Thursday, 30 November 2017

एक क्षण भी ऐसा न जाने पाये

[30/11, 10:11 AM] ‪+91 99834 47956‬: 🙏💐🙏💐🙏💐🙏💐🙏💐

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     🌹🌷सनातन ज्ञान 🌷🌹

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एक क्षण भी ऐसा न जाने पाये की जिसमें भगवान की याद न हो,भगवान की प्राप्ति के लिए हर मुसीबत को सह लो तो वो हो गयी तपस्या।भगवान जब मिलेंगे तब जो आनंद होगा वो संसार के किसी धन,वस्तु या व्यक्ति से संभव नहीं है।अतः लग जाओ उस श्रेष्ठतम की ओर।

माँ के विरह में वेदना की अनुभूति अगर बच्चे को सहज ही होती है तो भगवान के विरह में वेदना की अनुभूति भक्त को भी उतनी ही सहज होती है।

अधम से अधम व्यक्ति भी भगवान को माने यह हो सकता है किन्तु भगवान की आज्ञा माननेवाले तो विरले ही होते हैं।

 सबके हृदय में ईश्वर का वास है अतः किसी के साथ भी वैरभाव न रखे l  दूसरों के साथ वैर भाव रखने वाले व्यक्ति अपने ही साथ वैर भाव  करता है l जैसी भावना आप दूसरों के लिए रखोगे वैसी ही भावना वे आप के लिए रखेंगे l किसी भी जीव के प्रति रखा गया कुभाव ईश्वर के प्रति रखा गया कुभाव है l मनुष्य जब तक निर्मत्सर ना बने तब तक उसका उद्धार नहीं होता l मन में मत्सर मत रखो l मत्सर करने वालों के इह लोक और परलोक दोनों बिगड़ते हैं l मन से मत्सर  निकाल दोगे तो मनमोहन का स्वरूप मन में सुदृढ़ होगा

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          🌹🌷 हरि ॐ 🌷🌹

         🙏🙏💐🌺🌹🙏🙏

             
[30/11, 10:16 AM] ‪+91 99834 47956‬: 🌷मानस में *भगवान शिव* कहते हैं कि --

*"उमा कहूं मैं अनुभव अपना ,सत हरि भजन जगत सब सपना"*
अर्थात् भगवान शिव कहते हैं की हरि का भजन ही सत्य है-- यानि वास्तविक ज्ञान भी यही है की हरि का भजन किया जाए--ओर जो लोग भजन नही करते उन्हें पुराणों में पशु समान कहा गया है--

*"ज्ञानशून्या नरा ये तु पशव: परिकीर्तिता:"*

अर्थात् जो मनुष्य वास्तविक ज्ञान यानि जो मनुष्य भजन नही करता वो पशु समान है।

*क्योंकि पशु भी भजन नही करते*

खाना-पीना,सोना-जागना,घर बनाना,बच्चे पैदा करना यह सब कार्य एक जानवर भी करता हैं।

*अगर मनुष्य देह पाकर भी मनुष्य सारा जीवन यही काम करता रहेगा तो मनुष्य और पशु मे कोई अंतर नही रहा*--

कहा भी गया हैं कि -

"आहार निद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्--
धर्मो हि तेषामधिको विशेष:
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः"

*अर्थात् धर्म से हीन मनुष्य पशु समान हैं*

इस मानव देह की बहुत महिमा है-- देवताओं ने यह नही कहा की प्रभु हमें पशु बना दो ।

देवता केवल यही प्रार्थना करते हैं की प्रभु हमे मनुष्य देह दे दीजिये।

नारद पुराण मे कहा गया --

*"दुर्लभ मानुषं जन्म ,प्राथ्यते त्रिदशैरपि"*

अर्थात् इस दुर्लभ मानव देह को देवता लोग भी चाहते हैं क्योंकि इस देह से हम वास्तविक आनंद प्राप्त कर सकते हैं।

इस मानव देह से ही हम भगवान के सन्मुख हो सकते हैं क्योंकि

*"विमुख राम सुख पाव न कोई"*

भगवान से विमुख होकर जीव को कभी सुख नही मिल सकता

इसलिए इस मानव देह में ही मनुष्य भगवान के सन्मुख होने का *ज्ञान/ विवेक* प्राप्त कर सकता है और अनंतकाल के लिए आनंद प्राप्त कर सकता है-- पशु इस विवेक को प्राप्त नही कर सकते-- केवल मानव देह से ही ये वास्तविक विवेक प्राप्त होता है।🌷

हरे कृष्ण 🙏
*श्री कृष्ण सदैव आपकी स्मृति में रहें!!*
[30/11, 10:16 AM] ‪+91 99834 47956‬: ‼🙌‼
*मनुष्य की चाल धन से भी बदलती*
*है और धर्म से भी बदलती है..*

*जब धन संपन्न होता है तब अकड़*
*कर चलता है, और जब धर्म संपन्न होता है,*
*तो विनम्र होकर चलता है..!!*
*जिंदगी भले छोटी देना मेरे भगवन्..*
*मगर देना ऐसी -*,
*कि सदियों तक लोगो के दिलों मे -*
*जिंदा रहूँ और हमेशा अच्छे कर्म कर सकूं..!!*
      *🌹😊🙏🏻सुप्रभात🙏🏻😊 🌹*
*🙏🏻🌹आपका दिन मंगलमय हो*🙏🏻🌹
[30/11, 10:20 AM] ‪+91 99834 47956‬: *" मृत्यु अटल है। "*

*" जीवन यज्ञ में मनुष्य की अंतिम आहुति उसका शरीर है जो कि चिता की यज्ञवेदी पर आहूत किया जाता है। हम प्रयत्न करें कि इस अंतिम आहुति के समय हमारे चरित्र पर कोई दाग न रहे, हमारे हाँथ किसी के रक्त से लाल न हुए हों, हमारे पैरों में लोभ और मोह की बेड़ियाँ न पड़ें, हमारे पेट में किसी दूसरे के हिस्से की रोटी न हो, हमारे कानों में हमारे किये गए क्रूर कर्मों की प्रतिध्वनियाँ न गूँजें, हमारी स्वांस में प्रभु का स्मरण रहे और हमारी आँखों में संसार के प्रति अथाह प्रेम और करुणा रहे।"*
*" कब जाना है? कहाँ जाना है? कैसे जाना है? यह आज तक कोई जान न पाया, क्योंकि मौत कभी रिश्वत नही लेती।"*
🚩
[30/11, 10:20 AM] ‪+91 99834 47956‬: अमर योगी महाराजा भर्तृहरि !

सत्यं जन वच्मि न पक्षपाता
ल्लोकेषु सर्वेषु च तथ्यमेतत्
नान्यन्मनोहरि नितम्बनीभ्यो
दुःखैकहेतुर्न च कश्चिदन्यः।।

सार है कि बिना भेदभाव के यह सच
है कि सारी लोकों में सारे सुखों की जड़
कामिनी स्त्री को छोड़कर कोई अन्य स्त्री
नहीं है।
किंतु यही स्त्री कई दुःखों की वजह भी
बनती है।

प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (नूतन संवत्सर)
पर हम राजा विक्रमादित्य और उनकी गौरव
गाथा याद करते हैं; पर उनके बड़े भाई
महाराजा भर्तृहरि की कथा भी अत्यन्त
प्रेरक है।

यदि भर्तृहरि वैरागी न बनते, तो न राजा
विक्रमादित्य होते और न उनकी गौरव
गाथाएं।

सूर्यवंशी भर्तृहरि का जन्म क्षिप्रा के तट
पर स्थित ऐतिहासिक नगर अवन्तिका
(उज्जैन) में हुआ था।

वे रघुकुलभूषण श्रीराम के छोटे
भाई लक्ष्मण के पुत्र मालव के
कुल में जन्मे थे,
जिनके नाम पर यह क्षेत्र मालवा
कहलाता है।

उनके पिता गंधर्वसेन या चंद्रसेन की
पहली पत्नी से भर्तृहरि तथा मैनावती
और दूसरी से विक्रमादित्य का जन्म
हुआ था।

नामकरण के समय कुल पुरोहित ने
कहा कि 17वें वर्ष में इसका विवाह
होगा; पर 18वें वर्ष में यह उत्तर दिशा
के जंगल में सफेद घोड़ी पर बैठकर
काले हिरण का शिकार करेगा।

इससे इसके मन में वैराग्य उत्पन्न होगा
और यह योगी बन जाएगा।

राजा भर्तृहरि न्याय,नीति,धर्मशास्त्र,
भाषा,व्याकरण के विद्वान होने के
साथ प्रजा और प्रकृति को भी
चाहने वाले थे।
वे धर्म विरोधियों को कड़ी सजा देने
से नही चूकते थे।

वे धर्मनिष्ठ, दार्शनिक व अमरयोगी भी
माने जाते हैं।

राजा-रानी की चिंताओं के बीच भर्तृहरि
ने गुरुकुल में शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा
पाई और 16वें वर्ष में घर वापस आकर
वे राजा बने।

शासन व्यवस्था अति उत्तम होने के कारण
उनका राज्य एक आदर्श राज्य बन गया।

राजा भर्तृहरी ज्ञानी और 2 पत्नियां होने
के बावजूद भी पिंगला नाम की अति सुंदर
राजकुमारी पर मोहित हुए। 

17 वें वर्ष में सिंहल देश की राजकुमारी
पिंगला से उनका विवाह हुआ।
राजा ने पिंगला को तीसरी पत्नी बनाया।
पिंगला के रूप-रंग पर आसक्त राजा
विलासी हो गए।

यहां तक कि वे पिंगला में मोह में उसकी
हर बात को मानते और उसके इशारों पर
काम करने लगे।

विवाह होते ही भर्तृहरि का मन राजकाज
से उचट गया और वे दिन-रात पत्नी के
साथ भोग में रम गये।किंतु इसका फायदा
उठाकर पिंगला भी व्यभिचारी हो गई और
घुड़साल के रखवाले से ही प्रेम करने लगी।

आसक्त राजा इस बात और पिंगला के
बनावटी प्रेम को जान ही नहीं पाए।

उनके भोग-विलास में लिप्त रहने से
राज्य का भार छोटे भाई विक्रमादित्य
पर आ गया।

उन्होंने कई बार बड़े भाई को समझाया;
पर भर्तृहरि काम के प्रभाव में थे।
दोनों पत्नियों के साथ भर्तृहरि राजकाज
को पूरी तरह भूल गये।

जब छोटे भाई विक्रमादित्य को यह बात
मालूम हुई और उन्होंने बड़े भाई के सामने
इसे जाहिर किया।

इतना ही नहीं,अनंगसेवा की झूठी शिकायत
पर उन्होंने विक्रमादित्य को राज्य से निकाल
दिया।

(इस बात पर मतभेद है कि विक्रमादित्य
को अनंगसेवा के कहने पर निकाला गया
या पिंगला के कहने पर)

ऐसा कहते हैं कि भर्तृहरि पूर्व जन्म में
योगी थे।

एक बार देवलोक में गोरखनाथ से उनके
गुरु मच्छेन्द्रनाथ ने कहा कि भर्तृहरि इस
जन्म में योग की बजाय भोग में लिप्त हो
गया है।

अतः उसे फिर से योगी बनाना है।
गुरु की आज्ञा मानकर गोरखनाथ वेष
बदलकर भर्तृहरि के राज्य में आये और
उनकी अश्वशाला(घुडसाल) के प्रमुख
बन गये।

एक बार एक संन्यासी ने राजा भर्तृहरि
को एक अमरफल देकर कहा कि इसे
खाने वाला सदा युवा बना रहेगा।

राजा उन दिनों अनंगसेवा के साथ
अधिक रहते थे।
उन्होंने सोचा कि यदि यह फल अनंगसेवा
खाएगी,तो वह चिरयुवा रहकर मुझे तृप्त
करती रहेगी।
अतः उन्होंने वह फल उसे दे दिया। 
पर रानी अनंगसेवा राजा से पूर्ण संतुष्ट
नहीं थी।
वह उनके सारथी चंद्रचूड़ से प्रेम
करती थी।

उसने फल चंद्रचूड़ को दे दिया।
चंद्रचूड़ एक वेश्या का प्रेमी था,
उसने फल वेश्या को दे दिया।
इधर भर्तृहरि भी यदाकदा उस
वेश्या के पास जाते थे।

अगले दिन जब वह वहां गये, तो
वेश्या ने फल भर्तृहरि के हाथ में
रख दिया।  
फल देखकर भर्तृहरि के होश उड़ गये।

उन्होंने तलवार निकाली तो वेश्या,
चंद्रचूड़ और अनंगसेवा की पूरी कथा
सामने आ गयी।
इससे अनंगसेवा को इतनी आत्मग्लानि
हुई कि उसने आत्मदाह कर लिया।

राजा इससे उदास रहने लगे।
एक बार मन बहलाने के लिए वह शिकार
को गये।
वहां उनके साथी ने एक हिरन को मारा;
पर उसी समय वह स्वयं भी सर्पदंश से
मर गया।

उसकी पत्नी अपने पति के साथ चिता
पर चढ़ गयी।
जब राजा ने यह घटना पिंगला को बताई,
तो उसने कहा कि साध्वी नारी पति की
मृत्यु की बात सुनते ही प्राण छोड़ देती है।

यह बात राजा के मन में बैठ गयी। 
फल वाली घटना और अनंगसेवा की
मृत्यु से भर्तृहरि का मन राजकाज से
उचट गया।

इससे राज्य की हालत बिगड़ने लगी।
ऐसे में उन्हें फिर अपने भाई की याद
आई।
उन्होंने प्रयासपूर्वक अपने भाई को ढूंढा
और उसे फिर राजकाज संभालने को
कहा।

इधर राजा अपना अधिकांश समय
पिंगला के महल में बिताने लगे।
उसके साथ रहकर राजा को अनुभव
हुआ कि वह कितनी सात्विक,उदार
और बड़े हृदय की नारी है।
इससे वे आत्मग्लानि में डूब गये। 

अंततः राजा के जीवन का 18 वां वर्ष
प्रारम्भ हो गया।
राजा उस दिन सुबह से ही शिकार की
तैयारी कर रहे थे।

रानी पिंगला को पुरोहित की भविष्यवाणी
मालूम थी।
अतः उसने यह प्रसंग टालना चाहा;
पर विधि का विधान कौन टाल
सकता है ?

अश्वशाला के प्रमुख ने सफेद घोड़ी
तैयार कर दी।
राजा मानो किसी डोर से बंधे उत्तर
दिशा में ही शिकार के लिए चल दिये। 

जंगल में राजा ने देखा कि बहुत से
हिरनियों के बीच एक काला नर हिरन
विद्यमान है।

राजा के धनुष चढ़ाते ही हिरनियों ने
उनसे झुंड के एकमात्र नर को न मारने
की प्रार्थना की;
पर राजा ने तीर चला दिया।
यह देखकर हिरनियों ने भी एक-एक
कर उसके पास आकर प्राण त्याग दिये। 
राजा यह देखकर भौचक रह गया।

मरते हुए हिरन ने राजा से कहा कि वे
उसकी खाल गोरखनाथ जी को तथा
सींग किसी जोगी को दे दें,जिससे बनी
सेली (सींगवाद्य) बजाकर वह सबको
राजा भर्तृहरि के पाप की कहानी सुनाएं।

राजा उस हिरन के वचन सुनकर तथा
हिरनियों का प्रेम देखकर दंग रह गया।
उसे लगा कि उसने पूर्वजन्म के किसी
बड़े धर्मात्मा की हत्या कर दी है।

तभी वहां योगी गोरखनाथ जी का
आगमन हुआ।
राजा की प्रार्थना पर उन्होंने भभूत
डालकर हिरन और हिरनियों को
जीवित कर दिया।

अब राजा ने भी उनसे दीक्षा लेनी चाही।
गोरखनाथ ने कहा कि दीक्षा तभी मिल
सकती है, जब इस जन्म के साथ ही
पूर्व जन्मों की आसक्ति भी मिट जाए।
इसके लिए तुम राजसी वस्त्र त्यागकर
अपने महल में जाओ और रानी पिंगला
को मां कहकर भिक्षा लाओ।  

गोरखनाथ जी की आज्ञानुसार भर्तृहरि
अपने महल में जाकर मां पिंगला से
भिक्षा मांगने लगा।
पिंगला ने उन्हें बहुत समझाया;
पर राजा तो वैराग्य की गंगा में नहा
रहा था।
इस अवसर पर भर्तृहरि और पिंगला
का संवाद बहुत मार्मिक है।

काफी देर बाद पिंगला ने उसे भिक्षा में
अपना सौभाग्य चिन्ह दे दिया।
उसका विचार था कि इससे राजा के मन
में जमी वासनाएं फिर से नहीं उभरेंगी। 

अब गोरखनाथ जी ने उसे अपनी बहिन
मैनावती के घर से भिक्षा लाने को कहा।

मैनावती ने उसे साधारण जोगी समझकर
दासी के हाथ से भिक्षा भेजी; पर भर्तृहरि
ने रानी मैनावती के हाथ से ही भिक्षा लेने
की जिद की।
इस पर उसने बाहर आकर अपने भाई को
भिक्षा दी।
यहां उन दोनों में जगत की निःसारता पर
रोचक एवं ज्ञानवर्धक संवाद हुआ।
बहिन के आग्रह पर भर्तृहरि ने वचन दिया
कि वह जब भी याद करेगी,
वह उससे मिलने आएंगे।  

अब गोरखनाथ जी ने भर्तृहरि को
अरावली की गुफाओं में तप करने
को कहा।

भर्तृहरि को पिंगला की वह बात याद
थी,जो उसने राजा के एक साथी की
सर्पदंश से मृत्यु पर कही थी कि साध्वी
स्त्री अपने पति की मृत्यु का समाचार
सुनते ही देह त्याग देती है।  

भर्तृहरि ने इसकी परीक्षा करने के लिए
सेवक को खून में सने अपने राजसी वस्त्र
देकर पिंगला के पास भेजा।

सेवक ने रानी को बताया कि उनकी बातों
पर विचार करने से भर्तृहरि का वैराग्य
छूट गया।
वे राजसी वस्त्र पहनकर वापस आ रहे थे
कि एक शेर ने हमलाकर उन्हें मार डाला।

यह सुनते ही रानी के दाहिने पैर के अंगूठे
से अग्नि प्रकट हुई,जिससे कुछ ही समय
में उन रक्तरंजित वस्त्रों के साथ उसकी देह
भस्म हो गयी। 

अब तो राजा के मन के सब बंधन कट गये।
उन्होंने गोरखनाथ जी को सब बात बताई।

गोरखनाथ जी ने भर्तृहरि के साथ महल में
जाकर श्रद्धाभाव से रानी की भस्म माथे पर
लगाई तथा नाथ संप्रदाय की दीक्षा देकर
भर्तृहरि के कान में कुंडल पहना दिये।

इस प्रकार गोरखनाथ ने अपने गुरु को
दिया वचन पूरा कर दिया।   

अब योगी भर्तृहरि ने देश भ्रमण करते
हुए कई स्थानों पर तपस्या की।
प्रयाग के कुंभ में उनकी भेंट अपने भानजे
गोपीचंद से हुई।
वह भी उस समय योगी हो चुका था।

कुंभ के बाद दोनों अलवर के पास
त्रिगर्तनगर (तिजारा) में लगातार
बारह वर्ष तक रहे।

यहां थानाभक्त नामक कुम्हार ने उनके
भोजनादि की व्यवस्था की; पर इससे
उसकी पत्नी बहुत रुष्ट हो गयी।
अतः कुम्हार की अनुपस्थिति में वे उसे
भरपूर धन देकर चले गये।
तिजारा में स्थित भर्तृहरि गुम्बज उनकी
स्मृति को चिरस्थायी बनाये है।
  
इसके बाद भर्तृहरि ने अरावली की
पहाडि़यों में ध्यान करते हुए अपनी
देह त्याग दी।

उनके शरीर पर मिट्टी की परत चढ़ती
गयी और क्रमशः वहां एक टीला बन
गया।

गुरु गोरखनाथ के प्रताप से वहां सिर
झुकाने वालों की मनोकामना पूर्ण होने
लगीं।

आज यहां एक भव्य मंदिर बना है,
जिसमें बाबा भर्तृहरि की अखंड
ज्योति जलती है।

उनकी पुण्य तिथि भादों शुक्ल अष्टमी 
को यहां विशाल लक्खी मेला होता है,
जिसमें देश भर से हिरण का सींगवाद्य
(सेली) साथ रखने वाले नाथ सम्प्रदाय
के योगी अवश्य आते हैं। 

कविहृदय भर्तृहरि ने अपने जीवन के
सम्पूर्ण अनुभव को शतकत्रयी (शृंगार
शतक, नीति शतक तथा वैराग्य शतक)
में प्रस्तुत किया है।
उन्होंने संस्कृत के प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ
‘वाक्यपदीय’ की रचना भी की है।
उनका जीवन भोग से योग तथा भुक्ति से
मुक्ति की गाथा है।

नाथ पंथ की मान्यता के अनुसार वे
अमर हैं।
उनकी अमरता की गाथा आज भी
लोकगीतों और लोककथाओं में
जीवित है।

आत्मज्ञान की स्थिति में राजा भर्तृहरि ने
भर्तृहरि शतक ग्रंथ में समाए "श्रृंगार शतक"
के जरिए सौंदर्य खासतौर पर स्त्री सौंदर्य से
जुड़ी वे पहलू उजागर किए,जिनको कोई
मनुष्य नकार नहीं सकता।

जानिए क्या हैं स्त्रियों के स्वभाव व
रूप-रंग से जुड़ी ये खास बातें –

स्मितेन भावेन च लज्जया भिया
परांमुखैरर्द्ध कटाक्ष वीक्षणैः।
वचोभिरीर्ष्या कलहेन लीलया।
समस्त भावैः खलु बन्धानं स्त्रियः।।

सरल शब्दों में मतलब है कि स्त्री की मोहित
करने वाली हल्की हंसी,शरमाना,शिकायत के
भाव से नजरें फेरना, मीठे बोल या फिर तानों
से भरी बात ही व तरह-तरह के हाव-भाव
किसी भी सांसारिक व्यक्ति को बंधन में बांध
देते हैं या मोह जाल में फंसा लेते हैं।

स्मितं किंचिद्वक्त्रे सरलतरलो दृष्टविभवः
परिस्पन्दो वाचामभिनवविलासोक्ति सरसः।
गतानामारम्भः किसलयितलीलापरिकरः
स्पृशन्त्यस्तारुण्यं किमिह न हि रम्यं मृगदृशः।।

यानी नवयुवतियों के हर अंग से ही सौंदर्य
झलकता है।
मसलन चांद से चेहरे पर मंद मुस्कान,सरल,
कुदरती और चंचल नजर,खुलकर,हाव-भाव
व इशारों के साथ बातचीत करना,सधी चाल-
ढाल आदि में सुंदरता समाई होती है।

वक्त्रं चंद्रविकासि पंड्कज परीहासक्षमे लोचने
वर्णः स्वर्णमपाकरिष्णुरलिनीजिष्णुः कचानांचयः
वक्षोजाविभकुंभसंभ्रम हरौ गुवी नितम्बस्थली
वाचां हारि च मार्दवं युवतिष स्वाभाविकं मण्डनम्।।

सार है कि पूर्णिमा के चांद जैसे चेहरे वाली,
कमल की सुंदरता फीकी करने वाली आंखें,
सोने जैसी देह,भौंरों से भी ज्यादा काले लहराते
बाल,मीठे बोल व निखरा रंग-रूप व मोहक कद-
काठी स्त्री के स्वाभाविक गहने हैं।
इसलिए वे सजधज न भी करें तो बेहद खूबसूरत
नजर आती है।

एताश्चलद्वलय सहतिमेलोत्थ
झंकारनूपुर पराजित राजहंस्यः।
कुर्वन्ति कस्य न मनो विवशं तरुण्यो
वित्रस्त मुग्धहरिणी सदृशैः कटाक्षैः।।

सार है कि स्त्री के कंगन की खनक,पायल
की आवाज व चलने की अदा राजहंसिनियों
की चाल को भी पीछे छोड़ देती हैं।
ऐसी सुंदर आंखों वाली स्त्रियां किसके मन
को वशीभूत नहीं करती।

धन्यास्त एव तरलायतलोचनानाम्।
तारुण्य रूप धन पीनपयोधराणाम्।
क्षामोदरीपरिलसत्यिवलीलतानाम्
दृष्टवाकृतिं विकृतिमेति मनो न येषाम्।।

सार है कि सुंदर व चंचल आंखों वाली,
जवान,पतली कमर वाली,खूबसूरत
रंग-रूप वाली सुंदरी को देखने पर
भी जिन पुरुषों का मन डांवाडोल
नहीं होता वे धन्य है।

मालती शिरसि जृम्भणोन्मुखी
चन्दनं वपुषि कुंकुमान्वितम्।
वक्षसि प्रियतमा मनोहरा
स्वर्ग एष परिशिष्ट आगतः।।

यानी जिसके गले में मालती के फूलों की
कलियों का सुंगधित हार हो।
केशर चंदन का लेप शरीर पर लगा हो या
फिर बाल सिर पर आगे की लटके हो,
ऐसी स्त्री का नजदीक होना और साथ
में वक्त गुजारने के आगे स्वर्ग के सुख
भी कमतर है।

आदर्शमे दर्शन मात्र कामा
दृष्टवा परिष्वंग सुखैक लोला।
आलिंगितायां पुनरायताक्ष्या
माश्यास्महे विग्रहयोरभेदम्।।

सार है कि जब व्यक्ति को अपनी पत्नी या
प्रेमिका नजर नहीं आती तो उसको देखने
को इच्छुक रहता है।
जब वह सामने आती है तो मिलने को आतुर
होता है और मिलने पर यह इच्छा होती है कि
वे कभी एक-दूसरे से अलग न हो।

तावदेव कृतिनामपि स्फुरत्येष निर्मूल विवेक
दीपकःयावदेव न कुरंग चक्षुषा ताड्यते
चपललोचनांचलैः।।

यानी हिरण के समान चंचल आंखों वाली
स्त्री के आंचल की हवा जब तक नहीं लगती,
तब तक ही बड़े विद्वानों का विवेक काम
करता है।

सत्यं जन वच्मि न पक्षपाता
ल्लोकेषु सर्वेषु च तथ्यमेतत्
नान्यन्मनोहरि नितम्बनीभ्यो
दुःखैकहेतुर्न च कश्चिदन्यः।।

सार है कि बिना भेदभाव के यह सच है कि
सारी लोकों में सारे सुखों की जड़ कामिनी
स्त्री को छोड़कर कोई अन्य स्त्री नहीं है।
किंतु यही स्त्री कई दुःखों की वजह भी
बनती है।

तावदेवामृतमयी यावल्लोचन गोचरा।
चक्षुः पथादपगता विषादप्यतिरिच्यते।।

यानी जब स्त्री पास होती है तो अमृत की
तरह सुख मिलता है।
किंतु दूर जाते ही जहर की तरह संताप
व दुःख होता है।

संसार तव निस्तार पदवी न दवीयसी।
अन्तरा दुस्तर न स्युर्यदि ते मदिरेक्षणा।।

सार है कि अगर कोई सुंदर स्त्री राह में न
आए तो संसार से पार पाना कोई मुश्किल
काम नहीं है।

उन्मत्तप्रेमसंरम्भादरभन्ते यदंगनाः।
तव पत्यूहमाधातुं ब्रह्मापि खलु कातरः।।

यानी प्रेम के वशीभूत स्त्री जिस काम को
करती है उसे ब्रह्मदेव भी नही रोक सकते।
यानी जब वे ही नहीं रोक पाते तो औरों की
बिसात क्या।

प्रणयमधुराः प्रेमोदगाढ़ा रसादलसास्तथा
भणितमधुराः मुग्धप्रायाः प्रकाशित सम्पदाः।
प्रकृति सुभगा विश्रसम्भार्हाः स्मरोदयायिनी।
रहसि किमपि स्वैरालापा हरन्ति मृगो दृशाम्।।

यानी अकेले में जब दो स्त्रियां बाते करती
हैं तो उनकी मीठी-मीठी प्रेम भरी बातें,
आवाज या गोपनीय बातें किसी के भी
मन को मोह लेती हैं।

नूनं हि ते कविवरा विपरीत बोधा
ये नित्यमाहुरबला इति कामिनीनाम्।
याभिर्विलोलतरतारक दृष्टिपातै
शक्रादयोपि विजितास्त्वबलाः कथं ताः।।

सार है कि जो भी कवि स्त्री को अबला
पुकारते हैं वे झूठ कहते हैं।
क्योंकि उनकी चंचल आंखों के आगे तो
ताकतवर वज्र रखने वाले इन्ददेव भी हार
मान लेते हैं।

तो फिर वे अबला किस तरह हुईं।
-#साभार_संकलित;;

नारी तू नारायणी,,,,,

जयति पुण्य सनातन संस्कृति,
जयति पुण्य भूमि भारत,

अमरयोगी भर्तृहरि की जय,,,

सदा सर्वदा सुमंगल,
जय बाबा गोरखनाथ
हर हर महादेव,
जय भवानी,
जय श्री राम,,

Wednesday, 29 November 2017

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः

*चित्त शुद्धिकरण ही है अध्यात्मसिद्धि*
            *( भाग -3)*

*योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः*  --योग का मूल उद्देश्य चित्त वृत्तियों का निरोध है।

योगदर्शन को महर्षि पतंजलि ने चार भागों में विभाजित किया-

*प्रथमः –* समाधिपाद
*द्वितीय –* साधनपाद
*तृतीय –* विभूतिपाद और *चतुर्थ –* कैवल्यपाद ।

अष्टांग योग योगदर्शन के साधनपाद वाले भाग में आता है । जिसकी व्याख्या महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंगों के रूप में की है ।

           *अष्टांग योग*

अर्थात यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ।

योग के इन आठ अंगों का अनुष्ठान करने अर्थात आचरण में लाने से चित्तवृत्तियों का शुद्धिकरण होता है, जिससे  उसका अविद्या का आवरण हट जाता है और आत्मस्वरूप का ज्ञान हो जाता है।

*(1) यम –* अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पांच यम कहलाते है ।
सभी यम धर्मं के रक्षक है, अतः जहाँ यम धर्मं के विरोधी हो जाये वहाँ धर्मं को प्रधानता दे ।

*(2) अहिंसा –*मन, वाणी और कर्म से कभी भी किसी भी प्रकार के प्राणी को दुःख नहीं देना अहिंसा है । दुसरे शब्दों में प्राणीमात्र से प्रेम अहिंसा है ।” विरोधी भाव - देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए की गई हिंसा भी अहिंसा है, क्योंकि वह धर्मं की रक्षक है ।

*(3)सत्य –*  इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान हो उसे वैसा का वैसा व्यक्त करना सत्य है । विरोधी भाव – लंगड़े को लंगड़ा कहना सत्य है, गूंगे को गूंगा कहना भी सत्य है, किन्तु अहिंसा का विरोधी होने से अधर्म है । अतः व्यर्थ का कटु सत्य कभी ना बोले ।

*(4)अस्तेय –*  दूसरों के विचारों, अधिकारों या वस्तुओं का अपहरण करना चोरी (स्तेय) है, इसके विपरीत
अस्तेय है ।

*(5)ब्रह्मचर्य -*  मन, वचन और कर्म से सभी अवस्थाओं में सभी प्रकार के मिथुनों का त्याग ब्रह्मचर्य है ।

*मनसा वाचा कर्मणा सर्वावस्थासु सर्वदा ।*
*सर्वत्र मैथुन त्यागी ब्रह्मचर्यं प्रचक्षते ।।*

इसलिए प्रत्येक साधक को चाहिए कि उत्तेजक पदार्थों के सेवन, कामोद्दीपक दृश्यों के दर्शन, गीतों के श्रवण से बचें और सभी प्रकार से ब्रह्मचर्य की रक्षा करें ।

*(6)अपरिग्रह –* व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए धन-संम्पति का संग्रह परिग्रह और इसके विपरीत इसके अभाव का नाम अपरिग्रह है ।

*(2) नियम –*शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान यह पांच नियम कहलाते है ।

सभी नियम आत्मा, मन और इन्द्रियों की स्वच्छता व पवित्रता के पोषक और शोधक है , अतः जहाँ नियम पवित्रता विरोधी हो जाये वहाँ पवित्रता को प्रधानता दे ।

*शौच –* मनुस्मृति में कहा गया है कि

*अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति, मनः सत्येन शुध्यति ।*

*विद्यातपोभ्याम भूतात्मा, बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति ।।*

अर्थात् जल से बाहर के अंगो यथा हाथ, पैर आदि शारीरिक अंग को शुद्ध रखे, सत्य के पालन से मन को शुद्ध रखे, विद्या और तप से जीवात्मा का शुद्धिकरण करें, ज्ञान से बुद्धि का शुद्धिकरण करें । शौच स्वयं पवित्रता का प्रतीक है अतः इसमें विरोधी भाव संभव नहीं ।

*संतोष –* अपने किये गये प्रयत्न के अनुसार जो फल मिले उसमें प्रसन्न रहना संतोष है । कहा भी गया है “ संतोषी सदा सुखी ” जिसे अपने किये गये कर्म में संतोष तथा कर्मफल में विश्वास रहता है वह हमेशा सुखी रहता है । इसलिए आप जो भी करें ईश्वर का कार्य समझ कर करें जिससे आपको असंतोष ना हो ।

*तप –* धर्मं और कर्तव्य कर्म के लिए कष्ट सहन को तप कहते है । हमारा धर्मं है कि आत्मा को अविद्या की राह से हटाकर विद्या के प्रकाशमय पथ का अनुसरण कराये । इसके निमित्त जो सर्दी – गर्मी, भूख – प्यास आदि कष्ट सहन किया जाता है, वह सभी तप की श्रेणी में आते है । तप संकल्प से किये जाते है, नकल से नहीं । अधिकांश लोग दूसरों का अनुकरण करके व्रत – उपवास आदि रखना शुरू कर देते है किन्तु यह मुर्खता है । आप जो भी तप का अभ्यास करों, उसके पीछे संकल्प होना चाहिए । आपके पास अपने तप का स्पष्ट कारण होना चाहिए कि आप ऐसा क्यों कर रहे है । कोई भी ऐसा तप ना करे , जिससे लाभ के बजाय हानि की सम्भावना अधिक हो ।

*स्वाध्याय –* स्वाध्याय के दो अर्थ लिए जाते है, पहला – स्वयं का अध्यनन करना और दूसरा सद्ग्रंथो का अध्यनन करना । जिस तरह हमें प्रतिदिन भोजन की आवश्यकता होती है उसी तरह आत्मा को भी प्रतिदिन स्वाध्याय रूपी भोजन की आवश्यकता होती है । स्वाध्याय स्वयं को प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया का नाम है । आज का वातावरण बहुत ही कलुषित हो चूका है, तथा प्रतिदिन मार्गदर्शन प्रदान करने वाले गुरु का सुयोग आज के समय में संभव नहीं । इसलिए विद्वान मनुष्य को चाहिए कि सदग्रंथ को अपना मार्गदर्शक मानकर अपने जीवन को ईश्वरीय मार्ग के लिए प्रशिक्षित करें ।

*ईश्वर प्रणिधान –* अर्थात,जो भी करें, ईश्वर को समर्पित कर दे । इससे कर्ता होने का अहंकार नहीं होगा । ईश्वर को हर समय अपने साथ अनुभव करें ।

क्रमशः

*जय जय सियाराम जी ।*
*श्री राम चरन अनुरागी समूह*
*9991990001*