Tuesday, 20 March 2018

कर नैनों दीदार महलमें प्यारा है 

Live Satsang Holy Books Publications Info Rules Downloads Pics हि कर नैनों दीदार महलमें प्यारा है - ArticlesBlog कर नैनों दीदार महलमें प्यारा है Published on Jan 16, 2018 कर नैनों दीदार महलमें प्यारा है।।टेक।। काम क्रोध मद लोभ बिसारो, शील सँतोष क्षमा सत धारो। मद मांस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोडै असवार, भरम से न्यारा है।1। धोती नेती बस्ती पाओ, आसन पदम जुगतसे लाओ। कुम्भक कर रेचक करवाओ, पहिले मूल सुधार कारज हो सारा है।2। मूल कँवल दल चतूर बखानो, किलियम जाप लाल रंग मानो। देव गनेश तहँ रोपा थानो, रिद्धि सिद्धि चँवर ढुलारा है।3। स्वाद चक्र षटदल विस्तारो, ब्रह्म सावित्री रूप निहारो। उलटि नागिनी का सिर मारो, तहाँ शब्द ओंकारा है।।4।। नाभी अष्ट कमल दल साजा, सेत सिंहासन बिष्णु बिराजा। हरियम् जाप तासु मुख गाजा, लछमी शिव आधारा है।।5।। द्वादश कमल हृदयेके माहीं, जंग गौर शिव ध्यान लगाई। सोहं शब्द तहाँ धुन छाई, गन करै जैजैकारा है।।6।। षोड्श कमल कंठ के माहीं, तेही मध बसे अविद्या बाई। हरि हर ब्रह्म चँवर ढुराई, जहँ श्रीयम् नाम उचारा है।।7।। तापर कुंज कमल है भाई, बग भौंरा दुइ रूप लखाई। निज मन करत वहाँ ठकुराई, सो नैनन पिछवारा है।।8।। कमलन भेद किया निर्वारा, यह सब रचना पिंड मँझारा। सतसँग कर सतगुरु शिर धारा, वह सतनाम उचारा है।।9।। आँख कान मुख बन्द कराओ, अनहद झिंगा शब्द सुनाओ। दोनों तिल इक तार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है।।10।। चंद सूर एक घर लाओ, सुषमन सेती ध्यान लगाओ। तिरबेनीके संधि समाओ, भौर उतर चल पारा है।।11।। घंटा शंख सुनो धुन दोई, सहस्र कमल दल जगमग होई। ता मध करता निरखो सोई, बंकनाल धस पारा है।।12।। डाकिनी शाकनी बहु किलकारे, जम किंकर धर्म दूत हकारे। सत्तनाम सुन भागे सारें, जब सतगुरु नाम उचारा है।।13।। गगन मँडल बिच उर्धमुख कुइया, गुरुमुख साधू भर भर पीया। निगुरो प्यास मरे बिन कीया, जाके हिये अँधियारा है।।14।। त्रिकुटी महलमें विद्या सारा, धनहर गरजे बजे नगारा। लाल बरन सूरज उजियारा, चतूर दलकमल मंझार शब्द ओंकारा है।15। साध सोई जिन यह गढ लीनहा, नौ दरवाजे परगट चीन्हा। दसवाँ खोल जाय जिन दीन्हा, जहाँ कुलुफ रहा मारा है।।16।। आगे सेत सुन्न है भाई, मानसरोवर पैठि अन्हाई। हंसन मिलि हंसा होई जाई, मिलै जो अमी अहारा है।।17।। किंगरी सारंग बजै सितारा, क्षर ब्रह्म सुन्न दरबारा। द्वादस भानु हंस उँजियारा, षट दल कमल मँझार शब्द ररंकारा है।।18।। महा सुन्न सिंध बिषमी घाटी, बिन सतगुरु पावै नहिं बाटी। व्याघर सिहं सरप बहु काटी, तहँ सहज अचिंत पसारा है।।19।। अष्ट दल कमल पारब्रह्म भाई, दहिने द्वादश अंचित रहाई। बायें दस दल सहज समाई, यो कमलन निरवारा है।।20।। पाँच ब्रह्म पांचों अँड बीनो, पाँच ब्रह्म निःअच्छर चीन्हों। चार मुकाम गुप्त तहँ कीन्हो, जा मध बंदीवान पुरुष दरबारा है।। 21।। दो पर्वतके संध निहारो, भँवर गुफा तहां संत पुकारो। हंसा करते केल अपारो, तहाँ गुरन दर्बारा है।।22।। सहस अठासी दीप रचाये, हीरे पन्ने महल जड़ाये। मुरली बजत अखंड सदा ये, तँह सोहं झनकारा है।।23।। सोहं हद तजी जब भाई, सत्तलोककी हद पुनि आई। उठत सुगंध महा अधिकाई, जाको वार न पारा है।।24।। षोडस भानु हंसको रूपा, बीना सत धुन बजै अनूपा। हंसा करत चँवर शिर भूपा, सत्त पुरुष दर्बारा है।।25।। कोटिन भानु उदय जो होई, एते ही पुनि चंद्र लखोई। पुरुष रोम सम एक न होई, ऐसा पुरुष दिदारा है।।26।। आगे अलख लोक है भाई, अलख पुरुषकी तहँ ठकुराई। अरबन सूर रोम सम नाहीं, ऐसा अलख निहारा है।।27।। ता पर अगम महल इक साजा, अगम पुरुष ताहिको राजा। खरबन सूर रोम इक लाजा, ऐसा अगम अपारा है।।28।। ता पर अकह लोक है भाई, पुरुष अनामि तहां रहाई। जो पहुँचा जानेगा वाही, कहन सुनन ते न्यारा है।।29।। काया भेद किया निरुवारा, यह सब रचना पिंड मँझारा। माया अविगत जाल पसारा, सो कारीगर भारा है।।30।। आदि माया कीन्ही चतूराई, झूठी बाजी पिंड दिखाई। अवगति रचना रची अँड माहीं, ताका प्रतिबिंब डारा है।।31।। शब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुरु दई तारी। खुले कपाट शब्द झनकारी, पिंड अंडके पार सो देश हमारा है।।32।। नोट:- कुंज कमल त्रिकुटी में बने 7वें कमल को कहा है जिसके दो दल हैं एक काला (भंवरे जैसा काला) दूसरा बग (बुगले पक्षी जैसा सफेद) है। जो त्रिकुटी कमल में विद्या सारा लिखा है और चतुर दल कमल लिखा है। यह त्रयदल कमल है। यह छठा कमल है। इसकी तीन पंखुड़ी दल हैं। इसमें देवी दुर्गा श्री सरस्वती रूप बनाकर रहती है। ओंकार शब्द उसी के स्थान पर हो रहा है। यह चैपाई नं. 15 का विश्लेष्ण है। चैपाई नं. 18 में षट दल कमल लिखा। यह अक्षर पुरूष के लोक का वर्णन है, परंतु काल ब्रह्म ने इसकी नकल ब्रह्मलोक में बनाई है। उसमें ररंकार शब्द हो रहा है। दूसरे शब्दों में चैपाई नं. 18 में जो वर्णन है, यह अक्षर पुरूष के लोक का है। उसमें दो ही कमल हैं। एक षट (छः) दल का कमल जिसमें उसका न्यायधीश बैठता है। जहाँ पर भक्त उसके लोक का किराया यानि सोहं शब्द की भक्ति की राशि जमा करवाता है। दूसरा अष्ट दल का कमल है। उसमें अक्षर पुरूष रहता है। उसकी राजधानी कमल के फूल के आकार की है जिसमें आठ पंखुड़ी बनी दिखाई देती हैं। शब्दः-- "कर नैनों दीदार महल में प्यारा है" तथा कबीर सागर में साहेब कबीर ने काल के जाल का पूरा विवरण दिया है। वाणी नं. 1 से 13 तक का भावार्थ स्थूल शरीर (पाँच तत्त्व से बना मनुष्य) को एक टेलिविजन जानो। इसमें चैनल लगे हैं। 1) मूल कमल - गणेश  2) स्वाद चक्र - ब्रह्मा-सावित्री  3) नाभि कमल - विष्णु-लक्ष्मी  4) हृदय कमल - शिव-पार्वती  5) कंठ कमल - अविद्या (प्रकृति)  त्रिकुटी दो दल (काला व सफेद रंग) का कमल है। इसे एयरपोर्ट जानों जैसे हवाई अड्डा हो। वहाँ से जहाँ भी जाना है वही जहाज उपलब्ध होगा। चूंकि सर्व संत यहीं से अपना आगे जाने का मार्ग लेते हैं। वहाँ पर परमात्मा (भक्त जिस इष्ट का उपासक है) गुरु का रूप (शब्द स्वरूपी गुरु या शब्द गुरु कहिए) बना कर आता है तथा अपने हंस को अपने साथ ले कर स्वस्थान में ले जाता है। यहाँ पर निजमन (पारब्रह्म) भी रहता है। वह जीव के साथ किसी प्रकार का धोखा नहीं होने देता। जैसे हवाई अड्डे पर जाने से पहले जिस देश में जाना है उसका पासपोर्ट, वीजा व टिकट पहले ही प्राप्त कर लिया जाता है। वहाँ पर जाते ही उसी जहाज में बैठा दिया जाता है। जिसने जिस इष्ट लोक में जाने की तैयारी गुरु बना कर नाम स्मरण करके कर रखी है वह उसी लोक में त्रिकुटी से अपने शब्द गुरु के साथ चला जाता है। इससे आगे सहंस्रार कमल है तथा ज्योति नजर आती है। ब्रह्म उपासक इस ज्योति को देख कर अपने धन्य भाग समझते हैं। यहीं तक की जानकारी पतंजलि योग दर्शन व अन्य योगियों का अनुभव है। इससे आगे किसी प्रमाणित शास्त्र में ज्ञान नहीं है। यह काल का प्रथम जाल है। जिन भक्त आत्माओं को पूर्ण सतगुरु मिल गया, उसने सतसंग सुन कर सतनाम ले लिया। वह इस जाल को समझ गया तथा नाम जपने लग गया। काल का दूसरा जाल है कि सतलोक, अलख लोक, अगम लोक व अनामी लोक यह सब पूर्णब्रह्म की रचना की झूठी नकल कर रखी है {उसका प्रतिबिम्ब (स्वरूप) डारा है}। नकली शब्द बना रखे हैं। उनको सुनने का तरीका है आँख-कान-मुख हाथ की उँगलियों से बन्द करके फिर उसमें कानों पर ध्यान लगाओ। एक झींगा कीट होता है वह झीं-झीं की आवाज करता रहता है। उससे मिलती जुलती आवाज है। उसे अनहद झींगा शब्द कहते हैं इसे सुनो। दूसरी साधना - दोनों आँखों की पुतलियों (सैलियों के निचे) को दबाओ। उसमें से नाना प्रकार का प्रकाश का नजारा (गुलजारा) दिखाई देगा। फिर तीसरी साधना बताई - ठण्डा स्वांस चन्द (बांई नाक वाली स्वांस) व सुर (सूर्य) गर्म स्वांस (दांई नाक वाली स्वांस) को इक्ट्ठा करके सुषमना में प्रवेश करो। यह प्राणायाम विधि है। फिर आगे चलो त्रिवेणी पर। यह सब काल रचित है। जब साधक त्रिवेणी पर चले जाते हैं। वहाँ तीन रास्ते होते हैं। (यह त्रिवेणी काल के इक्कीसवें ब्रह्माण्ड में है जो कमलों की सँख्या में नहीं है।) बांई ओर सहंस्रार (एक हजार कमल दल) दल वाला कमल है। वह काल (ज्योति निरंजन) का महास्वर्ग है। इसमें घंटा तथा शंख की आवाज होती सुनाई देवेगी तथा फिर झिलमिल-झिलमिल प्रकाश नजर आएगा। वहाँ निराकार रूप में (काल) कर्ता रहता है। ऐसा साधक मानते हैं परंतु वास्तव में महाब्रह्मा-महाविष्णु व महाशिव रूप में आकार में है। अठासी हजार नगरियां हैं तथा सप्तपुरी का मण्डल है। परंतु महा प्रलय में फिर समाप्त हो जाएंगे। काल जब दोबारा सृष्टि रचेगा तो फिर चैरासी लाख योनियों में कर्म कष्ट भोगने के लिए चले जाएंगे। जब यह साधक ब्रह्मरन्द्र (काल लोक से अक्षर पुरूष के लोक में प्रवेश होने वाले ग्यारहवें द्वार को यहाँ ब्रह्मरन्द्र कहा है। वास्तव में ब्रह्मरन्द्र त्रिवेणी पर है) की ओर चलता है तो वहाँ पर बहुत भयंकर आकृतियाँ वाली स्त्रिायों (डाकनी) की व यम दूतों की पूरी फौज रहती है। उस कटक दल (काल सेना) को न तो ऊँ नाम से जीता जा सकता, न किलियम् से, न हरियम् से, न सोहं से, न ही ज्योति निरंजन - रंरकार - ओंकार - सोहं - शक्ति (श्रीयम्) से, न ही राधास्वामी नाम से, न हीं अकाल मूर्त-शब्द स्वरूपी राम या सतपुरुष या अन्य मनमुखी नामों से जीता जा सकता है। वह केवल पूर्ण संत से उपदेश प्राप्त करके सतनाम सच्चा नाम (ऊँ-सोहं) स्वांस के स्मरण करने से उनको तीर से लगते हैं। जिससे वे भाग जाते हैं। रास्ता खाली हो जाता है, ब्रह्मरन्द्र खुल जाता है तथा साधक काल के असली (विराट रूप में जहाँ रहता है) स्वरूप को देख कर उसके सिर पर पैर रखकर ग्यारहवें द्वार, जो काल ने अपने सिर से बन्द कर रखा है जो सतगुरु के सत्यनाम व सारनाम के दबाव से काल का सिर स्वतः झुक जाता है और वह द्वार खुल जाता है। इस प्रकार यह हंस परब्रह्म के लोक, में प्रवेश कर जाता है। वहाँ काल की माया का दबाव नहीं है। उसके बाद अपने आप केवल सोहं शब्द व सारनाम स्मरण शुरु हो जाता है। ऊँ का जाप उच्चारण नहीं होता। चूंकि वहाँ सूक्ष्म शरीर छूट जाता है अर्थात् ओम मंत्र की कमाई ब्रह्म (काल) को छोड़ दी जाती है। कारण व महाकारण भी सारनाम के स्मरण से (जो केवल सुरति निरति से शुरु हो जाता है) समाप्त हो जाते हैं। उस समय केवल कैवल्य शरीर रह जाता है। उस समय जीव की स्थिति बारह सूर्यों के प्रकाश के समान हो जाती है, इतना तेजोमय हो जाता है। सतगुरु वहाँ पूछते हैं कि हे हंस आत्मा! आपका किसी जीव में, वस्तु में, सम्पत्ति में मोह तो नहीं है। यदि है तो फिर वापिस काल लोक में जाना होगा। परंतु उस समय यह जीवात्मा काल का पूर्ण जाल पार कर चुकी होती है। वापिस जाने को आत्मा नहीं मानती। तब कह देती है कि नहीं सतगुरु जी, अब उस नरक में नहीं जाऊँगा। तब सतगुरु उस हंस को अमृत मानसरोवर में स्नान करवाते हैं। उस समय उस हंस का कैवल्य शरीर तथा सर्व आवरण समाप्त होकर आत्म तत्त्व में आ जाता है। यह मानसरोवर परब्रह्म के लोक तथा सतलोक के बीच में बने सुन्न स्थान में है जहाँ से भंवर गुफा प्रारम्भ होती है। उस समय इस आत्मा का स्वरूप 16 सूर्यों जितना तेजोमय हो जाता है तथा बारहवें द्वार को पार कर सत्यलोक में प्रवेश कर सदा पूर्ण मोक्ष के आनन्द को पाती है। यह पूर्ण मुक्ति है। यह आत्मा भूल कर भी वापिस काल के जाल में नहीं आती। जैसे बच्चे का एक बार आग में हाथ जल जाए तो वह फिर उधर नहीं जाता। उसे छूने की कोशिश भी नहीं करता। वाणी नं. 14 में साहेब कबीर बता रहे हैं कि यह संसार उल्टा लटक रहा है। जैसे किसी कुँए में अमृत भरा है अर्थात् परमात्मा का आनन्द इस शरीर में है। वह दसवें द्वार के पार ही है जो इस शरीर के अन्दर नीचे को मुख वाला सुषमना द्वार है। जो सुष्मणा में से पार हो जाता है वही भक्त लाभ प्राप्त करता है यह साधना नाम व गुरु धारण करके ही बनती है। वाणी नं. 15 में सतगुरु कबीर साहेब जी भेद दे रहे हैं कि जब काल साधक ऊँ नाम का जाप परमात्मा को निर्गुण जान कर गुरु धारण करके करता है तो काल स्वयं उस साधक के गुरु का (नकली शब्द रूप) रूप बनाकर आता है तथा महास्वर्ग (महाइन्द्रलोक) में ले जाता है। जब वह महाइन्द्र लोक के निकट जाते हैं तो बहुत जोर से बादल की गर्जना जैसा भयंकर शब्द होता है। जो साधक डर जाता है वह वापिस चैरासी में चला जाता है और जो नहीं डरता है वह अपने गुरु के साथ आगे बढ़ जाता है। उसे फिर सुहावना नंगारा बजता हुआ सुनाई देता है। चार पंखड़ी वाला कमल का लाल रंग का एक और कमल है उसमें ओंकार धुनि हो रही हो जो महास्वर्ग में है। वास्तव में यह तीन पंखुड़ी का कमल है जो छठा कमल है। लिखने में गलती है। वाणी नं. 16 का अर्थ है कि संत वह है जो दसवें दरवाजे पर काल द्वारा लगाए ताले को सत्यनाम की चाबी से खोल कर आगे ग्यारहवाँ द्वार जो काल ने नकली सतलोक आदि बीस ब्रह्मण्डों के पार इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बनाकर बन्द कर रखा है उसे भी खोल कर परब्रह्म (अक्षर ब्रह्म) के लोक में चला जाता है। क्योंकि नौ द्वार (दो नाक, दो कान, दो आँखें, मुख, गुदा-लिंग ये नौ) प्रगट दिखाई देते हैं। दसवें द्वार पर (जो सुषमना खुलने पर आता है) ताला लगा रखा है तथा ग्यारहवां द्वार परब्रह्म के लोक में प्रवेश करने वाले स्थान पर बना रखा है। जहाँ स्वयं काल भगवान सशरीर विराजमान है। वाणी नं. 17 का भावार्थ है कि आगे सेत सुन्न है (जो काल भगवान ने नकली बना रखी है) वहाँ एक नकली मानसरोवर बना रखा है तथा जो निर्गुण उपासक ब्रह्म के होते हैं उन्हें इस सरोवर में स्नान कराने के बाद नकली परब्रह्म के लोक में जो महास्वर्ग में रच रखा है भेज देता है। वे अन्य साधकों की दृष्टि से दूर हो जाते हैं। उन्हें ब्रह्म लीन मान लिया जाता है। इस स्थान को काल ने गुप्त रखा हुआ है। जो इसमें पहुँच गए वह पूर्व पहुँचे हंसों को मिल कर आन्नदित होते हैं। जैसे पित्र-पित्रों को मिलकर तथा भूत भूतों को मिल कर। इसमें रंरकार धुनि चल रही है। जिन साधकों ने खैचरी मुद्रा लगा कर साधना ररंकार जाप से की वे महाविष्णु (ब्रह्म-काल) के महास्वर्ग में चले जाते हैं। फिर काल निर्मित महासुन्न है, उसको बिना गुरु वाले हंस पार नहीं कर सकते। वहाँ पर काल ने मायावी सिंह, व्याध व सर्प छोड़ रखे हैं वे बिना गुरु के हंस को काटते हैं। इसलिए भक्ति चाहे काल लोक की करो, चाहे सतलोक की, लेकिन गुरु बनाना जरूरी है। यह सहज सुखदाई विस्तार है। यह जो कमल वर्णन किए जा रहे हैं यह सूक्ष्म शरीर के हैं तथा सूक्ष्म शरीर भी काल द्वारा जीव पर चढाया गया है। इसलिए यह सब काल की नकली रचना का वर्णन सतगुरु बता रहे हैं। अष्ट पंखड़ी वाला एक और कमल है वह परब्रह्म का लोक कहा है। वास्तव में यह वह स्थान है जहाँ पर पूर्ण ब्रह्म अन्य रूप में निवास करता है तथा वहाँ न ब्रह्म (काल) जा सकता है तथा न तीनों देव ही जा सकते हैं। इसलिए इसे भी परब्रह्म कहा जाता है। उसके दांए हिस्से में बारह भक्त रहते हैं। उसके बांए में दस दल का कमल है जिसमें कर्म सन्यासी निर्गुण उपासक रहते हैं। ऐसे-2 काल ने पाँच ब्रह्म (भगवान) व पाँच अण्ड मण्डल बना रखे हैं। उनको अपनी ओर से निःअक्षर की उपाधि दे रखी है और चार स्थान गुप्त रखे हैं जिनमें वे भक्त जो सतगुरु कबीर के उपासक होते हैं तथा फिर दोबारा काल भक्ति करने लगते हैं। उनसे काल (ब्रह्म-निरंजन) इतना नाराज हो जाता है कि उन्हें कैदी बनाकर इन गुप्त स्थानों पर रख देता है तथा वहाँ महाकष्ट देता है। आगे दो पर्वत हैं। उनके बीचों बीच एक रास्ता है। वहाँ काल के उपासक जो गुरुपद पर होते हैं उन्हें कुछ दिन इस स्थान पर रखता है। इसे भंवर गुफा भी कहते हैं। वहाँ पर ये हंस (गुरुजन) मौज मारते हैं तथा वहाँ सोहं शब्द की स्वतः धुनि चल रही है और मुरली की मीठी-2 धुन भी चल रही होती है तथा उस स्थान में हीरे-पन्ने जडे़ हुए हैं। बहुत ही मनोरम स्थान बना रखा है। जब इस सोहं मन्त्र द्वारा किए जाप से अक्षर पुरूष (परब्रह्म) के लोक से पार होने पर नकली सतलोक आता है। परब्रह्म रूप धार कर काल ही धोखा दे रहा है। उसमें महक उठती रहती है। जो बहुत विस्तृत स्थान है। यहाँ पर काल उपासक विशेष साधक (मार्कण्डे ऋषि जैसे) ही पहुँच पाते हैं। यहाँ काल स्वयं सतपुरुष बना बैठा है। वहाँ पर अपने आप धुनि हो रही है। वहाँ पहुँचे हंस उस महाविष्णु रूप में बैठे नकली सतपुरुष पर आदर से चँवर करते हैं तथा आनन्दित होते हैं। उस काल रूपी सतपुरुष का रूप हजारों सूर्य और चन्द्रमाओं की रोशनी हो ऐसा सतपुरुष से कुछ मिलता जुलता रूप बना रखा है। फर स्वयं ही अलख पुरुष बना बैठा है तथा अलख लोक बना रखा है। फिर स्वयं ही अगम पुरुष बनकर अगम लोक में व अनामी पुरुष बनकर अकह लोक में सबको धोखा दिए बैठा है तथा कहता है कि वह तो अवर्णननीय है। यह वही जानेगा जो वहां पहुँचेगा। कबीर साहेब जी ने शब्द के अंत में कहा कि यह सब काया स्थूल व सूक्ष्म शरीर के कमलों का न्यारा-2 विवरण आपके सामने कर दिया। यह सब वर्णन रचना का भेद आपको बताया है यह (दोनों शरीर स्थूल व सूक्ष्म के अन्दर है) काया के अन्दर ही है। इस काल की माया (प्रकृति) ने अपनी चतुराई से झूठी रचना करके सतलोक की रचना जैसी ही अण्ड (ब्रह्मण्ड) में नकली रचना कर रखी है। फिर भी इसमें और वास्तविक सतलोक में दिन और रात का अन्तर है। जैसे बारीक नमक तथा बूरा में कोई अंतर दिखाई नहीं देता परंतु स्वाद भिन्न है। कबीर साहेब कहते हैं कि हमारा मार्ग विहंगम (पक्षी) की तरह है। जैसे पक्षी जमीन से उड़ कर सीधा वृक्ष की चोटी पर पहुँच जाता है। काल साधकों का मार्ग पपील मार्ग है। जैसे चींटी जमीन से चल कर वृक्ष के तने से फिर डार व टहनियों पर से ऊपर जाती है। त्रिकुटी से कबीर साहेब के हंस विमान में बैठ कर उड़ जाते हैं। परंतु ब्रह्म (काल) के उपासक चींटी की तरह चल कर अपने-अपने इष्ट स्थान पर जाते हैं। सारनाम रूपी विमान से ही साधक सतलोक जा सकता है। अन्य किसी उपासना या मंत्र से नहीं जाया जा सकता। जैसे समुद्र को समुद्री जहाज या हवाई जहाज से ही पार किया जा सकता है, तैर कर नहीं। इसलिए पूज्य कबीर साहेब जी ने कहा है कि हम व हमारे हंस आत्मा शब्द (सत्यनाम व सार नाम) के आधार पर सतलोक चले जाते हैं। वहाँ पर आत्मा के शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों के प्रकाश तुल्य हो जाता है। वहाँ मनुष्य जैसा ही अमर शरीर आत्मा को प्राप्त होता है। वहाँ पर जीव नहीं कहलाता, वहां पर परमात्मा जैसे गुणों युक्त होकर हंस कहलाता है तथा ऊपर के दोनों लोकों अलख लोक व अगम लोक में परमहंस कहा जाता है, अनामी लोक में परमात्मा तथा आत्मा का अस्तित्व भिन्न नहीं रहता। तत्त्वज्ञान के आधार से साधक सूक्ष्म शरीर वाले कमलों में नहीं उलझते। चूंकि सतगुरु जी सार शब्द रूपी कुंजी दे देता है, जिससे काल के सर्व ताले (बन्धन) अपने आप खुलते चले जाते हैं तथा वास्तविक शब्द की झनकार (धुनि) होने लगती है जो इस शरीर के बाहर सत्यलोक में हो रही है। हमारा सत्यलोक पिंड (शरीर) व अण्ड (ब्रह्मण्ड) के पार है। वहां जा कर आत्मा पूर्ण मुक्ति प्राप्त करती है। Tags: Kabir Sagar Body Chakras << Go back to the previous page  Recent Posts Satlok Vs Heaven How was the Temple of Shri Jagan Nath built in Puri? 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