Tuesday, 20 March 2018

सहज योग - शुरू से अन्त तक

▼ 04 अगस्त 2011 सहज योग - शुरू से अन्त तक लेखकीय - आप लोग अक्सर प्रश्न करते रहे हैं कि अन्तर में योग की स्थितियाँ क्या है ? यानी किसके बाद क्या आता है । अतः आज मैं कबीर साहब की वाणी में ये सब रचना आपके लिये प्रकाशित कर रहा हूँ । हालांकि संक्षिप्त अर्थ में सब बात पूरी तरह स्पष्ट करना संभव नहीं हैं । फ़िर भी आपको बहुत कुछ पता चल जायेगा । ऐसी आशा है । विशेष - घबरायें नहीं । ये सब स्थितियाँ जानकारी के लिये बता रहा हूँ । जैसा इसमें वर्णन के अनुसार कठिन सा लगता है । वैसी दिक्कत हमारे " सहज योग " में नहीं आती । मगर प्राप्ति अन्त तक होती है । कर नैनों दीदार । महल में प्यारा है । काम क्रोध मद लोभ बिसारो । सील संतोष छिमा सत धारो । मद्य मांस मिथ्या तज डारो । हो ज्ञान घोड़े असवार । भरम से न्यारा है । 1 धोती नेती वस्ती पाओ । आसन पदम जुगत से लाओ । कुभंक कर रेचक करवाओ । पहिले मूल सुधार । कारज हो सारा है । 2 मूल कँवल दल चतुर बखानो । कलिंग जाप लाल रंग मानो । देव गनेश तहं रोपा थानो । रिध सिध चँवर ढ़ुलारा है । 3 स्वाद चक्र  षटदल बिस्तारो । बृह्मा सावित्री रुप निहारो । उलटि नागिनी का शिर मारो । तहां शबद (ॐ) ओंकारा है । 4 नाभी अष्टकँवल दल साजा । सेत सिंहासन बिष्नु बिराजा । हिरिंग जाप तासु मुख गाजा । लछमी शिव आधारा है । 5 द्वादश कँवल हृदय के माहीं । जंग गौर शिव ध्यान लगाई । " सोहं " शबद तहाँ धुन छाई । गन करै जै जैकारा है । 6 षोडश दल कँवल कंठ के माहीं । तेहि मध बसे अविद्या बाई । हरि हर बृह्मा चँवर ढ़ुलाई । जहँ शरिंग नाम उचारा है । 7 ता पर कंज कँवल है भाई । बग भौंरा दुइ रुप लखाई । निज मन करत तहाँ ठकुराई । सो नैनन पिछवारा है । 8 कंवलन भेद किया निर्वारा । यह सब रचना पिण्ड मंझारा । सतसंग कर सतगुरु सिर धारा । वह सतनाम उचारा है । 9 आंख कान मुख बन्द कराओ । अनहद झिंगा शब्द सुनाओ । दोनों तिल इक तार मिलाओ । तब देखो गुलजारा है । 10 चंद सूर एकै घर लाओ । सुषमन सेती ध्यान लगाओ । तिरबेनी के संघ समाओ । भोर उतर चल पारा है । 11 घंटा शंख सुनो धुन दोई । सहस कँवल दल जगमग होई । ता मध करता निरखो सोई । बंकनाल धंस पारा है । 12 डांकिन सांकिनी बहु किलकारें । जम किंकर धर्मदूत हंकारें । सतनाम सुन भागें सारे । जब सतगुरु नाम उचारा है । 13 गगन मंडल विच उर्धमुख कुइंआं ।  गुरुमुख साधू भर भर पिया । निगुरे प्यास मरे बिन कीया । जा के हिये अंधियारा है । 14 त्रिकुटी महल में विद्या सारा । घनहर गरजें बजे नगारा । लाल बरन सूरज उजियारा । चतुर कँवल मंझार शब्द ओंकारा है । 15 साध सोई जिन यह गढ़ लीना । (9) नौ दरवाजे परगट चीन्हा । दसवां खोल जाय जिन दीन्हा । जहां कुफुल रहा मारा है । 16 आगे सेत सुन्न है भाई  । मान सरोवर पैठि अन्हाई । हंसन मिल हंसा होइ जाई । मिलै जो अमी अहारा है । 17 किंगरी सारंग बजै सितारा । अच्छर बृह्म सुन्न दरबारा । द्वादस भानु हंस उजियारा । खटदल कँवल मंझार शब्द ररंकारा है । 18 महासुन्न सिंध बिषमी घाटी । बिन सतगुरु पावै नहिं बाटी । ब्याघर सिंह सरप बहु काटी । तहं सहज अचिंत पसारा है । 19 अष्ट दल कंवल पारबृह्म भाई । दाहिने द्वादस अचिंत रहाई । बायें दस दल सहज समाई । यूं कंवलन निरवारा है । 20 पांच ब्रह्म पांचों अंड बीनो । पांच बृह्म नि:अक्षर चीन्हो । चार मुकाम गुप्त तहं कीन्हो । जा मध बंदीवान पुरुष दरबारा है । 21 दो पर्वत के संध निहारो । भंवर गुफा ते संत पुकारो । हंसा करते केल अपारो । तहां गुरन दरबारा है । 22 सहस अठासी(88000) द्वीप रचाये । हीरे पन्ने महल जड़ाये । मुरली बजत अखंड सदाये । तहं "सोहं" झुनकारा है । 23 सोहं हद तजी जब भाई । सतलोक की हद पुनि आई । उठत सुगंध महा अधिकाई । जा को वार न पारा है । 24 (16)षोड़स भानु हंस को रुपा । बीना सत धुन बजै अनूपा । हंसा करत चंवर सिर भूपा । सत्त पुरुष दरबारा है । 25 (करोङों) कोटिन भानु उदय जो होई । एते ही पुनि चंद्र लखोई । पुरुष रोम सम एक न होइ । ऐसा पुरुष दीदारा है । 26 आगे अलख लोक है भाई । अलख पुरुष की तहं ठकुराई । अरबन सूर रोम सम नाहीं । ऐसा अलख निहारा है । 27 ता पर अगम महल इक साजा । अगम पुरुष ताहि को राजा । खरबन सूर रोम इक लाजा । ऐसा अगम अपारा है । 28 ता पर अकह लोक है भाई । पुरुष अनामी तहां रहाई । जो पहुँचा जानेगा वाही । कहन सुनन से न्यारा है । 29 काया भेद किया निर्वारा । यह सब रचना पिंड मंझारा । माया अवगति जाल पसारा । सो कारीगर भारा है । 30 आदि माया कीन्ही चतुराई । झूठी बाजी पिंड दिखाई । अवगति रचन रची अंड माहीं । ता का प्रतिबिंब डारा है । 31 शब्द बिहंगम चाल हमारी । कहैं कबीर सतगुरु दइ तारी । खुले कपाट शबद झुनकारी । पिण्ड अण्ड के पार । सो ही देश हमारा है । 32 **************** कर नैनों दीदार । महल में प्यारा है । सदगुरु कबीर साहब कहते हैं - हे मनुष्य ! तू अपनी ज्ञान रुपी आँख ( तीसरा नेत्र ) से देख ( दीदार कर )  तेरे इसी शरीर में साहिब विराजमान है । काम क्रोध मद लोभ बिसारो । सील संतोष छिमा सत धारो । लेकिन साहिब के दर्शन हेतु उससे पहले - काम । क्रोध । अहंकार और लोभ छोड़कर । उसकी जगह शील । क्षमा । सत्य और संतोष धारण कर । मद्य मांस मिथ्या तज डारो । हो ज्ञान घोड़े असवार । भरम से न्यारा है । 1 मांस और मदिरा छोड़कर सात्विक शाकाहारी भोजन कर । झूठ । असत्य मिथ्या बातों को तजकर । सत्य को अपनाकर । ज्ञान रुपी घोड़े पर चढ़कर । मोह रुपी भृम से छुटकारा पाकर ।  वहाँ जा पाते हैं । धोती नेती वस्ती पाओ । आसन पदम जुगत से लाओ । भारतीय योग के तरीके - धोती । नेती और वस्ति से शरीर की आंतरिक शुद्धि कर । इसके बाद पदम आसन में बैठने का अभ्यास कर । इसके बाद कुम्भक रेचक के प्राणायाम द्वारा प्राणों को साधकर शरीर के अन्दर पहले चक्र - मूलाधार चक्र को बेधना है । कुभंक कर रेचक करवाओ । पहिले मूल सुधार । कारज हो सारा है । 2 इसके बाद कुम्भक रेचक के प्राणायाम द्वारा प्राणों को साधकर मूल स्थिति यानी शरीर को योग और भक्ति हेतु तैयार करो । तब काम बनेगा । मूल कँवल दल चतुर बखानो । कलिंग जाप लाल रंग मानो । मूलाधार चक्र का देवता गणेश हैं । वहाँ 4 दल कमल है । जाप करिंग है । रंग लाल है । देव गनेश तहं रोपा थानो । रिध सिध चँवर ढ़ुलारा है । 3 यहाँ का देवता गणेश है । रिद्धियाँ सिद्धियाँ सेवा कर रही हैं । स्वाद चक्र (6) षटदल बिस्तारो । बृह्मा सावित्री रुप निहारो । स्वाधिष्ठान चक्र का देवता बृह्मा ( सावित्री - बृह्मा की पत्नी ) है । वहाँ 6 दल कमल है । उलटि नागिनी का शिर मारो । तहां शबद (ॐ) ओंकारा है । 4 नागिनी रूपी कुण्डलिनी उल्टा मुँह किये साढे तीन लपेटे मारकर बैठी है । ( इसलिये इंसान को अपनी शक्ति का अहसास नहीं है ) जब यह सीधी होकर उठती है । तब अन्तर में ॐ धुन सुनाई देती है । नाभी (8) अष्टकँवल दल साजा । सेत सिंहासन बिष्नु बिराजा । नाभि चक्र का देवता बिष्णु है । वहाँ 8 अष्ट दल कमल है । हिरिंग जाप तासु मुख गाजा । लछमी शिव आधारा है । 5 यहाँ हिरिंग का जाप है । तथा लक्ष्मी शिव का आधार है । (12) द्वादश कँवल हृदय के माहीं । जंग गौर शिव ध्यान लगाई । हृदय चक्र देवता शंकर है । वहाँ 12 द्वादश दल कमल है । " सोहं " शबद तहाँ धुन छाई । गन करै जै जैकारा है । 6 सोहं शब्द की वहाँ धुन हो रही है । और देवता जय जयकार कर रहे हैं । 16 षोडश दल कँवल कंठ के माहीं । तेहि मध बसे अविद्या बाई । कंठ चक्र की देवी शक्ति देवी हैं । वहाँ 16 सोलह  दल कमल है । हरि हर बृह्मा चँवर ढ़ुलाई । जहँ शरिंग नाम उचारा है । 7 बृह्मा विष्णु महेश यहाँ चँवर ढुलाते हुये देवी की सेवा करते हैं । यहाँ " शरिंग " मन्त्र उच्चारित हो रहा है । ता पर कंज कँवल है भाई । बग भौंरा दुइ रुप लखाई । यहाँ पर कंज कमल है । तथा यहाँ दिव्य भँवरा के दर्शन होते हैं । निज मन करत तहाँ ठकुराई । सो नैनन पिछवारा है । 8 मन का जहाँ निवास है । जिस स्थान का वह स्वामी है । वह स्थान आँखों के पीछे है । कंवलन भेद किया निर्वारा । यह सब रचना पिण्ड मंझारा । यह सव रचना शरीर के बीच में है । जिसको कमलों के द्वारा बाँटा गया है । सतसंग कर सतगुरु सिर धारा । वह सतनाम उचारा है । 9 सतसंग करते हुये जो सतगुरु की शिष्यता गृहण करता है । और सतनाम का जाप करता है । वही इसे जान पाता है । आंख कान मुख बन्द कराओ । अनहद झिंगा शब्द सुनाओ । दोनों आँख कान ( उँगली डालकर या रुई लगाकर ) और मुँह बन्द करके अनहद शब्द जो झींगुर की आवाज के समान है । इसको सुनो । दोनों तिल इक तार मिलाओ । तब देखो गुलजारा है । 10 आँखों की दोनों पुतलियाँ जब एक ( स्वतः हो जाती हैं ) होकर मिलेंगी । तब आप अन्दर के अदृश्य नजारे देखोगे । चंद सूर एकै घर लाओ । सुषमन सेती ध्यान लगाओ । तब सूर्य चन्द्रमा आपके इसी शरीर में एक ही स्थान पर दिखेंगे । तिरबेनी के संघ समाओ । भोर उतर चल पारा है । 11 इङा पिंगला और सुषमणा यानी इन नाङियों के मिलन स्थान त्रिवेणी से ऊपर उठने लगते हैं । घंटा शंख सुनो धुन दोई । 1000 सहस कँवल दल जगमग होई । यहाँ घण्टा और शंख की धुन हो रही है । और 1000 पत्तों वाला कमल जगमगा रहा है । ता मध करता निरखो सोई । बंकनाल धंस पारा है । 12 इसी कमल के मध्य करतार या कर्ता पुरुष विराजमान है । आगे बंक ( टेङी नली के समान - ये ठीक S अक्षर के समान है । यहाँ निकलने में थोङी कठिनाई होती है ।  ) नाल मार्ग आता है । डांकिन सांकिनी बहु किलकारें । जम किंकर धर्मदूत हंकारें । यहाँ पर डाकिनी शाकिनी किलकारियाँ भरती हुयी डराने की कोशिश करती हैं । यम के दूत भय दिलाते हैं । सतनाम सुन भागें सारे । जब सतगुरु नाम उचारा है । 13 लेकिन इस सतनाम को सुनते ही और सतगुरु का ध्यान आते ही वह डर कर भाग जाते हैं । गगन मंडल विच उर्धमुख कुइंआं ।  गुरुमुख साधू भर भर पिया । आकाश मंडल में उल्टा अमृत कुँआ है । जिससे गुरुमुख साधु भर भरकर अमृत पीते हैं । निगुरे प्यास मरे बिन कीया । जा के हिये अंधियारा है । 14 निगुरे कभी इस अमृत को नहीं पी पाते । और उनके ह्रदय में अँधकार ही रहता है । यानी सत्य का प्रकाश कभी नहीं होता । त्रिकुटी महल में विद्या सारा । घनहर गरजें बजे नगारा । त्रिकुटी महल में अदभुत नजारे हैं । नगाङा आदि बाजे बज रहे हैं । इस महल में विध्या के निराले रूप दिखते हैं । लाल बरन सूरज उजियारा । चतुर कँवल मंझार शब्द ओंकारा है । 15 यहाँ लाल रंग है । चार दल कमल है । जिसके मध्य ॐकार ध्वनि उठ रही है । और उजाला फ़ैला हुआ है । साध सोई जिन यह गढ़ लीना । नौ दरवाजे परगट चीन्हा । वही साधु है । जिसने इस नौ द्वारों के इस शरीर के असली भेद को जान लिया । (10) दसवां खोल जाय जिन दीन्हा । जहां कुफुल रहा मारा है । 16 तथा नौ दरवाजों से ऊपर दसवाँ द्वार यानी मुक्ति का द्वार खोल लिया । जहाँ सारे बुरे संस्कार फ़ल नष्ट हो जाते हैं । आगे सेत सुन्न है भाई  । मान सरोवर पैठि अन्हाई । आगे सुन्न का मैदान है । यहाँ आत्मा मान सरोवर में स्नान करती है । हंसन मिल हंसा होइ जाई । मिलै जो अमी अहारा है । 17 यहाँ आत्मा हँसो से मिलकर हँस रूप हो जाती है । और अमृत का आहार करती है । किंगरी सारंग बजै सितारा । अच्छर बृह्म सुन्न दरबारा । यहाँ किरंगी सारंगी सितार आदि बज रहे हैं । यहाँ अक्षर बृह्म का दरबार है । (12) द्वादस भानु हंस उजियारा । खटदल कँवल मंझार शब्द ररंकारा है । 18 यहाँ आत्मा का प्रकाश 12 सूर्य के बराबर हो जाता है । कमल के मध्य ररंकार ध्वनि हो रही है । महासुन्न सिंध बिषमी घाटी । बिन सतगुरु पावै नहिं बाटी । महासुन्न की घाटी और मैदान बहुत ही विशाल और कठिनाईयों से भरा है । बिना सतगुरु के यहाँ से पार होना असंभव ही है । ब्याघर सिंह सरप बहु काटी । तहं सहज अचिंत पसारा है । 19 शेर चीता सर्प अजगर आदि काटने लगते है । (8) अष्ट दल कंवल पारबृह्म भाई । दाहिने द्वादस अचिंत रहाई । पारबृह्म में आठ दल का कमल है । इसके दाँये बारह अचिंत दीप है । बायें (10) दस दल सहज समाई । यूं कंवलन निरवारा है । 20 बाँयी  तरफ़ सहज लोक है । यहाँ दस दल का कमल है । ऐसे कमलों का स्थान है । पांच बृह्म पांचों अंड बीनो । पांच बृह्म नि:अक्षर चीन्हो । ( इस लाइन का अर्थ समझाना बहुत कठिन है । ) चार मुकाम गुप्त तहं कीन्हो । जा मध बंदीवान पुरुष दरबारा है । 21 यहाँ 4 स्थान गुप्त हैं । इसके बीच उन बन्दीवान आत्माओं का निवास है । जो पूरा सतगुरु न मिलने से आगे नहीं जा पायीं । या नाम सुमरन की कमी से । वे जाते हुये सन्तों से प्रार्थना करती हैं । तब कभी कभी सन्त दया करके उन्हें अपने साथ आगे ले जाते हैं । यहाँ आत्मायें आनन्द से तो हैं । पर उन्हें मालिक का दर्शन नहीं होता । दो पर्वत के संध निहारो । भंवर गुफा ते संत पुकारो । इन दोनों पर्वत के बीच भँवर गुफ़ा दिखाई देती है । हंसा करते केल अपारो । तहां गुरन दरबारा है । 22 हँस आत्मायें यहाँ खेलती हुयी आनन्द करती हैं । यहाँ गुरुओं का दरबार है । सहस अठासी(88000) द्वीप रचाये । हीरे पन्ने महल जड़ाये । यहाँ आगे 88000 सुन्दर द्वीप बने हुये हैं । जिनमें हीरा पन्ना आदि जङकर भव्य महलों की तरह निवास बने हैं । मुरली बजत अखंड सदाये । तहं "सोहं" झुनकारा है । 23 यहाँ लगातार बाँसुरी बजती रहती है । यही वो असली बाँसुरी है । जिस पर गोपियाँ झूम उठती थी । यहाँ " सोहं..सोहं " की अखण्ड धुनि हो रही है । सोहं हद तजी जब भाई । सतलोक की हद पुनि आई । सोहं की सीमा समाप्त होते ही सतलोक की सीमा शुरू हो जाती है । उठत सुगंध महा अधिकाई । जा को वार न पारा है । 24 यहाँ इतनी अधिक चंदन की सुगन्ध आ रही है कि उसका वर्णन संभव नहीं है । (16)षोड़स भानु हंस को रुपा । बीना सत धुन बजै अनूपा । अब आत्मा हँस रूप होकर 16 सूर्यों के बराबर प्रकाश वाली हो जाती है । यहाँ वीणा की मधुर अनोखी धुन सुनाई दे रही है । हंसा करत चंवर सिर भूपा । सत्त पुरुष दरबारा है । 25 यहाँ सतपुरुष का दरबार है । जहाँ हँस आत्मायें चंवर ढुला रही हैं । कोटिन भानु उदय जो होई । एते ही पुनि चंद्र लखोई । करोंङों सूर्य एक साथ निकल आयें । और इतने ही चन्द्रमा निकल आयें । पुरुष रोम सम एक न होइ । ऐसा पुरुष दीदारा है । 26 लेकिन सतपुरुष के एक रोम के प्रकाश की बराबरी नहीं कर सकते । सतपुरुष का ऐसा दर्शन होता है । आगे अलख लोक है भाई । अलख पुरुष की तहं ठकुराई । आगे " अलख लोक " है । यहाँ के स्वामी " अलख पुरुष " हैं । अरबन सूर रोम सम नाहीं । ऐसा अलख निहारा है । 27 अरबों सूर्यों का प्रकाश इनके एक रोम से होने वाले प्रकाश की बराबरी नहीं कर सकता । ऐसा न देखे जाने वाला दर्शन सदगुरु कृपा से प्राप्त होता है । ता पर अगम महल इक साजा । अगम पुरुष ताहि को राजा । इसके ऊपर " अगम लोक " है ।  " अगम पुरुष " यहाँ के स्वामी हैं । खरबन सूर रोम इक लाजा । ऐसा अगम अपारा है । 28 खरबों सूर्यों का प्रकाश इनके एक रोम के प्रकाश के आगे फ़ीका है । ऐसा अपार अगम ( जहाँ जाया न जा सके ) शोभायुक्त है । ता पर अकह लोक है भाई । पुरुष अनामी तहां रहाई । इसके ऊपर " अकह लोक " है । यानी जहाँ कुछ भी कहने की स्थिति ही खत्म हो जाती है । और जहाँ पहुँचकर सन्त " मौन हो जाते हैं । शाश्वत आनन्द में पहुँच जाते हैं । यहाँ के स्वामी को ’ अनामी पुरुष " कहा जाता है । यानी इनका कोई भी कैसा भी नाम नहीं हैं । जो पहुँचा जानेगा वाही । कहन सुनन से न्यारा है । 29 यहाँ की असली बात पहुँचने वाला ही जान पाता है । क्योंकि ये कहने सुनने में नहीं आती । यानी इसका कैसा भी वर्णन असंभव ही है । काया भेद किया निर्वारा । यह सब रचना पिंड मंझारा । यह सब अदभुत रचना इसी शरीर के भीतर ही है ।  इस तरह शरीर को भेद द्वारा बाँटकर निर्माण किया है । माया अवगति जाल पसारा । सो कारीगर भारा है । 30 माया ने अपना विलक्षण जाल फ़ैलाकर बहुत भारी कारीगरी दिखाई है । आदि माया कीन्ही चतुराई । झूठी बाजी पिंड दिखाई । आदि माया ने चालाकी से पिंड शरीर में ऐसा ही झूठा खेल बना दिया । पर असल बात कुछ और ही है । अवगति रचन रची अंड माहीं । ता का प्रतिबिंब डारा है । 31 असल रचना का छाया रूप मायावी प्रतिबिम्ब उसने चतुराई से पिण्ड में बना दिया । ताकि साधक धोखे में रहें । अतः सदगुरु के बिना सच्चाई ग्यात नहीं होती । शब्द बिहंगम चाल हमारी । कहैं कबीर सतगुरु दइ तारी । शब्द के सहारे बिना किसी डोर के ( यह शब्द ही खींच लेता है ) बिहंगम यानी पक्षी की तरह उङते हुये सन्त आनन्द से जाते हैं । लेकिन सिर्फ़ वही जा सकते हैं । जिनको सदगुरु कृपा करके चाबी दे देते हैं । खुले कपाट शबद झुनकारी । पिंड अंड के पार । सो ही देश हमारा है । 32 जब अन्दर का दरबाजा खोलकर हम शब्द की धुन झनकार सुनते हैं ।  और अण्ड पिण्ड के पार जाते हैं । तब हमारा असली देश असली घर आता है । at 6:14 am साझा करें ‹ › मुख्यपृष्ठ वेब वर्शन देखें Blogger द्वारा संचालित.

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