*चित्त शुद्धिकरण ही है अध्यात्मसिद्धि*
*( भाग -3)*
*योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः* --योग का मूल उद्देश्य चित्त वृत्तियों का निरोध है।
योगदर्शन को महर्षि पतंजलि ने चार भागों में विभाजित किया-
*प्रथमः –* समाधिपाद
*द्वितीय –* साधनपाद
*तृतीय –* विभूतिपाद और *चतुर्थ –* कैवल्यपाद ।
अष्टांग योग योगदर्शन के साधनपाद वाले भाग में आता है । जिसकी व्याख्या महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंगों के रूप में की है ।
*अष्टांग योग*
अर्थात यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ।
योग के इन आठ अंगों का अनुष्ठान करने अर्थात आचरण में लाने से चित्तवृत्तियों का शुद्धिकरण होता है, जिससे उसका अविद्या का आवरण हट जाता है और आत्मस्वरूप का ज्ञान हो जाता है।
*(1) यम –* अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पांच यम कहलाते है ।
सभी यम धर्मं के रक्षक है, अतः जहाँ यम धर्मं के विरोधी हो जाये वहाँ धर्मं को प्रधानता दे ।
*(2) अहिंसा –*मन, वाणी और कर्म से कभी भी किसी भी प्रकार के प्राणी को दुःख नहीं देना अहिंसा है । दुसरे शब्दों में प्राणीमात्र से प्रेम अहिंसा है ।” विरोधी भाव - देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए की गई हिंसा भी अहिंसा है, क्योंकि वह धर्मं की रक्षक है ।
*(3)सत्य –* इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान हो उसे वैसा का वैसा व्यक्त करना सत्य है । विरोधी भाव – लंगड़े को लंगड़ा कहना सत्य है, गूंगे को गूंगा कहना भी सत्य है, किन्तु अहिंसा का विरोधी होने से अधर्म है । अतः व्यर्थ का कटु सत्य कभी ना बोले ।
*(4)अस्तेय –* दूसरों के विचारों, अधिकारों या वस्तुओं का अपहरण करना चोरी (स्तेय) है, इसके विपरीत
अस्तेय है ।
*(5)ब्रह्मचर्य -* मन, वचन और कर्म से सभी अवस्थाओं में सभी प्रकार के मिथुनों का त्याग ब्रह्मचर्य है ।
*मनसा वाचा कर्मणा सर्वावस्थासु सर्वदा ।*
*सर्वत्र मैथुन त्यागी ब्रह्मचर्यं प्रचक्षते ।।*
इसलिए प्रत्येक साधक को चाहिए कि उत्तेजक पदार्थों के सेवन, कामोद्दीपक दृश्यों के दर्शन, गीतों के श्रवण से बचें और सभी प्रकार से ब्रह्मचर्य की रक्षा करें ।
*(6)अपरिग्रह –* व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए धन-संम्पति का संग्रह परिग्रह और इसके विपरीत इसके अभाव का नाम अपरिग्रह है ।
*(2) नियम –*शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान यह पांच नियम कहलाते है ।
सभी नियम आत्मा, मन और इन्द्रियों की स्वच्छता व पवित्रता के पोषक और शोधक है , अतः जहाँ नियम पवित्रता विरोधी हो जाये वहाँ पवित्रता को प्रधानता दे ।
*शौच –* मनुस्मृति में कहा गया है कि
*अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति, मनः सत्येन शुध्यति ।*
*विद्यातपोभ्याम भूतात्मा, बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति ।।*
अर्थात् जल से बाहर के अंगो यथा हाथ, पैर आदि शारीरिक अंग को शुद्ध रखे, सत्य के पालन से मन को शुद्ध रखे, विद्या और तप से जीवात्मा का शुद्धिकरण करें, ज्ञान से बुद्धि का शुद्धिकरण करें । शौच स्वयं पवित्रता का प्रतीक है अतः इसमें विरोधी भाव संभव नहीं ।
*संतोष –* अपने किये गये प्रयत्न के अनुसार जो फल मिले उसमें प्रसन्न रहना संतोष है । कहा भी गया है “ संतोषी सदा सुखी ” जिसे अपने किये गये कर्म में संतोष तथा कर्मफल में विश्वास रहता है वह हमेशा सुखी रहता है । इसलिए आप जो भी करें ईश्वर का कार्य समझ कर करें जिससे आपको असंतोष ना हो ।
*तप –* धर्मं और कर्तव्य कर्म के लिए कष्ट सहन को तप कहते है । हमारा धर्मं है कि आत्मा को अविद्या की राह से हटाकर विद्या के प्रकाशमय पथ का अनुसरण कराये । इसके निमित्त जो सर्दी – गर्मी, भूख – प्यास आदि कष्ट सहन किया जाता है, वह सभी तप की श्रेणी में आते है । तप संकल्प से किये जाते है, नकल से नहीं । अधिकांश लोग दूसरों का अनुकरण करके व्रत – उपवास आदि रखना शुरू कर देते है किन्तु यह मुर्खता है । आप जो भी तप का अभ्यास करों, उसके पीछे संकल्प होना चाहिए । आपके पास अपने तप का स्पष्ट कारण होना चाहिए कि आप ऐसा क्यों कर रहे है । कोई भी ऐसा तप ना करे , जिससे लाभ के बजाय हानि की सम्भावना अधिक हो ।
*स्वाध्याय –* स्वाध्याय के दो अर्थ लिए जाते है, पहला – स्वयं का अध्यनन करना और दूसरा सद्ग्रंथो का अध्यनन करना । जिस तरह हमें प्रतिदिन भोजन की आवश्यकता होती है उसी तरह आत्मा को भी प्रतिदिन स्वाध्याय रूपी भोजन की आवश्यकता होती है । स्वाध्याय स्वयं को प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया का नाम है । आज का वातावरण बहुत ही कलुषित हो चूका है, तथा प्रतिदिन मार्गदर्शन प्रदान करने वाले गुरु का सुयोग आज के समय में संभव नहीं । इसलिए विद्वान मनुष्य को चाहिए कि सदग्रंथ को अपना मार्गदर्शक मानकर अपने जीवन को ईश्वरीय मार्ग के लिए प्रशिक्षित करें ।
*ईश्वर प्रणिधान –* अर्थात,जो भी करें, ईश्वर को समर्पित कर दे । इससे कर्ता होने का अहंकार नहीं होगा । ईश्वर को हर समय अपने साथ अनुभव करें ।
क्रमशः
*जय जय सियाराम जी ।*
*श्री राम चरन अनुरागी समूह*
*9991990001*
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