है |  त्याग से ऊंचा दर्जा संयम का है , इनसे ऊंचा दर्जा वैराग्य का है |  वैराग्य से ऊंचा उपरति का है |  चारों ही उत्तम हैं |  गीता [ २ / ५८ ]  में बताया गया है की जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है , तब उसकी बुद्धि स्थिर है , ऐसा समझना चाहिए |  स्थिर बुद्धि वाले पुरुष में संयम और वैराग्य दोनों ही हैं |  ये दो चीजें साथ में हो जायेंगी तो उपरति चाहे जब कर लो |  जैसे आँख खुली है , तो बंद करने में क्या देर लगेगी ?  वैसे ही जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं , उसके लिए संयम क्या कठिन है ?  स्वरूप से त्याग मामूली चीज है , पर वैराग्य मूल्यवान है |  साधक  तो चाहता है की त्याग हो , पर वस्तुवें बार - बार वापस मन में आ जाती हैं ;  पर मिथ्याचारी तो दंभी है |  मन और इन्द्रियों में बाहरी संयम है , पर उपरामता और वैराग्य नहीं है , दो अलग - अलग चीजें हैं |  वैराग्य - उपरामता से ध्यान ऊंची चीज है |  उपरामता और वैराग्य हो जाने पर ध्यान सुगमता से लग सकता है |  वैराग्य तो हृदय से पैदा हो तब हो |  हर समय वैराग्य और उपरामता में रहे |  किसी समय सत्संग की बात हो गई , फिर अपना ध्यान करे |  सोने की , खाने की , पीने की , किसी बात की परवाह नहीं रखे , चाहे जैसा होता रहे |  साथ ही वैराग्य और उपरामता हो , हर समय वृतियां संसार से उपराम रहें , इस प्रकार समय बितावे तो गृहस्थ में ही संन्यास है |  आजकल वानप्रस्थ आश्रम तो एक प्रकार से लुप्त है |  गृहस्थ होते हुए ही सन्यास ले ले , यानी गृहस्थ होता हुआ भी विरक्त रहे |  जिस आश्रम में हो उसी में अपना काम करे |  साधू होकर असाधु हो जाय तो खराब है |  साधू न होवे तो कोई बात नहीं है |  गीता [ २ / ६५ ]  में बताया गया है की "  अंत:करण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दू:खों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्तवाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भली - भाँती स्थिर हो जाती है |"  यहाँ चित्त की प्रसन्नता प्रसाद है |  यज्ञ से बचा हुआ है वह प्रसाद है |  खूब समझ लेना चाहिए - इन्द्रियाँ अग्नि हैं , विषय आहुति है |  जो मनुष्य इस प्रकार का यज्ञ करते हैं , इन्द्रियों के साथ विषयों का संयोग तो होता है , परन्तु रागरहित होता है , वह इन्द्रियों में विषयों की आहुति है |  पाँचों इन्द्रियों का संयोग तो है , किन्तु उनमें राग नहीं है |  इस प्रकार जिसकी इन्द्रियाँ रागरहित विचरती है , वह रागरहित विचरना प्रसाद को प्राप्त होना है |  ऐसा जो वैराग्य है , वह यज्ञ है |  गीता [ २ / ६४ ] में यज्ञ का विधि - विधान  भी  बता दिया |  ||           इत्ती      || [3/18, 1:50 PM] Vedant😊:   पूर्ण संत की पहचान By: Poonam Dhindsa                                पूर्ण संत की पहचान   वेदों, गीता जी आदि पवित्रा सद्ग्रंथों में प्रमाण मिलता है कि जब-जब धर्म कीहानि होती है व अधर्म की वृद्धि होती है तथा वर्तमान के नकली संत, महंत व गुरुओंद्वारा भक्ति मार्ग के स्वरूप को बिगाड़ दिया गया होता है। फिर परमेश्वर स्वयं आकरया अपने परमज्ञानी संत को भेज कर सच्चे ज्ञान के द्वारा धर्म की पुनः स्थापना करताहै। वह भक्ति मार्ग को शास्त्रों के अनुसार समझाता है। उसकी पहचान होती है किवर्तमान के धर्म गुरु उसके विरोध में खड़े होकर राजा व प्रजा को गुमराह करके उसकेऊपर अत्याचार करवाते हैं। कबीर साहेब जी अपनी वाणी में कहते हैं कि- जो मम संत सत उपदेश दृढ़ावै (बतावै), वाके संग सभि राड़ बढ़ावै। या सब संत महंतन कीकरणी, धर्मदास मैं तो से वर्णी।। कबीर साहेब अपने प्रिय शिष्य धर्मदास को इस वाणी में ये समझा रहे हैं कि जो मेरासंत सत भक्ति मार्ग को बताएगा उसके साथ सभी संत व महंत झगड़ा करेंगे। ये उसकी पहचानहोगी। दूसरी पहचान वह संत सभी धर्म ग्रंथों का पूर्ण जानकार होता है। प्रमाण सतगुरुगरीबदास जी की वाणी में - ”सतगुरु के लक्षण कहूं, मधूरे बैन विनोद। चार वेद षट शास्त्रा, कहै अठारा बोध।।“ सतगुरु गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में पूर्ण संत की पहचान बता रहे हैं कि वहचारों वेदों, छः शास्त्रों, अठारह पुराणों आदि सभी ग्रंथों का पूर्ण जानकार होगाअर्थात् उनका सार निकाल कर बताएगा। यजुर्वेद अध्याय 19 मंत्रा 25ए 26 में लिखा हैकि वेदों के अधूरे वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों व एक चैथाई श्लोकों को पुराकरके विस्तार से बताएगा व तीन समय की पूजा बताएगा। सुबह पूर्ण परमात्मा की पूजा, दोपहर को विश्व के देवताओं का सत्कार व संध्या आरती अलग से बताएगा वह जगत का उपकारकसंत होता है। यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्रा 25 सन्धिछेदः- अर्द्ध ऋचैः उक्थानाम् रूपम् पदैः आप्नोति निविदः। प्रणवैःशस्त्राणाम् रूपम् पयसा सोमः आप्यते।(25) अनुवादः- जो सन्त (अर्द्ध ऋचैः) वेदों के अर्द्ध वाक्यों अर्थात् सांकेतिकशब्दों को पूर्ण करके (निविदः) आपूत्र्ति करता है (पदैः) श्लोक के चैथे भागों कोअर्थात् आंशिक वाक्यों को (उक्थानम्) स्तोत्रों के (रूपम्) रूप में (आप्नोति)प्राप्त करता है अर्थात् आंशिक विवरण को पूर्ण रूप से समझता और समझाता है (शस्त्राणाम्) जैसे शस्त्रों को चलाना जानने वाला उन्हें (रूपम्) पूर्ण रूप सेप्रयोग करता है एैसे पूर्ण सन्त (प्रणवैः) औंकारों अर्थात् ओम्-तत्-सत् मन्त्रों कोपूर्ण रूप से समझ व समझा कर (पयसा) दध-पानी छानता है अर्थात् पानी रहित दूध जैसातत्व ज्ञान प्रदान करता है जिससे (सोमः) अमर पुरूष अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त करता है। वह पूर्ण सन्त वेद को जानने वाला कहा जाता है। भावार्थः-तत्वदर्शी सन्त वह होता है जो वेदों के सांकेतिक शब्दों को पूर्ण विस्तार से वर्णनकरता है जिससे पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति होती है वह वेद के जानने वाला कहा जाताहै। यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्रा 26 सन्धिछेद:- अश्विभ्याम् प्रातः सवनम् इन्द्रेण ऐन्द्रम् माध्यन्दिनम् वैश्वदैवम्सरस्वत्या तृतीयम् आप्तम् सवनम् (26) अनुवाद:- वह पूर्ण सन्त तीन समय की साधना बताता है। (अश्विभ्याम्) सूर्य केउदय-अस्त से बने एक दिन के आधार से (इन्द्रेण) प्रथम श्रेष्ठता से सर्व देवों केमालिक पूर्ण परमात्मा की (प्रातः सवनम्) पूजा तो प्रातः काल करने को कहता है जो(ऐन्द्रम्) पूर्ण परमात्मा के लिए होती है। दूसरी (माध्यन्दिनम्) दिन के मध्य मेंकरने को कहता है जो (वैश्वदैवम्) सर्व देवताओं के सत्कार के सम्बधित (सरस्वत्या)अमृतवाणी द्वारा साधना करने को कहता है तथा (तृतीयम्) तीसरी (सवनम्) पूजा शाम को (आप्तम्) प्राप्त करता है अर्थात् जो तीनों समय की साधना भिन्न-2 करने को कहता हैवह जगत् का उपकारक सन्त है। भावार्थः- जिस पूर्ण सन्त के विषय में मन्त्रा 25 में कहा है वह दिन में 3 तीन बार (प्रातः दिन के मध्य-तथा शाम को) साधना करने को कहता है। सुबह तो पूर्ण परमात्मा की पूजा मध्याõ को सर्व देवताओं को सत्कार के लिए तथा शाम को संध्या आरती आदि को अमृत वाणी के द्वारा करने को कहता है वह सर्व संसार का उपकार करने वाला होता है। यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्रा 30 सन्धिछेदः- व्रतेन दीक्षाम् आप्नोति दीक्षया आप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणाश्रद्धाम् आप्नोति श्रद्धया सत्यम् आप्यते (30) अनुवादः- (व्रतेन) दुव्र्यसनों का व्रत रखने से अर्थात् भांग, शराब, मांस तथातम्बाखु आदि के सेवन से संयम रखने वाला साधक (दीक्षाम्) पूर्ण सन्त से दीक्षा को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् वह पूर्ण सन्त का शिष्य बनता है (दीक्षया) पूर्णसन्त दीक्षित शिष्य से (दक्षिणाम्) दान को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् सन्तउसी से दक्षिणा लेता है जो उस से नाम ले लेता है। इसी प्रकार विधिवत् (दक्षिणा)गुरूदेव द्वारा बताए अनुसार जो दान-दक्षिणा से धर्म करता है उस से (श्रद्धाम्)श्रद्धा को (आप्नोति) प्राप्त होता है (श्रद्धया) श्रद्धा से भक्ति करने से(सत्यम्) सदा रहने वाले सुख व परमात्मा अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते)प्राप्त होता है। भावार्थ:- पूर्ण सन्त उसी व्यक्ति को शिष्य बनाता है जो सदाचारी रहे। अभक्ष्य पदार्थों का सेवन व नशीली वस्तुओं का सेवन न करने का आश्वासन देता है। पूर्ण सन्त उसी से दान ग्रहण करता है जो उसका शिष्य बन जाता है फिर गुरू देव से दीक्षा प्राप्त करके फिर दान दक्षिणा करता है उस से श्रद्धा बढ़ती है। श्रद्धा से सत्य भक्ति करने से अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति होती है अर्थात् पूर्ण मोक्ष होता है। पूर्ण संत भिक्षा व चंदा मांगता नहीं फिरेगा। कबीर, गुरू बिन माला फेरते गुरू बिन देते दान। गुरू बिन दोनों निष्फल है पूछोवेद पुराण।। तीसरी पहचान तीन प्रकार के मंत्रों (नाम) को तीन बार में उपदेश करेगा जिसकावर्णन कबीर सागर ग्रंथ पृष्ठ नं. 265 बोध सागर में मिलता है व गीता जी के अध्यायनं. 17 श्लोक 23 व सामवेद संख्या नं. 822 में मिलता है। कबीर सागर में अमर मूल बोध सागर पृष्ठ 265 - तब कबीर अस कहेवे लीन्हा, ज्ञानभेद सकल कह दीन्हा।। धर्मदास मैं कहो बिचारी, जिहिते निबहै सबसंसारी।। प्रथमहि शिष्य होय जो आई, ता कहैं पान देहु तुम भाई।।1।। जब देखहुतुम दृढ़ता ज्ञाना, ता कहैं कहु शब्द प्रवाना।।2।। शब्द मांहि जब निश्चय आवै, ताकहैं ज्ञान अगाध सुनावै।।3।। दोबारा फिर समझाया है - बालक सम जाकर है ज्ञाना। तासों कहहू वचन प्रवाना।।1।। जा को सूक्ष्म ज्ञान हैभाई। ता को स्मरन देहु लखाई।।2।। ज्ञान गम्य जा को पुनि होई। सार शब्द जा को कहसोई।।3।। जा को होए दिव्य ज्ञान परवेशा, ताको कहे तत्व ज्ञान उपदेशा।।4।। उपरोक्त वाणी से स्पष्ट है कि कड़िहार गुरु (पूर्ण संत) तीन स्थिति में सार नामतक प्रदान करता है तथा चैथी स्थिति में सार शब्द प्रदान करना होता है। क्योंकि कबीरसागर में तो प्रमाण बाद में देखा था परंतु उपदेश विधि पहले ही पूज्य दादा गुरुदेवतथा परमेश्वर कबीर साहेब जी ने हमारे पूज्य गुरुदेव को प्रदान कर दी थी जो हमारे कोशुरु से ही तीन बार में नामदान की दीक्षा करते आ रहे हैं। हमारे गुरुदेव रामपाल जी महाराज प्रथम बार में श्री गणेश जी, श्री ब्रह्मासावित्री जी, श्री लक्ष्मी विष्णु जी, श्री शंकर पार्वती जी व माता शेरांवाली कानाम जाप देते हैं। जिनका वास हमारे मानव शरीर में बने चक्रों में होता है। मूलाधारचक्र में श्री गणेश जी का वास, स्वाद चक्र में ब्रह्मा सावित्री जी का वास, नाभिचक्र में लक्ष्मी विष्णु जी का वास, हृदय चक्र में शंकर पार्वती जी का वास, कंठचक्र में शेरांवाली माता का वास है और इन सब देवी-देवताओं के आदि अनादि नाम मंत्राहोते हैं जिनका वर्तमान में गुरुओं को ज्ञान नहीं है। इन मंत्रों के जाप से येपांचों चक्र खुल जाते हैं। इन चक्रों के खुलने के बाद मानव भक्ति करने के लायक बनताहै। सतगुरु गरीबदास जी अपनी वाणी में प्रमाण देते हैं कि:-- पांच नाम गुझ गायत्री आत्म तत्व जगाओ। ¬ किलियं हरियम् श्रीयम् सोहं ध्याओ।। भावार्थ: पांच नाम जो गुझ गायत्राी है। इनका जाप करक े आत्मा का े जागृत करा।ेदूसरी बार में दो अक्षर का जाप देते हैं जिनमें एक ओम् और दूसरा तत् (जो कि गुप्तहै उपदेशी को बताया जाता है) जिनको स्वांस के साथ जाप किया जाता है। तीसरी बार में सारनाम देते हैं जो कि पूर्ण रूप से गुप्त है। तीन बार में नाम जाप का प्रमाण:-- अध्याय 17 का श्लोक 23 ¬, तत्, सत्, इति, निर्देशः, ब्रह्मणः, त्रिविधः, स्मृतः, ब्राह्मणाः, तेन, वेदाः, च, यज्ञाः, च, विहिताः, पुरा।।23।। अनुवाद: (¬) ब्रह्म का(तत्) यह सांकेतिक मंत्रा परब्रह्म का (सत्) पूर्णब्रह्मका (इति) ऐसे यह (त्रिविधः) तीन प्रकार के (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा के नाम सुमरणका (निर्देशः) संकेत (स्मृतः) कहा है (च) और (पुरा) सृष्टिके आदिकालमें (ब्राह्मणाः) विद्वानों ने बताया कि (तेन) उसी पूर्ण परमात्मा ने (वेदाः) वेद (च)तथा (यज्ञाः) यज्ञादि (विहिताः) रचे। संख्या न. 822 सामवेद उतार्चिक अध्याय 3 खण्ड न. 5 श्लोक न. 8(संत रामपाल दासद्वारा भाषा-भाष्य)ः- मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविर्नृभिर्यतः परि कोशां असिष्यदत्। त्रितस्य नामजनयन्मधु क्षरन्निन्द्रस्य वायुं सख्याय वर्धयन्।।8।। मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविर् नृभिः यतः परि कोशान् असिष्यदत् त्रि तस्य नामजनयन् मधु क्षरनः न इन्द्रस्य वायुम् सख्याय वर्धयन्। शब्दार्थ (पूव्र्यः) सनातन अर्थात् अविनाशी (कविर नृभिः) कबीर परमेश्वर मानव रूपधारण करके अर्थात् गुरु रूप में प्रकट होकर (मनीषिभिः) हृदय से चाहने वाले श्रद्धासे भक्ति करने वाले भक्तात्मा को (त्रि) तीन (नाम) मन्त्रा अर्थात् नाम उपदेश देकर (पवते) पवित्रा करके (जनयन्) जन्म व (क्षरनः) मृत्यु से (न) रहित करता है तथा (तस्य) उसके (वायुम्) प्राण अर्थात् जीवन-स्वांसों को जो संस्कारवश गिनती के डालेहुए होते हैं को (कोशान्) अपने भण्डार से (सख्याय) मित्राता के आधार से(परि) पूर्णरूप से (वर्धयन्) बढ़ाता है। (यतः) जिस कारण से (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (मधु)वास्तविक आनन्द को (असिष्यदत्) अपने आशीर्वाद प्रसाद से प्राप्त करवाता है। भावार्थ:- इस मन्त्रा में स्पष्ट किया है कि पूर्ण परमात्मा कविर अर्थात् कबीर मानव शरीर में गुरु रूप में प्रकट होकर प्रभु प्रेमीयों को तीन नाम का जाप देकर सत्य भक्ति कराता है तथा उस मित्रा भक्त को पवित्राकरके अपने आर्शिवाद से पूर्ण परमात्मा प्राप्ति करके पूर्ण सुख प्राप्त कराता है। साधक की आयु बढाता है। यही प्रमाण गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में है कि ओम्-तत्-सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविद्य स्मृतः भावार्थ है कि पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने का ¬ (1) तत् (2) सत् (3) यह मन्त्रा जाप स्मरण करने का निर्देश है। इस नाम को तत्वदर्शी संत से प्राप्त करो। तत्वदर्शी संत के विषय में गीता अध्याय 4 श्लोक नं. 34 में कहा है तथा गीता अध्याय नं. 15 श्लोक नं. 1 व 4 में तत्वदर्शी सन्त की पहचान बताई तथा कहा है कि तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान जानकर उसके पश्चात् उस परमपद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए। जहां जाने के पश्चात् साधक लौट कर संसार में नहीं आते अर्थात् पूर्ण मुक्त हो जाते हैं। उसी पूर्ण परमात्मा से संसार की रचना हुई है। विशेष:- उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि पवित्रा चारों वेद भी साक्षी हैं किपूर्ण परमात्मा ही पूजा के योग्य है, उसका वास्तविक नाम कविर्देव(कबीर परमेश्वर) हैतथा तीन मंत्रा के नाम का जाप करने से ही पूर्ण मोक्ष होता है। धर्मदास जी को तो परमश्ेवर कबीर साहेब जी ने सार शब्द देने से मना कर दिया थातथा कहा था कि यदि सार शब्द किसी काल के दूत के हाथ पड़ गया तो बिचली पीढ़ी वाले हंसपार नहीं हो पाऐंगे। जैसे कलयुग के प्रारम्भ में प्रथम पीढ़ी वाले भक्त अशिक्षित थेतथा कलयुग के अंत में अंतिम पीढ़ी वाले भक्त कृतघनी हो जाऐंगे तथा अब वर्तमान मेंसन् 1947 से भारत स्वतंत्रा होने के पश्चात् बिचली पीढ़ी प्रारम्भ हुई है। सन् 1951 में सतगुरु रामपाल जी महाराज को भेजा है। अब सर्व भक्तजन शिक्षित हैं। शास्त्राअपने पास विद्यमान हैं। अब यह सत मार्ग सत साधना पूरे संसार में फैलेगा तथा नकलीगुरु तथा संत, महंत छुपते फिरेंगे। इसलिए कबीर सागर, जीव धर्म बोध, बोध सागर, पृष्ठ 1937 पर:- धर्मदास तोहि लाख दुहाई, सार शब्द कहीं बाहर नहीं जाई। सार शब्द बाहर जो परिहै, बिचली पीढ़ी हंस नहीं तरि है। पुस्तक “धनी धर्मदास जीवन दर्शन एवं वंश परिचय” के पृष्ठ 46 पर लिखा है किग्यारहवीं पीढ़ी को गद्दी नहीं मिली। जिस महंत जी का नाम “धीरज नाम साहब” कवर्धा मेंरहता था। उसके बाद बारहवां महंत उग्र नाम साहेब ने दामाखेड़ा में गद्दी की स्थापनाकी तथा स्वयं ही महंत बन बैठा। इससे पहले दामाखेड़ा में गद्दी नहीं थी। इससे स्पष्टहै कि पूरे विश्व में सतगुरु रामपाल जी महाराज के अतिरिक्त वास्तविक भक्ति मार्गनहीं है। सर्व प्रभु प्रेमी श्रद्धालुओं से प्रार्थना है कि प्रभु का भेजा हुआ दासजान कर अपना कल्याण करवाऐं। यह संसार समझदा नाहीं, कहन्दा श्याम दोपहरे नूं। गरीबदास यह वक्त जात है, रोवोगेइस पहरे नूं।। बारहवें पंथ (गरीबदास पंथ बारहवां पंथ लिखा है कबीर सागर, कबीरचरित्रा बोध पृष्ठ 1870 पर) के विषय में कबीर सागर कबीर वाणी पृष्ठ नं. 136.137 परवाणी लिखी है कि:- सम्वत् सत्रासै पचहत्तर होई, तादिन प्रेम प्रकटें जग सोई। साखी हमारी ले जीवसमझावै, असंख्य जन्म ठौर नहीं पावै। बारवें पंथ प्रगट ह्नै बानी, शब्द हमारे कीनिर्णय ठानी। अस्थिर घर का मरम न पावैं, ये बारा पंथ हमही को ध्यावैं। बारवेंपंथ हम ही चलि आवैं, सब पंथ मेटि एक ही पंथ चलावें। धर्मदास मोरी लाख दोहाई, सारशब्द बाहर नहीं जाई। सार शब्द बाहर जो परही, बिचली पीढी हंस नहींतरहीं। तेतिस अर्ब ज्ञान हम भाखा, सार शब्द गुप्त हम राखा। मूल ज्ञान तब तकछुपाई, जब लग द्वादश पंथ मिट जाई। यहां पर साहेब कबीर जी अपने शिष्य धर्मदास जी को समझाते हैं कि संवत् 1775 मेंमेरे ज्ञान का प्रचार होगा जो बारहवां पंथ होगा। बारहवें पंथ में हमारी वाणी प्रकटहोगी लेकिन सही भक्ति मार्ग नहीं होगा। फिर बारहवें पंथ में हम ही चल कर आएगें औरसभी पंथ मिटा कर केवल एक पंथ चलाएंगे। लेकिन धर्मदास तुझे लाख सौगंध है कि यह सारशब्द किसी कुपात्रा को मत दे देना नहीं तो बिचली पीढ़ी के हंस पार नहीं हो सकेंगे।इसलिए जब तक बारह पंथ मिटा कर एक पंथ नहीं चलेगा तब तक मैं यह मूल ज्ञान छिपा कररखूंगा। संत गरीबदास जी महाराज की वाणी में नाम का महत्व:-- नाम अभैपद ऊंचा संतों, नाम अभैपद ऊंचा। राम दुहाई साच कहत हूं, सतगुरु सेपूछा।। कहै कबीर पुरुष बरियामं, गरीबदास एक नौका नामं।। नाम निरंजन नीकासंतों, नाम निरंजन नीका। तीर्थ व्रत थोथरे लागे, जप तप संजम फीका।। गज तुरकपालकी अर्था, नाम बिना सब दानं व्यर्था। कबीर, नाम गहे सो संत सुजाना, नाम बिनाजग उरझाना। ताहि ना जाने ये संसारा, नाम बिना सब जम के चारा।। संत नानक साहेब जी की वाणी में नाम का महत्व:-- नानक नाम चढ़दी कलां, तेरे भाणे सबदा भला। नानक दुःखिया सब संसार, सुखिया सोयनाम आधार।। जाप ताप ज्ञान सब ध्यान, षट शास्त्रा सिमरत व्याखान। जोग अभ्यासकर्म धर्म सब क्रिया, सगल त्यागवण मध्य फिरिया। अनेक प्रकार किए बहुत यत्ना, दानपूण्य होमै बहु रत्ना। शीश कटाये होमै कर राति, व्रत नेम करे बहुभांति।। नहीं तुल्य राम नाम विचार, नानक गुरुमुख नाम जपिये एक बार।। (परम पूज्य कबीर साहेब(कविर् देव) की अमृतवाणी) संतो शब्दई शब्द बखाना।।टेक।।  शब्द फांस फँसा सब कोई शब्द नहीं पहचाना।।  प्रथमहिं ब्रह्म स्वं इच्छा ते पाँचै शब्द उचारा। सोहं, निरंजन, रंरकार, शक्तिऔर ओंकारा।।  पाँचै तत्व प्रकृति तीनों गुण उपजाया। लोक द्वीप चारों खान चैरासीलख बनाया।।  शब्दइ काल कलंदर कहिये शब्दइ भर्म भुलाया।। पाँच शब्द की आशा मेंसर्वस मूल गंवाया।।  शब्दइ ब्रह्म प्रकाश मेंट के बैठे मूंदे द्वारा। शब्दइनिरगुण शब्दइ सरगुण शब्दइ वेद पुकारा।।  शुद्ध ब्रह्म काया के भीतर बैठ करेस्थाना। ज्ञानी योगी पंडित औ सिद्ध शब्द में उरझाना।।  पाँचइ शब्द पाँच हैंमुद्रा काया बीच ठिकाना। जो जिहसंक आराधन करता सो तिहि करत बखाना।।  शब्द निरंजनचांचरी मुद्रा है नैनन के माँही। ताको जाने गोरख योगी महा तेज तप माँही।।  शब्दओंकार भूचरी मुद्रा त्रिकुटी है स्थाना। व्यास देव ताहि पहिचाना चांद सूर्य तिहिजाना।।  सोहं शब्द अगोचरी मुद्रा भंवर गुफा स्थाना। शुकदेव मुनी ताहि पहिचानासुन अनहद को काना।।  शब्द रंरकार खेचरी मुद्रा दसवें द्वार ठिकाना। ब्रह्माविष्णु महेश आदि लो रंरकार पहिचाना।। शक्ति शब्द ध्यान उनमुनी मुद्रा बसे आकाशसनेही। झिलमिल झिलमिल जोत दिखावे जाने जनक विदेही।।  पाँच शब्द पाँच हैं मुद्रासो निश्चय कर जाना। आगे पुरुष पुरान निःअक्षर तिनकी खबर न जाना।।  नौ नाथ चैरासीसिद्धि लो पाँच शब्द में अटके। मुद्रा साध रहे घट भीतर फिर ओंधे मख्ुा लटके।।  पाँच शब्द पाँच है मुद्रा लोक द्वीप यमजाला। कहैं कबीर अक्षर के आगे निःअक्षरका उजियाला।। जैसा कि इस शब्द ‘‘संतो शब्दई शब्द बखाना‘‘ में लिखा है कि सभी संत जन शब्द (नाम) की महिमा सुनाते हैं। पूर्णब्रह्म कबीर साहिब जी ने बताया है कि शब्द सतपुरुषका भी है जो कि सतपुरुष का प्रतीक है व ज्योति निरंजन(काल) का प्रतीक भी शब्द हीहै। जैसे शब्द ज्योति निरंजन यह चांचरी मुद्रा को प्राप्त करवाता है इसको गोरख योगीने बहुत अधिक तप करके प्राप्त किया जो कि आम(साधारण) व्यक्ति के बस की बात नहीं हैऔर फिर गोरख नाथ काल तक ही साधना करके सिद्ध बन गए। मुक्त नहीं हो पाए। जब कबीरसाहिब ने सत्यनाम तथा सार नाम दिया तब काल से छुटकारा गोरख नाथ जी का हुआ। इसीलिएज्योति निरंजन नाम का जाप करने वाले काल जाल से नहीं बच सकते अर्थात् सत्यलोक नहींजा सकते। शब्द ओंकार(ओ3म) का जाप करने से भूंचरी मुद्रा की स्थिति में साधक आ जाताहे। जो कि वेद व्यास ने साधना की और काल जाल में ही रहा। सोहं नाम के जाप से अगोचरीमुद्रा की स्थिति हो जाती है और काल के लोक में बनी भंवर गुफा में पहुँच जाते हैं।जिसकी साधना सुखदेव ऋषि ने की और केवल श्री विष्णु जी के लोक में बने स्वर्ग तकपहुँचा। शब्द रंरकार खैचरी मुद्रा दसमें द्वार(सुष्मणा) तक पहुँच जाते हंै। ब्रह्माविष्णु महेश तीनों ने ररंकार को ही सत्य मान कर काल के जाल में उलझे रहे।शक्ति(श्रीयम्) शब्द ये उनमनी मुद्रा को प्राप्त करवा देता है जिसको राजा जनक नेप्राप्त किया परन्तु मुक्ति नहीं हुई। कई संतों ने पाँच नामों में शक्ति की जगहसत्यनाम जोड़ दिया है जो कि सत्यनाम कोई जाप नहीं है। ये तो सच्चे नाम की तरफ ईशाराहै जैसे सत्यलोक को सच्च खण्ड भी कहते हैं एैसे ही सत्यनाम व सच्चा नाम है। केवलसत्यनाम-सत्यनाम जाप करने का नहीं है। इन पाँच शब्दों की साधना करने वाले नौ नाथतथा चैरासी सिद्ध भी इन्हीं तक सीमित रहे तथा शरीर में (घट में) ही धुनि सुनकरआनन्द लेते रहे। वास्तविक सत्यलोक स्थान तो शरीर (पिण्ड) से (अण्ड) ब्रह्मण्ड सेपार है, इसलिए फिर माता के गर्भ में आए (उलटे लटके) अर्थात् जन्म-मृत्यु का कष्टसमाप्त नहीं हुआ। जो भी उपलब्धि (घट) शरीर में होगी वह तो काल (ब्रह्म) तक की हीहै, क्योंकि पूर्ण परमात्मा का निज स्थान (सत्यलोक) तथा उसी के शरीर का प्रकाश तोपरब्रह्म आदि से भी अधिक तथा बहुत आगे(दूर) है। उसके लिए तो पूर्ण संत ही पूरीसाधना बताएगा जो पाँच नामों (शब्दों) से भिन्न है। संतों सतगुरु मोहे भावै, जो नैनन अलख लखावै।। ढोलत ढिगै ना बोलत बिसरै, सत उपदेशदृढ़ावै।। आंख ना मूंदै कान ना रूदैं ना अनहद उरझावै। प्राण पूंज क्रियाओं सेन्यारा, सहज समाधी बतावै।। घट रामायण के रचयिता आदरणीय तुलसीदास साहेब जी हाथ रस वाले स्वयं कहते हैं कि:- (घट रामायण प्रथम भाग पृष्ठ नं. 27)। पाँचों नाम काल के जानौ तब दानी मन संका आनौ।  सुरति निरत लै लोक सिधाऊँ, आदिनाम ले काल गिराऊँ।  सतनाम ले जीव उबारी, अस चल जाऊँ पुरुष दरबारी।। कबीर, कोटि नाम संसार में , इनसे मुक्ति न हो।  सार नाम मुक्ति का दाता, वाकोजाने न कोए।। गुरु नानक जी की वाणी में तीन नाम का प्रमाण:-- पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै। एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणीनिज घर जावै।। जै पंडित तु पढ़िया, बिना दउ अखर दउ नामा। परणवत नानक एक लंघाए, जे कर सच समावा। वेद कतेब सिमरित सब सांसत, इन पढ़ि मुक्ति न होई।। एक अक्षरजो गुरुमुख जापै, तिस की निरमल होई।। भावार्थ: गुरु नानक जी महाराज अपनी वाणी द्वारा समाझाना चाहते हैं कि पूरा सतगुरु वही है जो दो अक्षर के जाप के बारे में जानता है। जिनमें एक काल व माया के बंधन से छुड़वाता है और दूसरा परमात्मा को दिखाता है और तीसरा जो एक अक्षर है वो परमात्मा से मिलाता है। संत गरीबदास जी महाराज की अमृत वाणी में स्वांस के नाम काप्रमाण:-- गरीब, स्वांसा पारस भेद हमारा, जो खोजे सो उतरे पारा। स्वांसा पारा आदिनिशानी, जो खोजे सो होए दरबानी। स्वांसा ही में सार पद, पद में स्वांसा सार। दमदेही का खोज करो, आवागमन निवार।। गरीब, स्वांस सुरति के मध्य है, न्यारा कदेनहीं होय। सतगुरु साक्षी भूत कूं, राखो सुरति समोय।। गरीब, चार पदार्थ उर मेंजोवै, सुरति निरति मन पवन समोवै। सुरति निरति मन पवन पदार्थ(नाम), करो इक्तरयार। द्वादस अन्दर समोय ले, दिल अंदर दीदार। कबीर, कहता हूं कहि जात हूं, कहूं बजा कर ढोल। स्वांस जो खाली जात है, तीन लोकका मोल।। कबीर, माला स्वांस उस्वांस की, फेरेंगे निज दास। चैरासी भ्रमे नहीं, कटैं कर्मकी फांस।। गुरु नानक देव जी की वाणी में प्रमाण:-- चहऊं का संग, चहऊं का मीत, जामै चारि हटावै नित। मन पवन को राखै बंद, लहेत्रिकुटी त्रिवैणी संध।। अखण्ड मण्डल में सुन्न समाना, मन पवन सच्च खण्डटिकाना।। पूर्ण सतगुरु वही है जो तीन बार में नाम दे और स्वांस की क्रिया के साथ सुमिरणका तरीका बताए। तभी जीव का मोक्ष संभव है। जैसे परमात्मा सत्य है। ठीक उसी प्रकारपरमात्मा का साक्षात्कार व मोक्ष प्राप्त करने का तरीका भी आदि अनादि व सत्य है जोकभी नहीं बदलता है। गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में कहते हैं: भक्ति बीज पलटै नहीं, युग जांही असंख। सांई सिर पर राखियो, चैरासी नहींशंक।। घीसा आए एको देश से, उतरे एको घाट। समझों का मार्ग एक है, मूर्ख बारहबाट।। कबीर भक्ति बीज पलटै नहीं, आन पड़ै बहु झोल। जै कंचन बिष्टा परै, घटै न ताकामोल।। बहुत से महापुरुष सच्चे नामों के बारे में नहीं जानते। वे मनमुखी नाम देते हैंजिससे न सुख होता है और न ही मुक्ति होती है। कोई कहता है तप, हवन, यज्ञ आदि करो वकुछ महापुरुष आंख, कान और मुंह बंद करके अन्दर ध्यान लगाने की बात कहते हैं जो कियह उनकी मनमुखी साधना का प्रतीक है। जबकि कबीर साहेब, संत गरीबदास जी महाराज, गुरुनानक देव जी आदि परम संतों ने सारी क्रियाओं को मना करके केवल एक नाम जाप करने कोही कहा है। एक नैसत्रो दमस नामक भविष्य वक्ता था। जिसकी सर्व भविष्य वाणियां सत्य हो रहीहैं जो लगभग चार सौ वर्ष पूर्व लिखी व बोली गई थी। उसने कहा है कि सन् 2006 में एकहिन्दू संत प्रकट होगा अर्थात् संसार में उसकी चर्चा होगी। वह संत न तो मुसलमानहोगा, न वह इसाई होगा वह केवल हिन्दू ही होगा। उस द्वारा बताया गया भक्ति मार्गसर्व से भिन्न तथा तथ्यों पर आधारित होगा। उसको ज्ञान में कोई पराजित नहीं करसकेगा। सन् 2006 में उस संत की आयु 50 व 60 वर्ष के बीच होगी। (संत रामपाल जीमहाराज का जन्म 8 सितम्बर सन् 1951 को हुआ। जुलाई सन् 2006 में संत जी की आयु ठीक 55 वर्ष बनती है जो भविष्यवाणी अनुसार सही है।) उस हिन्दू संत द्वारा बताए गए ज्ञानको पूरा संसार स्वीकार करेगा। उस हिन्दू संत की अध्यक्षता में सर्व संसार में भारतवर्ष का शासन होगा तथा उस संत की आज्ञा से सर्व कार्य होंगे। उसकी महिमा आसमानों सेऊपर होंगी। नैसत्रो दमस द्वारा बताया सांकेतिक संत रामपाल जी महाराज हैं जो सन् 2006 में विख्यात हुए हैं। भले ही अनजानों ने बुराई करके प्रसिद्ध किया है परंतुसंत में कोई दोष नहीं है। उपरोक्त लक्षण जो बताए हैं ये सभी तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज में विद्यमानहैं।                                  “कौन तथा कैसा है कुल का मालिक?”   जिन-जिन पुण्यात्माओं ने परमात्मा को प्राप्त किया उन्होंने बताया कि कुल कामालिक एक है। वह मानव सदृश तेजोमय शरीर युक्त है। जिसके एक रोम कूप का प्रकाश करोड़सूर्य तथा करोड़ चन्द्रमाओं की रोशनी से भी अधिक है। उसी ने नाना रूप बनाए हैं।परमेश्वर का वास्तविक नाम अपनी-अपनी भाषाओं में कविर्देव (वेदों में संस्कृत भाषामें) तथा हक्का कबीर (श्री गुरु ग्रन्थ साहेब में पृष्ठ नं. 721 पर क्षेत्राीय भाषामें) तथा सत् कबीर (श्रीधर्मदास जी की वाणी में क्षेत्राीय भाषा में) तथा बन्दी छोड़कबीर (सन्त गरीबदास जी के सद्ग्रन्थ में क्षेत्रीय भाषा में) कबीरा, कबीरन् व खबीराया खबीरन् (श्री र्कुआन शरीफ़ सूरत फुर्कानि नं. 25, आयत नं. 19, 21, 52, 58, 59 मेंक्षेत्राीय अरबी भाषा में)। इसी पूर्ण परमात्मा के उपमात्मक नाम अनामी पुरुष, अगमपुरुष, अलख पुरुष, सतपुरुष, अकाल मूर्ति, शब्द स्वरूपी राम, पूर्ण ब्रह्म, परमअक्षर ब्रह्म आदि हैं, जैसे देश के प्रधानमंत्राी का वास्तविक शरीर का नाम कुछ औरहोता है तथा उपमात्मक नाम प्रधान मंत्री जी, प्राइम मिनिस्टर जी अलग होता है। जैसेभारत देश का प्रधानमंत्री जी अपने पास गृह विभाग रख लेता है। जब वह उस विभाग केदस्त्तावेजों पर हस्त्ताक्षर करता है तो वहाँ गृहमंत्री की भूमिका करता है तथा अपनापद भी गृहमन्त्री लिखता है, हस्त्ताक्षर वही होते हैं। इसी प्रकार ईश्वरीय सत्ता कोसमझना है। जिन सन्तों व ऋषियों को परमात्मा प्राप्ति नहीं हुई, उन्होंने अपना अन्तिम अनुभवबताया है कि प्रभु का केवल प्रकाश देखा जा सकता है, प्रभु दिखाई नहीं देता क्योंकिउसका कोई आकार नहीं है तथा शरीर में धुनि सुनना आदि प्रभु भक्ति की उपलब्धि है। आओ विचार करें - जैसे कोई अंधा अन्य अंधों में अपने आपको आँखों वाला सिद्ध किएबैठा हो और कहता है कि रात्राी में चन्द्रमा की रोशनी बहुत सुहावनी मन भावनी होतीहै, मैं देखता हूँ। अन्य अन्धे शिष्यों ने पूछा कि गुरु जी चन्द्रमा कैसा होता है।चतुर अन्धे ने उत्तर दिया कि चन्द्रमा तो निराकार है वह दिखाई थोड़े ही दे सकता है।कोई कहे सूर्य निराकार है वह दिखाई नहीं देता रवि स्वप्रकाशित है इसलिए उसका केवलप्रकाश दिखाई देता है। गुरु जी के बताये अनुसार शिष्य 2) घण्टे सुबह तथा 2) घण्टेशाम आकाश में देखते हैं। परन्तु कुछ दिखाई नहीं देता। स्वयं ही विचार विमर्श करतेहैं कि गुरु जी तो सही कह रहे हैं, हमारी साधना पूरी 2) घण्टे सुबह शाम नहीं होपाती। इसलिए हमंे सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश दिखाई नहीं दे रहा। चतुर गुरु जी कीव्याख्या पर आधारित होकर उस चतुर अन्धे(ज्ञान नेत्रा हीन) की व्याख्या के प्रचारककरोड़ों अंधे (ज्ञाननेत्रा हीन) हो चुके हैं। फिर उन्हें आँखों वाला (तत्वदर्शीसन्त) बताए कि सूर्य आकार में है और उसी से प्रकाश निकल रहा है। सूर्य बिना प्रकाशकिसका देखा? इसी प्रकार चन्द्रमा से प्रकाश निकल रहा है नेत्राहीनों! चन्द्रमा केबिना रात्राी में प्रकाश कैसे हो सकता है? जैसे कोई कहे कि ट्यूब लाईट देखी, फिरकोई पूछे कि ट्यूब कैसी होती है जिसकी आपने रोशनी देखी है? उत्तर मिले कि ट्यूब तोनिराकार होने के कारण दिख

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