Sunday, 29 October 2017

पुरुषार्थ

मुख्य मेनू खोलें खोजें 3 संपादित करेंध्यानसूची से हटाएँ।किसी अन्य भाषा में पढ़ें पुरुषार्थ हिन्दू धर्म में पुरुषार्थ से तात्पर्य मानव के लक्ष्य या उद्देश्य से है। पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ = अर्थात मानव को 'क्या' प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। प्रायः मनुष्य के लिये वेदों में चार पुरुषार्थों का नाम लिया गया है - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। योग वसिष्ट के अनुसार सद्जनो और शास्त्र के उपदेश अनुसार चित्त का विचरण ही पुरुषार्थ कहलाता हे |[1] बाहरी कड़ियाँ संपादित करें चार पुरुषार्थ को जानें (हिन्दी गौरव) सन्दर्भ संपादित करें ↑ http://hariomgroup.org/hariombooks/paath/Hindi/ShriYogaVashishthaMaharamayan/ShriYogaVashihthaMaharamayan-Prakarana-2.pdf पुरुषार्थ चार है- (1)धर्म (religion 0r righteouseness), (2)अर्थ (wealth) (3)काम (Work, desire and Sex) और (4)मोक्ष (salvation or or liberation)। उक्त चार को दो भागों में विभक्त किया है- पहला धर्म और अर्थ। दूसरा काम और मोक्ष। काम का अर्थ है- सांसारिक सुख और मोक्ष का अर्थ है सांसारिक सुख-दुख और बंधनों से मुक्ति। इन दो पुरुषार्थ काम और मोक्ष के साधन है- अर्थ और धर्म। अर्थ से काम और धर्म से मोक्ष साधा जाता है। (1)धर्म- धर्म से तात्पर्य स्वयं के स्वभाव, स्वधर्म और स्वकर्म को जानते हुए कर्तव्यों का पालन कर मोक्ष के मार्ग खोलना। मोक्ष का मार्ग खुलता है उस एक सर्वोच्च निराकार सत्ता परमेश्वर की प्रार्थना और ध्यान से। ज्ञानीजन इसे ही यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार कहते हैं। तटस्थों के लिए धारणा और ध्यान ही श्रेष्ठ है और भक्तों के लिए परमेश्वर की प्रार्थना से बढ़कर कुछ नहीं- इसे ही योग में ईश्वर प्राणिधान कहा गया है- यही संध्योपासना है। धर्म इसी से पुष्‍ट होता है। पुण्य इसी से अर्जित होता है। इसी से मोक्ष साधा जाता है। (2)अर्थ- अर्थ से तात्पर्य है जिसके द्वारा भौतिक सुख-समृद्धि की सिद्धि होती हो। भौतिक सुखों से मुक्ति के लिए भौतिक सुख होना जरूरी है। ऐसा कर्म करो जिससे अर्थोपार्जन हो। अर्थोपार्जन से ही काम साधा जाता है। (3)काम- संसार के जितने भी सुख कहे गए हैं वे सभी काम के अंतर्गत आते हैं। जिन सुखों से व्यक्ति का शारीरिक और मानसिक पतन होता है या जिनसे परिवार और समाज को तकलीफ होती है ऐसे सुखों को वर्जित माना गया है। अर्थ का उपयोग शरीर, मन, परिवार, समाज और राष्ट्र को पुष्ट करने के लिए होना चाहिए। भोग और संभोग की अत्यधिकता से शोक और रोगों की उत्पत्ति होती है। दोनों के लिए ही समय और नियम नियुक्ति हैं। (4)मोक्ष- मोक्ष का अर्थ है पदार्थ से मुक्ति। इसे ही योग समाधि कहता है। यही ब्रह्मज्ञान है और यही आत्मज्ञान भी। ऐसे मोक्ष में स्थित व्यक्ति को ही कृष्ण स्थितप्रज्ञ कहते हैं। हिंदूजन ऐसे को ही भगवान, जैन अरिहंत और बौद्ध संबुद्ध कहते हैं। यही मोक्ष, केवल्य, निर्वाण या समाधि कहलाता है। संवाद Last edited 5 months ago by NehalDaveND RELATED PAGES मोक्ष अष्टांगयोग अष्टांग योग सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप

कामशास्त्र

मुख्य मेनू खोलें खोजें 3 संपादित करेंध्यानसूची से हटाएँ।किसी अन्य भाषा में पढ़ें कामशास्त्र विभिन्न जन्तुओं में संभोग का चित्रण (ऊपर) ; एक सुन्दर युवती का विविध प्राणियों से संभोग का चित्रण (नीचे) मानव जीवन के लक्ष्यभूत चार पुरुषार्थों में "काम" अन्यतम पुरुषार्थ माना जाता है। संस्कृत भाषा में उससे संबद्ध विशाल साहित्य विद्यमान है। कामशास्त्र का इतिहास संपादित करें कामशास्त्र का आधारपीठ है - महर्षि वात्स्यायनरचित कामसूत्र। सूत्र शैली में निबद्ध, वात्स्यायन का यह महनीय ग्रंथ विषय की व्यापकता और शैली की प्रांजलता में अपनी समता नहीं रखता। महर्षि वात्स्यायन इस शास्त्र में प्रतिष्ठाता ही माने जा सकते हैं, उद्भावक नहीं, क्योंकि उनसे बहुत पहले इस शास्त्र का उद्भव हो चुका था। कामशास्त्र के इतिहास को हम तीन कालविभागों में बाँट सकते हैं - पूर्ववात्स्यायन काल, वात्स्यान काल तथा पश्चातद्वात्स्यायन काल (वात्स्यायन के बाद का समय)। पूर्ववात्स्यायन काल संपादित करें कहा जाता है, प्रजापति ने एक लाख अध्यायों में एक विशाल ग्रंथ का प्रणयन कर कामशास्त्र का आंरभ किया, परंतु कालांतर में मानवों के कल्याण के लिए इसके संक्षेप प्रस्तुत किए गए। पौराणिक पंरपरा के अनुसार महादेव की इच्छा से "नंदी" ने एक सहस्र अध्यायों में इसका सार अंश तैयार किया जिसे और भी उपयोगी बनाने के लिए उद्दालक मुनि के पुत्र श्वेतकेतु ने पाँच सौ अध्यायों में उसे संक्षिप्त बनाया। इसके अनन्तर पांचाल बाभव्य ने तृतीयांश में इसकी और भी संक्षिप्त किया—डेढ़ सौ अध्यायों तथा सात अधिकरणों में, कालांतर में सात महनीय आचार्यों ने प्रत्येक अधिकरण के ऊपर सात स्वतंत्र ग्रंथों का निर्माण किया— (1) चारायण ने ग्रंथ बनाया साधारण अधिकरण पर, (2) सुवर्णनाभ ने सांप्रयोगिक पर, (3) घोटकमुख ने कन्या संप्रयुक्तक पर, (4) गोनर्दीय ने भार्याधिकारिक पर, (5) गोणिकापुत्र ने पारदारिक पर, (6) दत्तक ने वैशिक पर तथा (7) कुचुमार ने औपनिषदिक पर। इस पृथक् रचना का फल शास्त्र के प्रचार के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ और क्रमश: यह उच्छिन्न होने लगा। फलत: वात्स्यायन ने इन सातों अधिकरण ग्रंर्थों का सारांश एकत्र प्रस्तुत किया और इस विशिष्ट प्रयास का परिणत फल वात्स्यायन कामसूत्र हुआ। इस प्रकार वर्तमान कामसूत्र की शताब्दियों के साहित्यिक सदुद्योगों का पर्यवसान समझना चाहिए, यद्यपि परंपरया घोषित कामशास्त्रीय ग्रंथों के इस अनंत प्रणयन के विस्तार को स्वीकार करना कठिन है। पूर्ववात्स्यायन काल के आचार्यों की रचनाओं का विशेष पता नहीं चलता। ब्राभ्रव्य के मत का निर्देश बड़े आदर के साथ वात्स्यायन ने अपने ग्रंथ में किया है। घोटकमुख और गोनर्दीय के मत कामशास्त्र और अर्थशास्त्र में उल्लिखित मिलते है। केवल दत्तक और कुचिमार के ग्रंथों के अस्तित्व का परिचय हमें भली भाँति उपलब्ध है। आचार्य दत्तक की विचित्र जीवनकथा कामसूत्र की जयमंगला टीका में है। कुचिमार रचित तंत्र के पूर्णत: उपलब्ध न होने पर भी हम उसके विषय से परिचत हैं। इस तंत्र में कामोपयोगी औषधों का वर्णन है जिसका संबंध बृंहण, लेपन, वश्य आदि क्रियाओं से है। "कूचिमारतंत्र" का हस्तलेख मद्रास से उपलब्ध हुआ है जिसे ग्रंथकार "उपनिषद्" का नाम देता है और जिस कारण उसमें प्रतिपादित अधिकरण "औपनिषदिक" नाम से प्रख्यात हुआ। वात्स्यायन काल (कामसूत्र) संपादित करें मुख्य लेख : कामसूत्र वात्स्यायन का यह ग्रंथ सूत्रात्मक है। यह सात अधिकरणों, 36 अध्यायों तथा 64 प्रकरणों में विभक्त है। इसमें चित्रित भारतीय सभ्यता के ऊपर गुप्त युग की गहरी छाप है, उस युग का शिष्टसभ्य व्यक्ति "नागरिक" के नाम से यहाँ दिया गया है कि कामसूत्र भारतीय समाजशास्त्र का एक मान्य ग्रंथरत्न बन गया है। ग्रंथ के प्रणयन का उद्देश्य है लोकयात्रा का निर्वाण, न कि राग की अभिवद्धि। इस तात्पर्य की सिद्धि के लिए वात्स्यायन ने उग्र समाधि तथा ब्रह्मचर्य का पालन कर इस ग्रंथ की रचना की— तदेतद् ब्रह्मचर्येण परेण च समाधिना। विहितं लोकयावर्थं न रागार्थोंऽस्य संविधि:॥ -- (कामसूत्र, सप्तम अधिकरण, श्लोक 57) ग्रंथ सात अधिकरणों में विभक्त है। प्रथम अधिकरण (साधारण) में शास्त्र का समुद्देश तथा नागरिक की जीवनयात्रा का रोचक वर्णन है। द्वितीय अधिकरण (सांप्रयोगिक) रतिशास्त्र का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। पूरे ग्रंथ में यह सर्वाधिक महत्वशाली खंड है जिसके दस अध्यायों में रतिक्रीड़ा, आलिंगन, चुंबन आदि कामक्रियाओं का व्यापक और विस्तृत प्रतिपादन हे। तृतीय अधिकरण (कान्यासंप्रयुक्तक) में कन्या का वरण प्रधान विषय है जिससे संबद्ध विवाह का भी उपादेय वर्णन यहाँ किया गया है। चतुर्थ अधिकरण (भार्याधिकारिक) में भार्या का कर्तव्य, सपत्नी के साथ उसका व्यवहार तथा राजाओं के अंत:पुर के विशिष्ट व्यवहार क्रमश: वर्णित हैं। पंचम अधिकरण (पारदारिक) परदारा को वश में लाने का विशद वर्णन करता है जिसमें दूती के कार्यों का एक सर्वांगपूर्ण चित्र हमें यहाँ उपलब्ध होता है। षष्ठ अधिकतरण (वैशिक) में वेश्याओं, के आचरण, क्रियाकलाप, धनिकों को वश में करने के हथकंडे आदि वर्णित हैं। सप्तम अधिकरण (औपनिषदिक) का विषय वैद्यक शास्त्र से संबद्ध है। यहाँ उन औषधों का वर्णन है जिनका प्रयोग और सेवन करने से शरीर के दोनों वस्तुओं की, शोभा और शक्ति की, विशेष अभिवृद्धि होती है। इस उपायों के वैद्यक शास्त्र में "बृष्ययोग" कहा गया है। रचना की दृष्टि से कामसूत्र कौटिल्य के "अर्थशास्त्र" के समान है—चुस्त, गंभीर, अल्पकाय होने पर भी विपुल अर्थ से मंडित। दोनों की शैली समान ही है — सूत्रात्मक; रचना के काल में भले ही अंतर है, अर्थशास्त्र मौर्यकाल का और कामूसूत्र सातवाहनकाल अथवा गुप्तकाल का है। कामसूत्र के ऊपर चार टीकाएँ प्राप्त होती हैं- (1) जयमंगला प्रणेता आचार्य यशोधर है जिन्होंने वीसलदेव (1243-61) के राज्यकाल में इसका निर्माण किया। (2) कंदर्पचूडामणि बघेलवंशी राजा रामचंद्र के पुत्र वीरभद्रदेव द्वारा विरचित पद्यबद्ध टीका (रचनाकाल सं. 1633 विक्रमी अर्थात् सन् 1576 ई.)। यह ग्रन्थ वैद्य जादवजी त्रिविक्रमजी आचार्य द्वारा संपादित/संशोधित हो कर मुम्बई के 'गुजराती प्रेस' से सं. 1981 विक्रमी अर्थात् सन् 1924 ई. में प्रकाशित। (3) प्रौढप्रिया — काशीस्थ विद्वान् सर्वेश्वरशास्त्रि के शिष्य भास्कर नृसिंह द्वारा 1788 ई. में निर्मित टीका। (4) कामसूत्रव्याख्या — मल्लदेव नामक विद्वान द्वारा निर्मित टीका। इनमें प्रथम दोनों प्रकाशित और प्रसिद्ध हैं, परंतु अंतिम दोनों टीकायें अभी तक अप्रकाशित है। कामसूत्र के ऊपर हुए प्रकाशित समालोचनात्मक ग्रंथ निम्न हैं - कामसूत्र कालीन समाज एवं संस्कृति :- यह ग्रन्थ डॉ॰ संकर्षण त्रिपाठी द्वारा विरचित एवं चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी से प्रकाशित है। कामसूत्र परिशीलन :- यह ग्रन्थ आचार्य वाचस्पति गैरोला विरचित द्वारा है। कामसूत्र का समाजशास्त्रीय अध्ययन :- यह ग्रन्थ पं० देवदत्त शास्त्री द्वारा विरचित है। पश्चाद्वात्स्यायन काल संपादित करें मध्ययुग के लेखकों ने कामशास्त्र के विषय में अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। इनका मूल आश्रय वात्स्यायन का ही ग्रंथरत्न है और रतिक्रीड़ा के विषय में नवीन तथ्य विशेष रूप से निविष्ट किए गए हैं। ऐसे ग्रंथकारों में कतिपय की रचनाएँ ख्यातिप्राप्त हैं — अन्य प्रकाशित कामशास्त्रीय ग्रन्थ (क) नागरसर्वस्व (पद्मश्रीज्ञान कृत):- कलामर्मज्ञ ब्राह्मण विद्वान वासुदेव से संप्रेरित होकर बौद्धभिक्षु पद्मश्रीज्ञान इस ग्रन्थ का प्रणयन किया था। यह ग्रन्थ ३१३ श्लोकों एवं ३८ परिच्छेदों में निबद्ध है। यह ग्रन्थ दामोदर गुप्त के "कुट्टनीमत" का निर्देश करता है और "नाटकलक्षणरत्नकोश" एवं "शार्ङ्गधरपद्धति" में स्वयंनिर्दिष्ट है। इसलिए इनका समय १०वीं शताब्दी का अंत में स्वीकृत है। (ख) अंनंगरंग (कल्याणमल्ल कृत):- मुस्लिम शासक लोदीवंशावतंश अहमदखान के पुत्र लाडखान के कुतूहलार्थ भूपमुनि के रूप में प्रसिद्ध कलाविदग्ध कल्याणमल्ल ने इस ग्रन्थ का प्रणयन किया था। यह ग्रन्थ ४२० श्लोकों एवं १० स्थलरूप अध्यायों में निबद्ध है। (ग) रतिरहस्य (कोक्कोक कृत) :- यह ग्रन्थ कामसूत्र के पश्चात दूसरा ख्यातिलब्ध ग्रन्थ है। परम्परा कोक्कोक को कश्मीरी स्वीकारती है। कामसूत्र के सांप्रयोगिक, कन्यासंप्ररुक्तक, भार्याधिकारिक, पारदारिक एवं औपनिषदिक अधिकरणों के आधार पर पारिभद्र के पौत्र तथा तेजोक के पुत्र कोक्कोक द्वारा रचित यह ग्रन्थ ५५५ श्लोकों एवं १५ परिच्छेदों में निबद्ध है। इनके समय के बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि कोक्कोक ७वीं से १०वीं शताब्दी के मध्य हुए थे। यह कृति जनमानस में इतनी प्रसिद्ध हुई सर्वसाधारण कामशास्त्र के पर्याय के रूप में "कोकशास्त्र" नाम प्रख्यात हो गया। (घ) पंचसायक (कविशेखर ज्योतिरीश्वर कृत)  :- मिथिलानरेश हरिसिंहदेव के सभापण्डित कविशेखर ज्योतिरीश्वर ने प्राचीन कामशास्त्रीय ग्रंथों के आधार ग्रहणकर इस ग्रंथ का प्रणयन किया। ३९६ श्लोकों एवं ७ सायकरूप अध्यायों में निबद्ध यह ग्रन्थ आलोचकों में पर्याप्त लोकप्रिय रहा है। आचार्य ज्योतिरीश्वर का समय चतुर्दश शतक के पूर्वार्ध में स्वीकृत है। (ड) रतिमंजरी (जयदेव कृत)  :- अपने लघुकाय रूप में निर्मित यह ग्रंथ आलोचकों में पर्याप्त लोकप्रिय रहा है। रतिमंजरीकार जयदेव, गीतगोविन्दकार जयदेव से पूर्णतः भिन्न हैं। यह ग्रन्थ डॉ॰ संकर्षण त्रिपाठी द्वारा हिन्दी भाष्य सहित चौखंबा विद्याभवन, वाराणसी से प्रकाशित है। (च) स्मरदीपिका (मीननाथ कृत)  :- २१६ श्लोकों में निबद्ध यह ग्रंथ हिन्दी अनुवाद सहित चौखंबा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से प्रकाशित है। (छ) रतिकल्लोलिनी (सामराज दीक्षित कृत)  :- दाक्षिणात्य बिन्दुपुरन्दरकुलीन ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न एवं बुन्देलखण्डनरेश श्रीमदानन्दराय के सभापण्डित आचार्य सामराज दीक्षित द्वारा १९३ श्लोकों में निबद्ध इस ग्रन्थ का प्रणयन संवत १७३८ अर्थात १६८१ ई० में हुआ था। यह ग्रंथ हिन्दी अनुवाद सहित चौखंबा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से प्रकाशित है। (ज) पौरूरवसमनसिजसूत्र (राजर्षि पुरुरवा कृत)  :-यह ग्रंथ हिन्दी अनुवाद सहित चौखंबा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से प्रकाशित है। (झ) कादम्बरस्वीकरणसूत्र (राजर्षि पुरुरवा कृत)  :-यह ग्रंथ हिन्दी अनुवाद सहित चौखंबा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से प्रकाशित है। (ट) शृंगारदीपिका या शृंगाररसप्रबन्धदीपिका (हरिहर कृत) :- २९४ श्लोकों एवं ४ परिच्छेदों में निबद्ध यह ग्रंथ हिन्दी अनुवाद सहित चौखंबा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से प्रकाशित है। (ठ) रतिरत्नदीपिका (प्रौढदेवराय कृत) :- विजयनगर के महाराजा श्री इम्मादी प्रौढदेवराय (1422-48 ई.) प्रणीत ४७६ श्लोकों एवं ७ अध्यायों में निबद्ध यह ग्रंथ हिन्दी अनुवाद सहित चौखंबा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से प्रकाशित है। श्री इम्मादी प्रौढदेवराय का समय पंचदश शतक के पूर्वार्ध में स्वीकृत है। (ड) केलिकुतूहलम् (पं० मथुराप्रसाद दीक्षित कृत)  :- आधुनिक विद्वान् पं० मथुराप्रसाद दीक्षित द्वारा ९४८ श्लोकों एवं १६ तरंगरूप अध्यायों में निबद्ध यह ग्रंथ हिन्दी अनुवाद सहित कृष्णदास अकादमी, वाराणसी से प्रकाशित है। इन बहुश: प्रकाशित ग्रंथों के अतिरिक्त कामशास्त्र की अनेक अप्रकाशित रचनाएँ उपलब्ध हैं - तंजोर के राजा शाहजी (1664-1710) की शृंगारमंजरी; नित्यानन्दनाथ प्रणीत कामकौतुकम्, रतिनाथ चक्रवर्तिन् प्रणीत कामकौमुदी, जनार्दनव्यास प्रणीत कामप्रबोध, केशव प्रणीत कामप्राभ्ऋत, कुम्भकर्णमहीन्द्र (राणा कुम्भा) प्रणीत कामराजरतिसार, वरदार्य प्रणीत कामानन्द, बुक्क शर्मा प्रणीत कामिनीकलाकोलाहल, सबलसिंह प्रणीत कामोल्लास, अनंत की कामसमूह, माधवसिंहदेव प्रणीत कामोद्दीपनकौमुदी, विद्याधर प्रणीत केलिरहस्य, कामराज प्रणीत मदनोदयसारसंग्रह, दुर्लभकवि प्रणीत मोहनामृत, कृष्णदासविप्र प्रणीत योनिमंजरी, हरिहरचन्द्रसूनु प्रणीत रतिदर्पण, माधवदेवनरेन्द्र प्रणीत रतिसार, आचार्य जगद्धर प्रणीत रसिकसर्वस्व, आदि। इन ग्रंथों की रचना से इस शास्त्र की व्यापकता और लोकप्रियता का पता चलता है। कामशास्त्रीय रचनाएँ संपादित करें कामशास्त्र से सम्बन्धित ग्रन्थ[1] ग्रन्थ का नाम नाम का अर्थ ग्रन्थकार संरचना किस ग्रन्थ का भाष्य शताब्दी अनंगदीपिका Die Leute des Liebesgottes अनंगतिलक Das Schönpflästerchen des Liebesgottes ईश्वरकमित Das Liebesleben großer Herren Interpretation des gleichnamigen Paragraph im Kamasutra कलाशास्त्र Das Lehrbuch von den Künsten सरस्वती Kalavadatantra Das Lehrbuch von der Theorie der Künste कामप्रबोध[2] Das Erwachen des Liebesgottes व्यास जनार्दन bezeichnet 2 verschiedene Werke कामरत्न Die Perle des Liebesgottes नित्यनाथ कामसमूह अनन्त 15. कन्दर्पचूडामणि Das Stirnjuwel des Liebesgottes वीरभद्रदेव Umwandlung des Kamasutra in Arya-Strophen कौतुकमञ्जरी Die Wunderknospe unbekannter Autor Beschreibt das Verhalten einer Neuvermählten मदनसंजीवनि Die Beleberin des Liebesgottes पद्यमुक्तावली Perlenschnur in Versen घासीराम Rhetorisches Werk 17. रतिरहस्यदीपिका कांचीनाथ रतिरहस्यटीक[3] रतिसर्वस्व Die Gesamtheit der Liebeslust स्मरकामदीपिका Die Leuchte des kämpfenden Liebesgottes Visnvangiras (auch Visnvangira, Visnvangera) स्त्रीविलास Das Scherzen der Frauen देश्वेश्वर कामशास्त्र के ग्रन्थ ग्रन्थ का नाम नाम का अर्थ ग्रन्थकार संरचना किस ग्रन्थ का भाष्य शताब्दी मल्लदेव[4] कामसूत्र अनंगरंग (auch Anunga Runga oder Kamaledhiplava) Bühne der Liebe König कल्याणमल्ल 10 अध्याय रतिरहस्य 15./16. अनंगशेखर[1] [5] Das Diadem des Liebesgottes बाभ्रव्याकरिका[6] बाभ्रव्य जनवाश्य[7] König Kallarasa von कर्नाटक रतिरहस्य 15. जय देवदत्त शास्त्री कामसूत्र (हिन्दी) 20. जयमङ्ला (auch सूत्रभाष्य) यशोधर इन्द्रपाद कामसूत्र 13. कादम्बरस्वीकारणकारिक[6] भरत कादम्बरस्वीकरसूत्रम्[6] [8] Pururava कामप्रदीप[1] Die Leuchte des Liebesgottes गुणाकर कामप्रबोध[9] व्यासजनार्दन अनङ्गरङ्ग 17. कामसमू[9] अनन्त कामसूत्र 15. कामसूत्र Verse des Verlangens मलंग वात्स्यायन 36 अध्याय 3./4. कामतंत्रकाव्यम्[6] सूर्यवर कन्दर्पचूडामणि[10] Diadem des Liebesgottes König वीरभद्र (auch वीरभद्रदेव) कामसूत् 16. कुट्टिनीमत (auch कुट्टनीमत)[11] Kashmiri-Dichter दामोदरगुप्त कामसूत्र 8. मदनार्णव[1] [5] Der Wogenschwall des Liebesgottes unbekannter Autor मानसोल्लास[12][13] (auch Abhilashitartha Chintâmani, Abhilashitachintamani, Abhilasitarthacintamani) Glückliche Gemütsverfassung, Geistige Erfrischung König Bhulokamalla Someshvara oder Somadeva III der Châlukya Dynastie von Kalyâni Fünf Bücher mit je 20 Kapitel; ein Kamashastra Kapitel, das Yoshidupabhoga (oder Yosidupabhoga) (Genuss von Frauen). 12. नगरसर्वस्व (auch नगरसर्वस्व)[14] भिक्षु पद्मश्री (auch Padmasri, Padmashrijnana) 38 अध्याय काम सूत्र (बौद्ध), रतिरसहस्य 10./11. नर्मकेलिकौतुकसंवादः[6] दण्डी पञ्चशायक [6] [14] Fünf Pfeile (des Liebes Gottes) Maithila Jyotrishvara Kavishekhara (auch Jyotirîshvara, Jyotirisha, Jyotirishvar, Jyotirisvara) 5 Kapitel, 600 Verse Ratirahasya 13./14. Paururavasamanasijasutram[6] [15] जयकृष्णदीक्षित प्रौढप्रिया (या वात्स्यायन सूत्रवृत्ति)[4] भास्कर नृसिंह (oder Narasimha) कामसूत्र 18. Rasamanjari (auch Rasmanjari)[16] Knospe der Liebe Bhânudatta Misîra (Provinz Tirhoot, Sohn des Dichter-Brahmanen Ganeshwar) 3 Kapitel 17. रतिकल्लोलिनी[17] Fluss der Liebe दीक्षित समराज 18./19. रतिमञ्जरीi Blumenstrauß der Liebeslust Jayadeva (auch Jaydev) 125 Verse Smaradîpika 15./16. रतिरहस्य (या कोकशास्त्र) Geheimnisse der Liebe कोक्कोक 800 Verse, 15 Abschnitte 12./13. Ratirahasyavyakhya[18] Ramacandrasuri Ratirahasya रतिरमण Freuden der ehelichen Liebe सिद्ध नागार्जुअ 527 Verse, 11 Abschnitte, 1 Addendum 17. रतिरत्नप्रदीपिका Erklärung der Kleinodien der Liebe प्रौढ देवराज, विजयनगर के महाराजा oder Immadi Paudhadevaray 485 श्लोक, 7 अध्याय रतिरहस्य 15. रतिसार[1] Due Quintessenz der Liebeslust रतिशास्त्रम्[1] [19] नागार्जुन् रतिशास्त्र Gattenliebe unbekannter Autor 272 श्लोक 16. समयमातृका[20] Ksemendra Kamasutra 12. शृंगाररसप्रबन्धदीपिका (auch Ratirahasyavyakhya)[6] [1] [21] Die Leuchte für die verschiedenen Arten von Liebe Kumara Harihara शृंगारदीपिका[22] हरिहर स्मरदीपिका (auch Katsyamahadeva, Kadra)[1] Licht der Liebe Minanatha (auch Kadra, Rudra, Garga) 175 Verse रतिरहस्य 14./15. स्मरप्रदीपिका[23] Illustrationen der Liebe गुणाकर, Sohn von Vachaspati 400 Verse स्मरतत्त्वप्रकाशिका[1] [5] Die Beleuchtung des Wesens der Liebe Revanaradhya शृंगारमञ्जरी[24][25] Das Bouquet der sexuellen Vergnügungen Saint Akbar Shah सूत्रवृत्ति Naringha Shastri कामसूत्र 18. वात्स्यायनसूत्रसार[1] [22] Die Quintessenz der Lehrsätze des Vatsyayana क्षेमेन्द्र कामसूत्र 11. इन्हें भी देखें संपादित करें काम कामसूत्र रतिरहस्य स्मरदीपिका भारत का लैंगिक इतिहास बाहरी कड़ियाँ संपादित करें डॉ॰ संकर्षण त्रिपाठी का आलेख – संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा भाग (1), भाग (2), भाग (3), भाग (4), भाग (5), भाग (6), भाग (7) कामसूत्र, कादम्बरीस्वीकरणसूत्रमञ्जरी, कुट्टनीमत, पञ्चसायक तथा स्मरदीपिका पढ़ें/डाउनलोड करें प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद (हजारी प्रसाद द्विवेदी) सन्दर्भ संपादित करें ↑ अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ सन्दर्भ त्रुटि: का गलत प्रयोग; Schmidt नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है। ↑ सन्दर्भ त्रुटि: का गलत प्रयोग; KokaShastra नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है। ↑ "Ratirahasyatika". Catalogue of Sanskrit Manuscripts at Saraswati Mahal Library, Tanjavur. http://results2.ap.nic.in/general/s2/s2bookdet.jsp?L=10980%26vl%3D16. अभिगमन तिथि: 22. Mai 2009. ↑ अ आ सन्दर्भ त्रुटि: का गलत प्रयोग; Doniger नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है। ↑ अ आ इ B. A. Bauer: Encyclopaedic Study of Women and Love. Anmol Publications Pvt Ltd, 20 अक्टूबर 2017, ISBN 978-81-2610260-0, p. 340. ↑ अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ Dhundhraj Shastri: Kamakunjalata (A collection of old and rare works of Kama Sastra). Chowkhamba Sanskrit Series Office, 20 अक्टूबर 2017, ISBN 81-7080-116-8. ↑ Jyotsna Kamat (7. April 2009). "Janavashya of Kallarasa". Kamat. http://www.kamat.com/kalranga/erotica/janavashya.htm. अभिगमन तिथि: 21. Mai 2009. ↑ "svikarana sutra" (PDF; 67 kB). Indira Gandi National Centre for the Arts. http://www.ignca.nic.in/sanskrit/kadambari_svikarana_sutra.pdf. अभिगमन तिथि: 21. 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कामसूत्र

मुख्य मेनू खोलें खोजें 3 संपादित करेंध्यानसूची से हटाएँ।किसी अन्य भाषा में पढ़ें कामसूत्र मुक्तेश्वर मंदिर की कामदर्शी मूर्ति कामसूत्र महर्षि वात्स्यायन द्वारा लिखा गया भारत का एक प्राचीन कामशास्त्र (en:Sexology) ग्रंथ है। कामसूत्र को उसके विभिन्न आसनों के लिए ही जाना जाता है। महर्षि वात्स्यायन का कामसूत्र विश्व की प्रथम यौन संहिता है जिसमें यौन प्रेम के मनोशारीरिक सिद्धान्तों तथा प्रयोग की विस्तृत व्याख्या एवं विवेचना की गई है। अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य के अर्थशास्त्र का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान कामसूत्र का है। अधिकृत प्रमाण के अभाव में महर्षि का काल निर्धारण नहीं हो पाया है। परन्तु अनेक विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के अनुसार महर्षि ने अपने विश्वविख्यात ग्रन्थ कामसूत्र की रचना ईसा की तृतीय शताब्दी के मध्य में की होगी। तदनुसार विगत सत्रह शताब्दियों से कामसूत्र का वर्चस्व समस्त संसार में छाया रहा है और आज भी कायम है। संसार की हर भाषा में इस ग्रन्थ का अनुवाद हो चुका है[तथ्य वांछित]। इसके अनेक भाष्य एवं संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं, वैसे इस ग्रन्थ के जयमंगला भाष्य को ही प्रामाणिक माना गया है। कोई दो सौ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध भाषाविद सर रिचर्ड एफ़ बर्टन (Sir Richard F. Burton) ने जब ब्रिटेन में इसका अंग्रेज़ी अनुवाद करवाया तो चारों ओर तहलका मच गया[तथ्य वांछित] और इसकी एक-एक प्रति 100 से 150 पौंड तक में बिकी[तथ्य वांछित]। अरब के विख्यात कामशास्त्र ‘सुगन्धित बाग’ (Perfumed Garden) पर भी इस ग्रन्थ की अमिट छाप है[तथ्य वांछित]। महर्षि के कामसूत्र ने न केवल दाम्पत्य जीवन का शृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी संपदित किया है। राजस्थान की दुर्लभ यौन चित्रकारी तथा खजुराहो, कोणार्क आदि की जीवन्त शिल्पकला भी कामसूत्र से अनुप्राणित है। रीतिकालीन कवियों ने कामसूत्र की मनोहारी झांकियां प्रस्तुत की हैं तो गीत गोविन्द के गायक जयदेव ने अपनी लघु पुस्तिका ‘रतिमंजरी’ में कामसूत्र का सार संक्षेप प्रस्तुत कर अपने काव्य कौशल का अद्भुत परिचय दिया है[तथ्य वांछित]। रचना की दृष्टि से कामसूत्र कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के समान है—चुस्त, गंभीर, अल्पकाय होने पर भी विपुल अर्थ से मंडित। दोनों की शैली समान ही है— सूत्रात्मक; रचना के काल में भले ही अंतर है, अर्थशास्त्र मौर्यकाल का और कामूसूत्र गुप्तकाल का है। कामसूत्र के बारे में भ्रांतियाँ संपादित करें (1) कामसूत्र में केवल विभिन्न प्रकार के यौन-आसन (सेक्स पोजिशन्स) का वर्णन है। कामसूत्र ७ भागों में विभक्त है जिसमें से यौन-मिलन से सम्बन्धित भाग 'संप्रयोगिकम~' एक है। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ का केवल २० प्रतिशत ही है जिसमें ६९ यौन आसनों का वर्णन है।[1] इस ग्रन्थ का अधिकांश भाग काम के दर्शन के बारे में है, काम की उत्पत्ति कैसे होती है, कामेच्छा कैसे जागृत रहती है, काम क्यों और कैसे अच्छा या बुरा हो सकता है।[2] (2) कामसूत्र एक सेक्स-मैनुअल है। 'काम' एक विस्तृत अवधारणा है, न केवल यौन-आनन्द। काम के अन्तर्गत सभी इन्द्रियों और भावनाओं से अनुभव किया जाने वाला आनन्द निहित है। गुलाब का इत्र, अच्छी तरह से बनाया गया खाना, त्वचा पर रेशम का स्पर्श, संगीत, किसी महान गायक की वाणी, वसन्त का आनन्द - सभी काम के अन्तर्गत आते हैं। वात्स्यायन का उद्देश्य स्त्री और पुरुष के बीच के 'सम्पूर्ण' सम्बन्ध की व्याख्या करना था। ऐसा करते हुए वे हमारे सामने गुप्तकाल की दैनन्दिन जीवन के मन्त्रमुग्ध करने वाले प्रसंग, संस्कृति एवं सभ्यता का दर्शन कराते हैं। कामसूत्र के सात भागों में से केवल एक में, और उसके भी दस अध्यायों में से केवल एक अध्याय में, यौन-सम्बन्ध बनाने से सम्बन्धित वर्नन है। (अर्थात ३६ अध्यायों में से केवल १ अध्याय में)[3] (3) कामसूत्र प्रचलन से बाहर (outdated) हो चुका है। यद्यपि कामसूत्र दो-धाई हजार वर्ष पहले रचा गया था, किन्तु इसमें निहित ज्ञान आज भी उतना ही उपयोगी है। इसका कारण यह है कि भले ही प्रौद्योगिकि ने बहुत उन्नति कर ली है किन्तु मनुष्य अब भी एक दूसरे से मिलते-जुलते हैं, विवाह करते हैं, तथा मनुष्य के यौन व्यहार अब भी वही हैं जो हजारों वर्ष पहले थे।[4] (4) कामसूत्र एक तांत्रिक ग्रन्थ है। नहीं, यह तान्त्रिक ग्रन्थ नहीं है। संरचना संपादित करें यह ग्रंथ सूत्रात्मक है। यह सात अधिकरणों, ३६ अध्यायों तथा ६४ प्रकरणों में विभक्त है। इसमें चित्रित भारतीय सभ्यता के ऊपर गुप्त युग की गहरी छाप है, उस युग का शिष्टसभ्य व्यक्ति 'नागरिक' के नाम से यहाँ दिया गया है। ग्रंथ के प्रणयन का उद्देश्य लोकयात्रा का निर्वाह है, न कि राग की अभिवद्धि। इस तात्पर्य की सिद्धि के लिए वात्स्यायन ने उग्र समाधि तथा ब्रह्मचर्य का पालन कर इस ग्रंथ की रचना की— तदेतद् ब्रह्मचर्येण परेण च समाधिना। विहितं लोकयावर्थं न रागार्थोंऽस्य संविधि:।। (कामसूत्र, सप्तम अधिकरण, श्लोक ५७) ग्रंथ सात अधिकरणों में विभक्त है जिनमें कुल ३६ अध्याय तथा १२५० श्लोक हैं। इसके सात अधिकरणों के नाम हैं- १. साधारणम् (भूमिका) २. संप्रयोगिकम् (यौन मिलन) ३. कन्यासम्प्रयुक्तकम् (पत्नीलाभ) ४. भार्याधिकारिकम् (पत्नी से सम्पर्क) ५. पारदारिकम् (अन्यान्य पत्नी संक्रान्त) ६. वैशिकम् (रक्षिता) ७. औपनिषदिकम् (वशीकरण) प्रथम अधिकरण (साधारण) में शास्त्र का समुद्देश तथा नागरिक की जीवनयात्रा का रोचक वर्णन है। द्वितीय अधिकरण (सांप्रयोगिक) रतिशास्त्र का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। पूरे ग्रंथ में यह सर्वाधिक महत्वशाली खंड है जिसके दस अध्यायों में रतिक्रीड़ा, आलिंगन, चुंबन आदि कामक्रियाओं का व्यापक और विस्तृत प्रतिपादन हे। तृतीय अधिकरण (कान्यासंप्रयुक्तक) में कन्या का वरण प्रधान विषय है जिससे संबद्ध विवाह का भी उपादेय वर्णन यहाँ किया गया है। चतुर्थ अधिकरण (भार्याधिकारिक) में भार्या का कर्तव्य, सपत्नी के साथ उसका व्यवहार तथा राजाओं के अंत:पुर के विशिष्ट व्यवहार क्रमश: वर्णित हैं। पंचम अधिकरण (पारदारिक) परदारा को वश में लाने का विशद वर्णन करता है जिसमें दूती के कार्यों का एक सर्वांगपूर्ण चित्र हमें यहाँ उपलब्ध होता है। षष्ठ अधिकतरण (वैशिक) में वेश्याओं, के आचरण, क्रियाकलाप, धनिकों को वश में करने के हथकंडे आदि वर्णित हैं। सप्तम अधिकरण (औपनिषदिक) का विषय वैद्यक शास्त्र से संबद्ध है। यहाँ उन औषधों का वर्णन है जिनका प्रयोग और सेवन करने से शरीर के दोनों वस्तुओं की, शोभा और शक्ति की, विशेष अभिवृद्धि होती है। इस उपायों के वैद्यक शास्त्र में 'बृष्ययोग' कहा गया है। (१) साधारणम् १.१ शास्त्रसंग्रहः १.२ त्रिवर्गप्रतिपत्तिः १.३ विद्यासमुद्देशः १.४ नागरकवृत्तम् १.५ नायकसहायदूतीकर्मविमर्शः (२) सांप्रयोगिकम् २.१ प्रमाणकालभावेभ्यो रतअवस्थापनम् २.२ आलिङ्गनविचार २.३ चुम्बनविकल्पाः २.४ नखरदनजातयः २.५ दशनच्छेद्यविहयो २.६ संवेशनप्रकाराश्चित्ररतानि २.७ प्रहणनप्रयोगास् तद्युक्ताश् च सीत्कृतक्रमाः २.८ पुरुषोपसृप्तानि पुरुषायितं २.९ औपरिष्टकं नवमो २.१० रतअरम्भअवसानिकं रतविशेषाः प्रणयकलहश् च (३) कन्यासंप्रयुक्तकम् ३.१ वरणसंविधानम् संबन्धनिश्चयः च ३.२ कन्याविस्रम्भणम् ३.३ बालायाम् उपक्रमाः इङ्गिताकारसूचनम् च ३.४ एकपुरुषाभियोगाः ३.५ विवाहयोग (४) भार्याधिकारिकम् ४.१ एकचारिणीवृत्तं प्रवासचर्या च ४.२ ज्येष्ठादिवृत्त (५) पारदारिकम् ५.१ स्त्रीपुरुषशीलवस्थापनं व्यावर्तनकारणाणि स्त्रीषु सिद्धाः पुरुषा अयत्नसाध्या योषितः ५.२ परिचयकारणान्य् अभियोगा छेच्केद् ५.३ भावपरीक्षा ५.४ दूतीकर्माणि ५.५ ईश्वरकामितं ५.६ आन्तःपुरिकं दाररक्षितकं (६) वैशिकम् ६.१ सहायगम्यागम्यचिन्ता गमनकारणं गम्योपावर्तनं ६.२ कान्तानुवृत्तं ६.३ अर्थागमोपाया विरक्तलिङ्गानि विरक्तप्रतिपत्तिर् निष्कासनक्रमास् ६.४ विशीर्णप्रतिसंधानं ६.५ लाभविशेषाः ६.६ अर्थानर्थनुबन्धसंशयविचारा वेश्याविशेषाश् च (७) औपनिषदिकम् ७.१ सुभगंकरणं वशीकरणं वृष्याश् च योगाः ७.२ नष्टरागप्रत्यानयनं वृद्धिविधयश् चित्राश् च योगा टीकाएँ संपादित करें कामसूत्र के ऊपर तीन टीकाएँ प्रसिद्ध हैं- (१) जयमंगला - प्रणेता का नाम यथार्थत: यशोधर है जिन्होंने वीसलदेव (१२४३-६१) के राज्यकाल में इसका निर्माण किया। (२) कंदर्पचूडामणि - बघेलवंशी राजा रामचंद्र के पुत्र वीरसिंहदेव रचित पद्यबद्ध टीका (रचनाकाल सं. १६३३; १५७७ ई.)। (३) कामसूत्रव्याख्या — भास्कर नरसिंह नामक काशीस्थ विद्वान् द्वारा १७८८ ई. में निर्मित टीका। काम-विषयक अन्य प्राचीन ग्रन्थ संपादित करें ज्योतिरीश्वर कृत पंचसायक :- मिथिला नरेश हरिसिंहदेव के सभापण्डित कविशेखर ज्योतिरीश्वर ने प्राचीन कामशास्त्रीय ग्रंथों के आधार ग्रहण कर इस ग्रंथ का प्रणयन किया। ३९६ श्लोकों एवं ७ सायकरूप अध्यायों में निबद्ध यह ग्रन्थ आलोचकों में पर्याप्त लोकप्रिय रहा है। पद्मश्रीज्ञान कृत नागरसर्वस्व:- कलामर्मज्ञ ब्राह्मण विद्वान वासुदेव से संप्रेरित होकर बौद्धभिक्षु पद्मश्रीज्ञान इस ग्रन्थ का प्रणयन किया था। यह ग्रन्थ ३१३ श्लोकों एवं ३८ परिच्छेदों में निबद्ध है। यह ग्रन्थ दामोदर गुप्त के "कुट्टनीमत" का निर्देश करता है और "नाटकलक्षणरत्नकोश" एवं "शार्ङ्गधरपद्धति" में स्वयंनिर्दिष्ट है। इसलिए इसका समय दशम शती का अंत में स्वीकृत है। जयदेव कृत रतिमंजरी :- ६० श्लोकों में निबद्ध अपने लघुकाय रूप में निर्मित यह ग्रंथ आलोचकों में पर्याप्त लोकप्रिय रहा है। यह ग्रन्थ डॉ॰ संकर्षण त्रिपाठी द्वारा हिन्दी भाष्य सहित चौखंबा विद्याभवन, वाराणसी से प्रकाशित है। कोक्कोक कृत रतिरहस्य :- यह ग्रन्थ कामसूत्र के पश्चात दूसरा ख्यातिलब्ध ग्रन्थ है। परम्परा कोक्कोक को कश्मीरी स्वीकारती है। कामसूत्र के सांप्रयोगिक, कन्यासंप्ररुक्तक, भार्याधिकारिक, पारदारिक एवं औपनिषदिक अधिकरणों के आधार पर पारिभद्र के पौत्र तथा तेजोक के पुत्र कोक्कोक द्वारा रचित इस ग्रन्थ ५५५ श्लोकों एवं १५ परिच्छेदों में निबद्ध है। इनके समय के बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि कोक्कोक सप्तम से दशम शतक के मध्य हुए थे। यह कृति जनमानस में इतनी प्रसिद्ध हुई सर्वसाधारण कामशास्त्र के पर्याय के रूप में "कोकशास्त्र" नाम प्रख्यात हो गया। कल्याणमल्ल कृत अनंगरंग:- मुस्लिम शासक लोदीवंशावतंश अहमदखान के पुत्र लाडखान के कुतूहलार्थ भूपमुनि के रूप में प्रसिद्ध कलाविदग्ध कल्याणमल्ल ने इस ग्रन्थ का प्रणयन किया था। यह ग्रन्थ ४२० श्लोकों एवं १० स्थलरूप अध्यायों में निबद्ध है। सन्दर्भ संपादित करें ↑ [http://www.totalpenishealth.com/article/kamasutra-myths-facts-and-how-it-can-benefit-your-sex-life Kama sutra – myths, facts, and how it can benefit your sex life ↑ Alain Daniélou, The Complete Kama Sutra: The First Unabridged Modern Translation of the Classic Indian Text, ISBN 978-0892815258.ref ↑ Common misconception #1: Kama Sutra is a sex manual ↑ Kama sutra – myths, facts, and how it can benefit your sex life इन्हें भी देखें संपादित करें धर्मशास्त्र कामशास्त्र अर्थशास्त्र नीतिशास्त्र बाहरी कड़ियाँ संपादित करें कामसूत्र का सरल हिन्दी अनुवाद वात्स्यायन कृत कामसूत्र, संस्कृत (देवनागरी) में कामसूत्र मूल संस्कृत (रोमन लिपि) में कामसूत्र का अंग्रेजी अनुवाद (पी डी एफ) वृहद वात्स्यायन कामसूत्र (गूगल पुस्तक) कामसूत्र वात्स्यायन कृत हिन्दी, संस्कृत (देवनागरी) में कामसूत्र का अंग्रेजी अनुवाद नारी कामसूत्र (गूगल पुस्तक ; लेखिका - डॉ विनोद वर्मा) कामसूत्र का उद्भव आज भी बरकरार कामसूत्र का सम्मोहन (वेबदुनिया) संवाद Last edited 8 days ago by Hcgh RELATED PAGES कामशास्त्र रतिरहस्य भारत का लैंगिक इतिहास सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो। गोपनीयताडेस्कटॉप

अष्ट मैथुन

Press question mark to see available shortcut keys 11 Naveen Hangout Public Jul 19, 2016  प्रश्न :- - शरीर को क्षीण करने वाले अष्ट मैथुन कौन कौन से हैं ? उत्तर :- - शारीरिक और मानसिक क्षीणता करने वाले ये अष्ट मैथुन हैं - - - (1) स्त्री का ध्यान करना , स्त्री के बारे में सोचते रहना कल्पना करते रहना । (2 ) कोई श्रृंगारिक , कामुक कथा का पढ़ना , सुनना । (3 ) अंगों का स्पर्श , स्त्री पुरुषों के द्वारा एक दूसरे के अंगों का स्पर्श करना । (4 ) श्रृंगारिक क्रीडाएँ करना । (5 ) आलिंगन करना । (6 ) दर्शन अर्थात नग्न चित्र या चलचित्र का दर्शन करना । (7 ) एकांतवास अर्थात अकेले में पड़े रहना । (8 ) समागम करना अर्थात यौन सम्बन्ध स्थापित करना । जो इन सभी मैथुनों को त्याग देता है वही ब्रह्मचारी है । Translate one plus one 1 2 comments 2 3 shares 3 Shared publicly•View activity Ashok Sharma Khhuhggh 19w Ashok Sachde एकदम सही बात। जो बात ईश्वर के ८४ लाख यौनियों मे कीसी भी जीव को सीखने की गरज नहीं वह बात "एक मनुष्य जीव योनिमें दूसरे मनुष्य जीव को बार बार बताते रहते है ऐसे क्यों करते हैं ? एक मनुष्य जीव दूसरे मनुष्य जीव के साथ ! जब के देखा जाएं तो दोनों स्त्री पुरूष इन्सान ही है। इन्सान शब्द लिंग भेद नहीं करता और लिंग शब्द का अर्थ है गति करवाना अर्थात ईश्वर अंश जीव की गति एक योनिद्वार से दूसरे योनिद्वार मे करवाना अर्थात पु. लिंग से स्त्री लिंग ऐसे जीव कि गति होती है। इस तरह मनुष्य जीव की गति मनुष्य योनिमें आ जाती है। लिंग शब्द वास्तविक रूप से संस्कृत भाषा से लीया गया है। और यह बात स्वामी विवेकानंद द्वारा बडे अच्छे से कहीं गई हैं। इस साइट पर जा कर पढ सकते हैं। ब्रह्मचर्य संबंधी भारतीय ज्ञान-परंपरा के सभी दावे सही हैं. उतने ही अकाट्य, जैसे गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत.वेदांत सिखाता है कि शक्ति शरीर में नहीं, आत्मा में है या मन की अवस्था में है. वेदांती मन किस शक्ति की साधना में लीन होता है- शरीर की या आत्मा की? जो आत्मशक्ति या मनोबल की साधना करेगा वह शरीर को शुद्ध रखेगा. सारी योग विधा शरीर शुद्धि और चित्त की शुद्धि के लिए- चित्त वृत्ति के निरोध के लिए है. prabhatkhabar.com - उठो, जागो और तब तक रुको नहीं, जब तक मंजिल न मिले उठो, जागो और तब तक रुको नहीं, जब तक मंजिल न मिले prabhatkhabar.com Translate 19w Add a comment...

ब्रह्मचर्य के लक्षण

#daduji
॥श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान,
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज

= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ अथ तृतीय उल्लास =

(४) ब्रह्मचर्य को लक्षण   पवंगम
ब्रह्मचर्य इहिं भाँति, भली बिधि पालिये ।
काम सु अष्ट प्रकार१, सही करिये टालिए ॥
बांधि काछ दृढ वीर, जती नहिं होइरे ।
और बात अब नांहिं, जितेन्द्रिय कोइरे ॥ १२ ॥
ब्रह्मचर्य का पालन नीचे लिखी विधि से भलीभाँति करना चाहिये । शास्त्र में बताये आठों प्रकार के मैथुनों का पूर्णतया त्याग कर देना चाहिये । जब तक साधक लंगोटी का पक्का, मैथुन-त्याग के प्रति दृढ संकल्प तथा संयतेन्द्रिय नहीं होगा, तब तक उसके लिए योग की अन्य बातें केवल कल्पना मात्र ही रहेंगी । अत: योगी को जितेन्द्रिय होना भी परमावश्यक है ॥ १२ ॥
{१-अष्टप्रकार मैथुन-(दक्षस्मृति अ० ७ श्‍लोक ३१-३२ ।)
‘श्रवणं स्मरणं चैव दर्शनं भाषणं तथा ।
गुह्यवार्ता हास्यरती स्पर्शनं चाष्टमैथुनम्’ ॥
ये आठ प्रकार के कर्म त्यागने से ही ब्रह्मचर्य रहता है; इन्द्रियछेदन, कुडकी डालना, लोहे वा पीतल की लंगोट आदि लगाना या नपुंसक करने की औषधि आदि खाना इत्यादि नीच कर्मों से नहीं ।}

अष्ट प्रकार मैथुन लक्षण         दोहा
नारी सरवन१ स्मरन पुनि, दृष्टि भाषिणं होइ ।
गुह्यवारता हास्य रति, बहुरि स्पर्शय कोइ ॥ १३ ॥
(प्रसंगवश आठ प्रकार के मैथुनों का भेद कर रहे हैं-) उनमें प्रथम है- नारी के विषय में सुनना, दूसरा है- उसका बार-बार स्मरण, तीसरा- उसका दर्शन, चौथा- उसके साथ सम्भाषण(बातचीत), पाँचवाँ- उससे एकान्त में मिलना, छठा- उसके साथ हँसी- मजाक, सातवाँ- उसके साथ काम- क्रीडा, और आठवाँ है उसका स्पर्श(उसके साथ सम्भोग) ॥ १३ ॥

सोरठा
शिष्य सुनिहिं यह भेद, मैथुन अष्ट प्रकार तजि ।
कहै मुनीश्‍वर बेद, ब्रह्मचर्य तब जांनिये ॥ १४ ॥
हे शिष्य ! तुमनें मैथुन के यह भेद समझ लिये, वेद तथा शास्त्रकार ॠषिमुनि इन आठों प्रकार के मैथुनों के सर्वथा त्याग को ही ब्रह्मचर्य कहते हैं । अर्थात् इस मैथुनत्याग से ही वास्तविक ब्रह्मचर्य पालन कहलाता है । दिखावे के लिए इन्द्रिय-छेदन आदि पाखण्डी लोगों की विधियों से ब्रह्मचर्य सिद्ध नहीं होता ॥ १४ ॥
(क्रमशः)

 8 चमत्कारी मंत्र

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आश्वलायन श्रौतसूत्र

Phonetic Go  देवनागरी खोज हिरण्यकेशी श्रौतसूत्र   कृष्णयजुर्वेद श्रौतसूत्रों के मध्य इसका स्थान आपस्तम्ब के अनन्तर है। 'वैजयन्ती' कार महादेव दीक्षित ने इसके रचयिता को नामकरण के यथार्थ अनुरूप बतलाते हुए सूत्रग्रन्थ को निगूढ भावों और अचर्चित विधियों से युक्त कहा है– 'अतीव गूढार्थ मनन्यदर्शितं न्यायैश्च युक्तं रचयन्नसौ पुन:। हिरण्यकेशीति यथार्थ नामभाग भूद्वरात्तुष्ट मुनीन्द्रसम्मतात्।।' भाष्य के उपोद्घातगत एक अन्य पद्य में सत्याषाढ को भगवान विष्णु का अवतार माना गया है– 'श्रीमद् भगवतो विष्णोरवतारेण सूत्रितम्। सत्याषाढेन ........।' व्याख्याकार महादेव ने ये सूचना भी अंकित की है कि उनके समय में ही यह सूत्र लुप्तप्राय था और कहीं–कहीं ही उपलब्ध था। दक्षिण में ताम्रपर्णी नदी के तटीय क्षेत्रों में इसका विशेष प्रचार था– लुप्तप्रायमिदं सूत्रं दैवादासीत् क्वचित् क्वचित्। दक्षिणस्यां ताम्रपर्ण्यास्तीरेष्विदमाहृतम्।। रचयिता तैत्तिरीय शाखा के ही अन्तर्गत हिरण्यकेशि उपशाखा है, जो सूत्र–भेद पर निर्भर है, संहिता–भेद पर नहीं। हिरण्यकेशि आचार्य को सत्यावलम्बन के कारण अपने पिता से सत्याषाढ नाम मिला था। वही इस सूत्र के प्रणेता माने जाते हैं। सम्पूर्ण हिरण्यकेशि कल्प में महादेव के अनुसार सत्ताईस प्रश्न हैं, जिनमें से दो (19–20) गृह्यसूत्र, एक (25वाँ) शुल्बसूत्र, दो धर्मसूत्र (26–27) माने जाते हैं। इस प्रकार श्रौतसूत्र की व्याप्ति कुल 22 प्रश्नों में है तथा प्रश्नों का अवान्तर विभाजन पटलों में है। इसकी विषय–वस्तु इस प्रकार है– प्रश्न 1 व 2– परिभाषा पूर्वक, प्रश्न 3– अग्न्याधेय, अग्निहोत्र और आग्रयण, प्रश्न 4– निरूढ पशुबन्ध, प्रश्न 5– चातुर्मास्य, प्रश्न 6– याजमान की सामान्य और विशेष विधि, प्रश्न 7 से 10– ज्योतिष्टोम, प्रश्न 11 व 12– अग्निचयन, प्रश्न 13– वाजपेय, राजसूय तथा चरक सौत्रामणी, प्रश्न 14– अश्वमेध, पुरुषमेध, सर्वमेध, प्रश्न 15– प्रायश्चित्त, प्रश्न 16– द्वादशाह, गवामयन (महाव्रत सहित), प्रश्न 17– अयन, एकाह, अहीन, प्रश्न 18– सत्रयाग, प्रश्न 19 से 21– होत्र, प्रवर, प्रश्न 22– कामेष्टियाँ तथा काम्यपशुयाग, प्रश्न 23– सौत्रामणी (कौकिली), सव, काठक चयन, प्रश्न 24– प्रवर्ग्य। भारद्वाज और आपस्तम्ब श्रौतसूत्रों का इस पर बहुत प्रभाव है। पितृमेध सूत्र तो सम्पूर्ण रूप से ही भारद्वाज का ले लिया गया है, जैसा कि महादेव जी का कथन है– 'पितृमेधस्तु भारद्वाजीयो मुनिना परिगृहीतौ द्वौ प्रश्नौ।' रचना–शैली यद्यपि इसकी रचना–शैली बहुत ही व्यवस्थित है, तथापि श्रौत कर्मों के मध्य गृह्यसूत्रों का समावेश कुछ अटपटा–सा लगता है। इस सन्दर्भ में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि 18वें प्रश्न तक सत्रान्त अधिकांश श्रौतयाग निरूपित हैं। यही स्थिति प्रवर्ग्य की भी है, जो बिल्कुल अंत में रखा गया है। 21वें प्रश्न में हौत्रसूत्रों के रूप में भी आपस्तम्ब श्रौतसूत्र के हौत्र परिशिष्ट की ही पुन: प्रस्तुति है। अनेक स्थलों पर सत्याषाढ श्रौतसूत्र में मैत्रायणी और काठक संहिताओं से भी मन्त्र गृहीत हैं। अश्वमेधीय प्रकरण में अश्व रक्षकों को अपने भोजन आदि के लिए अश्वमेध प्रक्रिया से अनभिज्ञ ब्राह्मणों को लूटने का निर्देश विचित्र प्रतीत होता है।[1] भाषा–शैली सत्याषाढ श्रौतसूत्र की भाषा–शैली में सरलता और स्पष्टता है। सूत्र–रचना में प्रसंग के अनुरूप लघुवाक्यता तथा दीर्घवाक्यता देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए ब्राह्मण ग्रन्थों के प्रतिपाद्य से सम्बद्ध ये सूत्र द्रष्टव्य हैं:– 'मन्त्रब्राह्मणयोर्वेद नामधेयम्, कर्मविधानं ब्राह्मणानि, तच्छेषोऽर्थवाद:, निन्दा–प्रशंसा, परकृति: पुराकल्पश्च'[2] व्याख्याएँ इस श्रौतसूत्र पर बहुसंख्यक व्याख्याएँ हैं, किन्तु दुर्भाग्य से सभी अपूर्ण हैं। प्रथम छह प्रश्नों तथा 21वें प्रश्न पर महादेव दीक्षितकृत 'वैजयन्ती' नाम्नी सुप्रसिद्ध व्याख्या मिलती है, जिसका विस्तृत उपोद्घात विशेष रूप से उल्लेखनीय है। श्रौतसूत्र की यह विशद व्याख्या उसे समझने में वास्तव में सर्वाधिक सहायक है। 7–10 प्रश्नों पर गोपीनाथ दीक्षित ने 'ज्योत्सना' व्याख्या लिखी है। महादेव शास्त्री (20वीं शती) की प्रयोग–चन्द्रिका 11–25 प्रश्नों पर है। प्रथम 10 प्रश्नों तथा 24वें प्रश्न पर हो. क. वाचेश्वर सुधी की व्याख्या उपलब्ध है। महादेव सोमयाजी ने इस सूत्र के अनुसार श्रौतसूत्रों की बहुसंख्यक पद्धति रची हैं। 'प्रयोगरत्नमाला' भी इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है। सत्याषाढ श्रौतसूत्र का आनन्दाश्रम पूना से केवल एक संस्करण ही सन् 1907 में प्रकाशित हुआ है, जिसका सम्पादन काशीनाथ शास्त्री आगाशे ने किया है। पन्ने की प्रगति अवस्था आधार प्रारम्भिक माध्यमिक पूर्णता शोध टीका टिप्पणी और संदर्भ ऊपर जायें ↑ सत्याषाढ श्रौतसूत्र 14.1.47 ऊपर जायें ↑ सत्याषाढ श्रौतसूत्र 1.1 संबंधित लेख देखें • वार्ता • बदलें श्रौतसूत्र ॠग्वेदीय श्रौतसूत्र शांखायन श्रौतसूत्र · आश्वलायन श्रौतसूत्र शुक्ल-कृष्ण यजुर्वेदीय बौधायन श्रौतसूत्र · भारद्वाज श्रौतसूत्र · आपस्तम्ब श्रौतसूत्र · वाधूल श्रौतसूत्र · मानव श्रौतसूत्र · वाराह श्रौतसूत्र · हिरण्यकेशी श्रौतसूत्र · वैखानस श्रौतसूत्र · कात्यायन श्रौतसूत्र सामवेदीय श्रौतसूत्र आर्षेय कल्पसूत्र · क्षुद्र कल्पसूत्र · लाट्यायन श्रौतसूत्र · द्राह्यायण श्रौतसूत्र · जैमिनीय श्रौतसूत्र अथर्ववेदीय श्रौतसूत्र वैतान श्रौतसूत्र श्रुतियाँ देखें • वार्ता • बदलें वेद वेद · संहिता · वैदिक काल · उत्तर वैदिक काल · वेद का स्वरूप · वैदिक वाङ्मय का शास्त्रीय स्वरूप · वेदों का रचना काल · ऋग्वेद · यजुर्वेद · सामवेद · अथर्ववेद · मनुसंहिता · वेदांग · वेदांत · ब्रह्मवेद · वैदिक धर्म देखें • वार्ता • बदलें उपवेद और वेदांग उपवेद अर्थवेद (ॠग्वेद) कामन्दक सूत्र · कौटिल्य अर्थशास्त्र · चाणक्य सूत्र · नीतिवाक्यमृतसूत्र · बृहस्पतेय अर्थाधिकारकम् · शुक्रनीति धनुर्वेद (दोनों यजुर्वेदों के लिए मुक्ति कल्पतरू · वृद्ध शारंगधर · 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शाकल्य

Toggle sidebar Jagran शाकल्य की सुगंध व वेदमंत्रों से गुंजायमान रहा वातावरण Fri Nov 25 01:03:45 IST 2011   उन्नाव, निप्र: गायत्री परिवार द्वारा मियागंज में आयोजित 1008 कुंडीय अश्वमेघ यज्ञ के चौथे दिन गुरुवार को आस्था का सैलाब उमड़ा। यज्ञ की वेदी पर आहुति देने के लिए श्रद्धालुओं में आपाधापी की स्थिति रही और वातावरण शाकल्य की सुगंध एवं वेदमंत्रों से गुंजायमान रहा। सड़क मार्गों से होकर हर दिशाओं से श्रद्धालुओं का प्रात: से अपराह्न तक आना जारी रहा। इससे श्रद्धालुओं को बारी-बारी से यज्ञ मंडप में ले जाया गया। मंडप का भव्य विशाल स्वरूप अपने में श्रद्धा एवं बौद्धिक क्रांति का केंद्र इन दिनों बना हुआ है। इस अवसर पर सायंकालीन सत्र में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन आदर्श की विशद विवेचना करते हुए हरिद्वार के बलराम सिंह परिहार ने अतीत कालीन भारतीय संस्कृति सभ्यता एवं प्राकृतिक संपदा की रक्षा करने की भाव भरी प्रेरणा दी। उन्होंने अपने देश भारत की परिवार व्यवस्था की श्रेष्ठता का वर्णन कर श्रद्धालुओं को परिवार व उसमें समाहित सामाजिक दायित्वों से जागरूक किया। उन्होंने नारी जीवन की पवित्रता बनाये रखने पर बल दिया। इसी के बाद सर्व धर्म समभाव के प्रतीक 24000 दीपों को प्रज्जवलित कर गायत्री परिवार का सबसे मनोहारी कार्यक्रम दीप यज्ञ संपन्न हुआ। कार्यक्रम मीडिया प्रभारी रविकांत बाजपेई ने बताया कि समूचा कार्यक्रम निर्विघ्न तथा अनुशासित संपन्न हुआ। कार्यक्रम का कलश पूजन ब्लाक प्रमुख बलवीर सिंह यादव, राम बरन कुरील, मोरल ग्रुप के चेयरमैन अजय शर्मा ने किया। आचार्य वरण खंड विकास अधिकारी आशुतोष दुबे, पप्पू गुप्त, रत्नेश, मिश्री लाल गुप्त, अन्नू अवस्थी व माता गायत्री की पूजा धरमू गुप्ता ने किया। दीप यज्ञ का दीपक क्षेत्राधिकारी हसनगंज, चिरंजीवी नाथ सिन्हा व जिला पंचायत सदस्य सुजाउरहमान सफवी ने दीप प्रज्जवलित कर भाईचारे का पैगाम दिया। यज्ञ आयोजक मुकेश कुमार गुप्त ने बताया कि कल 25 नवंबर को महापूर्णाहुति होगी जिसमें नारियल गोले से साधक पूर्णाहुति करेंगे। उन्होंने निवेदन किया है कि सभी याजक नारियल को काट कर उसमें घी, हवन सामग्री भरकर लायेंगे। मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर  ताज़ा ख़बर  RJD MLA को फिर आया कॉल, 20 लाख रुपये जल्दी दो नहीं तो अंजाम भुगतो  नशेड़ी पति पत्नी को बुलाकर ले गया बाथरूम, मुंह बंद कर रेत दिया गला  बिहार में बिखराव की कगार पर कांग्रेस, आइए नजर डालते हैं कारणों पर  सुविधा से हो रही असुविधा, किराया प्लेन का और सवारी ट्रेन की..जानिए जज्बा एेसा कि 98 साल की उम्र में किया MA, लिम्का बुक में दर्ज कराया नाम View more on Jagran Copyright © 2017 Jagran Prakashan Limited.

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Phonetic Go  देवनागरी खोज बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-3 ब्राह्मण-9   बृहदारण्यकोपनिषद के अध्याय तीसरा का यह नौवाँ ब्राह्मण है। मुख्य लेख : बृहदारण्यकोपनिषद शाकल्य विदग्ध अत्यन्त अभिमानी थे। उन्होंने अंहकार में भरकर याज्ञवल्क्य से प्रश्न पर प्रश्न करने प्रारम्भ कर दिये?' शाकल्य—'देवगण कितने हैं?' याज्ञ.—'तीन और तीन सौ, तीन और तीन सहस्त्र, अर्थात तीन हज़ार तीन सौ छह (3,306)।' शाकल्य—'देवता कितने हैं?' याज्ञ.—'तेंतीस (33)।' शाकल्य ने इसी प्रश्न को बार-बार पांच बार और दोहराया। इस पर याज्ञवल्क्य ने हर बार संख्या घटाते हुए देवताओं की संख्या क्रमश: छह, तीन, दो, डेढ़ और अन्त में एक बतायी। शाकल्य—'फिर वे तीन हज़ार तीन सौ छह देवगण कौन हैं?' याज्ञ.-'ये देवताओं की विभूतियां हैं। देवगण तो तेंतीस ही हैं।' शाकल्य-'वे कौन से हैं?' याज्ञ.-'आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इन्द्र और प्रजापति।' शाकल्य-'आठ वसु कौन से है?' याज्ञ.-'अग्नि, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्युलोक, चन्द्र और नक्षत्र। जगत् के सम्पूर्ण पदार्थ इनमें समाये हुए हैं। अत: ये वसुगण हैं।' शाकल्य—'ग्यारह रुद्र कौन से हैं?' याज्ञ.-'पुरुष में स्थित दस इन्द्रियां, एक आत्मा। मृत्यु के समय ये शरीर छोड़ जाते हैं और प्रियजन को रूलाते हैं। अत: ये रुद्र हैं।' शाकल्य-'बारह आदित्य कौन से है?' याज्ञ.-'वर्ष के बारह मास ही बारह आदित्य हैं।' शाकल्य—'इन्द्र और प्रजापति कौन हैं?' याज्ञ.-'गर्जन करने वाले मेघ 'इन्द्र' हैं और 'यज्ञ' ही 'प्रजापति' है। गर्जनशील मेघ 'विद्युत' है और 'पशु' ही यज्ञ है।' शाकल्य—'छह देवगण कौन से हैं?' याज्ञ.-'पृथ्वी, अग्नि, वायु, अन्तरिक्ष, द्यौ और आदित्य।' शाकल्य—'तीन देव कौन से हैं?' याज्ञ.-'तीन लोक- पृथ्वीलोक, स्वर्गलोक, पाताललोक। ये तीनों देवता हैं। इन्हीं में सब देवगण वास करते हैं।' शाकल्य-'दो देवता कौन से हैं?' याज्ञ.-'अन्न और प्राण ही वे दो देवता हैं।' शाकल्य-'वह डेढ़ देवता कौन है?' याज्ञ.-'वायु डेढ़ देवता है; क्योंकि यह बहता है और इसी में सब की वृद्धि है।' शाकल्य-'एक देव कौन सा है?' याज्ञ-'प्राण ही एकल देवता है। वही 'ब्रह्म' है, वही तत् (वह) है।' शाकल्य-'पृथ्वी जिसका शरीर है, अग्नि जिसका लोक है, मन जिसकी ज्योति है और जो समस्त जीवों का आत्मा है, आश्रय-रूप है, ब्रह्मज्ञ है, उस पुरुष को जानते हो?' याज्ञ.-'जानता हूं। वही इस शरीर में व्याप्त है।' शाकल्य-'उसका देवता कौन है?' याज्ञ.-'उसका देवता 'अमृत' है।' शाकल्य-'काम जिसका शरीर है, हृदय जिसका लोक है, मन ही जिसकी ज्योति है, जो समस्त जीवों का आत्मा है, उसे जानने वाला ब्रह्मज्ञानी कहलाता है। उसे जानते हो?' याज्ञ-'जानता हूं। वह 'काममय' पुरुष है और उसका देवता 'स्त्रियां' हैं।' शाकल्य-'रूप ही जिसका शरीर है, नेत्र ही लोक हैं, मन ही ज्योति है, जो सभी का आश्रय-रूप है, उसे जानने वाला सर्वज्ञाता होता है। क्या तुम उसे जानते हो? याज्ञ.-'जानता हूं। वह पुरुष 'आदित्य' है और 'सत्य' ही उसका देवता है।' शाकल्य-'आकाश जिसका शरीर है, श्रोत्र जिसका लोक, है, मन जिसकी ज्योति है, उस सर्वभूतात्मा को जानने वाला ब्रह्मज्ञानी होता है। उसे जानते हो?' याज्ञ.-'जानता हूं। वह 'प्रातिश्रुत्क' पुरुष है और 'दिशाएं' उसकी देवता है।' शाकल्य-'अन्धकार जिसका शरीर है, हृदय जिसका लोक है, मन जिसकी ज्योति है, उस सर्वभूतात्मा को जानने वाला ब्रह्मज्ञानी होता है। उसे जानते हो?' याज्ञ.-'जानता हूं। वह 'छायामय' पुरुष है और 'मृत्यु' उसका देवता है।' शाकल्य-'रूप जिसका शरीर है, चक्षु देखने की शक्ति है, मन ज्योति है, सर्वभूतों में स्थित आत्मा है, उसे जानने पर 'सर्वज्ञ' की संज्ञा प्राप्त होती है। उसे जानते हो?' याज्ञ.-'जानता हूं। वह वही पुरुष है, जो दर्पण में दिखाई देता है। उसका देवता 'प्राण' है।' शाकल्य-'वीर्य जिसका शरीर है, हृदय लोक है और मन ज्योति है। उस सर्वभूताश्रय पुरुष को जानने वाला सर्वज्ञाता होता है। उसे जानते हो?' याज्ञ.-'जानता हूं। वह 'पुत्र' रूप में पुरुष है। 'प्रजापति' उसका देवता है।' शाकल्य-'आप कुरु और पांचालप्रदेश के ब्राह्मणों का तिरस्कार करके स्वयं को ब्रह्मवेत्ता कहते हैं। क्या यह उचित है?' याज्ञ.-'मुझे देवताओं की प्रतिष्ठा के अनुसार दिशाओं का ज्ञान है।' शाकल्य-'फिर बताइये कि पूर्व में आप किस देवता से युक्त हैं और वह किसमें स्थित है?' याज्ञ.-'वहां मैं आदित्य देवता के साथ युक्त हूं और वह आदित्य 'चक्षु' में तथा चक्षु 'रूप' में स्थित है। वह रूप 'हृदय' में स्थित है; क्योंकि हृदय के द्वारा ही पुरुष को रूपों का ज्ञान होता है।' शाकल्य-'हे याज्ञवल्क्य! आप सत्य कहते हैं। दक्षिण दिशा में आप किस देवता से युक्त हैं और वह देवता किसमें स्थित है?' याज्ञ.-'यम देवता से और यम 'श्रद्धा' में स्थित है और श्रद्धा 'हृदय' में स्थित है; क्योंकि हृदय के द्वारा ही पुरुष श्रद्धा को जानता है।' शाकल्य-'सत्य है। पश्चिम दिशा में आप किस देवता से युक्त हैं और वह देवता किसमें स्थित है?' याज्ञ.-'वरुण देवता से युक्त हूं और वरुण देवता 'जल' में तथा जल 'वीर्य' में स्थित है। यह वीर्य 'हृदय' में स्थित है; क्योंकि पिता की इच्छानुसार ही पुत्र का जन्म होता है।' शाकल्य-'ठीक है। उत्तर दिशा में आप किस देवता से संयुक्त हैं और वह देवता किसमें स्थित है?' याज्ञ.-'सोम देवता से और सोम 'दीक्षा' में, दीक्षा 'सत्य' में और सत्य 'हृदय' में स्थित है; क्योंकि व्यक्ति हृदय से ही सत्य को जान पाता है।' शाकल्य-'आप ध्रुव दिशा में किस देवता से युक्त हैं और वह किसमें स्थित है?' याज्ञ.-'अग्निदेव से और अग्निदेव 'वाक्' (वाणी) में, वाक् 'हृदय' में स्थित है; क्योंकि हृदय से ही वाणी उत्पन्न होती है।' शाकल्य-'यह हृदय किसमें स्थित है?' याज्ञ.-'अरे प्रेत! तू हृदय को हमसे पृथक् मानता है? मूर्ख! हृदयहीन शरीर को तो कुत्ते और पक्षी नोंच-नोंचकर खा जाते हैं।' शाकल्य-'आप क्रोधित न हों। यह बतायें कि यह शरीर और हृदय (आत्मा) किसमें प्रतिष्ठित हैं?' याज्ञ.-'ये प्राण में स्थित हैं। प्राण 'अपान' में, अपान 'व्यान' में, व्यान 'उदान' में, उदान 'समान' में स्थित है। यह 'आत्मा' नेति-नेति कहा जाता है। इसे न तो ग्रहण किया जा सकता है, न विनष्ट किया जा सकता हैं यह संग-रहित, अव्यवव्थित और अहिंसित है। इसके आठ शरीर, आठ देवता और आठ पुरुष हैं। यह व्यष्टि-रूप होकर, इन पुरुषों को अपने हृदय में रखकर सभी उपाधि-रूप धर्मों का अतिक्रमण किये रहता है। उपनिषद द्वारा ज्ञात उस पुरुष के बारे में आप मुझे बतायें, अन्यथा आपका मस्तक गिर जायेगा।' शाकल्य उस पुरुष के विषय में कुछ नहीं बता सकां इसलिए उसका मस्तक गिर गया, अर्थात वह भरी सभा में अपमानित हो गया। फिर किसी का भी साहस याज्ञवल्क्य से प्रश्न करने का नहीं हुआ। पन्ने की प्रगति अवस्था आधार प्रारम्भिक माध्यमिक पूर्णता शोध टीका टिप्पणी और संदर्भ संबंधित लेख बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-1 ब्राह्मण-1 | ब्राह्मण-2 | ब्राह्मण-3 | ब्राह्मण-4 | ब्राह्मण-5 | ब्राह्मण-6 बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-2 ब्राह्मण-1 | ब्राह्मण-2 | ब्राह्मण-3 | ब्राह्मण-4 | ब्राह्मण-5 | ब्राह्मण-6 बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-3 ब्राह्मण-1 | ब्राह्मण-2 | ब्राह्मण-3 | ब्राह्मण-4 | ब्राह्मण-5 | ब्राह्मण-6 | ब्राह्मण-7 | ब्राह्मण-8 | ब्राह्मण-9 बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-4 ब्राह्मण-1 | ब्राह्मण-2 | ब्राह्मण-3 | ब्राह्मण-4 | ब्राह्मण-5 | ब्राह्मण-6 बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-5 ब्राह्मण-1 | ब्राह्मण-2 | ब्राह्मण-3 से 4 | ब्राह्मण-5 से 12 | ब्राह्मण-13 | ब्राह्मण-14 | ब्राह्मण-15 बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-6 ब्राह्मण-1 | ब्राह्मण-2 | ब्राह्मण-3 | ब्राह्मण-4 | ब्राह्मण-5 वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज अ   आ    इ    ई    उ    ऊ    ए    ऐ    ओ   औ    अं    क   ख    ग    घ    ङ    च    छ    ज    झ    ञ    ट    ठ    ड   ढ    ण    त    थ    द    ध    न    प    फ    ब    भ    म    य    र    ल    व    श    ष    स    ह    क्ष    त्र    ज्ञ    ऋ    ॠ    ऑ    श्र   अः श्रेणियाँ: प्रारम्भिक अवस्थाबृहदारण्यकोपनिषदहिन्दू दर्शनउपनिषदसंस्कृत साहित्यदर्शन कोश To the top गणराज्य इतिहास पर्यटन साहित्य धर्म संस्कृति दर्शन कला भूगोल विज्ञान खेल सभी विषय भारतकोश सम्पादकीय भारतकोश कॅलण्डर सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी ब्लॉग संपर्क करें योगदान करें भारतकोश के बारे में अस्वीकरण भारतखोज ब्रज डिस्कवरी © 2017 सर्वाधिकार सुरक्षित भारतकोश

शाकल्य

Phonetic Go  देवनागरी खोज शाकल्य   शाकल्य प्राचीन समय के एक ऋषि थे, जो जांगल के पिता थे।[1] 'शतपथ ब्राह्मण' में शाकल्य का दूसरा नाम विदग्ध भी मिलता है। इन्होंने ऋग्वेद का पदपाठ पहले-पहल ठीक किया और वाक्यों की सन्धियाँ तोड़कर पदों को अलग-अलग स्मरण करने की पद्धति चलायी। 'स्कंद पुराण' के अनुसार पांड्य नरेश शंकर ने व्याघ्र के भ्रम में पत्नी सहित इनका वध कर दिया था।[2] विदेह के राजा जनक के यहाँ शाकल्य सभापण्डित और याज्ञवल्क्य के प्रतिद्वन्द्वी थे। पन्ने की प्रगति अवस्था आधार प्रारम्भिक माध्यमिक पूर्णता शोध टीका टिप्पणी और संदर्भ ↑ पौराणिक कोश |लेखक: राणा प्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 492 | ↑ स्कंद पुराण ब्राह्म. सेतु-माहत्म्य संबंधित लेख देखें • वार्ता • बदलें पौराणिक चरित्र अंगज · अश्विनी · अंगजा · अश्वकेतु · कार्तवीर्य अर्जुन · अगस्त्य · कृतवीर्य · अनुसूया · संवरण · अनरण्य · अंगिरा · अचल · अंगद · अंगद (लक्ष्मण पुत्र) · अग्निदेव · अक्रूर · महर्षि अत्रि · अघासुर · अदिति · अधिरथ · अनिरुद्ध · अपाला · अप्सरा · अभिमन्यु · 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आश्वलायन

ऋग्वेदीय श्रौतसूत्र --- आश्वलायन श्रौतसूत्र
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इसमें होता के द्वारा प्रतिपाद्य विषयों का वर्णन है । इसके रचयिता आश्वलायन ऋषि गैंग ।

आश्वलायन को शौनक आचार्य का शिष्य माना जाता है । आश्वलायन गृह्यसूत्र का रचयिता भी आश्वलायन को माना जाता है ।

इस श्रौतसूत्र का सम्बन्ध ऋग्वेद की शाकल और बाष्कल दोनों शाखाओं से है । इसमें १२ अध्याय हैं ।

इसके वर्ण्य विषयों में मुख्य याग ये हैं :--- दर्श-पूर्णमास , अग्न्याधैय, अग्निहोत्र, आग्रयणेष्टि, काम्य इष्टियाँ, चातुर्मास्य , सौत्रामणी, ज्योतिष्टोम , सत्रयाग, एकाह, अहीन याग, गवामयन आदि ।

इसके श्रौतयागों में ये ऋत्विज् होते हैं :--- होता, मैत्रावरुण,  अच्छावाक और ग्रावस्तुत ।

इनके कार्यकलाप का इनमें वर्णन है । ब्रह्मा और यजमान के भी कर्त्तव्य निर्दिष्ट हैं । ऋग्वेद के मन्त्र प्रतीक रूप मेम दिए गए हैं । इसमें ऐतरेय ब्राह्मण में निर्दिष्ट कर्मों से सम्बद्ध सामग्री अधिक है ।