Wednesday, 29 November 2017

राजयोग विधि

योग का अर्थ
चित्तवृत्ति का निरोध। चित्तभूमि या मानसिक अवस्था के पाँच रूप हैं (१) क्षिप्त (२) मूढ़ (३) विक्षिप्त (४) एकाग्र और (५) निरुद्ध।चित्त अपनी स्वाभाविक स्थिर, शान्त अवस्था में आ जाता है। इसी निरुद्व अवस्था को ‘असंप्रज्ञात समाधि’ या ‘असंप्रज्ञात योग’ कहते हैं।
राजयोग:-
सभी योगों का राजा कहलाता है क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ समामिग्री अवष्य मिल जाती है।
"यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयः"
प्रथम पाँच 'योग के बहिरंग साधन:-
(1)यम(१)अहिंसा परमो धर्म:(हिंसा न करना):-शास्त्रों की दृष्टि से "अहिंसा" का अर्थ है सर्वदा तथा सर्वदा (मनसा, वाचा और कर्मणा) सब प्राणियों के साथ द्रोह का अभाव। (अंहिसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोह: - व्यासभाष्य, योगसूत्र 2। 30)। अहिंसा के भीतर इस प्रकार सर्वकाल में केवल कर्म या वचन से ही सब जीवों के साथ द्रोह न करने की बात समाविष्ट नहीं होती, प्रत्युत मन के द्वारा भी द्रोह के अभाव का संबंध रहता है। योगशास्त्र में निर्दिष्ट यम तथा नियम अहिंसामूलक ही माने जाते हैं। यदि उनके द्वारा किसी प्रकार की हिंसावृत्ति का उदय होता है तो वे साधना की सिद्धि में उपादेय तथा उपकार नहीं माने जाते। "सत्य" की महिमा तथा श्रेष्ठता सर्वत्र प्रतिपादित की गई है, परंतु यदि कहीं अहिंसा के साथ सत्य का संघर्ष घटित हाता है तो वहाँ सत्य वस्तुत: सत्य न होकर सत्याभास ही माना जाता है। कोई वस्तु जैसी देखी गई हो तथा जैसी अनुमित हो उसका उसी रूप में वचन के द्वारा प्रकट करना तथा मन के द्वारा संकल्प करना "सत्य" कहलाता है, परंतु यह वाणी भी सब भूतों के उपकार के लिए प्रवृत्त होती है, भूतों के उपघात के लिए नहीं। इस प्रकार सत्य की भी कसौटी अहिंसा ही है। इस प्रसंग में वाचस्पति मिश्र ने "सत्यतपा" नामक तपस्वी के सत्यवचन को भी सत्याभास ही माना है, क्योंकि उसने चोरों के द्वारा पूछे जाने पर उस मार्ग से जानेवाले सार्थ (व्यापारियों का समूह) का सच्चा परिचय दिया था। हिंदू शास्त्रों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय (न चुराना), ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह, इन पाँचों यमों को जाति, देश, काल तथा समय से अनवच्छिन्न होने के कारण समभावेन सार्वभौम तथा महाव्रत कहा गया है (योगवूत्र 2। 31) और इनमें भी, सबका आधारा होने से, "अहिंसा" ही सबसे अधिक महाव्रत कहलाने की योग्यता रखती है।जैन शास्त्रों में अहिंसासंपादित करें
जैन धर्म में सब जीवों के प्रति संयमपूर्ण व्यवहार अहिंसा है। अहिंसा का शब्दानुसारी अर्थ है, हिंसा न करना। इसके पारिभाषिक अर्थ विध्यात्मक और निषेधात्मक दोनों हैं। रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति न करना, प्राणवध न करना या प्रवृत्ति मात्र का विरोध करना निषेधात्मक अहिंसा है; सत्प्रवृत्ति, स्वाध्याय, अध्यात्मसेव, उपदेश, ज्ञानचर्चा आदि आत्महितकारी व्यवहार विध्यात्मक अहिंसा है। संयमी के द्वारा भी अशक्य कोटि का प्राणवध हो जाता है, वह भी निषेधात्मक अहिंसा हिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा में केवल हिंसा का वर्जन होता है, विध्यात्मक अहिंसा में सत्क्रियात्मक सक्रियता होती है। यह स्थूल दृष्टि का निर्णय है। गहराई में पहुँचने पर तथ्य कुछ और मिलता है। निषेध में प्रवृत्ति और प्रवृत्ति में निषेध होता ही है। निषेधात्मक अहिंसा में सत्प्रवृत्ति और सत्प्रवृत्यात्मक अहिंसा में हिंसा का निषेध होता है। हिंसा न करनेवाला यदि आँतरिक प्रवृत्तियों को शुद्ध न करे तो वह अहिंसा न होगी। इसलिए निषेधात्मक अहिंसा में सत्प्रवृत्ति की अपेक्षा रहती है, वह बाह्य हो चाहे आँतरिक, स्थूल हो चाहे सूक्ष्म। सत्प्रवृत्यात्मक अहिंसा में हिंसा का निषेध होना आवश्यक है। इसके बिना कोई प्रवृत्ति सत् या अहिंसा नहीं हो सकती, यह निश्चय दृष्टि की बात है। व्यवहार में निषेधात्मक अहिंसा को निष्क्रिय अहिंसा और विध्यात्मक अहिंसा को सक्रिय अहिंसा कहा जाता है।जैन ग्रंथ आचारांगसूत्र में, जिसका समय संभवत: तीसरी चौथी शताब्दी ई. पू. है, अहिंसा का उपदेश इस प्रकार दिया गया है : भूत, भावी और वर्तमान के अर्हत् यही कहते हैं-किसी भी जीवित प्राणी को, किसी भी जंतु को, किसी भी वस्तु को जिसमें आत्मा है, न मारो, न (उससे) अनुचित व्यवहार करो, न अपमानित करो, न कष्ट दो और न सताओ।पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति, ये सब अलग जीव हैं। पृथ्वी आदि हर एक में भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व के धारक अलग-अलग जीव हैं। उपर्युक्त स्थावर जीवों के उपरांत न्नस (जंगम) प्राणी हैं, जिनमें चलने फिरने का सामर्थ्य होता है। ये ही जीवों के छह वर्ग हैं। इनके सिवाय दुनिया में और जीव नहीं हैं। जगत् में कोई जीव न्नस (जंगम) है और कोई जीव स्थावर। एक पर्याय में होना या दूसरी में होना कर्मों की विचित्रता है। अपनी-अपनी कमाई है, जिससे जीव अन्न या स्थावर होते हैं। एक ही जीव जो एक जन्म में अन्न होता है, दूसरे जन्म में स्थावर हो सकता है। न्नस हो या स्थावर, सब जीवों को दु:ख अप्रिय होता है। यह समझकर मुमुक्षु सब जीवों के प्रति अहिंसा भाव रखे।सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए निर्ग्रंथ प्राणिवध का वर्जन करते हैं। सभी प्राणियों को अपनी आयु प्रिय है, सुख अनुकूल है, दु:ख प्रतिकूल है। जो व्यक्ति हरी वनस्पति का छेदन करता है वह अपनी आत्मा को दंड देनेवाला है। वह दूसरे प्राणियों का हनन करके परमार्थत: अपनी आत्मा का ही हनन करता है।आत्मा की अशुद्ध परिणति मात्र हिंसा है; इसका समर्थन करते हुए आचार्य अमृतचंद्र ने लिखा है : असत्य आदि सभी विकार आत्मपरिणति को बिगाड़नेवाले हैं, इसलिए वे सब भी हिंसा हैं। असत्य आदि जो दोष बतलाए गए हैं वे केवल "शिष्याबोधाय" हैं। संक्षेप में रागद्वेष का अप्रादुर्भाव अहिंसा और उनका प्रादुर्भाव हिंसा है। रागद्वेषरहित प्रवृत्ति से अशक्य कोटि का प्राणवध हो जाए तो भी नैश्चयिक हिंसा नहीं होती, रागद्वेषरहित प्रवृत्ति से, प्राणवध न होने पर भी, वह होती है। जो रागद्वेष की प्रवृत्ति करता है वह अपनी आत्मा का ही घात करता है, फिर चाहे दूसरे जीवों का घात करे या न करे। हिंसा से विरत न होना भी हिंसा है और हिंसा में परिणत होना भी हिंसा है। इसलिए जहाँ रागद्वेष की प्रवृत्ति है वहाँ निरंतर प्राणवध होता है।
अहिंसा की भूमिकाएँ
हिंसा मात्र से पाप कर्म का बंधन हाता है। इस दृष्टि से हिंसा का कोई प्रकार नहीं होता। किंतु हिंसा के कारण अनेक होते हैं, इसलिए कारण की दृष्टि से उसके प्रकार भी अनेक हो जाते हैं। कोई जानबूझकर हिंसा करता है, तो कोई अनजान में भी हिंसा कर डालता है। कोई प्रयोगजनवश करता है, तो काई बिना प्रयोजन भी।सूत्रकृतांग में हिंसा के पाँच समाधान बतलाए गए हैं : (1) अर्थदंड, (2) अनर्थदंड, (3) हिंसादंड, (4) अकस्माद्दंड, (5) दृष्टिविपर्यासदंड। अहिंसा आत्मा की पूर्ण विशुद्ध दशा है। वह एक ओर अखंड है, किंतु मोह के द्वारा वह ढकी रहती है। मोह का जितना ही नाश होता है उतना ही उसका विकास। इस मोहविलय के तारतम्य पर उसके दो रूप निश्चित किए गए हैं : (1) अहिंसा महाव्रत, (2) अहिंसा अणुव्रत। इनमें स्वरूपभेद नहीं, मात्रा (परिमाण) का भेद है।मुनि की अहिंसा पूर्ण है, इस दशा में श्रावक की अहिंसा अपूर्ण। मुनि की तरह श्रावक सब प्रकार की हिंसा से मुक्त नहीं रह सकता। मुनि की अपेक्षा श्रावक की अहिंसा का परिमाण बहुत कम है। उदाहरणत: मुनि की अहिंसा 20 बिस्वा है तो श्रावक की अहिंसा सवा बिस्वा है। (पूर्ण अहिंसा के अंध बीस हैं, उनमें से श्रावक की अहिंसा का सवा अंश है।) इसका कारण यह है कि श्रावक 19 जीवों की हिंसा को छोड़ सकता है, वादर स्थावर जीवों की हिंसा को नहीं। इससे उसकी अहिंसा का परिमाण आधा रह जाता है-दस बिस्वा रह जाता है। इसमें भी श्रावक उन्नीस जीवों की हिंसा का संकल्पपूर्वक त्याग करता है, आरंभजा हिंसा का नहीं। अत: उसका परिमाण उसमें भी आधा अर्थात् पाँच बिस्वा रह जाता है। संकल्पपूर्वक हिंसा भी उन्हीं उन्नीस जीवों की त्यागी जाती है जो निरपराध हैं। सापराध न्नस जीवों की हिंसा से श्रावक मुक्त नहीं हो सकता। इससे वह अहिंसा ढाई बिस्वा रह जाती है। निरपराध उन्नीस जीवों की भी निरपेक्ष हिंसा को श्रावक त्यागता है। सापेक्ष हिंसा तो उससे हो जाती है। इस प्रकार श्रावक (धर्मोपासक या व्रती गृहस्थ) की अंहिसा का परिमाण सवा बिस्वा रह जाता है। इस प्राचीन गाथा में इसे संक्षेप में इस प्रकार कहा है :
जीवा सुहुमाथूला, संकप्पा, आरम्भाभवे दुविहा।सावराह निरवराहा, सविक्खा चैव निरविक्खा।।(1) सूक्ष्म जीवहिंसा, (2) स्थूल जीवहिंसा, (3) संकल्प हिंसा, (4) आरंभ हिंसा, (5) सापराध हिंसा, (6) निरपराध हिंसा, (7) सापेक्ष हिंसा, (8) निरपेक्ष हिंसा। हिंसा के ये आठ प्रकार हैं। श्रावक इनमें से चार प्रकार की, (2, 3, 6, 8) हिंसा का त्याग करता है। अत: श्रावक की अहिंसा अपूर्ण है।
(२)सत्य (truth) के अलग-अलग सन्दर्भों में एवं अलग-अलग सिद्धान्तों में सर्वथा भिन्न-भिन्न अर्थ हैं।
(३)अस्तेय का शाब्दिक अर्थ है - चोरी न करना। हिन्दूधर्म तथा जैन धर्म में यह एक गुण माना जाता है। योग के सन्दर्भ में अस्तेय, पाँच यमों में से एक है।
अस्तेय का व्यापक अर्थ है - चोरी न करना तथा मन, वचन और कर्म से किसी दूसरे की सम्पत्ति को चुराने की इच्छा न करना।
(४)ब्रह्मचर्य योग के आधारभूत स्तंभों में से एक है। ये वैदिकवर्णाश्रम का पहला आश्रम भी है, जिसके अनुसार ये ०-२५ वर्ष तक की आयु का होता है और जिस आश्रम का पालन करते हुए विद्यार्थियों को भावी जीवन के लिये शिक्षा ग्रहण करनी होती है।
व्युत्पत्ति:शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है:- ब्रह्म + चर्य , अर्थात ज्ञान प्राप्ति के लिए जीवन बिताना।योग में ब्रह्मचर्य का अर्थ अधिकतर यौन संयम समझा जाता है। यौन संयम का अर्थ अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग समझा जाता है, जैसे विवाहितों का एक-दूसरे के प्रति निष्ठावान रहना, या आध्यात्मिक आकांक्षी के लिये पूर्ण ब्रह्मचर्य।
जैन धर्म में ब्रह्मचर्यमें पवित्र रहने का गुण है, यह जैन मुनिऔर श्रावक के पांच मुख्य व्रतों में से एक है (अन्य है सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह )| जैन मुनि और अर्यिकाओं दीक्षा लेने के लिए मन, वचन और काय में ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। जैन श्रावक के लिए ब्रह्मचर्य का अर्थ है शुद्धता। यह यौन गतिविधियों में भोग को नियंत्रित करने के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण का अभ्यास के लिए हैं। जो अविवाहित हैं, उन जैन श्रावको के लिए, विवाह से पहले यौनाचार से दूर रहना अनिवार्य है।
(५)अपरिग्रह गैर-अधिकार की भावना, गैर लोभी या गैर लोभ की अवधारणा है, जिसमें अधिकारात्मकता से मुक्ति पाई जाती है।। यह विचार मुख्य रूप से जैन धर्म तथा हिन्दू धर्मके राज योग का हिस्सा है। जैन धर्म के अनुसार "अहिंसा और अपरिग्रह जीवन के आधार हैं"।[1] अपरिग्रह का अर्थ है कोई भी वस्तु संचित ना करना
स्वात्माराम १५वीं-१६वीं शताब्दी के एक योगी थे। उन्होने हठयोग प्रदीपिका नामक ग्रन्थ का संकलन किया जो हठयोगका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। गुरु गोरखनाथ सम्भवतः स्वात्माराम के गुरु थे।
(६)क्षमा का अर्थ है किसी के द्वारा किये गये अपराध या गलती पर स्वेच्छा से उसके प्रति भेदभाव और क्रोध को समाप्त कर देना।
(७)धृति अर्थात धीरज, धैर्य। योगाभ्यास नियमित रूप से, दीर्घकाल तक व धैर्य के साथ करते रहने से ही हमें इसमें सफलता मिलती हैं। अतः मन, वचन व कर्म से धैर्य रखने के लिये श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है।
(८)दया शब्द हिंदी में काफी प्रयुक्त होता है। इसका का अर्थ करुणा है।कई विद्वानो ने दया की अलग अलग परिभाषा दी है,तुलसीदास जी ने दया को धर्म का मूल कहा है।जब तक ह्रदय मे दया है,तब तक धर्म उस पर टिका हुआ है, दया की अनुपस्थिती में धर्म का कोई अस्तित्व नही है।
(९)आर्जव
(१०)मितहार
(११) शौच  का अर्थ है - गुदाद्वार से मलत्याग करना। यह पाचन क्रिया की अन्तिम क्रिया है।मल ठोस, अर्धठोस या द्रव के रूप में हो सकता है।मानव द्वारा अपमलन की आवृत्ति २४ घण्टे में दो-तीन बार से लेकर एक सप्ताह में दो-चार बार तक होती है। आँतों की पेशियों में संकुचन की क्रिया होती है जिससे त्याज्य पदार्थ गुदाद्वार की तरफ सरकता है।
(2)नियम
योग के सन्दर्भ में, स्वस्थ जीवन, आध्यात्मिक ज्ञान, तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिये आवश्यक आदतों एवं क्रियाकलापों नियम को कहते हैं।

महर्षि पतंजलि द्वारा योगसूत्र में वर्णित पाँच नियम-शौचसन्तोषतपसस्वाध्यायईश्वरप्रणिधानहठयोगप्रदीपिका में वर्णित दस नियम-तपससन्तोषआस्तिक्यदानईश्वरपूजनसिद्धान्तवाक्यश्रवणहृमतिजापहुत(५)ईश्वरप्रणिधाननियम, योग के आठ अंगों में से एक है और ईश्वरप्रणिधानपाँच नियमों में से एक है। ईश्वरप्रणिधान का अर्थ है - ईश्वर में भक्तिपूर्वक सब कर्मों का समर्पण करना।
(3)आसन:-
सुविधापूर्वक एक चित और स्थिर होकर बैठने को आसनकहा जाता है। आसन का शाब्दिक अर्थ है - बैठना, बैठने का आधार, बैठने की विशेष प्रक्रिया आदि।

पातंजल योगदर्शन में विवृत्त अष्टांगयोग में आसन का स्थान तृतीय एवं गोरक्षनाथादि द्वारा प्रवर्तित षडंगयोग में प्रथम है। चित्त की स्थिरता, शरीर एवं उसके अंगों की दृढ़ता और कायिक सुख के लिए इस क्रिया का विधान मिलता है।

विभिन्न ग्रंथों में आसन के लक्षण हैं - उच्च स्वास्थ्य की प्राप्ति, शरीर के अंगों की दृढ़ता, प्राणायामादि उत्तरवर्ती साधनक्रमों में सहायता, स्थिरता, सुख दायित्व आदि। पंतजलि ने स्थिरता और सुख को लक्षणों के रूप में माना है। प्रयत्नशैथिल्य और परमात्मा में मन लगाने से इसकी सिद्धि बतलाई गई है। इसके सिद्ध होने पर द्वंद्वों का प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता। किंतु पतंजलि ने आसन के भेदों का उल्लेख नहीं किया। उनके व्याख्याताओं ने अनेक भेदों का उल्लेख (जैसे - पद्मासन, भद्रासन आदि) किया है। इन आसनों का वर्णन लगभग सभी भारतीय साधनात्मक साहित्य (अहिर्बुध्न्य, वैष्णव जैसी संहिताओं तथा पांचरात्र जैसे वैष्णव ग्रंथों में एवं हठयोगप्रदीपिका, घेरंडसंहिता, आदि) में मिलता है।

प्रमुख योगासनसंपादित करें

हिन्दीसंस्कृतअर्थकिपासूचंअधोमुखश्वानासनअधोमुखश्वानासनअधो मुख (नीचे मुख) श्वान आसनअधोमुखवृक्षासनअधोमुखवृक्षासनHandstand (Downward-Facing Tree)आकर्णधनुरासनआकर्णधनुरासनBow posture up to earअनन्तासनअनन्तासनविष्णुद्यःया अनन्त रुपया आसनअञ्जलिमुद्राअञ्जलिमुद्राSalutation hand postureअर्धचन्द्रासनअर्धचन्द्रासनबामिलाअर्धमत्स्येन्द्रासनअर्धमत्स्येन्द्रासनHalf Spinal Twistअर्धनावासनअर्धनावासनबच्छि लःखः वा नाउचाबद्धकोणसनबद्धकोणसनस्वागु कुंबकासनबकासनबहःचिया आसनबालासनबालासनमचाया आसनगर्भासनगर्भासनभेकासनभेकासनब्यांचिया आसनभरद्वाजासनभरद्वाजासनBharadvaja's Twistभुजङ्गासनभुजङ्गासननागया आसानभुजपीडासनभुजपीडासनArm-pressing postureचक्रासनचक्रासनघःचा थें न्यागु आसनचतुरङ्गदण्डासनचतुरङ्गदण्डासनFour-Limbed Staffदण्डासनदण्डासनStaff poseधनुरासनधनुरासनBowद्विपादशिर्षासनBoth feet behind headद्विपदविपरितदन्दसनद्विपदविपरितदन्दसनTwo-Legged Inverted Staff PoseएकपादरजकपोतसनएकपादरजकपोतसनOne-Legged King Pigeonएकपादशीर्षासनएकपादशीर्षासनHead stand one footHead stand by only holding) one footएकपादप्रसारणसर्वाङ्गतुलासनएकपादप्रसारणसर्वाङ्गतुलासनBalance posture for the whole body, by extending one legएकपादशिर्षासनFoot behind Headगर्भासनगर्भासनFetusगरुडासनगरुडासनइमा थें न्यागु आसनगोमुखासनगोमुखासनसा ख्वा थें न्यागु आसनहलासनहलासनवासाहनुमनासनहनुमनासनहनुमांद्यः च्वनिगु थें न्यागु आसनजठरपरिवर्तनासनजठरपरिवर्तनासनBelly-revolving postureजानुशीर्षासनजानुशीर्षासनHead-to-Knee Forward Bendकाकासनकाकासनक्वःकपोतासनकपोतासनबखुंकपोतासनकपोतासनEar-pressingक्रौञ्चासनक्रौञ्चासनब्वहकुक्कुटासनकुक्कुटासनCockerelकूर्मासनकूर्मासनकाउलेलोलासनलोलासनPendantमहामुद्रामहामुद्राGreat hand postureमकरासनमकरासनCrocodileमुक्तहस्तशीर्षासनमुक्तहस्तशीर्षासनHead standमण्डलासनमण्डलासनचाकमत्स्यासनमत्स्यासनन्यामत्स्येन्द्रासनमत्स्येन्द्रासनLord of the Fishesमयूरासनमयूरासनम्ह्य्‌खानटराजासननटराजासनLord of the Dance or Dancerनिरालम्बसर्वाङ्गासननिरालम्बसर्वाङ्गासनPosture for the whole bodyपादहस्तासनपादहस्तासनStanding Forward Bendपद्मासनपद्मासनपलेस्वांपरिपूर्णनावासनपरिपूर्णनावासनलःखःपरिवृत्तपार्श्वकोणासनपरिवृत्तपार्श्वकोणासनRevolved Side Angleपरिवृत्तत्रिकोणासनपरिवृत्तत्रिकोणासनRevolved Triangleपर्यङ्कासनपर्यङ्कासनBedपाशासनपाशासनNooseपश्चिमोत्तानासनपश्चिमोत्तानासनSeated Forward BendPaccimasanaPaschima tanaप्रसारितपादोत्तानासनप्रसारितपादोत्तानासनIntense Spread Leg Stretchराजकपोतासनराजकपोतासनशाही बखुंशलभासनशलभासनLocustGrass-hopperसमकोणासनसमकोणासनStraight angleसर्वाङ्गासनसर्वाङ्गासनShoulder StandशवासनशवासनCorpse PoseShavasanaSarvasanaMrtasanaसेतुबन्धसर्वाङ्गासनसेतुबन्धसर्वाङ्गासनतांसेतुबन्धसनसेतुबन्धसनHalf Wheelसिद्धासनसिद्धासनPerfect Poseमुक्तसनमुक्तसनगुप्तसनगुप्तसनसिंहासनसिंहासनसिंहशीर्षासनशीर्षासनHead StandसुखासनसुखासनAuspicious Poseसुप्तभदकोणासनसुप्तभदकोणासनReclining Bound Angleसुप्तकोणासनसुप्तकोणासनAngleसुप्तपादाङ्गुष्ठासनसुप्तपादाङ्गुष्ठासनReclining Big Toeसुप्तवीरासनसुप्तवीरासनReclining Heroसुप्तवज्रासनसुप्तवज्रासनThunderboltस्वस्तिकासनस्वस्तिकासनProsperous PoseताडासनताडासनMountain PoseSamasthitiटिट्टिभासनटिट्टिभासनFirefly Poseत्रिकोणासनत्रिकोणासनस्वकुंतुलासनतुलासनBalance postureउड्डीयानबन्धउड्डीयानबन्धThe abdominal lockउपविष्टकोणासनउपविष्टकोणासनचकं कुंऊर्ध्वधनुरासनऊर्ध्वधनुरासनUpward BowBackbendऊर्ध्वमुखश्वानासनऊर्ध्वमुखश्वानासनUpward-Facing Dogऊर्ध्वदण्डासनऊर्ध्वदण्डासनकथिउष्ठासनउष्ठासनउंथउत्तानकूर्मासनउत्तानकूर्मासनUpside-Down Tortoiseउत्कटासनउत्कटासनच्वंसा (मेच)उत्तानासनउत्तानासनStanding Forward Bendउत्थितहस्तपादाङ्गुष्ठासनउत्थितहस्तपादाङ्गुष्ठासनRaised Hand to Big Toeउत्थितपार्श्वकोणासनउत्थितपार्श्वकोणासनExtended Side Angleउत्थितत्रिकोणासनउत्थितत्रिकोणासनExtended Triangleवसिष्ठासनवसिष्ठासनSide PlankवातायनासनवातायनासनसलविपरीतकरणिविपरीतकरणिLegs-up-the-Wallवज्रासनवज्रासनबज्रया आसनवीरासनवीरासनHeroवीरभद्रासनवीरभद्रासनDistinguished heroवीरभद्रासन IIवीरभद्रासन IIWarrior IIवृक्षासनवृक्षासनCorn Treeवृश्चिकासनवृश्चिकासन
(5)प्राणायाम
योग के आठ अंगों में से एक है। प्राणायाम = प्राण + आयाम। इसका का शाब्दिक अर्थ है - 'प्राण (श्वसन) को लम्बा करना' या 'प्राण (जीवनीशक्ति) को लम्बा करना'। (प्राणायाम का अर्थ 'स्वास को नियंत्रित करना' या कम करना नहीं है।) हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है-

चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्॥२॥(अर्थात प्राणों के चलायमान होने पर चित्त भी चलायमान हो जाता है और प्राणों के निश्चल होने पर मन भी स्वत: निश्चल हो जाता है और योगी स्थाणु हो जाता है। अतः योगी को श्वांसों का नियंत्रण करना चाहिये।

यह भी कहा गया है-

यावद्वायुः स्थितो देहे तावज्जीवनमुच्यते।मरणं तस्य निष्क्रान्तिः ततो वायुं निरोधयेत् ॥( जब तक शरीर में वायु है तब तक जीवन है। वायु का निष्क्रमण (निकलना) ही मरण है। अतः वायु का निरोध करना चाहिये।)

परिचयसंपादित करें

प्राणायाम दो शब्दों के योग से बना है- (प्राण+आयाम) पहला शब्द "प्राण" है दूसरा "आयाम"। प्राण का अर्थ जो हमें शक्ति देता है या बल देता है। आयाम का अर्थ जानने के लिये इसका संधि विच्छेद करना होगा क्योंकि यह दो शब्दों के योग (आ+याम) से बना है। इसमें मूल शब्द '"याम" ' है 'आ' उपसर्ग लगा है। याम का अर्थ 'गमन होता है और '"आ" ' उपसर्ग 'उलटा ' के अर्थ में प्रयोग किया गया है अर्थात आयाम का अर्थ उलटा गमन होता है। अतः प्राणायाम में आयाम को 'उलटा गमन के अर्थ में प्रयोग किया गया है। इस प्रकार प्राणायाम का अर्थ 'प्राण का उलटा गमन होता है। यहाँ यह ध्यान देने कि बात है कि प्राणायाम प्राण के उलटा गमन के विशेष क्रिया की संज्ञा है न कि उसका परिणाम। अर्थात प्राणायाम शब्द से प्राण के विशेष क्रिया का बोध होना चाहिये।

प्राणायाम के बारे में बहुत से ऋषियों ने अपने-अपने ढंग से कहा है लेकिन सभी के भाव एक ही है जैसे पतन्जलि का प्राणायाम सूत्र एवं गीता में जिसमें पतन्जलि का प्राणायाम सूत्र महत्वपूर्ण माना जाता है जो इस प्रकार है- तस्मिन सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद:प्राणायाम॥ इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार होगा- श्वास प्रश्वास के गति को अलग करना प्राणायाम है। इस सूत्र के अनुसार प्राणायाम करने के लिये सबसे पहले सूत्र की सम्यक व्याख्या होनी चाहिये लेकिन पतंजलि के प्राणायाम सूत्र की व्याख्या करने से पहले हमे इस बात का ध्यान देना चाहिये कि पतंजलि ने योग की क्रियाओं एवं उपायें को योगसूत्र नामक पुस्तक में सूत्र रूप से संकलित किया है और सूत्र का अर्थ ही होता है -एक निश्चित नियम जो गणितीय एवं विज्ञान सम्मत हो। यदि सूत्र की सही व्याख्या नहीं हुई तो उत्तर सत्य से दूर एवं परिणाम शून्य होगा। यदि पतंजलि के प्राणायाम सूत्र के अनुसार प्राणायाम करना है तो सबसे पहले उनके प्राणायाम सूत्र तस्मिन सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद:प्राणायाम॥ की सम्यक व्याख्या होनी चाहिये जो शास्त्रानुसार, विज्ञान सम्मत, तार्किक, एवं गणितीय हो। इसी व्याख्या के अनुसार क्रिया करना होगा। इसके लिये सूत्र में प्रयुक्त शब्दों का अर्थबोध होना चाहिये तथा उसमें दी गयी गति विच्छेद की विशेष युक्ति को जानना होगा। इसके लिये पतंजलि के प्राणायाम सूत्र में प्रयुक्त शब्दो का अर्थ बोध होना चाहिये।

प्राणायाम प्राण अर्थात् साँस आयाम याने दो साँसो मे दूरी बढ़ाना, श्‍वास और नि:श्‍वास की गति को नियंत्रण कर रोकने व निकालने की क्रिया को कहा जाता है।

श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम में आता है। श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति, श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अंदर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं। हम साँस लेते है तो सिर्फ़ हवा नहीं खीचते तो उसके साथ ब्रह्मान्ड की सारी उर्जा को उसमे खींचते है। अब आपको लगेगा की सिर्फ़ साँस खीचने से ऐसा कैसा होगा। हम जो साँस फेफडो में खीचते है, वो सिर्फ़ साँस नहीं रहती उसमे सारे ब्रम्हन्ड की सारी उर्जा समायी रहती है। मान लो जो साँस आपके पूरे शरीर को चलाना जनती है, वो आपके शरीर को दुरुस्त करने की भी ताकत रखती है। प्राणायाम निम्न मंत्र (गायत्री महामंत्र) के उच्चारण के साथ किया जाना चाहिये।

ॐ भूः भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्।
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ।

महत्वसंपादित करें

प्राणायाम का योग में बहुत महत्व है।

सावधानियाँसंपादित करें

सबसे पहले तीन बातों की आवश्यकता है, विश्वास,सत्यभावना, दृढ़ता।प्राणायाम करने से पहले हमारा शरीर अन्दर से और बाहर से शुद्ध होना चाहिए।बैठने के लिए नीचे अर्थात भूमि पर आसन बिछाना चाहिए।बैठते समय हमारी रीढ़ की हड्डियाँ एक पंक्ति में अर्थात सीधी होनी चाहिए।सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन किसी भी आसन में बैठें, मगर जिसमें आप अधिक देर बैठ सकते हैं, उसी आसन में बैठें।प्राणायाम करते समय हमारे हाथों को ज्ञान या किसी अन्य मुद्रा में होनी चाहिए।प्राणायाम करते समय हमारे शरीर में कहीं भी किसी प्रकार का तनाव नहीं होना चाहिए, यदि तनाव में प्राणायाम करेंगे तो उसका लाभ नहीं मिलेगा।प्राणायाम करते समय अपनी शक्ति का अतिक्रमण ना करें।ह्‍र साँस का आना जाना बिलकुल आराम से होना चाहिए।जिन लोगो को उच्च रक्त-चाप की शिकायत है, उन्हें अपना रक्त-चाप साधारण होने के बाद धीमी गति से प्राणायाम करना चाहिये।यदि आँप्रेशन हुआ हो तो, छः महीने बाद ही प्राणायाम का धीरे धीरे अभ्यास करें।हर साँस के आने जाने के साथ मन ही मन में ओम् का जाप करने से आपको आध्यात्मिक एवं शारीरिक लाभ मिलेगा और प्राणायाम का लाभ दुगुना होगा।साँसे लेते समय किसी एक चक्र पर ध्यान केंन्द्रित होना चाहिये नहीं तो मन कहीं भटक जायेगा, क्योंकि मन बहुत चंचल होता है।साँसे लेते समय मन ही मन भगवान से प्रार्थना करनी है कि "हमारे शरीर के सारे रोग शरीर से बाहर निकाल दें और हमारे शरीर में सारे ब्रह्मांड की सारी ऊर्जा, ओज, तेजस्विता हमारे शरीर में डाल दें"।ऐसा नहीं है कि केवल बीमार लोगों को ही प्राणायाम करना चाहिए, यदि बीमार नहीं भी हैं तो सदा निरोगी रहने की प्रार्थना के साथ प्राणायाम करें।

भस्त्रिका प्राणायामसंपादित करें

सुखासन सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। नाक से लंबी साँस फेफडो में ही भरे, फिर लंबी साँस फेफडो से ही छोडें| साँस लेते और छोडते समय एकसा दबाव बना रहे। हमें हमारी गलतीयाँ सुधारनी है, एक तो हम पुरी साँस नहीं लेते; और दुसरा हमारी साँस पेट में चाली जाती है। देखिये हमारे शरीर में दो रास्ते है, एक (नाक, श्वसन नलिका, फेफडे) और दूसरा (मुँह्, अन्ननलिका, पेट्)| जैसे फेफडोमें हवा शुद्ध करने की प्रणली है, वैसे पेट में नहीं है। उसीके का‍रण हमारे शरीर में आँक्सीजन की कमी मेहसूस होती है। और उसेके कारण हमारे शरीर में रोग जडते है। उसी गलती को हमें सुधारना है। जैसे की कुछ पाने की खुशि होति है, वैसे हि खुशि हमे प्राणायाम करते समय होनि चाहिये। और क्यो न हो सारि जिन्दगि का स्वास्थ आपको मील रहा है। आप के पन्चविध प्राण सशक्त हो रहे है, हमारे शरीर की सभि प्रणालिया सशक्त हो रही है।

लाभसंपादित करें

हमारा हृदय सशक्त बनाने के लिये हैं।हमारे फेफडों को सशक्त बनाने के लिये हैं।मस्तिष्क से सम्बंधित सभी व्याधिओं को मिटाने के लिये भी यह लाभदायक है।पार्किनसन, पैरालिसिस, लूलापन इत्यादि स्नायुओं से सम्बंधित सभी व्यधिओं को मिटाने के लिये।भगवान से नाता जोडने के लिये।

कपालभाति प्राणायामसंपादित करें

सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। और साँस को बाहर फेंकते समय पेट को अन्दर की तरफ धक्का देना है, इस में सिर्फ् साँस को छोडते रहना है। दो साँसो के बीच अपने आप साँस अन्दर चली जायेगी जान-बूझ कर साँस को अन्दर नहीं लेना है। कपाल कहते है मस्तिष्क के अग्र भाग को, भाती कहते है ज्योति को, कान्ति को, तेज को; कपालभाति प्राणायाम करने लगातार करने से चहरे का लावण्य बढाता है। कपालभाति प्राणायाम धरती की सन्जीवनि कहलाता है। कपालभाती प्राणायाम करते समय मुलाधार चक्र पर ध्यान केन्द्रित करना है। इससे मूलाधार चक्र जाग्रत हो के कुन्डलिनी शक्ति जाग्रत होने में मदद होती है। कपालभाति प्राणायाम करते समय ऐसा सोचना है कि, हमारे शरीर के सारे नगेटिव तत्व शरीर से बाहर जा रहे है। खाना मिले ना मिले मगर रोज कम से कम ५ मिनिट कपालभाति प्राणायाम करना ही है, यह द्रिढ संक्लप करना है।

लाभसंपादित करें

बालो की सारी समस्याओँ का समाधान प्राप्त होता है।चेहरे की झुरियाँ, आँखो के नीचे के डार्क सर्कल मिट जायेंगे|थायराँइड की समस्या मिट जाती है।सभी प्रकार की चर्म समस्या मिट जाती है।आखों की सभी प्रकार की समस्याऐं मिट जाती है, और आँखो की रोशनी लौट आती है।दातों की सभी प्रकार की समस्याऐं मिट जाती है और दातों की खतरनाक पायरिया जैसी बीमारी भी ठीक हो जाती है।कपालभाति प्राणायाम से शरीर की बढ़ी चर्बी घटती है, यह इस प्राणायाम का सबसे बड़ा फायदा है।कब्ज, ऐसिडिटी, गैस्टि्क जैसी पेट की सभी समस्याएँ मिट जाती हैं।यूटरस (महिलाओं) की सभी समस्याओँ का समाधान होता है।डायबिटीस संपूर्णतया ठीक होता है।कोलेस्ट्रोल को घटाने में भी सहायक है।सभी प्रकार की ऐलर्जियाँ मिट जाती हैं।सबसे खतरनाक कँन्सर रोग तक ठीक हो जाता है।शरीर में स्वतः हीमोग्लोबिन तैयार होता है।शरीर में स्वतः कैलशियम तैयार होता है।किडनी स्वतः स्वच्छ होती है, डायलेसिस करने की जरुरत नहीं पड़ती|

बाह्य प्राणायामसंपादित करें

सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। साँस को पूरी तरह बाहर निकालने के बाद साँस बाहर ही रोके रखने के बाद तीन बन्ध लगाते है।

१) जालंधर बन्ध :- गले को पूरा सिकोड कर ठोडी को छाती से सटा कर रखना है।

२) उड़ड्यान बन्ध :- पेट को पूरी तरह अन्दर पीठ की तरफ खीचना है।

३) मूल बन्ध :- हमारी मल विसर्जन करने की जगह को पूरी तरह ऊपर की तरफ खींचना है।

लाभ्संपादित करें

कब्ज, ऐसिडिटी, गँसस्टीक, जैसी पेट की सभी समस्याएें मिट जाती हैं।हर्निया पूरी तरह ठीक हो जाता है।धातु, और पेशाब से संबंधित सभी समस्याएँ मिट जाती हैं।मन की एकाग्रता बढ़ती है।व्यंधत्व (संतान हीनता) से छुटकारा मिलने में भी सहायक है।

अनुलोम-विलोम प्राणायामसंपादित करें

सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। शुरुवात और अन्त भी हमेशा बाये नथुने (नोस्टिरल) से ही करनी है, नाक का दाँया नथुना बंद करें व बाये से लंबी साँस लें, फिर बाये को बंद करके, दाँया वाले से लंबी साँस छोडें...अब दाँये से लंबी साँस लें और बाये वाले से छोडें...यानि यह दाँया-दाँया बाँया-बाँया यह क्रम रखना, यह प्रक्रिया १०-१५ मिनट तक दुहराएं| साँस लेते समय अपना ध्यान दोंनों आँखो के बीच में स्थित आज्ञा चक्र पर ध्यान एकत्रित करना चाहिए। और मन ही मन में साँस लेते समय ओउम-ओउम का जाप करते रहना चाहिए। हमारे शरीर की ७२,७२,१०,२१० सुक्ष्मादी सूक्ष्म नाड़ी शुद्ध हो जाती है। बायी नाड़ी को चन्द्र (इडा, गन्गा) नाडी, और बायी नाडी को सुर्य (पीन्गला, यमुना) नाड़ी कहते है। चन्द्र नाडी से ठण्डी हवा अन्दर जती है और सूर्य नाड़ी से गरम नाड़ी हवा अन्दर जाती है। ठण्डी और गरम हवा के उपयोग से हमारे शरीर का तापमान संतुलित रेहता है। इससे हमारी रोग-प्रतिकारक शक्ति बढ़ जाती है।

सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। शुरुआत और अन्त भी हमेशा बायें नथुने (नोस्टिरल) से ही करनी है, नाक का दाँया नथुना बंद करें व बायें से लंबी साँस लें, फिर बायें को बंद करके, दाँया वाले से लंबी साँस छोडें...अब दाँये से लंबी साँस लें व बाये वाले से छोडें...यानि यह दाँया-दाँया बाँया-बाँया यह क्रम रखना, यह प्रक्रिया १०-१५ मिनट तक दुहराएं| सास लेते समय अपना ध्यान दोनो आँखो के बीच में स्थित आज्ञा चक्र पर ध्यान एकत्रित करना चाहिए। और मन ही मन में साँस लेते समय ओउम-ओउम का जाप करते रहना चाहिए। हमारे शरीर की ७२,७२,१०,२१० सुक्ष्मादी सूक्ष्म नाडी शुद्ध हो जाती है। बायी नाड़ी को चन्द्र (इडा, गन्गा) नाडी, और दायी नाडी को सुर्य (पीन्गला, यमुना) नाडी केहते है। चन्द्र नाड़ी से ठण्डी हवा अन्दर जाती है और सूर्य नाड़ी से गरम नाड़ी हवा अन्दर जाती है। ठण्डी और गरम हवा के उपयोग से हमारे शरीर का तापमान संतुलित रहता है। इससे हमारी रोग-प्रतिकारक शक्ति बढ जाती है।

लाभसंपादित करें

हमारे शरीर की ७२,७२,१०,२१० सुक्ष्मादी सूक्ष्म नाड़ी शुद्ध हो जाती है।हार्ट की ब्लाँकेज खुल जाते है।हाई, लो दोंनों रक्त चाप ठीक हो जायेंगे|आर्थराटिस, रोमेटोर आर्थराटिस, कार्टीलेज घिसना जैसी बीमारियाँ ठीक हो जाती है।टेढे लिगामेंटस सीधे हो जायेंगे|वैरीकोस वैन्स ठीक हो जाती है।कोलेस्टाँल, टाँक्सीन्स, आँस्कीडैन्टस इसके जैसे विजतीय पदार्थ शरीर के बहार नीकल जाते है।सायकीक पेंशेन्ट्स को फायदा होता है।किडनी नैचुरली स्वच्छ होती है, डायलेसिस करने की जरुरत नहीं पड़ती|सबसे बड़ा खतरनाक कैन्सर तक ठीक हो जाता है।सभी प्रकार की ऐलर्जीयाँ मिट जाती है।मेमरी बढाने की लिये।सर्दी, खाँसी, नाक, गला ठीक हो जाता है।ब्रेन ट्यूमर भी ठीक हो जाता है।सभी प्रकार के चर्म समस्या मिट जाती है।मस्तिषक के सम्बधित सभी व्याधिओं को मिटाने के लिये।पार्किनसन्स, पैरालेसिस, लूलापन इत्यादि स्नायुओ से सम्बधित सभी व्याधिओं को मिटाने के लिये।सायनस की व्याधि मिट जाती है।डायबीटीस पूरी तरह मिट जाती है।टाँन्सिल्स की व्याधि मिट जाती है।

भ्रामरी प्राणायामसंपादित करें

सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। दोनो अंगूठों से कान पूरी तरह बन्द करके, दो उंगलिओं को माथे पर रख कर, छः उंगलियों को दोनो आँखो पर रख दे। और लंबी साँस लेते हुए कण्ठ से भवरें जैसा (म……) आवाज निकालना है।

सायकीक पेंशेट्स को फायदा होता है।मायग्रेन पेन, डीप्रेशन, और मस्तिष्क से सम्बधित सभी व्याधिओं को मिटाने के लिये।मन और मस्तिषक की शांति मिलती है।ब्रम्हानंद की प्राप्ति करने के लिये।मन और मस्तिषक की एकाग्रता बढाने के लिये।

महोदय, मैने पिछले पांच वर्षो के निरंतर अभ्यास के बाद यह निष्कर्ष निकला है कि :- अनुलोम विलोम प्राणायाम में साँस लेने की शुरुआत यदि दायीं नासिका से करते हुए अंत में दाई नासिका से साँस छोड़ा जाये तो मन में क्रोध तथा चिडचिडापन रहता है! तथा इसके विपरीत यदि साँस लेने की शुरुआत बायीं नासिका से करते हुए अंत में बायीं नासिका से ही साँस छोड़ा जाता है तो मन शांत रहता है !

उद्गीथ प्राणायामसंपादित करें

सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। और लंबी सास लेके मुँह से ओउम का जाप करना है।

लाभसंपादित करें

पॉजिटिव एनर्जी तैयार करता है।सायकीक पेंशेट्स को फायदा होता है।मायग्रेन पेन, डिप्रेशन, ऑर मस्तिष्क के सम्बधित सभी व्याधिओं को मिटाने के लिये।मन और मस्तिष्क की शांति मिलती है।ब्रम्हानंद की प्राप्ति करने के लिये।मन और मस्तिष्क की एकाग्रता बढाने के लिये।

प्रणव प्राणायामसंपादित करें

सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। और मन ही मन में एकदम शान्त बैठ कर लंबी साँस लेते हुए ओउम का जाप करना है।

लाभसंपादित करें

पॉझीटीव्ह एनर्जी तैयार करता है।सायकीक पैशान्ट्स को फायदा होता है।मायग्रेन पेन, डिप्रेशन और मस्तिषक के सम्बधित सभी व्यधिओं को मिटाने के लिये।मन और मस्तिष्क की शांति मिलती है।ब्रम्हानंद की प्राप्ति करने के लिये।मन और मस्तिष्क की एकाग्रता बढाने के लिये।

अग्निसार क्रियासंपादित करें

सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। यह क्रिया में कपालभाती प्राणायाम जैसा नहीं है बार बार साँस बाहर नहीं करनी है। सास को पुरी तरह बाहर नीकल के बाद बाहर ही रोक के पेट को आगे पीछे करना है।

लाभसंपादित करें

कब्ज, ऐसिडिटी, गँसस्टीक, जैसी पेट की सभी समस्याऐं मिट जाती हैं।हर्निया पूरी तरह मिट जाता है।धातु, और पेशाब के संबंधित सभी समस्याऐं मिट जाती हैं।मन की एकाग्रता बढ़ेगी|व्यंधत्व से छुटकारा मिल जायेगा|

विशेष प्राणायामसंपादित करें

उज्जायी प्राणायामसंपादित करें

सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। सीकुडे हुवे गले से सास को अन्दर लेना है।

लाभसंपादित करें

थायराँइड की शिकायत से आराम मिलता है।तुतलाना, हकलाना, ये शिकायत भी दूर होती है।अनिद्रा, मानसिक तनाव भी कम करता है।टी•बी•(क्षय) को मिटाने में मदद होती है।गुंगे बच्चे भी बोलने लगेंगे|

सीत्कारी प्राणायामसंपादित करें

सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। जिव्हा तालू को लगाके दोनो जबड़े बन्द करके लेना और उस छोटी सी जगह से सीऽऽ सीऽऽ करत॓ हुए हवा को अन्दर खीचना है। और मुँह बन्द करके से साँस को नाक से बाहर छोड़ दे। जैसे ए• सी• के फिन्स होते है, उससे ए• सी• के काँम्प्रेसर पर कम दबाव आता है और गरम हवा बाहर फेकने से हमारी कक्षा की हवा ठंडी हो जाती है। वैसे ही हमे हमारे शरीर की अतिरिक्त गर्मी कम कर सकते है।

लाभसंपादित करें

शरीर की अतिरिक्त गरमी को कम करने के लिये।ज्यादा पसीना आने की शिकायत से आराम मीलता है।पेट की गर्मी और जलन को कम करने के लिये।शरीर पर कही़ं भी आयी हुई फोड़ी को मिटाने की लिये।

शितली प्राणायामसंपादित करें

सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। हमारे मुँह का " ० " आकार करके उससे जीव्हा को बाहर निकालना, हमरी जीव्हा भी " ० " आकार की हो जायेगी, उसी भाग से हवा अन्दर खीचनी है। और मुँह बन्द करके से साँस को नाक से बाहर छोड़ दे।

लाभसंपादित करें

शरीर की अतिरिक्त गरमी को कम करने के लिये।ज्यादा पसीना आने की शिकायत से आराम मिलता है।पेट की गर्मी और जलन को कम करने के लिये।शरीर पर कहीं भी आई हुई फोड़ी को मिटाने की लिये।

शीतली प्राणायमसंपादित करें

सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। हमारे मुँह का " ० " आकार करके उससे जिव्हा को बाहर निकालना, हमारी जीव्हा भी " ० " आकार की हो जायेगी, उसी भाग से हवा अन्दर खीचनी है। और मुँह बन्द करके से साँस को नाक से बाहर छोड़ दे।

लाभसंपादित करें

शरीर की अतिरिक्त गरमी को कम करने के लिये।ज्यादा पसीना आने की शिकायत से आराम मीलता है।पेट की गर्मी और जलन को कम करने के लिये।शरीर पर कहा भी आयी हुई फोड़ी को मिटाने की लिये।

चंदभेदी प्राणायामसंपादित करें

सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। हमारे मुँह का " ० " आकार करके उससे जीव्हा को बाहर निकालना, हमरी जीव्हा भी " ० " आकार की हो जायेगी, उसी भाग से हवा अन्दर खीचनी है। और मुँह बन्द करके से साँस को नाक से बाहर छोड़ दे।

लाभसंपादित करें

जैसाकि "सूय॔भेदी प्राणायाम" अनुभाग के अंतरगत वर्णित है।|

इसके अलावा भी योग में अनेक प्रकार के प्राणायामों का वर्णन मिलता है जैसे-

1. अनुलोम-विलोम प्राणायाम

2. अग्नि प्रदीप्त प्राणायाम

3. अग्नि प्रसारण प्राणायाम

4. एकांड स्तम्भ प्राणायाम

5. सीत्कारी प्राणायाम

6. सर्वद्वारबद्व प्राणायाम

7. सर्वांग स्तम्भ प्राणायाम

8. सम्त व्याहृति प्राणायाम

9. चतुर्मुखी प्राणायाम,

10. प्रच्छर्दन प्राणायाम

11. चन्द्रभेदन प्राणायाम

12. यन्त्रगमन प्राणायाम

13. वामरेचन प्राणायाम

14. दक्षिण रेचन प्राणायाम

15.शक्ति प्रयोग प्राणायाम

16. त्रिबन्धरेचक प्राणायाम

17. कपाल भाति प्राणायाम

18. हृदय स्तम्भ प्राणायाम

19. मध्य रेचन प्राणायाम

20. त्रिबन्ध कुम्भक प्राणायाम

21. ऊर्ध्वमुख भस्त्रिका प्राणायाम

22. मुखपूरक कुम्भक प्राणायाम

23. वायुवीय कुम्भक प्राणायाम

24. वक्षस्थल रेचन प्राणायाम

25. दीर्घ श्वास-प्रश्वास प्राणायाम

26. प्राह्याभ्न्वर कुम्भक प्राणायाम

27. षन्मुखी रेचन प्राणायाम

28. कण्ठ वातउदा पूरक प्राणायाम

29. सुख प्रसारण पूरक कुम्भक प्राणायाम

30. नाड़ी शोधन प्राणायाम व नाड़ी अवरोध प्राणायाम
(5)प्रत्याहार
प्रत्याहार का अर्थ होता है – 'संक्षिप्त कथन'। व्याकरण में प्रत्याहार विभिन्न वर्ण-समूह को अभीप्सित रूप से संक्षेप में ग्रहण करने की एक पद्धति है। जैसे, 'अण्' से अ इ उ और 'अच्' से समग्र स्वर वर्ण— अ, इ, उ, ऋ, लृ, ओ और औ, इत्यादि। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’(1-1-71) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।

आदिरन्त्येन सहेता (1-1-71): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।

उदाहरण: अच् = प्रथम प्रत्याहार सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है। यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है। अतः,
अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।

इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि 5वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ‘ह’ को अन्तिम 14वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। फलतः,

हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह

उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण की इत् संज्ञा पाणिनि ने की है। इत् - इण् धातु से गमनार्थ मे निष्पन्न पद है। इत् संज्ञक वर्णों का कार्य अनुबन्ध बनाकर अन्त मे निकल जाना है। अतः, इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है। किन वर्णों की इत् संज्ञा होती है, इसका निर्देश पाणिनि ने निम्नलिखित सूत्रों द्वारा किया है:

1. उपदेशेऽजनुनासिक इत् (1.3.2): उपदेश मे अनुनासिक अच् (स्वर वर्ण) इत् होते हैं। (उपदेश – सूत्रपाठ (माहेश्वर सूत्र सहित), धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ, प्रत्यय, आगम, आदेश इत्यादि धातुसूत्रगणोणादि वाक्यलिङ्गानुशासनम्। आदेशो आगमश्च उपदेशाः प्रकीर्तिता ॥) अनुनासिक – मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः। अर्थात् जिन वर्णों का उच्चारण मुख एवं नासिका दोनो की सहायता से किया जाए। अष्टाध्यायी मे पाणिनि ने जिन वर्णों की अनुनासिकता का निर्देश किया है वही अनुनासिक माने जातें हैं।)
2. हलन्त्यम् (1.3.3): उपदेश मे (अन्त्यम्) अन्तिम (हल्) हल् = व्यञ्जन वर्ण इत् होते हैं। लेकिन विभक्ति मे अन्तिम तकार (त्), सकार (स्) तथा मकार (म्) का लोप नही होता है – न विभक्तौ तुस्माः (1.3.4)

इत् संज्ञा का विधान करने वाले अन्य सूत्र हैं:
3. आदिर्ञिटुडवः (1.3.5)
4. षः प्रत्ययस्य (1.3.6)
5. लशक्वतद्धिते (1.3.7)
6. चुटू (1.3.8)

इत् संज्ञा होने से इन वर्णों का लोप – तस्य लोपः (1-2-9)सूत्र से होता है। लोप का अर्थ है – अदर्शन – अदर्शनं लोपः। फलतः, इत् संज्ञा वाले वर्ण विद्यमान रहते हुए भी दिखाई नही पड़ते। अतः, इनकी गणना भी नही की जाती है।

प्रत्याहार की महत्ता एवं उपयोगसंपादित करें

पाणिनि को जब भी अक्षर-समूह विशेष की आवश्यकता होती है, वे सभी अक्षरों को पृथक् – पृथक् कहने की बजाए उपयुक्त प्रत्याहार का प्रयोग करते हैं जिसमे उन अक्षरों का समावेश होता है।
उदाहरण: पाणिनि एक विशिष्ट संज्ञा (Technical device) ‘गुण’ की परिभाषा देते हैं:

अदेङ् गुणः अर्थात् अदेङ् को गुण कहते हैं। यहाँ,
अदेङ् = अत् + एङ् (व्यञ्जन संधि)। इस उदाहरण मे एङ् एक प्रत्याहार है।
माहेश्वर सूत्र – एओङ् के आद्यक्षर ‘ए’ एवं अन्तिम अक्षर ङ् के अनुबन्ध से यह प्रत्याहार बना है। (आदिरन्त्येन सहेता)
एङ् = ए ओ ङ्
एङ् के अन्तिम अक्षर ङ् की इत् संज्ञा होती है (हलन्त्यम्)। इत् संज्ञा होने से उसका लोप हो जाता है (तस्य लोपः)। फलतः,
एङ् = ए, ओ।
अतः, अ (अत्), ए तथा ओ को गुण कहते हैं। (अदेङ् गुणः)

उदाहरण: इको यणचि : यदि अच् परे हो तो इक् के स्थान पर यण् होता है।

अच् = अ, इ, उ, ॠ, ॡ, ए, ओ, ऐ, औ।
इक् = इ, उ, ॠ, ॡ।
यण् = य, व, र, ल।

यदि पाणिनि उपर्युक्त प्रत्याहारों का प्रयोग नही करते तो उन्हे कहना पड़ता:
यदि, इ, उ, ॠ, ॡ के बाद अ, इ, उ, ॠ, ॡ, ए, ओ, ऐ, औ रहें तो इ, उ, ॠ तथा ॡ के स्थान पर क्रमशः य, व, र, ल, होता है।
इस कथन को पाणिनि ने अत्यन्त संक्षिप्त रूप मे मात्र ‘इको यणचि’ इन दो पदों से व्यक्त कर दिया है।

धारणा, ध्यान और समाधि ये तीन योग के अंतरंग साधन:-
(6)धारणा
चित्त को किसी एक विचार में बांध लेने की क्रिया को धारणाकहा जाता है। यह शब्द 'धृ' धातु से बना है। पतञ्जलि के अष्टांग योग का यह छठा अंग या चरण है। वूलफ मेसिंग नामक व्यक्ति ने धारणा के सम्बन्ध में प्रयोग किये थे।

परिचयसंपादित करें

धारणा अष्टांग योग का छठा चरण है। इससे पहले पांच चरण यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार हैं जो योग में बाहरी साधन माने गए हैं। इसके बाद सातवें चरण में ध्यानऔर आठवें में समाधि की अवस्था प्राप्त होती है। धारणा शब्द ‘धृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ होता है संभालना, थामना या सहारा देना। योग दर्शन के अनुसार- देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। (योगसूत्र 3/1) अर्थात्- किसी स्थान (मन के भीतर या बाहर) विशेष पर चित्त को स्थिर करने का नाम धारणा है। आशय यह है कि यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार द्वारा इंद्रियों को उनके विषयों से हटाकर चित्त में स्थिर किया जाता है। स्थिर हुए चित्त को एक ‘स्थान’ पर रोक लेना ही धारणा है।
(7)ध्यान
ध्यान या अवधान चेतन मन की एक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपनी चेतना बाह्य जगत् के किसी चुने हुए दायरे अथवा स्थलविशेष पर केंद्रित करता है। यह अंग्रेजी "अटेंशन" के पर्याय रूप में प्रचलित है। हिंदी में इसके साथ "देना", "हटाना", "रखना" आदि सकर्मक क्रियाओं का प्रयोग, इसमें व्यक्तिगत प्रयत्न की अनिवार्यता सिद्ध करता है। ध्यान द्वारा हम चुने हुए विषय की स्पष्टता एवं तद्रूपता सहित मानसिक धरातल पर लाते हैं।

योगसम्मत ध्यान से इस सामान्य ध्यान में बड़ा अंतर है। पहला दीर्घकालिक अभ्यास की शक्ति के उपयोग द्वारा आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर प्रेरित होता है, जबकि दूसरे का लक्ष्य भौतिक होता है और साधारण दैनंदिनी शक्ति ही एतदर्थ काम आती है। संपूर्णानंद आदि कुछ भारतीय विद्वान् योगसम्मत ध्यान को सामान्य ध्यान की ही एक चरम विकसित अवस्था मानते हैं।

परिचयसंपादित करें

किसी भी मनुष्य का सभी बाहरी कार्यों से विरक्त होकर किसी एक कार्य में लीन हो जाना ही ध्यान है। आशय यह है कि किसी एक कार्य में किसी का इतना लिप्त होना कि उसे समय,मौसम,एवं अनय शारीरिक जरूरतों का बोध न रहे इसे ही ध्यान कहते हैं।

ध्यान तीन प्रकार के स्वभावोंवाला होता है-

(क) सहज (यथा धमाके की आवाज पर)(ख) बलात्- (यथा, नक्शे में ढूँढने की स्थिति में),(ग) अर्जित (यथा, ताजे अखबार के शीर्षकों में)।

ध्यान का एक फैलाव क्षेत्र (स्पैन) होता है। एक सीमित समय में कुछ गिनती की वस्तुओं में ही थोड़ी-थोड़ी देर पर ध्यान चक्कर काटता रहता है। उदाहरण के लिए, कमरे में दो तीन मित्र बातें करते हों तो उनके अलग अलग चेहरे, बात का विषय, कमरे की दीवाल या कैलेंडर, मेजपोश या पेपरवेट आदि ही कुछ वस्तुएँ हैं जो हमारे ध्यान के फैलाव क्षेत्र में उस समय हैं। कमरे का बाहरी वातावरण उस क्षेत्र से बाहर है।

सबसे पहले इस विषय पर लिखते हुए दार्शनिक लेखक वोल्फ (1754) ने ध्यान को विशिष्ट मानस गुण (मेंटल फैकल्टी) माना। विलियम जेम्स (1842-1910) ने इसकी प्रथम सुसंबद्ध वैज्ञानिक व्याख्या इसे "चेतनाप्रवाह" की गति का आयामविशेष मानते हुए की। रिब्बो (1839-1916) ने ध्यान को पूर्वानुप्रेरित क्रिया (ऐंटिसिपेटरी बिहेवियर) कहा। टिचनर (1867-1927) ने अपेक्षाकृत अधिक वैज्ञानिक स्पष्टता के साथ बताया कि ध्येय विषय चेतना द्वारा प्रसीमित क्षेत्र (फोकस) में आते हैं और अन्य वस्तुएँ इसके इर्द-गिर्द हाशिये (मार्जिन) पर होती हैं। यों ध्यान हमारी चेतना का लक्ष्य बिंदु बनाता है। हाशियों पर ध्यान क्रमश: निस्तेज होता हुआ विलुप्त होता रहता है।

कोफ्का, कोहलर तथा वर्थाइमर ने इस सदी के दूसरे दशक में मनोविज्ञान के गेस्टाल्ट संप्रदाय की स्थापना करके आंतरिक सूझबूझ तथा बिखरी वस्तुओं में सावयवताबोध को विशेष महत्व दिया (1912)। इनके अनुसार ध्यान की प्रक्रिया में पूरी वस्तु को अलग-अलग परिप्रेक्ष्य द्वारा बदले जाने पर उसकी अलग-अलग सावयवता दिखाई देती है। शतरंज की पाटी को देर तक देखें, तो कभी काले खाने एक वर्ग में होकर सफेद को पृष्ठभूमि बनाते हैं और कभी-कभी सफेद ही आगे आकर काले खानों को पीछे ढकेल देते हैं। तीन सीधी रेखाओं में बीच की एक सर्वाधिक बड़ी रेखा पूरे चित्र में ही कार्निस की शक्ल में आगे की ओर निकले होने का बोध देती है। मुड़े हुए आयताकार वस्तु का ज्यामितिक चित्र हमारे ध्यान को उसके भीतर एवं बाहर की ओर मुड़े होने का बारी बारी से बोध कराता है। यों हमारे ध्यानाकर्षण की क्रिया में भी चेतना का प्रक्षेपण होता है।

कैटेल निर्मित टैचिस्टोकोप में विभिन्न संख्या में छपे स्पष्ट बिंदुओं के कार्ड थोड़ी देर में उजागर कर छिपा लिए जाते हैं और देखनेवालों से ठीक संख्या पूछी जाती है। न्यूनतम संख्या ध्यान के लिए अधिक स्पष्ट सिद्ध होती हैं क्योंकि 4 की संख्या ऐसी थी जिसे शत प्रतिशत लोगों ने ठीक बताया। अददों का कम होना ध्यान की स्पष्टता की एक शर्त है।

ध्यान के संबंध में बहुत सी प्रायोगिक परीक्षाएँ भी हुई हैं- जेवंस तथा हैमिल्टन द्वारा ध्येय और ध्येता के बीच की दूरी (रेंज ऑव एटेंशन) का माप, विटेनबोर्न द्वारा फैक्टर विश्लेषण की आँकड़ा शास्त्रीय पद्धति पर विशेष परिस्थित क्रम में अंकों के समानुवर्तन के साथ ध्यान प्रक्रिया की सहमति; मौर्गन तथा फोर्ड द्वारा आकस्मिक हरकतों, दोलनों अथवा चेष्टाओं से ध्यान का संबंधनिरूपण और इसी प्रकार वस्तुओं के नए एवं पुराने; तीव्र और मंद आदि गुणों में प्रथम से ही ध्यान का सांप्रतिक संबंध; ध्यान में मांसपेशियों के सापेक्ष आकुंचन की मात्रा आदि। ध्यानराहित्य (इनैटेंशन) तथा अन्यमनस्कता ध्यान के अभाव नहीं हैं बल्कि ये ध्यान के अपेक्षित वस्तु पर न लगाकर उसके कहीं और लगे होने के सूचक हैं। हैमिल्टन ने अमूर्त विचार या चिंतन (एब्सट्रैक्शन) को ध्यान का ही पूरक किंतु एक प्रकार का निषेधात्मक पक्ष माना है।
(8)समाधि
ध्यान की उच्च अवस्था को समाधि कहते हैं। हिन्दू, जैन, बौद्ध तथा योगी आदि सभी धर्मों में इसका महत्व बताया गया है। जब साधक ध्येय वस्तु के ध्यान मे पूरी तरह से डूब जाता है और उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता है तो उसे समाधि कहा जाता है। पतंजलि के योगसूत्र में समाधि को आठवाँ (अन्तिम) अवस्था बताया गया है।
ध्येय विषय ईश्वर होने पर मुक्ति मिल जाती है। यह परमात्मा से संयोग प्राप्त करने का मनोवैज्ञानिक मार्ग है जिसमें मन की सभी शक्तियों को एकाग्र कर एक केन्द्र या ध्येय वस्तु की ओर लाया जाता है।

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