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॥श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान,
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ अथ तृतीय उल्लास =
(४) ब्रह्मचर्य को लक्षण पवंगम
ब्रह्मचर्य इहिं भाँति, भली बिधि पालिये ।
काम सु अष्ट प्रकार१, सही करिये टालिए ॥
बांधि काछ दृढ वीर, जती नहिं होइरे ।
और बात अब नांहिं, जितेन्द्रिय कोइरे ॥ १२ ॥
ब्रह्मचर्य का पालन नीचे लिखी विधि से भलीभाँति करना चाहिये । शास्त्र में बताये आठों प्रकार के मैथुनों का पूर्णतया त्याग कर देना चाहिये । जब तक साधक लंगोटी का पक्का, मैथुन-त्याग के प्रति दृढ संकल्प तथा संयतेन्द्रिय नहीं होगा, तब तक उसके लिए योग की अन्य बातें केवल कल्पना मात्र ही रहेंगी । अत: योगी को जितेन्द्रिय होना भी परमावश्यक है ॥ १२ ॥
{१-अष्टप्रकार मैथुन-(दक्षस्मृति अ० ७ श्लोक ३१-३२ ।)
‘श्रवणं स्मरणं चैव दर्शनं भाषणं तथा ।
गुह्यवार्ता हास्यरती स्पर्शनं चाष्टमैथुनम्’ ॥
ये आठ प्रकार के कर्म त्यागने से ही ब्रह्मचर्य रहता है; इन्द्रियछेदन, कुडकी डालना, लोहे वा पीतल की लंगोट आदि लगाना या नपुंसक करने की औषधि आदि खाना इत्यादि नीच कर्मों से नहीं ।}
अष्ट प्रकार मैथुन लक्षण दोहा
नारी सरवन१ स्मरन पुनि, दृष्टि भाषिणं होइ ।
गुह्यवारता हास्य रति, बहुरि स्पर्शय कोइ ॥ १३ ॥
(प्रसंगवश आठ प्रकार के मैथुनों का भेद कर रहे हैं-) उनमें प्रथम है- नारी के विषय में सुनना, दूसरा है- उसका बार-बार स्मरण, तीसरा- उसका दर्शन, चौथा- उसके साथ सम्भाषण(बातचीत), पाँचवाँ- उससे एकान्त में मिलना, छठा- उसके साथ हँसी- मजाक, सातवाँ- उसके साथ काम- क्रीडा, और आठवाँ है उसका स्पर्श(उसके साथ सम्भोग) ॥ १३ ॥
सोरठा
शिष्य सुनिहिं यह भेद, मैथुन अष्ट प्रकार तजि ।
कहै मुनीश्वर बेद, ब्रह्मचर्य तब जांनिये ॥ १४ ॥
हे शिष्य ! तुमनें मैथुन के यह भेद समझ लिये, वेद तथा शास्त्रकार ॠषिमुनि इन आठों प्रकार के मैथुनों के सर्वथा त्याग को ही ब्रह्मचर्य कहते हैं । अर्थात् इस मैथुनत्याग से ही वास्तविक ब्रह्मचर्य पालन कहलाता है । दिखावे के लिए इन्द्रिय-छेदन आदि पाखण्डी लोगों की विधियों से ब्रह्मचर्य सिद्ध नहीं होता ॥ १४ ॥
(क्रमशः)
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